बीते दिनों उत्तराखण्ड की नैनीताल हाई कोर्ट ने अपने एेतिहासिक फैसले में गंगा और यमुना नदी को वैधानिक व्यक्ति का दर्जा दिया। फैसले के अनुसार इन दोनों नदियों को क्षति पहुँचाना किसी इंसान को नुकसान पहुँचाने जैसा माना जायेगा। ऐसे कृत्य के लिये आईपीसी के तहत मुकदमा दर्ज किया जायेगा और व्यक्ति को जेल भी भेजा जा सकेगा। गौरतलब है कि पिछले दिनों न्यूजीलैण्ड की बांगानुई नदी को इंसान का दर्जा दिया गया है। इसके तहत उसके पास इंसानों जैसे अधिकार होंगे। इसके लिये वहाँ के माओरी जनजाति के लोग पिछले 160 सालों से संघर्ष कर रहे थे। यह वहाँ की सबसे बड़ी नदी है जो नॉर्थ आईलैण्ड में बहती है। 290 किलोमीटर लम्बी इस नदी के बेसिन का क्षेत्रफल 7380 वर्गकिलोमीटर है। वहाँ के लोगों के लिये यह नदी माँ के समान है।
वह इसे अपना पूर्वज मानते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि समूची दूनिया में यह पहला मौका है जब किसी प्राकृतिक संसाधन को कानूनी दर्जा दिया गया है। ठीक उसी तरह देहरादून निवासी मोहम्मद सलीम की याचिका पर नैनीताल हाई कोर्ट का निर्णय भारतवासियों के लिये गर्व का विषय है। अब सवाल यह उठता है कोर्ट ने तो अपना निर्णय दे दिया है लेकिन हम अपनी नदियों का सम्मान कब करेंगे। क्या नैनीताल हाईकोर्ट का निर्णय देश की नदियों के भविष्य को उज्जवल बना सकेगा। देश में जो नदियों की हालत है, उससे सभी भलीभाँति परिचित हैं। असलियत में देश की नदियाँ आज अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। उनका कोई पुरसाहाल नहीं है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।
यह सर्वविदित है कि दुनिया में यदि किसी नदी को पापनाशिनी, मोक्षदायिनी और जीवनदायिनी की संज्ञा दी जाती है, तो वह है भारत की कुल मिलाकर 40 फीसदी आबादी को पालने-पोसने वाली प्रमुख पवित्र नदी गंगा जो देश के पाँच राज्यों यथा उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में होकर तकरीब 2510 किलोमीटर के दायरे में बहती है। वेद शास्त्रों तक में इसकी महिमा का उल्लेख है और इसे माँ कहा गया है। इसके जल को अमृत तुल्य माना गया है। इसे हर धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग में लाया जाता है। इसके धार्मिक, सांस्कृतिक महत्त्व तो हैं हीं, इसके आर्थिक महत्त्व को भी किसी कीमत पर नकारा नहीं जा सकता। लेकिन प्रदूषण के चलते इसके अस्तित्व पर ही खतरा है।
विडम्बना यह कि यह सब उस स्थिति में है जबकि देश की 40 फीसदी आबादी तो इस पर निर्भर है ही, तकरीब 50 करोड़ लोगों को इससे रोजगार हासिल है, यदि इसके अस्तित्व को खतरा होता है तो 25 करोड़ के करीब लोग बेरोजगार हो जायेंगे, पर्यावरण का आधार यह लुप्तप्राय तकरीब 100 उभयचर प्रजातियों और मीठी सौंस के नाम से जानी जाने वाली डाॅल्फिन सहित पाँच सेंटासिन प्रजातियों का आवास स्थल भी है। यही नहीं इसके डेल्टा में तकरीब 219 जलीय और 289 जमीनी प्रजातियाँ, 315 प्रकार के पक्षी और 179 तरह की मछलियाँ पायी जाती हैं। इसके अलावा 42 प्रकार के स्तनपायी और 35 से अधिक प्रकार के रेंगने वाले जानवर भी मैंग्रोव में आश्रय पाते हैं।
दुख इस बात का है कि इतनी विशेषताओं से परिपूर्ण गंगा की शुद्धि के बारे में तकरीब तीन दशक से दावे-दर-दावे किए जा रहे हैं, योजनाएँ-दर-योजनाएँ बनी लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात वाली कहावत के रूप में सामने आया। ढाई वर्ष पूर्व देश की सत्ता पर काबिज राजग सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपनी सरकार की प्राथमिकताओं में गंगा की शुद्धि को वरीयता दी और नमामि गंगे के नाम से अपनी महत्त्वपूर्ण योजना को देश के सामने प्रस्तुत किया। इस योजना को 2018 तक पूर्ण किये जाने का लक्ष्य रखा गया। इसके लिये बजट में 2000 करोड़ की राशि आवंटित की और इसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार के सात मंत्रालयों को सौंपी। लेकिन ढाई साल का समय बीत चुका है और अभी तक जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं हो सका है। हाँ अगर कुछ हुआ है तो वह है केन्द्र सरकार के मंत्रियों द्वारा दिये जाने वाले बयानों-दर-बयानों का अंतहीन सिलसिला, जो आज भी थमने का नाम नहीं ले रहा।
जरूरत यह है कि गंगा में स्वच्छ जल बहे, उसकी अविरलता यथावत बनी रहे। लेकिन असलियत में अभी तक इस बारे में सिर्फ बड़े-बड़े बयान ही दिये जाते रहे हैं, इसके सिवाय कुछ नहीं। केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने इस बारे में कीर्तिमान स्थापित किया है। वह कहती रही हैं कि गंगा हमारी माँ है और यह दुनिया की दस प्रदूषित नदियों में से एक है। वह नमामि गंगे मिशन की शुरूआत से ही दावा करती रही हैं कि गंगा में सफाई का असर 2016 के अक्टूबर महीने से ही दिखाई देने लगेगा और 2018 तक गंगा पूरी तरह शुद्ध हो जायेगी। 2016 तो बीत गया । अब वह कह रही हैं कि गंगा सफाई में आठ महीने की देरी होगी। इस देरी का कारण वह तकनीकी कारण बताती हैं। उनके अनुसार पर्यावरण और इससे जुड़े विषयों से निपटने के लिये बनाई गई समिति के पास अधिकार ही नहीं थे। आखिर इसके लिये दोषी कौन है। इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा। अब केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने गंगा नदी जीर्णोंद्धार, संरक्षण और प्रबंधन प्राधिकरण 2016 का गठन किया गया है।
इसको पर्यावरण और उससे जुड़े विषयों से निपटने के लिये अधिकार संपन्न बनाया गया है। गौरतलब यह है कि यह प्राधिकरण कब तक यह कार्य पूरा कर लेगा, इसकी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है। गंगा किनारे वृक्षारोपण कार्यक्रम, गंगा किनारे बने तालाबों को ठीक करना व नये तालाबों का निर्माण तो बाद की बात है, गंगा के मायके उत्तराखण्ड में गिरने वाले सीवर को रोकना, 12051 मिलियन लीटर सीवेज के शोधन की व्यवस्था, कारखानों द्वारा गिराये जाने वाले विषैले कचरे को रोक पाना, चमड़े के कारखानों पर अंकुश, एसटीपी लगवाना, गंगा किनारे बसे शहरों में सीवेज शोधन की व्यवस्था, गंगा की सतही सफाई आदि काम तो तब हो पायेंगे जबकि सरकार के पास व्यवस्थित तंत्र उपलब्ध हो। इन हालात में तो गंगा 2019 क्या 2022 तक शुद्ध नहीं हो पायेगी। दावों से और बयानों से कुछ होने वाला नहीं।
सरकार दावे तो लगातार कर रही है जबकि उसके पास यह आँकड़े तक उपलब्ध नहीं हैं कि कितनी इंडस्ट्रीज का किस तरह का प्रदूषण गंगा नदी में गिर रहा है। विडम्बना देखिए कि उस हालत में सरकार गंगा में किस सफाई की बात कर रही है। एनजीटी ने तो इस बाबत केन्द्र और राज्य सरकारों को कई बार कड़ी चेतावनी दी है और लापरवाही को निंदनीय करार दिया है। यदि पर्यावरणविद महेश चंद्र मेहता की मानें तो केन्द्र सरकार के पास गंगा सफाई को लेकर 50 किलोमीटर तक का एक्शन प्लान नहीं है। जबकि बात ढाई हजार किलामीेटर गंगा की सफाई की की जा रही है।
उनके अनुसार जिस तरह गंगा एक्शन प्लान एक और दो का कोई परिणाम सामने नहीं आया, लगता है वही हश्र इस तीसरे चरण का भी होने वाला है। सबसे बड़ी बात यह है कि यदि केन्द्र सरकार गंगा सफाई को लेकर वास्तव में गम्भीर है तो सबसे पहले उसे यह सूचीबद्ध करना होगा कि किन-किन औद्योगिक इकाइयों का और किस-किस तरह का कचरा गंगा में जा रहा है। इसके बाद इन इकाइयों का गंगा में जाने वाले कचरे को रोकने के लिये प्लान तैयार करना होगा। जरूरत पड़ने पर ऐसी इकाइयों को बंद भी करना होगा। जो केवल गंगा के लिये ही नहीं, पर्यावरण के लिये भी खतरनाक हैं। हमारे सामने टेम्स, कोलोराडो व राइन नदी के उदाहरण मौजूद हैं, हम भी अपनी नदियों को साफ-सुथरा और अविरल बना सकते हैं। जरूरत है नेतृत्व की इच्छाशक्ति की ओर जनसहयोग की।
समय की मांग है कि स्वच्छ पर्यावरण की लड़ाई को हम सबको आजादी की दूसरी लड़ाई मानकर लड़ना होगा। स्वच्छ पर्यावरण की लड़ाई लड़ रहे सभी संगठनों को एक मंच पर आना होगा। उन्हें लोगों को समझाना होगा कि पर्यावरण हमारी लापरवाही के कारण ही दूषित हो रहा है। इसके लिये कोई और नहीं हम ही दोषी हैं। सबसे बड़ी बात यह कि हमें उन चीजों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिनसे हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा हो। पर्यावरण प्रदूषण से हमारा तात्पर्य केवल वायु, जल या भूमि के प्रदूषण से कदापि नहीं है, बल्कि रोजमर्रा के जीवन में हम जो कुछ खाते-पीते हैं, वह चाहे पीने का पानी हो, दूध हो, फल-सब्जियाँ हों, खाने की वस्तुएँ हों, सभी प्रदूषित हैं, वह जहरीली हो चुकी हैं। हमें प्रदूषण रोकने की शुरूआत सबसे पहले खुद अपने घर से ही करनी होगी। विकास का नारा बुलंद करने से विकास नहीं होगा। यदि सही मायने में विकास करना है, तो सबसे पहले सभी को मिलकर देश को प्रदूषण से मुक्ति दिलानी होगी।
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