साल के जाते-जाते नर्मदा से फिर भेंट हो गई। मन में आस लगी ही रहती है, उसके दर्शन की। इस बार 26 दिसम्बर को जब नरसिंहपुर में था तो बहन बोली- चलो भैया नर्मदा चलते हैं। सुबह ठंड बहुत थी तो निकलते-निकलते देर हो गई। आटो से चले तो राजमार्ग से होते हुए कुछ ही देर में बरमान पहुँच गए।
मुझे पिछली बार की यात्रा की याद आ गई। जो मैंने करेली के पहले कठौतिया से अन्दर वाले रास्ते से की थी। वह रास्ता भी बहुत अच्छा था। उस रास्ते में हमें पेड़, पौधे, गेहूँ और गन्ने के खेत, बैलगाडियाँ और लोग मिले थे। राजमार्ग पर गुड़ बनाने की फ़ैक्टरियाँ, ढाबे और कुछ जगह अंग्रेजी स्कूल दिखे।
इसके अलावा, सरसों, गन्ने, अरहर और गेहूँ के खेत पड़े। सरसों के पीले फूल हवा में झूलते हुए आकर्षित कर रहे थे। हरे-भरे गेहूँ के खेत अपनी हरियाली छटा से लुभा रहे थे। लेकिन लोग नहीं मिले। यही फर्क है हाइवे और पगडंडी में। पगडंडी में सब कुछ अनगढ़ सा रहता है वहाँ नई-नई चीजें देखने मिलती हैं, हाइवे में डामर की सड़क पर दौड़ते सरपट पहुँच जाते हैं।
आटो में मेरी पत्नी, बहन, बहनोई उनके दो बेटे साथ थे। हम लोग साथ में बाटी भर्ता बनाने का सामान लेकर गए थे। भटे (बैंगन), टमाटर, आलू और कंडे (गोबर के उपले) भी। जब हम वहाँ पहुँचे तब दोपहर हो चुकी थी। संक्रांति के मेले की तैयारी चल रही है। कुछ दुकानों के लिये लकड़ियों के मंडप और साफ-सफाई का काम चल रहा था। श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा हुआ था। लोग नहा रहे थे, नर्मदा की पूजा-अर्चना कर रहे थे।
साफ आसमान में सुन्दर पंछी उड़ान भर रहे थे। कौआ थे, जो नर्मदा की छिर में चोंच मार-मार कुछ खा रहे थे। कुत्ते थे, जो इधर-उधर भोजन की तलाश में थे। कुछ बच्चे उघाड़े होकर घूम रहे थे, जो नर्मदा की चढौत्री पर नजर गड़ाए हुए थे, सिक्के और नारियल वगैरह बीनते नजर आ रहे थे।
मैं नर्मदा में डुबकी लगाने गया। पानी बहुत ठंडा था। इसका कारण एक यह है कि ऊपर जबलपुर के पास बरगी बाँध से पानी छोड़ा जाता था, वही नर्मदा में है। एक बार मछुआरों ने बताया था कि इस ठंडे पानी के कारण मछलियाँ मर भी जाती हैं। इसलिये अब कम मछली मिलती है। मैंने दो डुबकी लगाई। बहनोई ने कहा वे एक ही डुबकी लगा सकते हैं।
नर्मदा में पानी बहुत कम है। धार भी पतली हो गई है। मेरा बचपन से ही नर्मदा से रिश्ता रहा है। मेरी बुआ होशंगाबाद जिले में नर्मदा किनारे गाँव की थीं और हम बचपन में उनके घर जाते थे।
खासतौर से केतोधान के मेले में जाते ही थे। इस मेले में जन सैलाब उमड़ता है। लोग बैलगाड़ियों और ट्रैक्टरों से आते थे। तब नर्मदा में बहुत पानी होता था। बड़े झादे (नाव) में बैठकर नर्मदा पार करते थे। तब नाविक बाँस के चप्पू से नाव खेते थे। बाँस पूरा पानी में चला जाता था। अब तो पैदल ही नर्मदा को पार किया जा सकता है। पानी ही नहीं है। उसकी ज्यादातर सहायक नदियाँ सूख गई हैं।
इधर बहन और भांजे ने कंडों (गोबर के उपले) की अंगीठी लगा दी और भर्ता बनाने के लिये उसमें भटे (बैंगन), आलू, टमाटर डाल दिये हैं। बरमान के भटे (बैंगन) बड़े साइज के होते हैं। हमनें वही खरीदे। सलाद के लिये मूली और गाजर भी। आटे की बाटियाँ बन चुकी हैं। अंगारों में डाल दी गई हैं। उन्हें हमेशा उलटाते-पलटाते रहना पड़ता है, नहीं तो वे जल जाती हैं। कहा जाता है कि अगर बावन बार एक बाटी को पलटो तो वे पूरी तरह सिक जाती है।
उधर भांजे थाली में लेकर भुने हुए आलू, भटे और टमाटर को नर्मदा में धोकर ले आया है। ईंट का चूल्हा बनाकर उसमें छोंक लगाया जा रहा है। अब बाटियाँ सिक गई हैं। बहन अब घी लगा रही है। सब लोगों ने नहा लिया है। पालीथीन का उपयोग कम हो गया है। नहाते समय साबुन भी नहीं लगाया। नर्मदा में प्रदूषण न हो इसके बारे में चेतना देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा।
अब बाटी भर्ता की पंगत चल रही है। सबने भरपेट भोजन किया। काफी दिनों बाद स्वादिष्ट भर्ता-बाटी का आनन्द लिया। बाटी और भर्ता ही परकम्मावासी बनाते हैं। इसमें न ज्यादा बर्तनों की जरूरत है न ज्यादा सामान की। और न ही ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। बहुत से परकम्मावासी भी मिले। कुछ भजन कर रहे थे।
सामने उस पार मन्दिर थे। नर्मदा का पाट चौड़ा है। नावें चल रही थीं। अब लौटने का समय हो गया था। जितनी बार नर्मदा के दर्शन करते हैं, उतनी ही ज्यादा दर्शनों की चाह बनी रहती है। अब देखो फिर कब बुलाती हैं।
लेखक