बूंद बूंद पानी

Submitted by admin on Mon, 12/20/2010 - 11:16
Source
जनसत्ता, 20 दिसंबर, 2010
अतीत बंदरिया के मरे बच्चे की तरह बोझ है और भविष्य भूमंडलीकरण के हाथों में है। अब आवश्यकता की जननी जरूरत-बेजरूरत बारहों माह फल लुटा सकती है। हम कुआं खुदवा कर बूंद-बूंद पानी का भंडारण क्यों, करें, हम तो जरूरत पड़ने पर टैंकरों, रेल-हवाई जहाज से भी पानी मंगाने की औकात रखते हैं। गरमी लगते ही बूंद-बूंद पानी की तलाश शुरू हो जाती है। आसपास के कुएं सूख जाते, मां दस हाथ की रसरी लेकर, टीकाटीक दोपहर में पांच किलोमीटर दूर ‘इमरती’ कुएं से पानी खोजने निकलती। हम बच्चे भी ‘कुआं का पानी कुआं में जाए, ताल का पानी ताल में जाए’ गाते हुए एक-एक बूंद पानी को जलाशयों में फिर विसर्जित कर देते। उपभोग और बचत के बीच चक्रीय व्यवस्था थी और यह व्यवस्था जीवन और संस्कारों में समाई हुई थी। लोक जीवन का प्रथम ‘निष्क्रमण संस्कार’ पानी की तलाश से ही शुरू होता है।

हमारा समय तात्कालिकता का है। हमारे पास पानी का विकल्प ‘मिनरल वाटर’ ही नहीं, प्यास का भी विकल्प है। टीवी पर एक विज्ञापन आता है- ‘क्या आम की प्यास का कोई इलाज नहीं? इलाज है-माजा पीजिए।’

अक्सर मुझे पत्र-पत्रिकाओं से पत्र मिलते हैं- ‘लोक में बूंद-बूंद पानी बचाने पर कुछ लिख भेजिए।’ क्या लिखूं सिवाय इसके कि बूंद-बूंद पानी को पानी में ही विसर्जित कर दीजिए, बस! एक फिल्म अभिनेता की तरह मैं यह घोषणा तो कर नहीं सकता कि ‘अब से मैं अपना शॉवर बंद रखूंगा, दो बाल्टी की जगह एक बाल्टी पानी से स्नान करूंगा, पानी की जगह ‘मिनरल वाटर’ पिऊंगा!’ लोक जीवन और जरूरत के न्याय-नियम से खर्च-बचत करता है- ‘साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाए, मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।’

टीवी पर एक विज्ञापन आता है – प्यास से बेहाल एक आदिवासी जमीन से कोई कंद खोदता है, उसे निचोड़ता है, पानी की एक बूंद भी नहीं टपकती। हवा में आवाज गूंजती है- लेमन... लेमन... लेमन...। कृषि वैज्ञानिकों ने बूंद-बूंद बचाने के लिए ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ पद्धति खोजी है। अच्छी है, पर मेरे लिए तो कुआं-ताल से अच्छी ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ नहीं हो सकती। पानी व्यर्थ नहीं होता, हमारी अकर्मण्यता, लोभ-लालच के आगे हार जाता है। वृक्ष काटे जा रहे हैं, प्रकृति का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, कुआं-ताल खुदवाने की संस्कृति छीज रही है, नदियों में हम मुर्दे, मल-मूत्र बहाते हैं। प्रकृति सहचरी होती है। एक लोककथा है। एक बार राज इंद्र ने मेघ को न बरसने का आदेश दिया। मेघ बोला-मोर न बोले तो मैं क्यों बरसूंगा। मोर बोली –मैं तो बादलों का गर्जन सुन कर नाचती हूं। बादल बोले-मैं तो मेंढकों की ‘टर्र-टर्र’ सुन कर गरजता हूं। संपूर्ण प्रकृति में कार्य-उपकार्य का भाव संबंध है। वृक्ष अपनी जड़ों में पानी बचाते ही नहीं हैं, धरती की नमी को भी कायम रखते हैं। छोटी-छोटी पहाड़ियों की तलहटियों में भी जलकुंड होते हैं। वे अपने उदर से एक-एक बूंद टपकाते रहते हैं। पूरी तरह उलीच दो, फिर भर जाते हैं।

जलाभाव के कारण बुंदेलखंड सभ्यता के मोर्चे पर पराजित जनपद है। नर्मदा के अलावा कोई बड़ी नदी नहीं है, लेकिन जल खोजी हजारों ताल लाखों कुएं हैं। आल्हा-ऊदल के स्थान के महोबा में तो सात विशाल सरोवर रहे हैं। सोने की कुदाली से कुआं-ताल खुदवाने के लोकगीत-गाथाएं गूंजती रहती हैं। हमारे शहर का नाम सागर तो समुद्र जैसे लहराते सरोवर के कारण ही ‘सागर’ हुआ है। हमारे ताल का पानी अरहर की दाल गलाने में मुफीद माना जाता था। वह हमारी रसोई में भी शामिल था। आज वह उपेक्षित पड़ा है- मृत सागर । पूरे नगर का मल-मूत्र विसर्जित करके हमने उसे इतना प्रदूषित कर दिया है कि परिंदे भी चोंच मारने में डरते हैं। न जाने कहां से उसमें जलकुंभी (जलीय वनस्पति) ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। पूरे नौ-दस माह वह फलती-फूलती रहती है। गरमी लगते ही प्रशासन-स्वयंसेवी संगठन उसे निकालने के लिए सक्रिय हो उठते हैं। जलकुंभी निकालते हुए की फोटो खिंचती हैं, नामों सहित अखबारों में खबरें छपती हैं। किनारों पर पड़ी-पड़ी जलकुंभी सड़ती रहती है और बारिश में बह कर तालाब में लहराने लगती है।

नगर में 1955-56 में नलयोजना प्रारंभ हुई जो कुछ दशकों में ही बैठ गई। अब नई परियोजना राजघाट शुरू हुई है। जल योजना के आते ही अधिकतर कुएं पाट दिए गए। केंद्रीय जल बोर्ड के सूत्रों के अनुसार मध्यप्रदेश में 2001 में अठारह जिलों में तीन लाख कुएं थे। इनमें से दो लाख का आज अता-पता नहीं है। नल जलाशयों के मोहताज होते हैं। नल का एक विकल्प है नलकूप। गाय से एक सीमा के बाद दूध दुहने पर खून दुहने लगता है। जल बचाने के तीन ही साधन हैं- नदी, ताल और कूप पर्याप्त हैं। इन्हें अपनाओ, रक्षा करो, अभय दो, मरुस्थल के हवाले न करो। अंतिम समय यही तुम्हारे जीवन और जीवनी को बचाएंगे। ख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र तो कब से चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं- ‘अब भी खरे हैं तालाब।’