हमारी थाली-पत्तल में जो कुछ भी परोसा जाता है उसका 90 फीसदी बस केवल 30 पौधों में से आता है। इनमें भी केवल तीन पौधे-गेहूँ, चावल और मक्का-हमारे कुल भोजन का 75 फीसदी भाग जुटाते हैं। लेकिन प्रागैतिहासिक लोग स्वाद के मामले में इतने ‘गरीब’ नहीं थे। बीजों के जानकार बताते हैं कि हमारे पूर्वज कोई 1500 से 2000 तरह के पौधों से अपना भोजन चुनते थे। पर फिर खेती की खोज के साथ-साथ पौधों की विविधता घटती चली गई और कुल मिलाकर खेती का इतिहास तरह-तरह के स्वाद की कंजूसी का इतिहास बन गया।
अभी इधर हम हरी क्रान्ति के नुकसान-लाभ की कोई ठीक बहस भी नहीं चला पाये हैं कि उधर हरी क्रान्ति लादने वाले हम जैसे देशों को एक और भयानक धन्धे में झोंकने की तैयारी पूरी कर चुके हैं। हरी क्रान्ति का यह ‘दूसरा चरण’ हमारे बीजों की नींव पर खड़ा हुआ है और इस चरण में उत्तरी दुनिया के अमीर देशों की कुछ इनी-गिनी कम्पनियों ने कोई 500 अरब रुपए लगाए हैं।कई देशों में धन्धा करने वाली ये दादा कम्पनियाँ बीज के धन्धे में इसलिये नहीं उतरी हैं कि उन्हें दुनिया की खेती सुधारनी है, फसल बढ़ानी है और भुखमरी से निपटना है। इनका पहला और आखिरी लक्ष्य है दुनिया की खेती को अपने हाथ में समेट कर उसका फायदा अपनी जेब में डालना।
हरी क्रान्ति ने पिछले 14 सालों में अपना हल-बखर चला कर तीसरी दुनिया के देशों में इस नए बीज-धन्धे को बोने के लिये खेत तैयार कर लिया है। ‘ज्यादा फसल’ देने वाले बीजों के साथ अनिवार्य रूप से आने वाली बनावटी खाद और कीटनाशकों के पिटारों ने इन दादा कम्पनियों की आँख खोल दी है और इसलिये अब उनकी आँखों में खटक रहा है वह साधारण छोटा-सा देशी बीज, जो कभी भी उनको चुनौती दे सकता है। इसलिये अब उसको तीसरी दुनिया के हर खेत से हटाने और उसके बदले कम्पनी के ‘प्रामाणिक उत्तम बीज’ ठूँसने की भारी कोशिशें की जा रही हैं।
बीजों के भीमकाय सौदे को समझने के लिये हमें पहले बीज के रहस्य को समझना होगा। धरती के गिने जाने लायक कोई तीन लाख पौधों में से अब तक बस कोई 30,000 पौधों का सरसरी तौर पर अध्ययन हो पाया है। इनमें से कोई 3000 पौधों पर थोड़ा ज्यादा काम हुआ है।
हमारी थाली-पत्तल में जो कुछ भी परोसा जाता है उसका 90 फीसदी बस केवल 30 पौधों में से आता है। इनमें भी केवल तीन पौधे-गेहूँ, चावल और मक्का-हमारे कुल भोजन का 75 फीसदी भाग जुटाते हैं। लेकिन प्रागैतिहासिक लोग स्वाद के मामले में इतने ‘गरीब’ नहीं थे। बीजों के जानकार बताते हैं कि हमारे पूर्वज कोई 1500 से 2000 तरह के पौधों से अपना भोजन चुनते थे। पर फिर खेती की खोज के साथ-साथ पौधों की विविधता घटती चली गई और कुल मिलाकर खेती का इतिहास तरह-तरह के स्वाद की कंजूसी का इतिहास बन गया।
खाना जुटाने वाले पौधों के प्रकार जरूर सिकुड़ते गए पर तीसरी दुनिया के देशों में इन सीमित फसलों में भी गजब की विविधता कायम रही। यह बहुत जरूरी थी। एक ही किस्म का गेहूँ, धान या दाल मौसम के बदलते रूप, कीड़ों के हमले या अगमारी जैसे फसलों के रोगों के आगे टिक नहीं सकते थे। इसलिये पिछले नौ हजार सालों में तीसरी दुनिया के किसानों ने आज की गिनी-चुनी फसलों की हजारों किस्में खोजी थीं, उनको पाला था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनको आगे बढ़ाया था।
अब यह बात भी सब लोग जानने लगे हैं कि आज गरीब माने जाने वाले देश बीजों की किस्मों के मामले में बहुत ही अमीर रहे हैं और आज के अमीर देशों की प्लेटों पर परोसा जाने वाला भोजन इन्हीं ‘बीज-अमीर’ देशों से लाया गया था। अमीर दुनिया में आज बोए जा रहे बीजों के इतिहास में झाँकें तो हम भारत, बर्मा, मलेशिया, जावा, चीन, अफगानिस्तान, पेरू, ग्वाटेमाला व मैक्सिको के खेतों तक चले आएँगे।
पर आज ‘बीज-अमीर’ देश खतरे में हैं। अब तक हर खेत में फैली बीजों की विलक्षण विविधता गायब हो चली है-हरी क्रान्ति के लिये रास्ता बनाने में। आज से कोई 80 साल पहले भारत में केवल धान की ही 30,000 किस्में बोई जाती थीं। यानी हर दसवें-बारहवें खेत में धान की किस्म बदल जाती थी, बदल जाते थे कम या ज्यादा पानी सहने, कीड़ों, खरपतवारों से लड़ने के उसके गुण, उसका स्वाद। लेकिन अगले 15 सालों बाद हमारे पास सिर्फ 15 किस्में बच जाएँगी।
सैकड़ों सालों से अपनी तरह-तरह की प्याज के लिये प्रसिद्ध मिस्र में अब सिर्फ एक ही किस्म बाकी रह गई हैः उन्नत गीजा 6। सऊदी अरब ने तेल जरूर पा लिया है पर पिछले 30 सालों में उसने जौ की 70 प्रतिशत किस्में खो दी हैं। हरी क्रान्ति के महावत से दोस्ती करने के चक्कर में इन सभी देशों ने पीढ़ियों से सुरक्षित बीच-किलों की मजबूत दीवारें ढहाई हैं।
‘बीज-अमीर’ देशों की किस्मों में घुन लग गया है अब। जिन ‘बीज-गरीब’ देशों के कारण घुन लगा है अब उन्हीं देशों की सरकारें और दादा कम्पनियाँ इन देसी बीजों को बचाने की आवाज लगाने लगी हैं। इसके पीछे भी उनकी नीयत अच्छी नहीं है। उनके यहाँ से बनी उन्नत किस्म की प्रजातियाँ भी उन्हीं के कीटनाशक दवाओं के बावजूद नए तरह के कीड़ों के सामने गच्चा खा जाती हैं।
ऐसे में उन्नत बीज के दबदबे को बनाए रखने और कृषि विज्ञान का बिजूका गाड़े रखने के लिये उन्हें फिर से किसी पुराने मजबूत देसी बीज से संकर बीज बनाने की जरूरत आ पड़ती है। इसलिये देसी बीजों का भण्डार बनाने का काम शुरू हो गया है।
आज दुनिया भर में 11 केन्द्रों में भारी सुरक्षा और भारी तामझाम के बीच देसी बीजों के बैंक बने हैं। इनमें से कुछ तो सीधे-सीधे दादा कम्पनियों के बैंक हैं और जो कुछ संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य कार्यक्रम आदि जैसे सन्देह से परे संगठनों के भण्डार हैं, उनके भी अनुदान के इतिहास में जाएँ तो दो-तीन ‘दानवीर’ दादा कम्पनियाँ सामने आती हैं। संवर्धन की उनकी नीयत दो उदाहरणों में साफ हो जाती है।
अमीर देशों में फलों का धन्धा करने वाली ‘यूनाइटेड फूड कम्पनी’ ने पिछले दौर में केले की लुप्त हो रही किस्मों के संवर्धन का झंडा उठाया था। कम्पनी ने केलों की तीन-चौथाई किस्मों की रज जमा कर ली। इससे उसे जो कुछ नए प्रयोग करने थे कर लिये और फिर पिछले साल इन्हीं दिनों में एकाएक कह दिया कि अब वह केलों की रज का संवर्धन बन्द कर रही है।
इसी तरह रबर टायर आदि का धन्धा करने वाली फायरस्टोन कम्पनी ने एशिया, ब्राजील और श्रीलंका से रबर की लुप्त हो रही 700 किस्मों की रज जमा की और फिर बहुत दुख के साथ घोषणा की कि कुछ ‘अपहरिहार्य’ कारणों से रबर-रज शोध बन्द की जा रही है। ये उदाहरण हांडी के दो चावल हैं, बीजों के सौदागरों की पूरी हांडी ऐसे किस्मों से भरी पड़ी है।
बीजों की रज पर कब्जे का मतलब है-आपके-हमारे खेतों में बोए जाने से लेकर काट कर बेचे जाने तक के हर फैसले पर किसी और का नियंत्रण। रज हथिया लो, सब कुछ हाथ में आ जाएगा। बीजों की रज में छिपी है विराट सत्ता और अथाह सम्पत्ति। लेकिन यह ऐसे ही नहीं मिलेगी, इसलिये जैसे मिलेगी, उसका भी इन्तजाम किया जा रहा है।
ये सब दादा कम्पनियाँ अपने-अपने इलाकों में बीज-कानून पास करवा रही हैं। इससे उनके हाथों में किसी भी विशिष्ट किस्म के बीजों का एकाधिकार आ जाएगा-पौधों की अनुवांशिकता पर उनका हक हो जाएगा। वे इस पर अपनी कीमत लगा सकती हैं, रॉयल्टी कमा सकती हैं। ‘प्लांट ब्रीडर्स राइट’ नामक यह बेहद खतरनाक कानून दुनिया के बीजों को इन कम्पनियों की झोली में डाले दे रहा है।
बीजों में इन कम्पनियों की रुचि जगने के कुछ और भी मिले-जुले कारण हैं। विलियम टेवेलस एंड कम्पनी ने तो इस पूरे मामले पर एक मोटा पोथा ही तैयार कर लिया है- ‘द ग्लोबल सीड स्टडी’ नाम के इस पोथे की कीमत है 25000 अमेरिकी डॉलर। पोथे के एक-एक शब्द से शानदार मुनाफे की फसल काटी जा सकती है तभी तो यह बिक रही है।
बीजों में बढ़ती रुचि का एक अन्दाज इस धन्धे के केन्द्रीकरण से भी लग सकता है। दादा कम्पनियाँ बीज के धन्धे में लगी दो-चार छोटी कम्पनियों को हर साल अपने में विलीन कर रही हैं। इंग्लैंड में सन 80 के अन्त में ‘प्लांट ब्रीडर्स राइट’ कानून पास होने के आस-पास एक बड़ी कम्पनी ने कोई 100 छोटी कम्पनियों को पूरा-पूरा खरीद लिया था। ‘अपनी बीज कम्पनी कैसे बेचें?’ जैसी गोष्ठियाँ भी होने लगी हैं।
ये नए ‘बीजपति’ कौन हैं? वही जो अब तक दवाओं, पेट्रोल, रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं का धन्धा करते थे। पर्यावरण की बढ़ती चेतना से इनकी बदनामी भी बढ़ी थी, इसलिये अब ये अपना पैसा बीज जैसे ‘साफ’ धन्धे में लगा रहे हैं। सीबा-गायगी, यूनियन कार्बाइड, सेंडोज, एस्सो, शैल देखते-ही-देखते इस धन्धे में उतर आये हैं।
इस होड़ का हम सब पर क्या असर होगा? सदियों से विकेन्द्रित स्तर पर यानी अलग-अलग किसानों के घरों में बंडों, खन्तियों में सुरक्षित बीजों की किस्मों का अपहरण होगा। और फिर इन्हीं में से कुछ किस्में छाँटकर, उन्नत बनाकर हमें दी जाएँगी। पर दूल्हा अकेला नहीं आता, साथ पूरी बारात लाता है। तीसरी दुनिया के देशों में इससे रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का बाजार कोई दस गुणा तक बढ़ जाएगा।
बीज धंधे की बाढ़ आ रही है, पर हमने उससे बचने की अभी तक कोई तैयारी नहीं की है। 15 साल पहले देश के एक प्रसिद्ध (और अब बिल्कुल भुलाए जा चुके) धान विशेषज्ञ डॉ. राधेलाल रिछारिया ने देसी धान की शानदार मजबूत व स्वावलम्बी किस्मों की तरफदारी करते हुए विदेशी संकर किस्मों का विरोध किया था।
विरोध का यह पहला अंकुर उसी समय मसल दिया गया। श्री रिछारिया को धान शोध के रायपुर और कटक केन्द्रों से बाहर कर दिया गया। बहुत बाद में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने अपना धान-सलाहकार जरूर बनाया पर पूरे देश में खेतीबाड़ी की शोध चलाने या कहें चलवाने वालों को यह स्वीकार नहीं हुआ।
बीजों के सौदागरों के खिलाफ अब फिर से एक आवाज उठाने की कोशिश चली है। लेकिन यह आवाज कृषि पंडितों की ओर से नहीं, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से उठी है। प्रो. उपेन्द्र बक्शी एक साल से इस सारे मामले को उजागर करने वाला एक खुला पत्र जगह-जगह भेज रहे हैं।
मद्रास में ‘द स्किल्स’ नामक कलाकारों की एक संस्था ने बीजों के सौदागरों पर सुरुचिपूर्ण, लेकिन हिला देने वाले 15 पोस्टर बनाए हैं। इन्हें तैयार किया है चंद्रलेखा ने। चंद्रलेखा इन्हें लेकर विभिन्न गैर-सरकारी संस्थाओं, सभा-सम्मेलनों में दिखा रही हैं। अब तिलोनिया की एक सामाजिक संस्था के कुछ ग्रामीण कलाकार कठपुतलियों के जरिए राजस्थान में इसे उठाने जा रहे हैं।
जब तक अनाज के बारे में फैले-फैलाए गए कुछ भ्रम नहीं टूटते तब तक देसी बीजों की तरह इस देसी विचार को अनुकूल खेत नहीं मिल पाएगा। पहला भ्रम है आबादी का ‘विस्फोट’ और उससे निपटने के लिये हरी क्रान्ति का। दूसरा बड़ा भ्रम है कि अमीर देशों की भारी ऊर्जा जलाने वाली तकनीक अनाज के मामले में दुनिया को बेफिक्र कर सकती है। तीसरा भ्रम है कि खेती को एक बड़े धन्धे में बदलने वाली दादा कम्पनियाँ अपने नए, उन्नत, एक से गुण (या अवगुण) वाले बीजों से हमें तार लेंगी।
खेती का पवित्र रहस्य और उसकी सृजनशीलता वहीं है जहाँ वह हमेशा से रही है-किसान परिवारों में। ये ही किसान धरती के बीजों को सुरक्षित रखे आ रहे हैं, भविष्य में भी ये ही उन्हें सुरक्षित रख पाएँगे, बीजों के सौदागर नहीं।
साफ माथे का समाज (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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