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सर्वोदय प्रेस सर्विस, 25 मार्च, 2016
राजस्थान में तिलोनिया स्थित ‘बेयरफुट कॉलेज’ मानव विकास की दिशा में अभूतपूर्व कार्य कर रहा है। हर व्यक्ति में नैसर्गिक प्रतिभा अन्तर्निहित होती है, यह संस्थान उसी प्रतिभा को निखार कर उसे समाजोपयोगी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इतना ही नहीं यह शिक्षा के संस्थानीकरण को लेकर बनाये गये भ्रमों को भी तोड़ रहा है।
राजस्थान स्थित बेयरफुट कॉलेज ने इस अवधारणा को और व्यापक बनाया है। यहाँ आपको बेयरफुट डॉक्टर मिलेंगे, तो बेयरफुट टीचर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट व पानी की गुणवत्ता जाँचने वाले व कम्युनिटी रेडियो चलाने वाले भी मिलेंगे। हालाँकि इस कॉलेज का मुख्य परिसर तो अजमेर जिले के तिलोनिया गाँव में स्थित है, पर यहाँ की सोच से प्रभावित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने देश के अनेक अन्य भागों में ‘बेयरफुट कॉलेज’ के उदाहरण से मिलते-जुलते संस्थान आरम्भ किये हैं। यह सोच और व्यापक स्तर पर फैल सकी है।बाबा आमटे ने कहा था कि हमारे गाँवों के निर्धन व अशिक्षित लोगों को दान नहीं बस उचित अवसर चाहिये। ऐसे अवसर जहाँ उनकी छिपी हुई, युवावस्था में ही मुरझा रही प्रतिभाओं को खिलने का भरपूर अवसर मिल सके। एक ओर तो उच्च शिक्षा और डिग्री-डिप्लोमा तक पहुँचने के ग्रामीण निर्धन परिवारों के अवसर बहुत ही कम हैं, दूसरी ओर ऊँची डिग्रियों की सोच में कैद सरकारी तंत्र इससे वंचित गाँववासियों को कोई बड़ी जिम्मेदारी देना भी नहीं चाहता है। नतीजा यह है कि जिन गाँववासियों को अपने परिवेश व पर्यावरण की, गाँव की वास्तविक स्थिति की सबसे बेहतर समझ है, उन्हें समस्याओं के समाधान से जुड़ने का कोई बड़ा अवसर ही नहीं मिलता है।
यदि ग्रामीण प्रतिभा में विश्वास किया जाय, उन्हें उभरने का भरपूर अवसर, जिम्मेदारी और इसके अनुकूल अवसर भी दिये जाएँ तो यह ग्रामीण प्रतिभाएँ कितनी आगे जा सकती है इसका बेहद प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया है बेयरफुट कॉलेज ने। ‘बेयरफुट’ का शाब्दिक अर्थ तो ‘नंगे पैर’ है। परन्तु जब यह देखा गया कि ऊँची डिग्रियों व तमाम ताम-झाम से लैस शहरी विशेषज्ञ गाँवों व निर्धन परिवारों में ठीक से कार्य नहीं कर पा रहे हैं तो इन परिवारों में भली-भाँति मिल-जुलकर कार्य कर सकने वाले व्यक्तियों को यहाँ की परिस्थितियों व जरूरतों के अनुकूल प्रशिक्षण दिया गया। चाहे इस प्रशिक्षण में ऊँची डिग्रियों के कोर्स का पूरा ज्ञान न था पर इसमें ग्रामीण परिवेश की अधिकांश ज़रूरतों को अधिक असरदार ढंग से पूरा करने की जानकारी थी। इस तरह का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले अधिकांश सदस्य भी प्रायः उसी परिवेश से थे जिसमें उन्हें काम करना था। ऐसे तरह-तरह के प्रशिक्षार्थियों व कर्मियों को प्रायः ‘बेयरफुट’ का नाम दिया गया। उदाहरण के लिये चीन में स्वास्थ्य सुधार के महत्त्वपूर्ण व सफल दौर में ‘बेयरफुट’ डॉक्टरों की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण मानी गई है। इसी तरह बेयरफुट वैज्ञानिक व बेयरफुट इंजीनियर भी समय-समय पर चर्चित हुये हैं।
राजस्थान स्थित बेयरफुट कॉलेज ने इस अवधारणा को और व्यापक बनाया है। यहाँ आपको बेयरफुट डॉक्टर मिलेंगे, तो बेयरफुट टीचर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट व पानी की गुणवत्ता जाँचने वाले व कम्युनिटी रेडियो चलाने वाले भी मिलेंगे। हालाँकि इस कॉलेज का मुख्य परिसर तो अजमेर जिले के तिलोनिया गाँव में स्थित है, पर यहाँ की सोच से प्रभावित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने देश के अनेक अन्य भागों में ‘बेयरफुट कॉलेज’ के उदाहरण से मिलते-जुलते संस्थान आरम्भ किये हैं। यह सोच और व्यापक स्तर पर फैल सकी है।
त्योद गाँव (अजमेर जिला) की सीता देवी ने चाहे कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, पर जब उसे युवावस्था में हैंडपंप की मरम्मत और रख-रखाव सीखने का अवसर प्राप्त हुआ तो उसने यह कार्य बहुत कुशलता से सीखकर आस-पास के गाँववासियों को भी हैरान कर दिया। एक ‘बेयरफुट’ हैंडपंप मैकेनिक के रूप में सीता ने 6 गाँवों के लगभग 100 हैंडपंपों की जिम्मेदारी को भली-भाँति निभाया। इसके कुछ वर्ष बाद सीता को एक अन्य अवसर मिला कि वह ग्रामीण क्षेत्रों में सौर ऊर्जा सिस्टम लगाने व उसके रख-रखाव का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें। इस जिम्मेदारी का भी सीता ने भरपूर लाभ उठाया। किशनगढ़ प्रखण्ड के एक गाँव में एक युवा पुजारी के रूप में कार्यरत भगवतनंदन को तिलोनिया गाँव में चल रहे अक्षय ऊर्जा ने बहुत आकर्षित तो बहुत किया। धीरे-धीरे उनके जैसे कार्यकर्ताओं की मेहनत और निष्ठा से सौर ऊर्जा का कार्य आगे बढ़ने लगा व आज यहाँ अफ्रीका, एशिया व लैटिन अमेरिका के लगभग 25 देशों से आये गाँववासियों विशेषकर महिलाओं को सौर ऊर्जा का प्रशिक्षण दिया जाता है। अपने देश के दूर से दूर स्थित रेगिस्तानी व पर्वतीय गाँवों को भी सौर ऊर्जा से रोशन करने में यहाँ प्रशिक्षणार्थियों ने सफलता प्राप्त की है।
अफगानिस्तान से 26 वर्षीय महिला गुल जमान अपने पति मोहम्मद जान के साथ सोलर सिस्टम के स्थापना और रख-रखाव के प्रशिक्षण के लिये तिलोनिया आई। यहाँ प्रशिक्षण प्राप्त कर वे अपने गाँव में लौटे व उन्होंने यहाँ के 50 घरों को सौर ऊर्जा से आलोकित किया। प्रत्यक्ष तौर पर तो बेयरफुट कॉलेज इस क्षेत्र के लगभग 200 गाँवों में कार्य करता है, पर अपने प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से व इसके द्वारा प्रेरित अन्य प्रयासों के माध्यम से इस संस्थान की पहुँच भारत में व भारत से बाहर भी (विशेषकर अफ्रीका महाद्वीप में) इससे कहीं अधिक गाँवों तक है।
बेयरफुट कॉलेज का आरम्भ सामाजिक कार्य व अनुसंधान केन्द्र के नाम से वर्ष 1972 में हुआ। इस संस्थान के कार्य का एक प्रमुख दिशा-निर्देश यह रहा है कि अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझाने की गाँववासियों की अपनी क्षमता में विश्वास रखो और उसे प्रोत्साहित करो। संस्थान का सदा प्रयास रहा है कि कमजोर व निर्धन समुदायों को अपने कार्य में प्राथमिकता दी जाय। इन समुदायों के कम पढ़े-लिखे व कभी-कभी तो निरक्षर व्यक्तियों को बेयरफुट कॉलेज ने पर्याप्त प्रशिक्षण देकर बेयरफुट शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, डिज़ाइनर, हैंडपंप मैकेनिक आदि के रूप में तैयार किया है। इनकी सफलता ने गाँव समुदायों की आत्मनिर्भरता व आत्म विश्वास को बढ़ाया है।
यहाँ का एक बुनियादी मूल्य यह है कि धर्मजाति, लिंग आदि के आधार पर भेद-भाव को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जायेगा। संस्थान के आरम्भिक दिनों में रसोई कार्य दलित व्यक्ति को सुपुर्द करने जैसे निर्णयों पर गुपचुप विरोध प्रकट होता रहता था इस पर बंकर राय ने कहा कि चाहे मुझे इस रसोईये के साथ अकेले रहना पड़े पर किसी तरह के भेद-भाव को मैं स्वीकार नहीं करूँगा। संस्था का एक अन्य बुनियादी मूल्य सादगी है। संस्थान में निदेशक को भी राजस्थान के मजदूरों के लिये तय न्यूनतम मजदूरी के बराबर ही वेतन मिलता है। पुरस्कारों आदि से प्राप्त राशि भी वे संस्थान को समर्पित करते रहते हैं।
इन मूल्यों के आधार पर संस्थान ने कम बजट में ही उल्लेखनीय सफलताएँ प्राप्त की हैं। कॉलेज के शिक्षा प्रयास सबसे निर्धन बच्चों की शिक्षा पर केन्द्रित हैं जिनमें से अधिकांश पशु चराने का कार्य करते हैं। यह वे बच्चे हैं जो विभिन्न कारणों से सामान्य स्कूल में पढ़ नहीं पाये। कॉलेज की रात्रिशालाओं ने ऐसे हजारों बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध करवाये हैं। बाद में इनमें से अनेक विद्यार्थियों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास भी ब्रिज कोर्सों के माध्यम से किया गया जो काफी सफल रहा है। इस शिक्षा प्रयास की जिम्मेदारी गाँव समुदाय से ही चुने गये बेयरफुट अध्यापकों को दी गई।
जल संरक्षण व संग्रहण कार्यक्रम ने सैकड़ों गाँवों व स्कूलों की अपनी जल व सफाई की ज़रूरतों को पूरा करने में सहायता की है। संस्थान ने ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षित कर बेयरफुट हैंडपंप मैकेनिक का जो माॅडल लोकप्रिय किया उसे बाद में राजस्थान में व अन्य राज्यों में व्यापक स्तर पर अपनाया गया। संस्थान के स्वास्थ्य कार्यक्रम व इसकी प्रशिक्षित ‘बेयरफुट’ दाईयों, डॉक्टरों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं व बालवाड़ियों ने मातृ और बाल मृत्यु दर को कम करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। यह तथ्य क्षेत्र के आँकड़ों के ‘एकत्र’ संस्थान द्वारा किये गये आकलन में उभर कर आया है। बेयरफुट कॉलेज से जुड़े हुये अनेक दस्तकारों ने अपने गाँवों में ऐसे उत्पाद बनाये हैं जिन्हें प्रतिष्ठित बड़े शहरों की प्रदर्शनियों में भी प्रशंसा मिली है। संस्थान के इन विभिन्न कार्यक्रमों से गाँववासियों विशेषकर कमजोर समुदायों की क्षमताएँ और आत्मनिर्भरता आगे बढ़ती है।
श्री भारत डोगरा प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं।