राजीव रंजन प्रसाद/ अभिव्यक्ति हिन्दी
कहाँ है पानी? सावन के लिये तरसती आँखे आज फ़सलों को जलते देखने के लिये बाध्य हैं, रेगिस्तान फैलते जा रहे हैं, ग्लेशियर पिघल रहे हैं और नदियाँ, नालों में तब्दील होती जा रही हैं। कमोबेश समूचे विश्व की यही स्थिति है।
सतह के जलस्रोतों के हालात हम अपनी आँखों से देख कर महसूस कर सकते हैं, क्षुब्ध हो सकते हैं, विचलित हो सकते हैं, किंतु ग्लेशियरों से पिघल कर सागर में मिल जाने वाली सरिताओं, तालाबों, झीलों के परे भी पीने-योग्य जल की एक दुनिया है जिनकी उपादेयता से तो हम परिचित हैं, किंतु स्थिति से नहीं।
उपयोगिता की दृष्टि से भूमिगत जल, सतह पर पीने योग्य उपलब्ध जल संसाधनों के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण है। भारत के लगभग अस्सी प्रतिशत गाँव, कृषि एवं पेयजल के लिये भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं और दुश्चिंता यह है कि विश्व में भूमिगत जल अपना अस्तित्व तेजी से समेट रहा है। विकासशील देशों में तो यह स्थिति भयावह है ही जहाँ जल स्तर लगभग तीन मीटर प्रति वर्ष की रफ़्तार से कम हो रहा है पर भारत में भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अन्वेषणों के अनुसार भारत के भूमिगत जल स्तर में 20 सेंटी मीटर प्रतिवर्ष की औसत दर से कमी हो रही है, जो हमारी भीमकाय जनसंख्या की ज़रूरतों को देखते हुए गहन चिंता का विषय है।
मृदा (धरती की ऊपरी सतह) की अनेक सतहों के नीचे चट्टानों के छिद्रों या दरारों में छिपा आज सबसे कीमती खजाना है- भूमिगत जल, जिसके सिमटते ही मनुष्य डायनासोर की भांति विलुप्त हो सकते हैं। एक समय पर दुनिया पर अधिकार रखने वाले ये डायनासोर, एक शोध के अनुसार, भोजन की कमी के कारण समाप्त हो गये थे, तो यह शंका भी निर्मूल नहीं कि एक दिन मनुष्य बिना पानी के समाप्त हो जाएँगे?
परिभाषाओं के चक्रव्यूह में न पड़ कर साधारण उदाहरणों से भूमिगत जल और उसकी तकनीकी बातों को समझने का यत्न करते हैं। एक घड़ा पानी कच्ची जमीन में उझल कर देखें। मिट्टी उसे सोख लेगी। यह सोख लिया जाना ही बारिश के पानी को जमीन के भीतर पहुँचाने का पहला पड़ाव है। बारिश का पानी, अपनी क्षमताओं और गुणों के अनुरूप, मिट्टी पहले तो स्वयं सोख लेती है और जब वह तृप्त हो जाती है तो इसी रास्ते, पानी उन चट्टानों तक पहुँचने लगता है जो मृदा की परतों के नीचे अवस्थित हैं।
लेकिन न तो हर प्रकार की मिट्टी, पानी को जल ग्रहण करने वाली इन चट्टानों तक पहुँचाने में सक्षम होती है न ही हर प्रकार की चट्टाने पानी को ग्रहण कर सकती हैं। कायांतरित अथवा आग्नेय चट्टानों की अपेक्षा अवसादी चट्टानें अधिक जल धारक होती हैं जैसे कि बलुआ चट्टानें। कठोर चट्टानों में जल-संग्रहण कर सकने योग्य छिद्र ही नहीं होते। हाँ यदि ग्रेनाइट जैसे कठोर पत्थरों में किसी कारण दरारें उत्पन्न हो गयीं हों तो वे भी भूमिगत जल का स्वयं में संग्रहण करते हैं। जिन भूमिगत चट्टानों में छिद्र अथवा दरारें होती है उनमें यह पानी न केवल संकलित हो जाता है अपितु एक छिद्र से दूसरे छिद्र होते हुए अपनी हलचल भी बनाये रखता है और ऊँचे से निचले स्थान की ओर प्रवाहित होने जैसे सामान्य नियम का पालन भी करता है। मृदा से चट्टानों तक पहुँचने की प्रक्रिया में पानी छोटे-बड़े प्राकृतिक छिद्रों से छनता हुआ संग्रहीत होता है अत: इसकी स्वच्छता निर्विवाद है। किंतु यही पानी यदि प्रदूषित हो जाये तो फिर बहुत बड़े जल संग्रहण को नुकसान पहुँचा सकता है, चूंकि ये भूमिगत जलसंग्रह बड़े हो सकते हैं या आपस में जुड़े हो सकते हैं।
वर्षाजल और सतही जल का आपसी संबंध भी जानना आवश्यक है। नदियों में बहने वाला जल केवल वर्षा जल अथवा ग्लेशियर से पिघल कर बहता हुआ पानी ही नहीं है। नदी अपने जल में भूमिगत जल से भी योगदान लेती है साथ ही भूमिगत जल को योगदान देती भी है। ताल, झील और बाँधों के इर्द-गिर्द भूमिगत जल की सहज सुलभता का कारण यही है कि ये ठहरे हुए जलस्रोत आहिस्ता-आहिस्ता अपना पानी इन भूमिगत प्राकृतिक जल संग्रहालयों को प्रदान करते रहते हैं। इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर जाए जाने वाले जलस्रोत और भूमिगत जलस्रोत एक दूसरे पर की सहायता पर निर्भर होते हैं। वर्षा का जल यदि संग्रहित कर चट्टानों तक पहुँचाया जाये तो भूमिगत जलाशयों को भरा जा सकता है। प्रकृति अपने सामान्य क्रम में यह कार्य करती रहती है, किंतु आज जब यह समस्या विकराल है तो मनुष्य के लिए अभियान बना कर यह कार्य करना आवश्यक हो गया है। इस अभियान का प्रमुख उद्देश्य जल को जीवन मान कर बचाया जाना और सरल वैज्ञानिक विधियों द्वारा इसे भूमि के भीतर पहुँचाया जाना है जिसमें हम में सभी को जुटना होगा।
वर्षा का ज्यादातर पानी सतह की सामान्य ढालों से होता हुआ नदियों से मिल कर सागर में होम हो जाता है। वर्षा का यह बहुमूल्य शुद्ध जल यदि भूमि के भीतर पहुँच सकता तो बैंकिंग प्रणाली की तरह कारगर होता यानी कि जमा पर ब्याज का लाभ भी प्राप्त किया जा सकता था। भूमिगत जल मानसून के बाद भी मृदा की नमी बनाये रखते हुए अपना व्याज निरंतर अदा करता रहता है साथ ही कुएँ और नलकूप आदि साधनों द्वारा खोती के काम आता है और जन सामान्य की प्यास भी बुझाता रहता है। इसे प्राकृतिक जल संचयन स्टोरेज टैंक भी कहा जा सकता है।
समस्या गंभीर इसलिये हो जाती है क्यों कि मृदा (धरती की ऊपरी सतह) अपने भौतिक रासायनिक गुणों के अनुरूप ही सतही जल अथवा वर्षा जल को ग्रहण कर सकती है। यानी कि तेजी से बहते हुए पानी का थोड़ा सा हिस्सा ही जमीन के भीतर पहुँच पाता है, जबकि ठहरे हुए पानी का काफ़ी बड़ा हिस्सा धीरे धीरे भूमिगत जलाशयों तक पहुँच जाता है।
जब जनसंख्या बढ रही है और प्रकृति अपने सीमित संसाधनों के बावजूद स्वयं को मिटा कर अपनी सबसे बुद्धिमान रचना मनुष्य को बचाने मे लगी है तो कहीं इस बुद्धियुक्त प्राणी का भी कर्तव्य है कि वह स्वयं के संरक्षण के लिये उठ खडा हो और इसके लिये अपने ही भूमिगत जल संसाधनों को बढ़ाने में प्रकृति से सहयोग करे। ऐसा भी नहीं है कि प्राकृतिक-वर्षा-जल को भूमिगत स्रोतों तक पहुँचाना कठिन कार्य है। निजी प्रयासों से ले कर सामूहिक प्रयत्नों से इसको संभव बनाया जा सकता है।
चूंकि खेत प्यासे नहीं रह सकते, मवेशी प्यासे नहीं रह सकते, आदमी प्यासा नहीं रह सकता और कारखाने भी चलने ही हैं तो भूमिगत जल को बाहर निकालने की आवश्यक निरंतर बनी रहती है लेकिन जिस स्रोत से दोहन किया जा रहा है उस स्त्रोत में वापस जल का उसी मात्रा में पहुँचना भी तो आवश्यक है। उपलब्धता से अधिक उपयोग की स्थिति में परिणाम गंभीर हो सकते हैं। कई बार इन स्रोतों को, जिन्हें तकनीकी भाषा में “एक्वीफर” या भूमिगत जलाशय कहा जाता है, का आवश्यकता से अधिक दोहन करने पर या तो ये पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं या इनमें जल संग्रह क्षमता बहुत ही कम हो जाती है।
इतना ही नहीं वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में अनगिनत फ़ैक्ट्रियों के चलते उनके प्रदूषित रसायनों को पृथ्वी पर बहा दिए जाने, विभिन्न कारणों से विभिन्न रसायनों और अस्वास्थ्यकर पदार्थों को ज़मीन से दफ़ना दिए जाने तथा सफ़ाई व संक्रमण से रोकथाम के लिए व कीटनाशकों के निरंतर प्रयोग से भूमिगत जलाशयों के प्रदूषण की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है।
प्रकृति का सर्वोत्तम, समर्थ एवं बुद्धिमान सदस्य होने की हैसियत से हमें निजी प्रयासों से भूमिगत जल के संरक्षण का संकल्प लेना चाहिए। इसके लिए हर व्यक्ति अपने स्तर पर कम से कम यह तो कर ही सकता है कि –
वर्षाकाल में मकानों की छत पर गिरे जल को जमीन में पहुँचाने की व्यवस्था बना दी जाए।
आँगन को कच्चा रखने की पुरानी परंपराओं का अनुपालन किया जाए।
कम से कम एक वृक्ष लगाया जाए।
पानी की बरबादी को रोका जाए जैसे कि उपयोग के बाद नल को बंद कर दिया जाए।
सरकारी प्रयास और वैज्ञानिक शोधों से इस समस्या का आंशिक समाधान ही निकलेगा किंतु यदि जन जन इस समझ को विकसित कर ले तो बूंद बूंद से घड़ा भरते देर नहीं।