अत्यन्त सीमित सैम्पल के बावजूद यह पुस्तिका बुन्देलखण्ड के मौजूदा संकट के रहस्य उसी प्रकार पाठकों के समक्ष उजागर करती है जिस प्रकार हांडी का एक चावल पूरी हांडी की स्थिति बताती है।
बीते कुछ समय में बुन्देलखण्ड में सूखे की स्थिति पर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया पर काफी कुछ लिखा-पढ़ा और दिखाया गया है। वहाँ की अवर्षा, पलायन, खेती की दुर्दशा, तालाबों के रखरखाव और बाज दफा इस सिलसिले में हो रहे भ्रष्टाचार के मुद्दों को भी उठाया गया है। 'बिन पानी सब सून...' नामक यह पुस्तिका स्पष्ट करती है कि बुन्देलखण्ड की तमाम समस्याओं, मसलन, सूखा, आजीविका संकट, गरीबी और पलायन आदि के मूल में एक ही चीज है और वह है पानी। यानी पानी का कुप्रबन्धन, प्राकृतिक जल संसाधनों और जलाशयों की देखरेख का सही तरीके से न हो पाना। इस प्रकार पुस्तक अपने नाम बिन पानी सब सून को चरितार्थ करती है।
मध्य प्रदेश आपदा निवारण मंच, बुन्देलखण्ड, परहित समाज सेवी संस्था तथा छतरपुर महिला जागृति मंच द्वारा एक्शन एड भोपाल, जनपहल आदि कुछ संस्थानों के सहयोग से प्रकाशित इस पुस्तक का लेखन राजेन्द्र बंधु एवं सारिका सिन्हा ने किया है। यह पुस्तक इस क्षेत्र के सूखे के स्थानीय निवासियों की आजीविका पर पड़ रहे प्रभाव पर केन्द्रित है। पुस्तिका में जो अध्ययन किया गया है वह मुख्य रूप से बुन्देलखण्ड के मध्य प्रदेश क्षेत्र में आने वाले तीन जिलों टीकमगढ़, सागर और छतरपुर पर केन्द्रित है। इस अध्ययन में सूखे के कारण इन इलाकों के ग्रामीणों, वंचित वर्ग और महिलाओं के जीवन पर पड़ने वाले असर का आकलन किया गया है। इतना ही नहीं इसमें सूखे के दौरान सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और इसके परिणाम की जाँच परख भी की गई है।
यह पुस्तिका मूल रूप से एक जमीनी अध्ययन है जिसे टीकमगढ़, सागर और छतरपुर के छह विकासखण्डों की 56 ग्राम पंचायतों में अंजाम दिया गया। इन ग्राम पंचायतों में 66 गाँव शामिल थे जिनकी कुल आबादी 91,742 थी। जो बात इस पुस्तिका को ऐसे अन्य कामों से अलग बनाती है वह है इसका एक्टिविस्ट स्वरूप। कहने का तात्पर्य यह कि इस पुस्तक को लिखने के पहले जबरदस्त जमीनी काम किया गया है। न केवल जमीनी स्तर पर जाकर प्राथमिक सूचनाएँ जुटाई गई हैं बल्कि प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार की विभिन्न विभागीय रिपोर्ट की मदद से उनका विश्लेषण कर तथ्यपरक निष्कर्ष भी निकाले गए हैं।
पुस्तिका क्रमश: आठ अध्यायों में विभाजित है। इनके शीर्षक इस प्रकार हैं: बुन्देलखण्ड और अकाल का परिप्रेक्ष्य, इस अध्ययन के बारे में, सूखा और आजीविका संकट, गारंटी विहीन मनरेगा, कहाँ है बुन्देलखण्ड का पानी, सूखा और भूख का सवाल, राज्य का उत्तरदायित्व और क्रियान्वयन, निष्कर्ष एवं अनुशंसाएँ।
अपनी समीक्षा में हम कोशिश करेंगे कि हर अध्याय की कमियों और खूबियों पर एक नजर डाल सकें:
1. बुन्देलखण्ड और अकाल का परिप्रेक्ष्य
पुस्तिका 700000 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक बुनावट का जिक्र करती है। वह बताती है कि कैसे उत्तर प्रदेश के 7 और मध्य प्रदेश के 6 जिलों वाले इस क्षेत्र में जहाँ तालाब एक संस्कृति हुआ करते थे वहाँ 12,000 तालाब अब सिमट कर 1300 रह गए हैं। तमाम तालाबों को भूमाफिया ने कॉलोनियों में बदल दिया है। यही वजह है कि वर्षाजल तालाबों में संरक्षित होने के बजाय यहाँ वहाँ बह जाता है। आँकड़ों के मुताबिक इस इलाके में होने वाली कुल बारिश का बमुश्किल 10 प्रतिशत ही इस्तेमाल में आ पाता है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक कई इलाकों में जलस्तर 400 फीट से भी नीचे जा चुका है। पुस्तिका कहती है कि बुन्देलखण्ड में व्याप्त खाने-पीने के संकट और पलायन की समस्या से निपटने के लिये इतिहास से सबक लेना होगा। यानी भूजल रिचार्ज और तालाबों का पुनरुद्धार।
2. अध्ययन के बारे में
इस अध्ययन में यह परखने की कोशिश की गई है कि सूखे और जल संकट ने स्थानीय लोगों की आजीविका को किस प्रकार प्रभावित किया है। गाँवों में पीने के पानी की व्यवस्था और खाद्य उपलब्धता को भी आँका गया है। अध्ययन में वंचित वर्ग के लोगों और महिलाओं को खासतौर पर शामिल किया गया है क्योंकि उनकी समस्याएँ औरों की तुलना में विकट हैं। जैसा कि हमने ऊपर देखा इस अध्ययन को मप्र के टीकमगढ़, सागर और छतरपुर जिलों के छह विकासखण्डों की 56 ग्राम पंचायतों में अंजाम दिया गया। इन ग्राम पंचायतों में 66 गाँव शामिल थे जिनकी कुल आबादी 91,742 थी। इस अध्ययन का दायरा और सैम्पल अगर थोड़ा और बड़ा होता तो निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय होते। परन्तु बुन्देलखण्ड के कमोबेश एक जैसे आँकड़ों को देखते हुए इन निष्कर्ष को भी बुरा नहीं कहा जा सकता है।
3. सूखा और आजीविका संकट
सूखा और आजीविका एक दूसरे पर निर्भर हैं। सूखा पड़ेगा तो आजीविका का संकट पैदा होगा। पुस्तिका बताती है कि बीते तीन दशक में से 18 साल सूखे का शिकार रहा है बुन्देलखण्ड। हालांकि इसकी वजह जलवायु परिवर्तन को बताया गया है। परन्तु पुस्तिका यह नहीं बताती है कि जो थोड़ी बहुत बारिश हुई है उसका अगर उचित संरक्षण किया जा सकता तो हालात इतने बुरे नहीं होते।
दूसरी बात यह है कि निरन्तर सूखे ने एक बड़ी आबादी को खेती का काम छोड़कर पलायन करने पर मजबूर किया। इससे एक ओर खेती का रकबा घटा वहीं दूसरी ओर क्षेत्र के कई गाँवों में ताले लटक गए। सूखे से खराब हुई फसल के मुआवजे के नाम पर भी किसानों के साथ मजाक किया गया जो सरकार की संवेदनहीनता को दर्शाता है। टीकमगढ़ के निवाड़ी ब्लॉक के पुछीकरगुवाँ गाँव के लालाराम की ढाई बीघा उड़द की फसल खराब होने पर 750 रुपए का मुआवजा मिला जबकि इसके लिये बैंक खाता खुलवाने में ही 6,000 रुपए लग गए। आश्चर्य नहीं कि खराब खेती और सूखे ने कई किसानों को आत्महत्या के लिये मजबूर किया। पुस्तिका मुआवजे से वंचित किसानों और आत्महत्या करने वाले किसानों की जानकारी को काले बैकग्राउंड में रखती है जो प्रतीकात्मक रूप से शोक का प्रतीक है और पुस्तिका की संवेदनशीलता को कई गुना बढ़ा देता है। पुस्तिका पलायन की भयावह तस्वीर को हमारे सामने रखती है। सर्वे में शामिल गाँवों में जनवरी 2016 से अब तक 19746 लोग पलायन कर चुके। इनमें से 45 फीसदी महिलाएँ व शेष पुरुष हैं। इनमें से 32 प्रतिशत अवयस्क बच्चे हैं। इसका सीधा असर इन बच्चों के पोषण, इनके जीवन पर पड़ना तय है।
4. गारंटी विहीन मनरेगा
मनरेगा के तहत काम के दिनों को बढ़ाकर मौजूदा सरकार ने भले 100 दिन के बजाय 150 दिन कर दिया है लेकिन सरकारी आँकड़ों के मुताबिक मप्र के छह जिलों सागर, दमोह, पन्ना, टीकमगढ़, छतरपुर और दतिया में वर्ष 2015-16 में इस योजना के तहत केवल 25 फीसदी ही काम हुआ। जाहिर है लोगों को 100 दिन की ही पूरी मजदूरी नहीं मिल पाई तो 150 दिन का काम तो केवल कागजी ही ठहरा। पुस्तिका में इस बात की पूरी जानकारी दी गई है कि इस दौरान किन गाँवों में कौन सा काम हुआ और जमीनी हकीकत क्या रही? एक बानगी देखिए कि अब तक 17 प्रतिशत लोगों के पास जॉबकार्ड ही नहीं हैं। अध्ययन में शामिल 3346 परिवारों में से 2762 के पास जॉबकार्ड नहीं हैं। पुस्तिका इस बात पर भी जोर देती है कि व्यर्थ कार्यों के बजाय अगर मनरेगा के तहत भूजल रिचार्ज और सतह के पानी को सहेजने का काम किया जाये तो क्षेत्र की तस्वीर बदल सकती है। कई ऐसे उदाहरण भी दिये गए हैं जहाँ लोगों को साल-साल भर से मजदूरी नहीं मिली है।
5. कहाँ है बुन्देलखण्ड का पानी?
बुन्देलखण्ड में जल संकट किसी से छिपा नहीं। जलस्तर कई इलाकों में 400 फीट से नीचे जा चुका है और टैंकर माफिया सक्रिय है। अध्ययन बताता है कि बुन्देलखण्ड में 70 फीसदी लोग पानी के लिये बोरवेल पर निर्भर हैं। जबकि शेष आबादी कुओं, तालाब और नदी नालों जैसे असुरक्षित स्रोतों पर निर्भर है। सर्वेक्षण में शामिल गाँवों में से 71 फीसदी गाँवों के लोग दूषित पानी पी रहे हैं। सरकार की ओर से न तो पेयजल संकट को दूर करने के लिये कोई ठोस उपाय किया गया है न ही इन जलस्रोतों को स्वच्छ करने के लिये। गन्दा पानी पीने के कारण पानी, बीमारी और कर्ज का एक ऐसा दुष्चक्र सामने आता है जिसकी जद से निकलना आसान नहीं है।
6. सूखा और भूख का सवाल
पुस्तिका इस प्रश्न का हल तलाशने की कोशिश करती है कि आखिर क्यों संसाधन सम्पन्न बुन्देलखण्ड इतनी बुरी स्थिति में पहुँच गया। पन्ना जिले में हीरे की विशालकाय खदान मौजूद है। यह इलाका उच्च कोटि के ग्रेनाइट के लिये भी जाना जाता है। इस क्षेत्र में शीशम के जंगल भी मौजूद हैं। इसके बावजूद बुन्देलखण्ड का नाम अगर भूख से जोड़ा जा रहा है तो यह स्पष्ट तौर पर प्रशासनिक विफलता है। अध्ययन के कुछ नतीजे बेहद चौंकाने वाले हैं मिसाल के तौर पर बुन्देलखण्ड की एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती है और आबादी के 53 प्रतिशत गरीब आबादी को बीते आठ महीनों में खाने को दाल नसीब नहीं हुई है जबकि 69 प्रतिशत ने दूध नहीं पिया है। इलाके का हर पाँचवाँ परिवार सप्ताह में एक दिन भूखा रहता है।
7. राज्य का उत्तरदायित्व एवं क्रियान्वयन
पुस्तिका यह स्पष्ट करती है कि सूखे और अकाल की स्थिति में लोगों को राहत उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी को राज्य पूरा करने में सफल नहीं हो पाया। इसमें भी पेयजल के मोर्चे पर राज्य की विफलता तो दयनीय स्थिति का संकेत करती है। मप्र में 143 करोड़ रुपए की लागत से शुरू की गई नल जल योजना में 30 जून 2016 तक 23403 बसावटों में पीने का पानी उपलब्ध कराना था लेकिन अब तक बमुश्किल 3913 नलकूप ही खोदे जा सके हैं। 17000 से अधिक हैण्डपम्पों को गहरा करने की आवश्यकता आ पड़ी है लेकिन यह काम भी अधूरा है।
8. निष्कर्ष एवं अनुशंसाएँ
पूरी पुस्तिका का सार उसके अन्तिम अध्याय में है। पुस्तिका बताती है कि लगातार सूखे के कारण लोग खेती से दूर होते जा रहे हैं। सूखा राहत का अनुचित वितरण व इसकी हास्यास्पद राशि भी खेती से दूर होने वालों की संख्या में इजाफा कर रही है। सबसे बड़ी समस्या पेयजल की है। 71 प्रतिशत आबादी को दूषित पानी पीना पड़ रहा है। यही वजह है कि क्षेत्र के करीब 35 फीसदी गाँवों की आबादी उल्टी, दस्त व पेचिस जैसी बीमारियों से ग्रस्त है। 90 प्रतिशत गाँवों में दलित, गैर दलितों के साथ पानी नहीं भर सकते। 41 फीसदी गाँवों में महिलाएँ 3 किमी दूर से पानी भर कर लाती हैं। क्षेत्र के 29 फीसदी परिवार खाद्य सुरक्षा के अभाव से जूझ रहे हैं जबकि 43 फीसदी परिवारों को पीडीएस का अनाज तक नहीं मिल पाता।
पुस्तिका अध्ययन के आधार पर राज्य शासन को कुछ सुझाव भी देती है जिन पर अमल किया जाये तो बुन्देलखण्ड की दिक्कतों में कुछ हद तक कमी की जा सकती है। इसके तहत जलस्रोतों की संख्या में इजाफा करना, वैकल्पिक फसल व आकस्मिक योजना तैयार करना, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना, मनरेगा का उचित क्रियान्वयन करना, कृषि ऋण व कर्ज सुनिश्चित करना आदि शामिल हैं।
पुस्तक के संयोजन में योगेश दीवान, जयंत लाकड़ा व प्रमोद खरे की भूमिका रही है। सभी आँकड़े शासकीय विभागों तथा विभिन्न समाचार माध्यमों से जुटाए गए हैं। सीमित सैम्पल के बावजूद यह पुस्तक बुन्देलखण्ड के मौजूदा संकट पर गहरी अन्तदृष्टि प्रदान करती है। पानी से लेकर अकाल व पर्यावरण तक रहीम, बाबा नागार्जुन तथा ब्रेख्त से खुसरो तक का कविता चयन पुस्तक के सन्दर्भों को व्यापक फलक प्रदान करता है।
पुस्तक : बिन पानी सब सून
लेखक: राजेंद्र बंधु
सारिका सिन्हा
संयोजन:
योगेश दीवान
जयंत लाकड़ा
प्रमोद खरे
प्रकाशक : मध्य प्रदेश आपदा निवारण मंच, बुन्देलखण्ड
परहित समाज सेवी संस्था
छतरपुर महिला जागृति मंच