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पर्वत पर्वत, बस्ती बस्ती पुस्तक से साभार, प्रथम संस्करण 2011
असम में ब्रह्मपुत्र का विराट रूप मिलता है तो अरुणाचल में उसकी शाखाओं तथा बिगड़े हुए जल संग्रह क्षेत्रों को जानने-समझने का मौका मिलता है। उफनती और बौखलाती हुई नदियों के पीछे उनके पनढालों में हुए अत्याचारों का सीधा-सीधा संबंध होता है। यह गंगा से लेकर ब्रह्मपुत्र और उसकी अनगिनत शाखाओं के पनढालों हुई बर्बादी में देखा जा सकता है। कामेंग को असम में भरोली नदी कहते हैं। यह मलबे से पटी हुई है और हर साल बाढ़ लाती है। स्वयं तथा ब्रह्मपुत्र में समाहित होकर भी असम को अपने संकट से घेरती रहती है। इसलिए आने वाली पीढ़ियों को बाढ़ की त्रासदी से मुक्ति के लिए नदियों के पनढालों को अनुभव जनित ज्ञान से सुधारा जाना चाहिए।
ब्रह्मपुत्र में सालों से बाढ़ आ रही है। पिछले साल भी बाढ़ आयी। इस बाबत राजनेता और पर्यावरणविद् बड़ी चिंता व्यक्त करते हैं और होता यह है कि पर्यावरणविद् परिस्थितियों को समझे बिना वक्तव्य देते हैं या समाधान सुझाने लगते हैं। कभी-कभी झूम को पर्यावरण विरोधी बताया जाता है। कभी भेड़-बकरी और निरीह पशुओं के सिर जिम्मेदारी डाल दी जाती है, तो कभी जिम्मा किसी और के सिर पर डाल दिया जाता है लेकिन उसे क्षेत्र का प्रत्यक्ष अध्ययन कर नतीजों को सामने रखने को प्रयास नहीं होता। जब डॉ. भगवती प्रसाद मैठाणी के निमंत्रण पर मुझे गुवाहाटी जाकर ब्रह्मपुत्र का विराट पाट देखने का मौका मिला, तो इससे ज्यादा अंतर्वर्ती हिस्से को देखने और जानने का मन हुआ। गुवाहाटी से भी जलग्रहण क्षेत्रों में हुए क्षय का अंदाजा लगाया जा सकता था लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन की बात और ही थी। चिपको आंदोलन द्वारा प्रारंभ किए गए नदियों को जानने के अभियान के अंतर्गत मैंने अरुणाचल जाने का निर्णय लिया। मैं 28 जनवरी 1989 को गुवाहाटी पहुंचा।गुवाहाटी से पांडुघाट जाने से पहले मेरे साथ चल रहे ड्राइवर दुर्गा जी बता रहे थे कि वर्ष 1988 में ब्रह्मपुत्र में पांच बार बाढ़ें आईं। उन्होंने पहली बार गुवाहाटी शहर में पानी घुसते हुए देखा। इससे पहले यहां इतना पानी नहीं देखा गया था। ब्रह्मपुत्र पार करने के बाद मंगलदोई-ढेकियाजूली के रास्ते में जगह-जगह पिछली बाढ़ के प्रकोपों की जानकारी मिलती रही। रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे नालों, जिनमें आजकल पानी नाममात्र को दिखता है, कि बरसात शुरू होते ही गर्जना बढ़ जाती है। वे बता रहे थे, जिनके पक्के मकान हैं, वे बाढ़ के आने पर छतों में चले जाते हैं लेकिन अधिकांश ग्रामीणों के पास लकड़ी और मिट्टी के ही घर हैं उस समय उन्हें बहुत त्रासदी होती हैं। कभी-कभी अनाज, लत्ता, कपड़ा और पशु भी नष्ट होते हैं। तेजपुर जाते हुए रास्ते में बागला नदी मिली (बागला का आशय युवती से है)। बागला वर्षांत में बहुत बौखलाती हैं, ऐसी जानकारी मिली। ब्रह्मपुत्र में पहले से अधिक बाढ़ें क्यों आ रही है? इसका जवाब हमें सभी जगह यही सुनने को मिला कि जहां से ये नदियां आ रही हैं वहां जंगलों का बेतहासा विनाश हो रहा है। इसलिए पहाड़ियों से नदियों में पानी ही नहीं मिट्टी बहुत तेजी के साथ बहकर आ रही है। ज्यादा जानकारी करने पर लोगों ने बताया कि फुट हिल्स में इधर इंक्रोचमेंट बहुत ज्यादा बढ़ गया है। जिस कारण जंगल काटे जा रहे हैं। ऊपर से झूम खेती भी है।
इधर तेजपुर के लिए मुख्य सड़क है। उसके आजू-बाजू में भी अब पेड़ लगाए गए हैं। जिसमें मुख्य रूप से शीशम, सेपलानुसर और कटहल हैं, किंतु कहीं-कहीं यूकलिप्टस भी खूब थोपा गया है। तेजपुर ब्रह्मपुत्र के किनारे बसा ऐतिहासिक नगर है। शोणितपुर जनपद का मुख्यालय है। नगर के अंदर-बाहर खूब हरियाली है। तीन बड़े तालाब हैं और कुछ छोटे तालाब भी हैं। इन तालाबों को सजाया गया है। तेजपुर के ऊंचे नीचे टीलों में अधिकांश अधिकारियों के आवासगृह बने हैं। अपनी-अपनी हैसियत के आधार पर टीलों पर कब्जा है। यहां पर सरकारी स्कूलों और अस्पतालों के साथ-साथ ईसाई मिशनरियों के अंग्रेजी स्कूल एवं सुविधाजनक चिकित्सालय भी खुले हैं। तेजपुर से आगे चारद्वार में अरुणाचल प्रदेश के लिए तीन तरफ से मोटर मार्ग बने हुए हैं। चारद्वार से भालुक्पोंग के 35 किलोमीटर रास्ते में साल का विकसित जंगल मिलता है। यह साल असमिया प्रजाति से भिन्न है जो दूसरे भागों में पाया जाता है। साथ ही सेमल तथा टीक आदि के जंगल भी हैं। लेकिन इधर इंक्रोचमेंट भी बहुत दिखाई देता है।
इंक्रोचमेंट के बारे में बताया गया कि वह कछारी लोगों के द्वारा हो रहा है। इधर प्लेन ट्राईबल कम्युनिटी एसोसिएशन भी बना है। कुछ आगे बढ़ने पर छलछलाती हुई कामेंग नदी मैदान में प्रवेश करती है। इन दिनों इसकी धारा नीली और स्वच्छ दिख रही है। बीच-बीच में पत्थरों से टकराने से फेन भी बन जाता है। दाएं ओर के पाट में पेड़ घने हैं और जंगल गहरा हरा दिखता है। बताते हैं कि ये विशाल वृक्ष होलोक, तिता, सोव, कोकन, जुटली आदि के हैं। इधर कामेंग के पाटों को देखने से अंदाज लगाया जा सकता है कि इस मौसम में शांत दिखने वाली कामेंग वर्षांत के दिनों में काफी फैलाव लेती है। भालुक्पोंग से अरुणाचल राज्य शुरू हो जाता है। यहां से आगे प्रवेश पत्र की आवश्यकता पड़ती है। भालुक्पोंग वेस्ट कामेंग जिले का सर्किल हेड-क्वार्टर है। अरुणाचल प्रदेश के जिलों का नाम मुख्य रूप से वहां से बहने वाली नदियों के नाम पर है। इन्हीं के जलग्रहण के आधार पर जिलों की सीमा भी है।
जून 1980 से पूर्व तक यह कामेंग जिला था। उत्तर में चीन तथा पश्चिम में भूटान के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमा है तो दक्षिण की ओर यह असम राज्य से जुड़ा है। पूर्व में यह सुवर्णसीरी नदी तक फैला हुआ है। सन् 1980 में ईस्ट कामेंग तथा वेस्ट कामेंग जिलों में विभाजित हुआ। फिर वेस्ट कामेंग जिले की तबांग सब डिविजन को भी अक्टूबर 1984 में जिला बनाया गया। इस प्रकार अब वेस्ट कामेंग की सेन्जा रेंज, बोमडिला रेंज और फुट हिल्स रेंज की तीन प्रमुख पर्वत श्रेणियां हैं। वेस्ट कामेंग की (1981) की जनगणना) जनसंख्या 41567 है तथा इसके अंतर्गत 156 गांव एवं बोमडिला नगर है। यहां पर जनसंख्या का प्रतिवर्ग किलोमीटर सात का घनत्व है। वेस्ट कामेंग में पाच प्रमुख जनजातियां-मोनपा, मिजी, आकाज, शेरडुक्पा और खोबाज हैं। इनकी बोलियों में भिन्नता है।
भालुक्पोंग से सात किलोमीटर आगे कामेंग नदी के पश्चिम की ओर टिपीग्राम है। यहां पर नदी के किनारे पर वन विभाग का आर्किड अनुसंधान केंद्र है। इस अनुसंधान केंद्र के मुख्य वैज्ञानिक डॉ. हेगड़े के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में चार सौ से अधिक प्रजाति के आर्किडों को चिंहित किया जा चुका है। 50 प्रजातियों पर टिसू कल्चर के लिए प्रयोग किया जा चुका है। टिपी के पार कामेंग में 861 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाखुई वन्य जीव अभ्यारण्य है, जो सन् 1977 में स्थापित हुआ। यहां पर दिनों-दिन वन्य जंतुओं की संख्या में बढ़ोतरी होती बताई गई है। हाथी और टाईगर भी अभ्यारण्य में है। टिपी के आसपास यदा-कदा हाथी आ जाते हैं। टिपी के आगे पहाड़ बढ़ने शुरू हो जाते हैं। कामेंग नदी के दोनों ओर अधिक ढालदार पहाड़ हैं, जो घने विशाल वृक्षों से आच्छादित हैं। इन सदाबहार जंगलों में केले की भी बहुतायत है। कई प्रकार की लताएं और परजीवी वनस्पतियां भी हैं।
ये जंगल अधिकांश स्थानों पर इतने घने हैं कि इनके नीचे सूर्य की किरणें भी नहीं पहुंचती। धीरे-धीरे मोटर मार्ग पहाड़ी पर चला जाता है। जहां से कामेंग गहरी घाटी में प्रवाहित होती दिखती है। पहाड़ों के मध्य भाग में सैस्सा नाला नामक स्थान में वन विभाग ने आर्किड अभ्यारण्य की स्थापना की है जिसके निचले भाग में आर्किड नर्सरी है। इस अभ्यारण्य का क्षेत्रफल 85 हेक्टेयर हैं। इसकी स्थापना सन् 1982 में हो गई थी। इसमें बल्वोफिम, सिलोगाईन, सिम्बिडियम आदि अनेक आर्किड प्रजातियां हैं। अभ्यारण्य के कारण इस सदाबहार जंगल में ऊंचे-ऊंचे वृक्ष अपनी सम्पूर्णता लिए हुए हैं। एक-एक वृक्ष की सम्पूर्णता के साथ अनेक प्रजातियों के आर्किड, लताएं और झाड़ियों का अपना उपनिवेश बना हुआ है। इनकी पारस्परिकता इतनी उलझी हुई हैं कि इन्हें भिन्न से देख पाना बहुता कठिन हैं। किस तंतु के नष्ट होने से किस-किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा, यह भी कहा नहीं जा सकता।
बोमडिला और उसके आसपास के पहाड़ नंगे हो चुके हैं। कहीं-कहीं छितरे-बिखरे पेड़ दिखाई दे जाते हैं, जो अपनी पुरानी पीढ़ी की याद दिलाने के लिए अभी भी खड़े हैं। बोमडिला नगर में इधर-उधर लंबे-लंबे युकेलिप्टस के पेड़ जरूर दिख जाते हैं। उन्होंने इस ठंडे क्षेत्र में अपने अस्तित्व को जमा लिया है। बोमडिला के पश्चिम की ओर स्थित गांव में ऊपर बांज का आड़ी जंगल दिखाई देता है। इधर झूम वाले क्षेत्र तथा जंगल को साफ करके सेब के बाग लगाने की खूब होड़ लगी है। मार्च 1988 तक के आंकड़ों के आधार पर लोगों के 1067 फलों के उद्यान हैं। जिसमें से बोमडिला और उसके आसपास के क्षेत्र में 303 उद्यान हैं। पूरे जनपद में 1094 हेक्टेयर में से 800 हेक्टेयर भूमि में सेब के बाग लगाए गए हैं। बोमडिला नगर की जनसंख्या 3860 है तथा कुल 988 परिवार हैं। इनमें अधिकांश नौकरीपेशा वाले हैं। दिरांग घाटी के दोनों ओर फिर से हरियाली लाने का प्रयत्न चल रहा है। ब्लू-पाईन, चीड़, बांज, अंयार के पौधे विकासमान अवस्था में हैं। दिरांग नदी एक चौरस घाटी से प्रवाहित होकर कामेंग में मिल जाती हैं। दिरांग की सहायक सांगतीनाला, चुगनाला, नेकमाडुंग और सांगेनाला के जलग्रहण क्षेत्रों में भी वन विनाश के कारण पहाड़ियां नंगी हैं। जिससे भूक्षरण जारी है।
बोमडिला मे जानकारी मिली कि अवैध रूप से भी पेड़ों का कटान तेजी से हो रहा है। इसे रोक पाने में राजनैतिक दबाव आदि के आने की बात कही जाती है। बताया जाता है कि यहां पर परिवारों की आमदनी बढ़ाने के लिए एक दो पेड़ गांव वालों को आवंटित किए जाते हैं। इन पेड़ों के साथ और भी पेड़ काटे जाते हैं। यह धंधा मुख्य रूप से 1972-73 के बाद से शुरू होने की जानकारी मिली है। कुछ गांवों के चतुरों ने इसे सरलता से पैसा बनाने का धंधा बना लिया है। बताया जाता है कि एक होलक या खोकन के पेड़ के गांव वालों को पांच सौ से हजार रुपए तक मिल जाते हैं। होलक की लकड़ी की 12 रुपए घनफुट के हिसाब से वन विभाग वाले निकासी करते समय रायल्टी ले लेते हैं जबकि बिक्री 15 से 20 हजार रुपए में होती है। यह सिलसिला पूरे राज्य में चल रहा है। इस समय अरुणाचल सीमा में 30 प्लाइवुड बनाने की इकाईयां हैं। इसमें से 24 प्लाईवुड कारखानों, 61 आरा मिलों, 2 दियासलाई कारखानों को 57 हजार घनफुट लकड़ी का आवंटन वन विभाग करता है। लेकिन इनकी क्षमता इससे कई अधिक है। एक अनुमान के अनुसार लकड़ी पर आधारित इन सौ से अधिक कारखानों के लिए प्रतिवर्ष दो करोड़-घनफुट से अधिक लकड़ी काटी जाती है। एक दिलचस्प जानकारी यह भी मिली कि इन कारखानों के अधिकांश रजिस्ट्रेशन स्थानीय व्यक्तियों के नाम पर हैं पर इनके वास्तविक मालिक कोई और हैं।
जाने अनजाने इस वन विनाश के चक्र के साथ ये कारखाने भी जुड़े हुए हैं। पहले तो स्थानीय निवासी झूम ही करते थे। इसके साथ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लकड़ी, बांस, रिंगाल एवं घास तथा भोजन पकाने एवं कमरे गर्म करने के लिए लकड़ी प्राप्त करते थे। यदि इतना ही संबंध रहता तो परिस्थिति चिंताजनक न होती, समतौल बना रहता। अब तो वन विनाश के कई नये-नये कारक बन गए हैं। बोमडिला, दिरांग आदि नगरों से होकर 14 हजार फीट पर स्थित सेला पास से होकर अगली घाटी में प्रवेश किया तो देखा कि सेला से नीचे नोरोनंग नाले के आस-पास जंगलों की बुरी तरह से हजामत हुई है। यह इलाका अधिक ऊंचाई का है। इसलिए यहां एक बार वनस्पति का नाश हो गया तो दुबारा सिर उठाने में बहुत कठिनाई होती हैं। अनेक घुमावदार मोड़ों और बर्फीले रास्तों के बाद एकाएक जसवंतगढ़ सामने आ गया। सड़क के पास ही यह स्मारक है। सबसे पहली निगाह ‘बद्री-विशाल लाल की जय’ पर जाती है। नीचे अशोक चिह्न है और राइफल मैन जसवंत सिंह तता उसके सहयोगियों त्रिलोक सिंह और गोपाल सिंह सहित 154 शहीदों की वीरता का वर्णन भी कि कैसे उन्होंने 17 नवंबर 1962 को देश की सीमा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। जसवंत को महावीर चक्र दिया गया।
नवंबर 1962 में जब सारा देश दीपावली मना रहा था। रंग-बिरंगे प्रकाश पुंजों के बीच नहा रहा था, तो हिमालय के पूर्व और पश्चिम में हजारों सैनिक अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर रहे थे। तब आज की तरह वहां न मीडिया की पहुंच थी, न ही यातायात सुलभ था। दीपावली के बात छट-छट कर समाचार बाहर आ रहे थे। शहीदों की ठीक-ठीक संख्या का भी पता नहीं था। शहीद सैनिकों के बारे में तार भी बहुत विलंब से प्राप्त होते थे। जिलाधिकारी, सोल्जर बोर्ड की सूची से हमें पता चला कि चमोली जिले के मल्ला दशोली-नंदाक क्षेत्र से 16 जवान शहीद हुए हैं (मैं और स्व. आलम सिंह बिष्ट को जैसे ही जानकारी मिली तो शहीद परिवारों के पास सांत्वना देने के लिए घूमे। उस जमाने में आज की तरह न तो सहायता करने वाली संस्थाए थी, न जोश ही था। पर अपने सीमित साधनों से हम क्षेत्र में घूमे। आज भी याद आते हैं विलखते हुए मां-बास तथा युवतियों के करूण क्रंदन, ‘भैजी हम अब क्या करदा?’ वे सिर को दोनों हाथों से पटक रही थीं। उस आवाज का स्मरण ताजा हो जाता है।)।
उस समय भी उत्तराखंड के काली से लेकर यमुना के बीच के गांव के सैकड़ों जवान नेफा और लद्दाख में शहीद हुए थे। कुछ को तो चीनियों ने पकड़ भी लिया था। बोमडिला तथा तेजपुर तथा चीनियों के पहुंचने की अफवाएं फैलती रहती थी। दूसरी ओर लद्दाख के सीमांत क्षेत्रों से छुट कर समाचार आते थे। इन शहादतों की कहानियों से भरे सीमातों को देखने मेरे लिए एक अनमोल अनुभव था। मैंने वहां पर जसवंत सिंह एवं अन्य शहीदों को श्रद्धांजलि दी। एक घंटे तक वहां रुका रहा। पहरेदार सिपाहियों ने बताया कि जसवंत का बिस्तर सुबह गर्म रहता है। पानी एक भोजन को लेने का संकेत भी उन्होंने दिया। वहां पर स्मारक बना हुआ है। मैं उन वीर शहीदों के लिए अपने आंसू नहीं रोक सका। जसवंत गढ़ में जसवंत का बंकर, बिस्तर भी स्मारक के रूप में स्थित है। जसवंत के अलावा उन अन्य वीर सैनिकों की स्मृति भी जीवंत रखी गई है, जो जसवंत के साथ यहां शहीद हुए थे। नम्बर 4039009 राइफल मैन जसवंत सिंह दुगड्डा (गढ़वाल) के पास के गांव का रहने वाला था। लड़ते हुए शहीद होते समय उसकी उम्र मात्र 22 वर्ष थी।
रास्ते में जगह-जगह वीर सैनिकों के नाम से चोटियों के नाम थे। सेना पास के पास होशियार सिंह चोटी है। जसवंत गढ़ 11000 फुट की ऊंचाई पर है। तेजपुर से जसवंत गढ़ 280 किलोमीटर पर स्थित है तथा बोमडिला से तवांग 180 किलोमीटर दूर है। इस इलाके में चीनियों ने चौथी गढ़वाल राइफल्स को घेरा था। यह घटना 17 नवंबर 1962 को हुई थी। चीनियों ने जब हमला किया था तो वह सिर्फ सेना पर नहीं बल्कि स्थानीय प्रकृति पर भी था। तमाम जंगल को नष्ट कर उसने अपने टैंक ले जाने के लायक मार्ग बनाया और बहुत वन विनाश किया। आज भी कई एजेंसियां द्वारा वन विनाश का सिलसिला जारी है। आगे इसी प्रकार के घुमावदार मोड़ों से जंग बस्ती मिलती है। जहां मोटर मार्ग के आस-पास तो पेड़ नहीं है। किंतु गांव का बूढ़ा बताता है कि उनके गांव की देखरेख में जंगल सुरक्षित है। इस जंगल की देखरेख गांव के लोग करते हैं। इसी प्रकार जंग के सामने की पहाड़ी पर स्थित जंगडाबस्ती आदि अनेकों गांव के गांव वन आज भी सुरक्षित और हरे-भरे दिखते हैं। नदियों के पनढालों को समझना हो तो उनके मैदान में प्रवेश करने के बाद देखा जा सकता है। असम में ब्रह्मपुत्र का विराट रूप मिलता है तो अरुणाचल में उसकी शाखाओं तथा बिगड़े हुए जल संग्रह क्षेत्रों को जानने-समझने का मौका मिलता है। उफनती और बौखलाती हुई नदियों के पीछे उनके पनढालों में हुए अत्याचारों का सीधा-सीधा संबंध होता है। यह गंगा से लेकर ब्रह्मपुत्र और उसकी अनगिनत शाखाओं के पनढालों हुई बर्बादी में देखा जा सकता है। कामेंग को असम में भरोली नदी कहते हैं। यह मलबे से पटी हुई है और हर साल बाढ़ लाती है। स्वयं तथा ब्रह्मपुत्र में समाहित होकर भी असम को अपने संकट से घेरती रहती है। इसलिए आने वाली पीढ़ियों को बाढ़ की त्रासदी से मुक्ति के लिए नदियों के पनढालों को अनुभव जनित ज्ञान से सुधारा जाना चाहिए।