बंगाल की महाविपत्ति (Arsenic: Bengal 's disaster)

Submitted by Hindi on Sat, 09/05/2015 - 16:44
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अमृत बन गया विष, पुस्तक से साभार, 2005, सेन्टर फॉर साइंस इन्वायरन्मेंट

यदि आर्सेनिक (संखिया) के प्रदूषण पर बलिया ने अंकुश नहीं लगाया तो उसका भी वही हाल होगा जो पश्चिम बंगाल का हुआ है। ‘डाउन टू अर्थ’ ने अपने 15 अप्रैल 2003 के अंक में बंगाल में आर्सेनिक के फैलते प्रकोप का वर्णन किया है, जिसके कुछ अंश यहाँ दिये गए हैं…

सुमात्या वन कैंसरआर्सेनिक प्रदूषण की पहली ठोस रिपोर्ट 1983 में प्रकाश में आई थी। कोलकाता के उष्णकटिबन्धी औषधि (ट्रॉपिकल मैडिसिन) विभाग के त्वचाविज्ञान के पूर्व प्रोफेसर केसी साहा को अचानक आस-पास के गाँव के ऐसे मरीज मिलने आने लगे, जिनके धड़, बाँहों व टाँगों पर रहस्यमय चकत्ते बने हुए थे। ये धब्बे काली बरसाती बूँदों की तरह लगते थे। इन मरीजों की त्वचा भी खुरदरी व कठोर हो चली थी तथा उनकी हथेलियों व तलवों में मस्से उभर आए थे। साहा की खोज ने उन्हें उत्तरी 24-परगना जिले के गंगापुर गाँव में पहुँचा दिया। वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि गाँव का पीने वाला पानी आर्सेनिक से प्रदूषित हो गया है। साहा व उनके साथी शोधकर्ताओं ने इस गाँव के अध्ययन के शोध पत्रों को क्रमबद्ध रूप से 1984 से ‘इंडियन जर्नल आॅफ डर्मेटोलॉजी’ में लगातार प्रकाशित किया।

परन्तु हमारी दुनिया बहुत धीरे जागती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के बुलेटिनों में प्रकाशित होने वाले एक और शोधपत्र को भी सबने देखा-अनदेखा कर दिया। एके चक्रवर्ती व साथियों, जो जादवपुर विश्वविद्यालय में शोधकर्ता हैं, ने ग्रामीण पश्चिम बंगाल में टयूबवैल के पेयजल से चिरकालिक आर्सेनिक विषाक्तता नामक शोध-पत्र निकाला था। इस अध्ययन में लिखा था कि कोलकाता के स्नातकोत्तर चिकत्सीय शिक्षण व शोध संस्थान में रामनगर से आए 8 आदमी और 5 औरतों को आर्सेनिक से होने वाले चिरकालिक त्वचारोग के कारण दाखिल किया गया था। रामनगर गंगा के पठार पर कोलकाता से 40 कि.मी. दूर बसा है। यह एक खेतिहर इलाका है, जहाँ कोई उद्योग नहीं है। यहाँ के अधिकांश ग्रामवासी एक ही टयूबवैल का पानी पीते थे, जिसमें आर्सेनिक की मात्रा 2,000 पीपीबी पाई गई, जो कि 50 पीपीबी के जल मानक से 40 गुना अधिक तथा 10 पीपीबी की सुरक्षा सीमा से 200 गुना अधिक।

चक्रवती का दल उस गाँव में गया और एक मरीज के रिश्तेदार की जाँच की, जिनकी कुल संख्या 48 थी। इनमें से 46 की त्वचा में बड़े-बड़े चकत्ते थे, और उनके यकृत (लिवर) नष्ट हो गए थे। बचे हुए 2 सदस्य किसी अन्य टयूबवैल का पानी पीते थे जिसमें आर्सेनिक की मात्रा 200 पीपीबी थी। यानि कि शेष परिवार द्वारा पिये गए पानी में उपस्थित आर्सेनिक की मात्रा से 10 गुना कम।

यही नहीं, अस्पताल में दाखिल 13 मरीजों के बाल और नाखूनों के नमूनों में आर्सेनिक की औसतन मात्रा 10 पीपीबी के मानक का पानी पीने वालों के नमूनों से 100 गुना अधिक थी।

कायदे से इस अध्ययन से तहलका मच जाना चाहिए था। परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। और राज्य को इसकी बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी। नब्बे के दशक के दौरान राज्य में धड़ाधड़ ट्यूबवैल खुदते रहे, जिसका आर्सेनिक संदूषित भूजल पीकर लाखों लोग इस जहर की चपेट में आते गए। वास्तव में, ट्यूबवैल तो राज्य में वैभव का प्रतीक बन गया था और अकसर शादी-ब्याह में दहेज के तौर पर भी दिया जाता था।

उत्तरी 24-परगना में एक ट्यूबवैलसन 1993 में, कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय अध्ययन विभाग के निदेशक दीपांकर चक्रवर्ती आर्सेनिक विपषाक्तता के विस्तार पर शोध करते समय एक ऐसी महिला से मिले जिसके शरीर पर घाव व चकत्ते थे। आश्चर्य इस बात का था कि उसके पूरे परिवार में वह ऐसी एकमात्र महिला थी जिसकी त्वचा पर आर्सेनिक विषाक्तता के लक्षण दिखाई दिए। पूछने पर पता चला कि उसकी इस परिवार में हाल ही में शादी हुई थी। वह, दरअसल, बांग्लादेश के सातखीरा इलाके की रहने वाली थी, जहाँ अन्य लोग भी इसी प्रकार त्वचा रोग से पीड़ित थे। चक्रवर्ती को ज्ञात हुआ कि यह समस्या जितनी ऊपर से दिख रही थी, उससे कहीं ज्यादा गहरी व गम्भीर थी। उन्होंने तहकीकात शुरू कर दी। उन्होंने बांग्लादेश के ढ़ाका समुदाय अस्पताल के अध्यक्ष काजी कामरुजमान के साथ संयुक्त क्षेत्रीय सर्वेक्षण में 1995 में बांग्लादेश के दो जिलों के तीन गाँवों का पता लगाया जहाँ भूजल में 50 पीपीबी से अधिक आर्सेनिक था। उसी वर्ष, विश्व बैंक ने दो वर्ष की जाँच के पश्चात इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया कि बांग्लादेश के कई इलाकों में छिछले व गहरे ट्यूबवैलों के जल में भारी मात्रा में आर्सेनिक पाया गया है।

संखिया से प्रभावित क्षेत्रएक पत्रिका ‘एन्वायरन्मेन्टल हैल्थ पर्सपेक्टिव्स’ में छपे एक लेख में जादवपुर विश्वविद्यालय व ढ़ाका सामुदायिक अस्पताल जैसे मान्यता प्राप्त संस्थानों से संलग्न वैज्ञानिकों व शोधकर्ताओं के एक दल ने लिखा कि, “भारत के पश्चिम बंगाल के 18 में से नौ जिलों में तथा बांग्लादेश के 64 में से 42 जिलों में आर्सेनिक का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित सीमा से बहुत ज्यादा है।” इसी लेख में आगे लिखा हैः “हमने पश्चिम बंगाल के 69 पुलिस स्टेशनों अथवा ब्लाॅक में 985 आर्सेनिक से प्रभावित गाँव पहचाने हैं। तथा बांग्लादेश में हमने 141 पुलिस स्टेशनों अथवा ब्लाॅक में 492 प्रभावित गाँवों का पता लगाया है।”

प्रारम्भिक अध्ययन का नतीजा यह लेख, धीरे-धीरे सारे तथ्य खोलता है। आज तक हमने बांग्लादेश के आर्सेनिक प्रभावित 42 जिलों से पानी के 10,991 नमूनों तथा पश्चिम बंगाल के नौ आर्सेनिक-प्रभावित जिलों से 58,166 पानी के नमूनों को विश्लेषण हेतु इकट्ठा किया है। जिन जल नमूनों का विश्लेषण किया गया उनमें क्रमशः 59 प्रतिशत बांग्लादेश के नमूनों व 34 प्रतिशत पश्चिम बंगाल के नमूनों में आर्सेनिक का स्तर 50 पीपीबी से भी अधिक निकला। आज तक, आर्सेनिक-प्रभावित गाँवों के लोगों के पेशाब, नाखून व बाल के हजारों नमूनों का विश्लेषण किया गया है। जाँच दर्शाती है कि बांग्लादेश के 93 प्रतिशत नमूनों में और पश्चिम बंगाल के 77 प्रतिशत नमूनों में आर्सेनिक पाया गया है। हमने आर्सेनिक के मरीजों का पता लगाने के लिए बांग्लादेश के 27 जिलों का सर्वेक्षण किया, जिनमें से 25 जिलों में आर्सेनिक-प्रभावित त्वचा रोगों वाले मरीजों का पता चला। पश्चिम बंगाल में हमने 9 में से 7 जिलों में इसी प्रकार के त्वचा के घाव वाले मरीजों का पता लगाया। हमने आर्सेनिक से प्रभावित त्वचा रोगों के लक्षणों की मोटे तौर पर जाँच करने के लिए बांग्लादेश के 11,180 तथा पश्चिम बंगाल के 29,035 लोगों का परीक्षण किया। जाँच से पता लगा कि उनमें बांग्लादेश के 24.7 प्रतिशत तथा पश्चिम बंगाल के 15.02 प्रतिशत लोग आर्सेनिक प्रभावित त्वचा रोगों से पीड़ित थे। अचानक, इस लेख ने अपनी वैज्ञानिकी मुखौटा उतार दिया और बतलाया कि “पश्चिम बंगाल में 10 वर्ष तथा बांग्लादेश में 5 वर्ष के अध्ययन के पश्चात भी हमें यही लग रहा है कि हमने समस्या को केवल सतही तौर पर ही देखा है।”

मई 2002 तक, जादवपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय अध्ययन विभाग के शोधकर्ता वर्तमान परिस्थिति से अच्छी तरह अवगत हो गए थे। ‘टैंलेंटा नामक पत्रिका’ में आर्सेनिक विपदा की वर्तमान स्थिति दर्शाते हुए उन्होंने लिखा किः बांग्लादेश के कुल 64 जिलों में से 50 के 2,000 गाँव में आज की तारीख में भूजल में आर्सेनिक का स्तर 50 पीपीबी से ऊपर है और 2.5 करोड़ से अधिक लोग आर्सेनिक युक्त विषाक्त जल पी रहे हैं। पश्चिम बंगाल में नौ आर्सेनिक प्रभावित जिलों में, अब तक 5,700 गाँव तथा 60 लाख से अधिक लोग ऐसा पानी पी रहे हैं, जिसमें आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से अधिक है। इनमें से तीन लाख के करीब लोग स्पष्ट रूप से त्वचा रोगों से पीड़ित हैं। नमूने दर्शाते हैं कि कई और लोग भी इस रोग से प्रभावित हो सकते हैं। आर्सेनिक प्रभावित गाँवों में बच्चों की स्थिति बेहद नाजुक है।

शोधपत्र आगे बतलाता है: “हालाँकि पश्चिम बंगाल की आर्सेनिक समस्या का पता 20 पहले ही चल गया था परन्तु आज तक इसके समाधान की बहुत कम ठोस योजनाएँ बनी हैं, जिन पर अब तक कोई अमल नहीं हुआ है।”

50 पीपीबी से अधिक मात्रा में संखिया युक्त पानी पी रहे हैंइस बिन्दु पर आकर यह लेख अपना धीरज खो देता है, क्योंकि वह एक ऐसी बीमारी और एक ऐसी प्रक्रिया से जूझ रहा है जो अंततोगत्वा गरीबों को प्रभावित करती हैः “गाँव वाले शायद आज से 20 साल पहले की स्थिति से भी बदतर स्थिति में हैं। आज भी, जो ढेर सारे लोग आर्सेनिक के जहर वाला पानी पी रहे हैं, वे न तो इस सत्य और न ही इसकी भयावहता से परिचित हैं।” आर्सेनिक समस्या के गैर वैज्ञानिकी पहलुओं को दर्शाता हुआ यह लेख अब पूर्णतः राजनैतिक रंग में आ जाता है। “20 वर्ष पहले जब पश्चिम बंगाल सरकार को इस समस्या से पहली बार अवगत कराया था तब यह एक मामूली मसला था क्योंकि किसी को इसकी भयावहता का अंदाजा नहीं था। कम से कम सन 1994 तक एक के बाद एक समिति गठित होती गई परन्तु समस्या का कोई समाधान सामने नहीं आया। किसी भी विशेषज्ञ ने कोई भी ऐसा सुझाव नहीं दिया जिसमें जन चेतना अभियान, इस विषय पर ग्रामवासियों का शिक्षण व स्थानीय लोगों की भागीदारी शमिल हों।”

‘डाउन टू अर्थ’ की पत्रकार, जो 2003 में इस विषय की जाँच हेतु पश्चिम बंगाल गई थी, ने पता लगाया कि एक ओर स्थानीय लोग इस पर्यावरणीय त्रासदी में गले-गले तक डूबे हुए हैं जबकि सरकारी एजेंसियाँ इस मामले में कोई मदद नहीं कर रही हैं।

आज की तारीख में राज्य के 65 लाख से अधिक लोग जो पानी पी रहे हैं उसमें आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से भी अधिक है। इनमें से उत्तरी 24-परगना जिले के अरीपारा गाँव की अंधी महिला रेणु अली भी एक हैं। रेणु कुछ साल पहले अंधी नहीं थी, आर्सेनिक के जहर ने उसकी दृष्टि व जीवन को प्रभावित किया है। उनके दो लड़के सुरक्षित पेयजल व आजीविका की खोज में गाँव छोड़कर चले गए हैं। उनका एक और लड़का, बहू उनके साथ शायद इसलिए रह रहे हैं क्योंकि वे दोनों भी आर्सेनिक विषाक्तता से पीड़ित हैं। रेणु ने तो अपने आपको भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है।

मुर्शिदाबाद जिले के रेजलापाड़ा गाँव की लीतन वाइवाह एक ऐसी विधवा हैं, जो अकेली रहती हैं उनके हाथ में एक ऐसा कैंसर जन्य घाव है, जो धीरे-धीरे उनके सारे शरीर में फैल रहा है। उन्होंने गाँव के स्थानीय ओझा के अलावा किसी डाॅक्टर को नहीं दिखाया है। इस अकेली जान की कोई खबर नहीं लेता। उनमें खुद भी न इतनी हिम्मत है न इतनी रूचि कि वह कोलकाता के सेठ सुखलाल करनानी स्मारक अस्पताल तक का लम्बा सफर तय करें, जहाँ हर गुरुवार को एक आर्सेनिक चिकित्सालय चलता है। मृत्यु जैसी स्थिरता के साथ वह कहती हैं कि “यह स्थान बहुत दूर है और यहाँ जाने में बहुत ज्यादा पैसा लगता है।”

एक बंद हैंडपम्पपरन्तु कई ऐसे भी हैं जो इस बीमारी से लड़ रहे हैं। उत्तरी 24-परगना के होलसुर गाँव के अदईतोपाल 10-12 साल से आर्सेनिक से प्रभावित हैं, लेकिन अपने दाएँ पैर के काट दिये जाने के बावजूद आम जिन्दगी जीने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने आशा नहीं छोड़ी है। दरअसल वह गाँव में कुएँ खोदकर ग्रामवासियों में आशा का संचार कर रहे हैं। उसी गाँव के नजरूल हक भगवान के एक मसीहा के समान हैं। उनकी उँगली में गैंगरीन बैठ जाने के बावजूद वह कोलकोता के ‘ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट आॅफ हाइजीन एण्ड पब्लिक हेल्थ’ के डाॅक्टरों से मिले। रोग का पता चलने पर उन्हें कैंसर से बचाने के लिए 1998 में उनकी उँगली को काटना पड़ा। अब वह अपना शेष जीवन लोगों को आर्सेनिक के दुष्प्रभावों की जानकारी देते हुए बिता रहे हैं।

परन्तु रकिया ऐसा नहीं कर सकतीं। उसका पति उसे छोड़कर चला गया है। उसकी उम्र 36 साल के करीब होगी। गाँव वाले उसे पागल समझते हैं क्योंकि आर्सेनिकोसिस नामक आर्सेनिक जन्य बीमारी ने उसे सबसे अलग थलग कर दिया है। फकीरपाड़ा बस्ती में, जो उत्तरी 24- परगना के चनालती ब्लॉक में स्थित है, वह इस रोग की अकेली शिकार नहीं हैं। ऐसे अन्य कई हैं, जिन्हें उनके निकट सम्बन्धी छोड़कर चले गए हैं।

परन्तु इस बस्ती में कुछ लोग तो रहते हैं। फकीर पारा कम से कम उत्तरी 24-परगना के देगंगा ब्लॉक के चन्दलाती गाँव जैसा तो नहीं है, जो पूरी तरह खाली हो चुका है। यहाँ केवल पाँच-छह लोग रह गए हैं। साठ वर्षीय अब्दुल तराफत उनमें से एक हैं जो पास के गाँव से पानी लाने के लिए हर दूसरे दिन 10 किलोमीटर का सफर तय करते हैं। हालाँकि वह भी आर्सेनिकोसिस से पीड़ित हैं, परन्तु वह गाँव नहीं छोड़ना चाहते।

“अधिकांश आर्सेनिक प्रभावित रोगी सरकार के जगने का इन्तजार कर रहे हैं व प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब आर्सेनिक पर अंकुश लगाने की दीर्घकालीन परियोजनाएँ शुरू करेगी,” यह कथन है उत्तरी 24-परगना के बामनदंगा ब्लाॅक के एक निवासी डेनिस बारोय का, जो एक स्थानीय स्वयंसेवी संगठन से जुड़े हुए हैं।

 

भूजल में संखिया के संदूषण पर एक ब्रीफिंग पेपर

अमृत बन गया विष

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)   

1.

आर्सेनिक का कहर

2.

बंगाल की महाविपत्ति

3.

आर्सेनिक: भयावह विस्तार

4.

बांग्लादेशः आर्सेनिक का प्रकोप

5.

सुरक्षित क्या है

6.

समस्या की जड़

7.

क्या कोई समाधान है

8.

सच्चाई को स्वीकारना होगा

9.

आर्सेनिक के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब - Frequently Asked Questions (FAQs) on Arsenic

 

पुस्तक परिचय : ‘अमृत बन गया विष’

 

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