पिछले साल भारत के चेन्नई जैसे कई शहरों में पानी की भयंकर कमी ने हमारे देश में जल संकट की तरफ एक बार फिर से लोगों का ध्यान खींचा था। हालांकि जानकार, पर्यावरणविद् और स्वयंसेवी संगठन काफी वक्त से भारत में आने वाले जल संकट के बारे में जोर-शोर से बता रहे थे, लेकिन उनकी चेतावनी को तब तक किसी ने तवज्जो नहीं दी थी, जब तक देश के बड़े शहरों के नलों का पानी सूख नहीं गया। हकीकत ये है कि खुद सरकार के संगठन नीति आयोग ने पिछले साल जून में आने वाले जल संकट के प्रति आगाह करने वाली एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसका नाम था - “कंपोजिट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स, अ नेशनल टूल फॉर वाटर मेजरमेंट, मैनेजमेंट एंड इम्प्रूवमेंट।” इस रिपोर्ट में नीति आयोग ने माना था कि भारत अपने इतिहास के सबसे भयंकर जल संकट से जूझ रहा है। और देश के करीब 60 करोड़ लोगों (ये जनसंख्या लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई द्वीपों की कुल आबादी के बराबर है) यानी 45 फीसद आबादी को पानी की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। इस रिपोर्ट में आगे आगाह किया गया था कि वर्ष 2020 तक देश के 21 अहम शहरों में भूगर्भ जल (जो कि भारत के कमोबेश सभी शहरों में पानी का अहम स्रोत है) खत्म हो जाएगा। वर्ष 2030 तक देश की 40 प्रतिशत आबादी को पीने का पानी उपलब्ध नहीं होगा और 2050 तक जल संकट की वजह से देश की जीडीपी को 6 प्रतिशत का नुकसान होगा। इस रिपोर्ट के जारी होने के ठीक एक साल बाद सरकार ने 2024 तक देश के सभी ग्रामीण घरों तक पाइप से पीने का साफ पानी पहुंचाने की महत्वाकांक्षी योजना का एलान किया था। हालांकि, ये लक्ष्य तारीफ के काबिल है, लेकिन, सरकार ने ये साफ नहीं किया है कि वो इस लक्ष्य को किस तरह हासिल करने वाली है।
भारत में पानी की समस्या से निपटने के लिए हमें पहले मौजूदा जल संकट की बुनियादी वजह को समझना होगा। मौजूदा जल संकट मानसून में देरी या बारिश की कमी नहीं है, जैसा कि भारत का मीडिया दावा कर रहा है. हकीकत तो ये है कि बरसों से सरकार की अनदेखी, गलत आदतों को बढ़ावा देने और देश के जल संसाधनो के दुरुपयोग की वजह से मौजूदा जल संकट हमारे सामने खड़ा है। हमें ये भी समझना होगा कि धरती के जलवायु परिवर्तन से हमारे देश को आने वाले दशकों में पानी के और बड़े संकट का सामना करना पड़ सकता है। भारत में हाल के दशकों में हर क्षेत्र में पानी की मांग को बढ़ते देखा जा रहा है। फिर चाहे वो खेती हो, कारखाने हों या फिर घरेलू इस्तेमाल। आज हमारे देश में ताजे पानी का 90 प्रतिशत हिस्सा सिंचाई के काम के लिए निकाला जाता है। इसीलिए अगर हमें अपने देश में जल प्रबंधन को लेकर किसी योजना पर गंभीर रूप से काम करना है, तो सबसे पहले खेती में इस्तेमाल होने वाले पानी के प्रबंधन पर गौर करना होगा। दुनिया भर में भारत में सबसे ज्यादा भूगर्भ जल सिंचाई के लिए निकाला जाता है। चीन और अमेरिका जैसे देश हमसे पीछे हैं। चीन, (6.9 करोड़ हेक्टेयर सिंचाई योग्य जमीन) जहां सिंचाई के लिए भारत से (6.7 करोड़ हेक्टेयर सिंचाई योग्य जमीन) ज्यादा जमीन है, वहां भी खेती के लिए भूगर्भ जल का दोहन कम होता है। यानी हम पानी को बहुत बर्बाद करते हैं और इसका बेवजह इस्तेमाल करते हैं, लेकिन ये लंबे वक्त तक नहीं चलने वाला है।
पिछले कई वर्षों में भारत ने सिंचाई के लिए पानी के स्रोत में कई बदलाव होते देखे हैं। सिंचाई योग्य कुल जमीन में नहर से सिंचाई वाले इलाकों की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है। आज की तारीख में भूगर्भ जल से सिंचाई की जाने वाली जमीन की हिस्सेदारी बढ़ कर कुल जमीन के आधे हिस्से से भी ज्यादा हो गई है। देश के उत्तरी-पश्चिमी इलाकों में भू-गर्भ जल संसाधन का यही दुरुपयोग देश में जल संकट का सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में बहुत ज्यादा सिंचाई मांगने वाली फसलों जैसे धान और गन्ने की बड़े पैमाने पर बुवाई होती है। हमारे देश में खाया जाने वाला सबसे प्रमुख अनाज चावल है। एक किलो चावल उगाने में 3500 लीटर पानी लगता है।
देश की प्रमुख फसलों - गेहूं, चावल और गन्ने की खेती में बहुत पानी लगता है। हमारे देश से सबसे ज्यादा चावल का निर्यात होता है। हर एक किलो चावल के उत्पादन में 3500 लीटर पानी लगता है। पंजाब, चावल का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है। चावल की खेती के लिए पंजाब पूरी तरह से भू-गर्भ जल पर निर्भर है। हालांकि जमीन से उत्पादकता के मामले में तो पंजाब का प्रदर्शन बहुत अच्छा है, लेकिन पानी के बेहतर इस्तेमाल के मामले में ये पूर्वोत्तर के राज्यों से बहुत पीछे है। पंजाब, एक किलो चावल के उत्पादन के लिए बिहार और पश्चिम बंगाल के मुकाबलेे दो से तीन गुना ज्यादा पानी इस्तेमाल करता है। पंजाब में बिजली सस्ती है और सरकार, किसानों की फसल को खरीदनेे की भी अच्छी नीतियों पर अमल करती है। ऐसे में पंजाब के किसानों के लिए चावल की खेती बहुत फायदेमंद हो जाती है। वहीं, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा के किसानों को ऐसी सुविधाएं नहीं मिलतीं। दुर्भाग्य से पानी की किल्लत वाला हमारा देश चावल का बहुत बड़ा निर्यातक है। इसका मतलब ये हुआ कि हम चावल की शक्ल में असल में दूसरे देशों को अपना बहुमूल्य लाखों लीटर पानी निर्यात कर रहे हैं। यही कहानी गन्ने की फसल की है, जो बहुत अधिक पानी मांगती है। महाराष्ट्र के किसान बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती करते हैं और इसकी सिंचाई के लिए भूगर्भ जल का इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि उनका गन्ना राज्य की चीनी मिलें खरीद लेंगी। वहीं, बिहार जहां गन्ने की खेती के लिए सबसे मुफीद माहौल है, वहां देश के कुल गन्ने का केवल 4 फीसद उत्पादन होता है। इसीलिए राज्य सरकारों को चाहिए कि वो कम पानी की खपत वाली फसलों जैसे दलहन, ज्वार-बाजरा और तिलहन की खेती को बढ़ावा दें। खासतौर से उन इलाकों में जहां भू-गर्भ जल का स्तर लगातार गिर रहा है। चावल की खेती तो उन्हीं इलाकों में होनी चाहिए, जहां पानी भरपूर तादाद में उपलब्ध हो। खेती के लिए फसलों के गलत चुनाव के अलावा खेती में पानी का सही इस्तेमाल भी नहीं होता। भारत में खेतो में पानी भर कर फसलों की सिंचाई का तरीका बहुत आम है। इस तरीके से सिंचाई में बहुत पानी बर्बाद होता है।
इसलिए अगर हम अपने देश में कयामत के दिन यानी उस रोज को आने से रोकना चाहते हैं, जब देश में खाना और पानी दोनों खत्म हो जाएं, तो हमारे देश में जल संरक्षण के कदम लागू करने की सख्त जरूरत है। सबसे पहले तो पानी की भारी कमी झेलने वाले उत्तरी-पश्चिमी और मध्य भारत में ज्यादा सिंचाई मांगने वाली फसलों जैसे चावल और गन्ने की खेती बंद होनी चाहिए। किसान दूसरी फसलें उगाएं, इसके लिए उन्हें तरह-तरह के प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए। ताकि वो ज्वार-बाजरा जैसी फसलें उगाएं, जो कम सिंचाई मांगती हैं और जिन पर जलवायु परिवर्तन का असर भी नहीं होता। इसके अलावा सिंचाई के लिए ड्रिप इरीगेशन जैसे तरीकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जिसमें फसलों पर पानी का छिड़काव होता है, न कि खेतों को पानी से लबालब भर दिया जाता है। ड्रिप इरीगेशन को सरकारी सहयोग से तेजी से बढ़ावा दिया जाना चाहिए। तीसरा कदम ये हो सकता है कि जमीन के नीचे सिंचाई करने, बुवाई के नए तरीकों और खेती के नए तौर-तरीकों जैसे प्रिसिजन फार्मिंग को भी बढ़ावा दिए जाने की जरूरत है। इससे पानी का खेती में इस्तेमाल कम होगा।