दुनिया में पानी की मात्रा बहुत ही सीमित है. इस पर ज़िंदा रहने वाली मानव जाति और दूसरी प्रजातियों को इस बात की उम्मीद नही रखनी चाहिए कि उन्हें हमेशा पानी मिलता रहेगा. धरती का दो-तिहाई हिस्सा पानी से घिरा है. लेकिन इसमें से ज़्यादातर हिस्सा इतना खारा है कि उसे काम में नहीं ला सकते.
सिर्फ ढाई फ़ीसदी पानी ही खारा नहीं है. हैरानी की बात ये है कि इस ढाई फ़ीसदी मीठे पानी का भी दो-तिहाई हिस्सा बर्फ़ के रूप में पहाड़ों और झीलों में जमा हुआ है. अब जो बाकी बचता है उसका भी 20 फ़ीसदी हिस्सा दूर-दराज़ के इलाक़ों में है. बाकी का मीठा पानी ग़लत वक़्त और जगह पर आता है मसलन मानसून या बाढ़ से. कुल जमा बात ये है कि दुनिया में जितना पानी है उसका सिर्फ़ 0.08 फ़ीसदी इंसानों के लिए मुहैया है. इसके बावजूद अंदाज़ा है कि अगले बीस वर्षों में हमारी माँग करीब चालीस फ़ीसदी बढ़ जाएगी.
गंभीर जल संकट
संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूएनईपी ने 1999 में एक रिपोर्ट पेश की थी. इसमें कहा गया था कि पचास देशों में 200 से भी ज़्यादा वैज्ञानिकों ने पानी की कमी को नई शताब्दी की दो सबसे गंभीर समस्याओं में से एक बताया था. दूसरी समस्या धरती का बढ़ता तापमान थी. हम अपने पास उपलब्ध पानी का 70 फ़ीसदी खेती-बाड़ी में इस्तेमाल करते हैं. लेकिन विश्व जल परिषद का मानना है कि सन् 2020 तक पूरी दुनिया को खाना खिलाने के लिए हमें अभी मौजूद पानी से 17 फ़ीसदी ज़्यादा पानी चाहिएगा. हम इसी ढर्रे पर चलते रहे तो आने वाले दिनों में आज के मुक़ाबले ऐसे लाखों लोग ज़्यादा होंगे जो हर रात सोते वक्ते भूखे-प्यासे होंगे.आज पूरी दुनिया में हर पाँच में से एक आदमी को पीने के साफ़ पानी की सुविधा नही है. हर दो में से एक को साफ़-सुधरे शौचालय की सुविधा नहीं है. हर रोज़ क़रीब तीस हज़ार बच्चे पांच साल की उम्र पूरी कर पाने से पहले ही मर जाते हैं. इनकी मौत या तो भूख से या फिर उन बीमारियों से होती हैं जिनकी आसानी से रोक-थाम की जा सकती थी. पीने का साफ़ पानी अच्छी सेहत और खुराक की चाबी है. जैसे चीन में एक टन चावल पैदा करने के लिए एक हज़ार टन पानी का इस्तेमाल होता है. .
अक्षमता
जल संकट के कई कारण हैं. एक तो बड़ा ही साफ़ है. जनसंख्या में बढोत्तरी और जीवन का स्तर ऊँचा करने की चाह. दूसरा है पानी को इस्तेमाल करने के तरीक़े के बारे में हमारी अक्षमता. सिँचाई के कुछ तरीक़ों में फ़सलों तक पानी पहुंचने से पहले ही हवा हो जाता है. प्रदूषण की वजह से हमें अभी जो पानी उपलब्ध है वो भी गंदा होता जा रहा है. मध्य एशिया में अराल समुद्र एक ऐसा ही उदहारण है कि किस तरह प्रदूषण ज़मीन और पानी को बर्बाद कर सकता है. दिलचस्प बात ये है कि सरकारें पानी की अपनी समस्याओं को बरसाती पानी और धरती पर मौजूद पानी पर निर्भरता बढ़ाने के बजाए भूमिगत पानी का इस्तेमाल कर सुलझाना चाहती हैं.
लेकिन इसका मतलब ये हुआ कि बैंक खाते में पैसा जमाए कराए बिना लगातार पैसे निकाले जाना. नदियों और झीलों का पानी भूमिगत जल से आता है और ये सूख सकता है. ज़मीन के भीतर से निकाले गए मीठे पानी की जगह खारा पानी ले सकता है. और ज़मीन के भीतर से पानी निकालने के बाद जो जगह खाली बच जाती है वो कई बार तबाही पैदा कर सकती है. जैसा कि बैंकाक, मेक्सिको शहर और वेनिस में हुआ.
समाधान की तलाश
इस समस्या से निपटने के लिए कुछ रास्तों पर काम शुरु किया जा सकता है. सिंचाई के लिए फव्वारे वाली सिंचाई जिसमें कि सीधा पौधों की जड़ों में पानी की बूंदे डाली जाती हैं. एक रास्ता ऐसी फ़सलें बोना का भी है जो पानी पर ज़्यादा निर्भर न रहती हों. या फिर खारे पानी को मीठा किया जाए लेकिन इसमें काफी ऊर्जा लगेगी और कचरा फैलेगा. मौसम बदलने से कुछ इलाक़ों में ज़्यादा पानी गिरेगा तो कुछ में कम. साफ़ बात है कि कुल मिलाकर असर मिला-जुला ही रहेगा. लेकिन अगर हमें जल संकट से उबरना है तो हमें यूएनईपी की रिपोर्ट पर ध्यान देना होगा जिसमें कहा गया है कि पूरे ब्रहांड में सिर्फ पृथ्वी ही है जहां पानी है और जल ही जीवन है.
साभार - सचिन की दुनिया, वेब दुनिया