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जल चेतना - तकनीकी पत्रिका, जनवरी 2015
D2O को भारी जल कहा जाता है जोकि जीव-धारियों के लिये इस लिये हानिकारक है कि यह उनके मेटाबोलिज़्म (Metabolism) को शिथिल कर देता है। परन्तु सौभाग्य से D2O तथा T2O की मौजूद मात्राएँ इतनी कम है कि सामान्य जल से हमें कोई नुकसान नहीं पहुँच सकता।

रसायन शास्त्र की पुस्तकों में पानी को रंगहीन-गंधहीन-स्वादहीन आदि शब्दों से अक्सर परिभाषित किया गया है। सरसरी तौर पर यह सब ठीक होगा परन्तु ये बातें सतही ही हैं। अब आप ही बताइए कि गर्मी की चिलचिलाती दोपहर को पंथी और पंछी की प्यास बुझाने के लिये कुछ ठंडा पानी मिल जाये तो क्या उन्हें यह स्वादहीन लगेगा? उस समय उन्हें यह संसार का सबसे स्वादिष्ट पेय लगेगा, है न? रेगिस्तान के जहाज ऊँट के बारे में वैज्ञानिक भी मानते हैं कि उसे इजाजत मिले तो वह 24 घंटे बस पानी ही पीता रहे (उसके कुब में पानी नहीं रहता बल्कि वसा (Fat) रहती है। तो क्या कोई गंधहीन-स्वादहीन पेय चैबीसों घंटे पी सकता है, भले ही वह पशु हो? जाहिर है कि हमारी पृथ्वी के सबसे अद्भुत द्रव्य पदार्थ पानी को ठीक से समझने, परिभाषित करने की बहुत जरूरत है। यह भी हम पृथ्वीवासियों का परम सौभाग्य है कि पृथ्वी का औसत तापमान 150 डिग्री सेल्सियस होने के कारण पानी द्रव्य अवस्था में न केवल मौजूद है बल्कि पृथ्वी की 72 प्रतिशत सतह इसी द्रव्य से पटी पड़ी है, है न?

कुछ ही पलों में वह इतना पानी सोख लेता है कि उसके शरीर पर कई गुब्बारेनुमा पानी भरे बोरे दिखने लगते हैं। यह भारी वज़न लेकर वह चींटी की चाल से अपने भूमिगत-घर वापस पहुँच इस पानी से कई महीने फिर सुख से बिताता है। पाठक मित्रों, रेगिस्तानी जीवन पानी की चाहत और जरूरत की अद्भुत मिसाल है जिसमें वनस्पतियाँ भी शामिल हैं। इसके भी आगे की सच्चाई यही है कि हमारे लिये जल के बिना जीवन की कल्पना कठिन है। जल में उत्पन्न प्रथम प्राणधारी (मत्स्यवतार) से लेकर आज के समय तक हमारे प्राण हमेशा पानी से जुड़े रहे हैं भले ही पहले हम प्राणी जलचर से उभयचर बने, फिर पर्याप्त भोजन के अभाव में पूरी तरह थलचर बन गए। इस बात का पक्का सबूत तो यही है कि मनुष्य के शिशु में आज भी 97 प्रतिशत जल होता है तथा एक स्वस्थ वयस्क मनुष्य में 75 प्रतिशत जल मौजूद रहता है। हमारे मस्तिष्क में भी 75 प्रतिशत तक पानी है, यहाँ तक कि हमारी कठोर-साॅलिड हड्डियों में 22 प्रतिशत जल अवश्य मौजूद है। तो हमारी पानी की यह प्यास ऐसी है जोकि जनम-जनम से आज भी बुझ नहीं पाई है।

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D2O को भारी जल कहा जाता है जोकि जीव-धारियों के लिये इस लिये हानिकारक है कि यह उनके मेटाबोलिज़्म (Metabolism) को शिथिल कर देता है। परन्तु सौभाग्य से D2O तथा T2O की मौजूद मात्राएँ इतनी कम है कि सामान्य जल से हमें कोई नुकसान नहीं पहुँच सकता। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिकों की राय है कि रेडियोसक्रिय विकिरण की अल्प-मात्र से ट्रीशियम शायद हमें फायदा ही पहुँचाता हो।
प्यास और पेयजल की बात को आगे बढ़ाएँ तो एक पुराना प्रश्न यह है कि हम रोज कम-से-कम कितना पानी पीएँ? विशेषज्ञ तो आठ-दस गिलास पानी की बात कहते हैं पर गिलास पानी का साइज, मौसम, व्यक्ति का स्वयं का जेनेटिक मेक-अप आदि कई घटक इसमें अपनी-अपनी भूमिका अदा करते हैं। वह इसलिये कि पसीना-मल-मूत्र-दूबास आदि क्रियाओं द्वारा त्यागा जल हर व्यक्ति का अपना-अपना है। तो थंब-रूल यह है कि प्यास का जरा सा भी अहसास हो तो फौरन एक गिलास पानी पी डालिये। जी हाँ, जब बाकायदा प्यास लगती है तो समझो कि हमारे शरीर का जल उस स्तर पहुँच गया है जिसके नीचे डिहाइड्रेशन का जोखिम शुरू हो जाता है। सच्चाई यह है कि हमे 2 प्रतिशत डिहाइड्रेशन भी हो जाये तो हमारी कार्यकुशल ऊर्जा 20 प्रतिशत तक घट जाती है। अब आप स्वयं सोचिए कि शरीर की मेटाबोलिक व अन्य रासायनिक क्रियाएँ जलीय माध्यम में ही सम्पन्न होती हैं, अतः जल की कमी कितनी नुकसानदायक हो सकती है, है न? अब भी अगर आप इस बारे में नियम बना लेने की बात करना चाहते हैं तो उत्तम होगा अगर सर्दियों में हर तीन घंटों में तथा गर्मियों में हर डेढ़ घंटा स्वयं पानी पी लें, भले प्यास का अहसास नगण्य सा हो।

पाठक मित्रों, बाॅटल्ड वाॅटर को प्रोत्साहित करना इसलिये भी अनुचित है कि रिवर्स आॅस्मासिस के जरिए पानी का जब एक्स्ट्रा साॅल्ट हटाया जाता है तो इसमें 60 प्रतिशत पानी बर्बाद हो जाता है। इसके बावजूद 100 साल पुरानी इस टेक्नोलाॅजी का कोई विकल्प इसलिये भी नहीं है चूँकि दुनिया का भूजल स्तर लगातार गिर रहा है और लवण की मात्रा (TDS) इसमें लगातार बढ़ रही हैं।
देश-दुनिया के मौजूदा हालात देखें तो लगेगा कि वस्तुतः रिवर्स आॅक्सॉसिज (RO) वरदान सिद्ध हुई है। इसकी अहमियत का अनुमान बहुत पहले लग गया था जब सन 1901 में वांट-हाॅफ़ को आॅस्मासिज़ के गणितीय विश्लेषण के लिये रासायनिकी का पहला नोबल दिया गया था। सच है कि आज देश के कई भागों में भूजल में सामान्य साॅल्ट के साथ-साथ इतना आर्सेनिक, फ्लोराइड, कीटनाशक आदि मौजूद है कि इसे पीना सम्भव नहीं। ऐसे में आॅयन एक्सचेंज अथवा आरओ टेक्नोलाॅजी के अलावा क्या समाधान है। आरओ की दक्षता का समाधान भी है कि 60 प्रतिशत बर्बाद होने वाले पानी को वापस भूगर्भ में भेजें। पेयजल में लवण अधिक होगा तो हमारा सोडियम-पोटेशियम सन्तुलन बिगड़ जाएगा और हम बेहोेश हो जाएँगे। यही समुद्र में फँसे कई उन यात्रियों के संग घटा जिनका पेयजल खत्म हो गया था।
पाठक मित्रों, हवा के अन्दर नमी के रूप में पानी रहता है जिसमें लवण आदि नहीं होते। अमेरिका में कुछ उद्योगपतियों ने ऐसे वैज्ञानिक प्रयोग करवाएँ हैं जिससे हवा से यह पेय पानी लगातार प्राप्त किया जा सके परन्तु हवा में इस जल की मात्रा बहुत ही कम है अतः ये प्रयोग आर्थिक कामयाबी न पा सके। क्या विडम्बना है कि हमारी पृथ्वी 1337 मिलियन क्यूबिक किलोमीटर जल से भरी पड़ी है जिसमें से पेयजल की उपलब्धता 1 प्रतिशत से भी कम है। इस पर तर्क यह है कि इसका भी 90 प्रतिशत हिस्सा हमें कृषि और उद्योग में खर्च करना पड़ता है। ऐसे में पेयजल को लेकर भावी युद्धों की कल्पना भला सच्चा रूप क्यों नहीं ले सकती?
पाठक मित्रों, प्यास से जुड़ी हमारी बातें अभी खत्म नहीं हुई। हमें बाजार में बिक रही कोल्ड-ड्रिंक्स और प्यास के अजीबोगरीब रिश्ते को भी एक्सपोज़ करना है। इनमें कुछ ड्रिंक्स पूरी तरह प्यास बुझाने का दावा करती है तो अन्य आकाश व अन्तरिक्ष को जीत लेने का। आप अगर इन्हें पूछें कि प्यास क्या है और इसके बुझ जाने के साक्ष्य संकेत क्या हैं तो ये बगलें झाँकने लगेंगे। सच तो यह है कि ये प्यास भड़काती हैं। कैसे?

वैज्ञानिक सच यही है कि 100 प्रतिशत जल ही हमारी प्यास को पूरा शान्त कर सकता है, उसमें मौजूद अन्य रसायन (सॉल्यूट्स) दरअसल पानी को सोल्यूशन में बदल डालते हैं। ये साॅल्यूट्स रासायनिक - भौतिक बन्धनों के जरिए जल-अणुओं की आजादी खत्म कर देते हैं।
आइए, इसे ठीक से समझें। आयन एक्सचेंजर्स व कई अन्य अधिशोषकों के ‘वाॅटर सोप्ट्रान आइसोथॉर्मस’ सम्बन्धी अध्ययन बताते हैं कि पानी में 2-3 प्रतिशत भी सॉल्यूट हो तो इन अधिशोषका द्वारा सोखे जल की मात्रा दरअसल आधी रह जाती है। जी हाँ, 100 प्रतिशत जल के मुकाबले इन सोल्यूशन से हमारी कोशिकाएँ केवल आधा जल ही प्राप्त कर पाएँगी। तो बताइए, आधे जल से प्यास शान्त होगी या फिर भड़केगी? कोल्ड-ड्रिंक्स के रसायन अलग से हमारे शरीर को प्रताड़ित करते हैं। हमारा सुझाव यह है कि घर का कोकम शर्बत, कोकोनट पानी वगैरह इन कोल्ड ड्रिंक्स के मुकाबले बेहतर उपाय हैं। CO2 का झंझट तो नहीं!
पाठक मित्रों, अपने देश में कभी हथेली में पानी लेकर संकल्प लिया जाता था। यह द्रव्य हमारे जीवन का हमेशा ही एक अनमोल द्रव्य रहा है। यहाँ हमने पीने के पानी की कुछेक विशिष्टताएँ गिनाई है, अन्य और कई भी हैं। जल के अनेक अन्य पहलुओं पर बातें करना बाकी है। रिएक्टर में यह शीतलक है, मंदक है। रंगहीन होते हुए भी यह ग्रीन, ब्लू तथा ग्रे-वाॅटर है। इसमे विद्युत, चुंबकत्व है, इसकी भाप से टर्बाइन चलती है। कृषि की यह बैक बोन है। वाॅटर वो साइकिल है जिसमें मनुष्य व्यवधान डाल अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। जी हाँ, यह औषधि भी है। होम्योपैथी के अन्वेशक डाॅ. हॅनीमैन मानते थे कि इस चिकित्सा का आधार है जल की रचना में मैकेनिकल एनर्जी द्वारा जनित परिवर्तन। संक्षेप में कहें तो यहीं एकमात्र यौगिक है जोकि मनुष्य द्वारा उत्पादित अथवा 40 लाख यौगिकों में सबसे विलक्षण है, सबसे अहम है, सबसे जरूरी है। मगर आश्चर्य, अप्रैल-मई 2014 में 16वीं लोकसभा के चुनावों में यह किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र तक नहीं पहुँच पाया। परन्तु देर-सबेर यह शुद्ध जल इस सरकार को लोगों तक पहुँचाना ही होगा जिसका जिक्र मैथिलीशरण गुप्त जी ने किया है।
पीयूष सम, पीकर जिसे होता प्रसन्न शरीर है,
हाँ, रोगनाशक, बल विनाशक उस समय का नीर है।।
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