लेखक
Source
पंकज चतुर्वेदी/ livehindustan.com
यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पानी की बर्बादी को रोकना, लोंगो को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।पिछले साल वहां ठीक-ठाक बारिश हुई थी, पूरे पांच साल बाद। एक बार फिर बुंदेलखंड सूखे से बेहाल है। लोगों के पेट से उफन रही भूख-प्यास की आग पर सियासत की हांडी खदबदाने लगी हैं। कोई एक महीने पहले बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाले मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कांग्रेसी राहुल गांधी के साथ प्रधानमंत्री से मिले थे और क्षेत्र में राहत के लिए विशेश पैकेज और प्राधिकरण की मांग रखी थी। उधर मप्र और उत्तर प्रदेश की सरकारें इस तरह के विशेष पैकेज या प्राधिकरण को देश के गणतांत्रिक ढांचे के विपरीत मान रही हैं। मसला सियासती दांव-पेंच में उलझा है और दो राज्यों के बीच फंसे बुंदलेखंड से प्यासे, लाचार लोगों का पलायन जारी है।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं.. सभी को।
यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पानी की बर्बादी को रोकना, लोंगो को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
मध्यप्रदेश के सागर संभाग के पांच जिले - छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, सागर और दमोह व चंबल का दतिया जिला मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में आते हैं। जबकि उत्तर प्रदेश के झांसी संभाग के सभी जिले- झांसी, ललितपुर, बांदा, महोबा, चित्रकूट, उरई और हमीरपुर बुंदलेखंड भूभाग में हैं। बुंदेलखंड प्राकृतिक संपदा के मामले में संपन्न हैं, लेकिन यह अल्प वर्षा का स्थाई शिकार हैं, सरकारी उपेक्षा का शिकार तो खैर हैं ही।
बुंदेलखंड की विडंबना है कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकरूप भौगोलिक क्षेत्र होने के बावजूद यह दो राज्यों- मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में बंटा हुआ हैं। कोई 1.60 लाख वर्गकिमी क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक है। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदानें हैं, जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता हैं।
दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं, उसमें अधिकांश में गारा-गुम्मा का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं। शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं, जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्षा से अधिक कर उगाह कर देता हैं, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता हैं। इलाके का बड़ा हिस्सा रेल लाइन से मरहूम है, सड़कें बेहद खराब हैं। कारखाने कोई हैं नहीं। राजनीति कट्टे और पट्टे यानी बंदूक का लाइसेंस व जमीन के पट्टे के इर्दगिर्द घूमती रहती हैं।
बुंदेलखंड के पन्ना में हीरे की खदानें हैं, यहां का ग्रेनाइट दुनियाभर में धूम मचाए हैं। खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट पत्थर, रेत-बजरी के भंडार हैं। गांव-गांव में तालाब हैं, जहां की मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं। कभी पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव- कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे।
ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे -बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए।
समय बदला और गांवों में हैंडपम्प लगे, नल आए तो लोग इन तालाबों को भूलने लगे। गत् दो दशकों के दौरान भूगर्भ जल को रिचार्ज करने वाले तालाबों को उजाड़ना और अधिक से अधिक टयूब वेल, हैंडपंपों को रोपना ताबड़तोड़ रहा। सो जल त्रसदी का भीषण रूप तो उभरना ही था। आधे से अधिक हैंडपंप अब महज ‘शो-पीस’ बनकर रह गए हैं। साथ ही जल स्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है। इससे खेतों की तो दूर, कंठ तर करने के लिए पानी का टोटा हो गया है।
pankaj_chaturvedi @hotmail. com
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है- अफसरों, नेताओं.. सभी को।
यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं, बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पानी की बर्बादी को रोकना, लोंगो को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये तीन उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
मध्यप्रदेश के सागर संभाग के पांच जिले - छतरपुर, पन्ना, टीकमगढ़, सागर और दमोह व चंबल का दतिया जिला मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड में आते हैं। जबकि उत्तर प्रदेश के झांसी संभाग के सभी जिले- झांसी, ललितपुर, बांदा, महोबा, चित्रकूट, उरई और हमीरपुर बुंदलेखंड भूभाग में हैं। बुंदेलखंड प्राकृतिक संपदा के मामले में संपन्न हैं, लेकिन यह अल्प वर्षा का स्थाई शिकार हैं, सरकारी उपेक्षा का शिकार तो खैर हैं ही।
बुंदेलखंड की विडंबना है कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकरूप भौगोलिक क्षेत्र होने के बावजूद यह दो राज्यों- मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में बंटा हुआ हैं। कोई 1.60 लाख वर्गकिमी क्षेत्रफल के इस इलाके की आबादी तीन करोड़ से अधिक है। यहां हीरा, ग्रेनाइट की बेहतरीन खदानें हैं, जंगल तेंदू पत्ता, आंवला से पटे पड़े हैं, लेकिन इसका लाभ स्थानीय लोगों को नहीं मिलता हैं।
दिल्ली, लखनऊ और उससे भी आगे पंजाब तक जितने भी बड़े निर्माण कार्य चल रहे हैं, उसमें अधिकांश में गारा-गुम्मा का काम बुंदेलखंडी मजदूर ही करते हैं। शोषण, पलायन और भुखमरी को वे अपनी नियति समझते हैं, जबकि खदानों व अन्य करों के माध्यम से बुंदेलखंड सरकारों को अपेक्षा से अधिक कर उगाह कर देता हैं, लेकिन इलाके के विकास के लिए इस कर का 20 फीसदी भी यहां खर्च नहीं होता हैं। इलाके का बड़ा हिस्सा रेल लाइन से मरहूम है, सड़कें बेहद खराब हैं। कारखाने कोई हैं नहीं। राजनीति कट्टे और पट्टे यानी बंदूक का लाइसेंस व जमीन के पट्टे के इर्दगिर्द घूमती रहती हैं।
बुंदेलखंड के पन्ना में हीरे की खदानें हैं, यहां का ग्रेनाइट दुनियाभर में धूम मचाए हैं। खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट पत्थर, रेत-बजरी के भंडार हैं। गांव-गांव में तालाब हैं, जहां की मछलियां कोलकाता के बाजार में आवाज लगा कर बिकती हैं। आंवला, हर्र जैसे उत्पादों से जंगल लदे हुए हैं। कभी पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव- कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे।
ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे -बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोने वाले नाबदान बन गए।
समय बदला और गांवों में हैंडपम्प लगे, नल आए तो लोग इन तालाबों को भूलने लगे। गत् दो दशकों के दौरान भूगर्भ जल को रिचार्ज करने वाले तालाबों को उजाड़ना और अधिक से अधिक टयूब वेल, हैंडपंपों को रोपना ताबड़तोड़ रहा। सो जल त्रसदी का भीषण रूप तो उभरना ही था। आधे से अधिक हैंडपंप अब महज ‘शो-पीस’ बनकर रह गए हैं। साथ ही जल स्तर कई मीटर नीचे होता जा रहा है। इससे खेतों की तो दूर, कंठ तर करने के लिए पानी का टोटा हो गया है।
pankaj_chaturvedi @hotmail. com
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं