कहने को तो भारत कृषि प्रधान देशों की श्रेणी में आता है, इसके बावजूद हम गेहूं से लेकर अन्य खाद्य पदार्थों का आयात करने पर मजबूर हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे पास अन्न पैदा करने के लिए उपजाऊ भूमि और अन्य साधनों की कमी है। यहां तो 800 एकड़ कृषि योग्य भूमि ही बीहड़ों में तब्दील होकर बर्बाद हो रही है। मनुष्य धरती की संतान है, इसलिए मनुष्य सब कुछ पैदा कर सकता है, लेकिन धरती पैदा नहीं कर सकता है। दुनिया में और खासकर हमारे देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। अनुमान है कि भारत की जनसंख्या 2020 तक 125 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में धरती की कमी हमारे लिए एक समस्या बन सकती है। ऐसे में बर्बाद हो रही या उजाड़ हो रही बीहड़ भूमि को समतल बनाकर उसे मनुष्य के काम आने लायक रूप देना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में चंबल नदी के कछार में एल्यूवियल मिट्टी के कारण लाखों हेक्टेयर भूमि उबड़-खाबड़ होकर बीहड़ के रूप में व्यर्थ पड़ी हुई है। इसके साथ ही भूमि में कटाव के कारण हर साल हज़ारों एकड़ उपजाऊ भूमि बीहड़ में तब्दील हो रही है। मध्य प्रदेश में 6.30 लाख हेक्टेयर बीहड़ भूमि है, जिसका अधिकांश भाग मध्य प्रदेश के उत्तरी अंचल में बसे ज़िला भिंड, मुरैना एवं श्योपुर में स्थित है।
भिंड मुरैना एवं श्योपुर ज़िलों में ही हर वर्ष लगभग 800 हेक्टेयर भूमि बीहड़ के रूप में परिवर्तित हो जाती है जिसकी अनुमानित क़ीमत लगभग 400 करोड़ रुपये है। उत्तर मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश राजस्थान के लगे हुए ज़िले इटावा, उरई, जालौन, आगरा, धौलपुर, भरतपुर आदि का यह अंचल यहां डाकुओं के आतंक से जाना जाता है। वहीं दूसरी ओर प्रकृति के प्रकोप से यह अभिशाप बीहड़ बाहुल्य क्षेत्र के नाम से भी जाना जाने लगा है। सामाजिक एवं सर्वोदय कार्यकर्ताओं के प्रयासों से इस क्षेत्र में डाकुओं द्वारा आत्म समर्पण के कारण मुक्ति मिल जाने से एक नई आशा की किरण का उदय हुआ है। परंतु इस आशा की किरण का पूर्ण लाभ इस क्षेत्र की जनता को तब तक प्राप्त नहीं होगा, जब तक सदियों से बने बीहड़ों को कृषि भूमि एवं वन भूमि में नहीं बदल दिया जाता, जिसकी अभी तक गंभीर उपेक्षा हुई है। चंबल संभाग के भिंड, मुरैना, श्योपुर ज़िलों में चंबल, सिंध, क्वारी, बेसली, सीप, सोन, कूनों एवं इनकी सहायक नदियों द्वारा अत्यंत उपजाऊ भूमि को बीहड़ों में परिवर्तित कर दिया गया है। संभाग के 16.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग 3.10 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ों में रुपांतरित हो चुकी है जो कि संभाग के संपूर्ण क्षेत्र का लगभग 20 प्रतिशत है, जिसकी क़ीमत खरबों रुपये हैं। यह भी अनुमानित है कि लगभग 800 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि प्रति वर्ष बीहड़ में बदलती जा रही है। यदि बीहड़ भूमि को बीहड़ बनने से नहीं रोका गया तो अगली शताब्दी तक भिंड, मुरैना, श्योपुर ज़िले पूरी तरह से बीहड़ में परिवर्तित हो जाएंगे एवं इस बीहड़ की सीमा ग्वालियर एवं दतिया ज़िलों को छूने लगेगी।
चंबल संभाग की अधिकांश भूमि एल्यूवियल होकर भी हल्के किस्म की है। इस भूमि में रेत,सिल्क, मिट्टी, कंकड़ मिला हुआ है। बरसात होने पर पानी पूरी तरह से भूमि के अंदर नहीं जाता, अपितु ढाल पर ही बहने लगता है। पहले छोटी नाली बनती है, धीरे-धीरे बड़ी नाली में, फिर गहरे नालों में और अंत में बीहड़ों का रूप लेती चली जाती है। भिंड, मुरैना, श्योपुर ज़िलों में अलग-अलग गहराई के बीहड़ हैं। 0 से 1.5 मीटर गहराई के 0.738 लाख हेक्टेयर, 1.5 से 5 मीटर के 1.265 लाख हेक्टेयर, 5 मीटर से 10 मीटर की गहराई के 0.615 लाख है एवं 10 मीटर से अधिक गहराई के 0.489 लाख हेक्टेयर बीहड़ भूमि अनुमानित है। पूर्व ग्वालियर स्टेट के बंदोबस्त के अनुसार मुरैना तहसील का बीहड़ का क्षेत्रफल तहसील के कुल क्षेत्रफल का 21 प्रतिशत था, जबकि वर्ष 1989 में यह बीहड़ क्षेत्र लगभग दो गुना होकर 42 प्रतिशत हो गया था। इसी प्रकार भिंड तहसील के कुल क्षेत्रफल का 49 प्रतिशत बीहड़ क्षेत्रफल है जो कि अब बीहड़ बनने की तीव्र रफ्तार एवं बीहड़ रोकने के गंभीर उपाय न होने से अब यह बीहड़ क्षेत्रफल लगभग तिगुना हो गया होगा।
50 गांवों का अस्तित्व ख़तरे में
चंबल, कछार में अब तक भूमि के कटाव से जो नुकसान हो चुका, उसे अनदेखा किया जाता रहा है लेकिन आगे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं, यह चिंता का विषय है। जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के भूगर्भ शास्त्र विभाग द्वारा किए गए शोधकार्य से पता चला है कि चंबल घाटी में जिन 213 गांवों का अध्ययन किया गया, उनमें से 14 गांव तो उजड़ने की कगार पर हैं, क्योंकि बीहड़ इन गांवों से केवल 100 मीटर दूर रह गए हैं और ये बीहड़ कभी भी फैलकर इन गांवों को लील सकते हैं। इनके अलावा 23 गांवों में बीहड़ अभी 200 मीटर दूर हैं और 13 गांवों में 500 मीटर दूर बने बीहड़ इन गांवों को लीलने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। सेटेलाईट चित्रों से इन गांवों की तस्वीर आई है।
भूगर्भ अध्ययन शाला, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के विभाग प्रमुख प्रोफेसर एसएन महापात्रा का कहना है कि शोधकार्य से यह पता चला है कि चंबलघाटी में हो रहे मिट्टी के अपरदन की वज़ह से लगभग 50 गांवों पर बीहड़ में तब्दील होने का ख़तरा मंडरा रहा है। अब इस बात को लेकर शोध किया जा रहा है कि मिट्टी के कटाव को कैसे रोका जा सके। बीहड़ के नज़दीकी गांव खुशहाली और समृद्धि से कोसो दूर हैं। मिट्टी के लगातार कटाव से किसानों की स्थिति दयनीय हो गई है। कृषि योग्य भूमि लगातार बीहड़ों में बदलती जा रही है, ऐसे में इन गांवों के किसानों का जीवन का़फी कठिन और समस्याग्रस्त हो गया है। इस समस्या से चिंतित शोधकर्ता अब इस अध्ययन में जुटे हैं कि ऐसा कौन सा उपाय किया जाए कि घाटी का कटाव रुक जाए और हज़ारों घर बर्बाद होने से बच जाए। हालांकि शोधकर्ताओं को भरोसा है कि वे जल्दी ही किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे, जिससे इन गांवों को बीहड़ बनकर उजड़ने से रोक लिया जाएगा। मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस, आर्गेनिक कार्बन, पोटेशियम, पीएच जिसमें हाईड्रोजन आयंस होते हैं। मृदा की अम्लीय एवं क्षारीय स्थिति को स्पष्ट करते हैं। बारिश होने पर मृदा में मौजूद ये पोषक तत्व बह जाते हैं।