Source
अनुसंधान विज्ञान शोध पत्रिका, 2016
सारांश
‘भारत में जल संसाधनों की उपलब्धता, उनका उपयोग तथा प्रबंधन’ विषयक एक दिवसीय (दिनांक: 28 सितम्बर, 2016) राजभाषा तकनीकी परिसंवाद (सेमिनार) का आयोजन ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (ओ.एन.जी.सी.) बड़ौदा, गुजरात, तथा भूविज्ञान परिषद, बड़ौदा, गुजरात में आयोजित किया गया। प्रस्तुत आख्या इस एक दिवसीय परिसंवाद की सम्पूर्ण शैक्षणिक एवं तकनीकी गतिविधियों पर आधारित है।
Abstract – One day technical seminar on availability, utility and management of water resources in India was held on 28 september, 2016 at Baroda, Gujrat in joint collaboration with Oil and Natural Gas corporation Limited (O.N.G.C.) and Geological Parishad, Baroda Report embodies academic and technical activities during the seminar.
ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड (ओ.एन.जी.सी.) बड़ौदा, गुजरात तथा भूविज्ञान परिषद, बड़ौदा, गुजरात के संयुक्त प्रयासों से ‘‘भारत में जल संसाधनों की उपलब्धता, उनका उपयोग तथा प्रबंधन’’ पर हिन्दी भाषा के माध्यम में 28 सितम्बर, 2016 को एक दिवसीय परिसंवाद आयोजित हुआ। इस परिसंवाद में लगभग 200 प्रतिभागियों ने भाग लिया। सर्वप्रथम उद्घाटन सत्र का आयोजन हुआ। इस सत्र के मुख्य अतिथि श्री उमाशंकर पाण्डेय, कार्यकारी निदेशक-प्रधान, भूभौतिकीय सेवायें, ओ.एन.जी.सी., मुंबई और विशिष्ट अतिथि श्री अरुण कुमार, द्रोणी प्रबंधक, ओ.एन.जी.सी., बड़ौदा तथा डॉ. नवीन प्रकाश सिंह ‘‘नवीन’’, अध्यक्ष, भूविज्ञान परिषद, बड़ौदा थे। श्री उमेश चन्द्र सक्सेना, समूह महाप्रबंधक-प्रधान क्षेत्रीय संगणक केन्द्र, ओ.एन.जी.सी., बड़ौदा तथा आंशिक रूप से श्री एम.ए. हसीन, महाप्रबंधक-प्रखंड, प्रबंधक, ओ.एन.जी.सी. ने इसका संयोजन किया। उद्घाटन सत्र का शुभारम्भ दीप प्रज्जवलन तथा सरस्वती वंदना से हुआ। इस सत्र का संचालन श्री ए.के. राय, उपमहाप्रबंधक (भूभौतिकी), ओ.एन.जी.सी. ने किया। इस अवसर पर, मंचासीन महानुभावों ने अपने-अपने विचार प्रकट किये। इन पंक्तियों के लेखक ने, अपने कथन में उक्त ज्वलंत समस्या को रेखांकित करते हुए जल संग्रहण एवं संरक्षण पर जोर दिया और विशेष रूप से भौमजल (ग्राउन्ड वाटर) के अतिशोषण को नियंत्रित करने तथा संरक्षित करने पर विशेष बल दिया।
यही नहीं, वरन हिन्दी भाषा के माध्यम में इस विज्ञान विषयक परिसंवाद को ऊँचाई पर ले जाने के लिये लेखक ने ओ.एन.जी.सी. के द्रोणी प्रबंधक श्री कुमार की सराहना की। तत्पश्चात, कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री उमाशंकर पाण्डेय ने जल के दार्शनिक पक्ष को उजागर करते हुए जल की महत्ता पर प्रकाश डाला और इसके उचित उपयोग का परामर्श दिया। परिसंवाद की प्रशंसा करते हुए उसको सामयिक और उपयोगितापूर्ण बताया। अंत में द्रोणी प्रबंधक श्री कुमार ने बड़े संतुलित और सटीक शब्दों में जल संबंधित समस्याओं का उल्लेख किया और ऐसे कार्यक्रमों से दोहरा लाभ बताया। उनका कथन था, ऐसे परिसंवादों के आयोजन से राजभाषा की सेवा होती है और विविध विषयों पर विज्ञान विषयक ज्ञान का अर्जन भी होता है। इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने भूविज्ञान परिषद की भूमिका की भी सराहना की और परिसंवाद के सफलता की कामना की। उद्घाटन सत्र का समापन मुख्य अतिथि द्वारा परिसंवाद के सद्यः प्रकाशित प्रगति अंक (प्रोसीडिंग) के लोकार्पण से हुआ। इस प्रगति अंक में कुल 30 प्रपत्र/तकनीकी आलेख समाविष्ट हैं यद्यपि विभिन्न कारणों से इसका प्रस्तुतीकरण संभव न हो पाया है।
उद्घाटन सत्रोपरांत अल्पाहार के अल्पविराम के पश्चात पोस्टर सत्र का उद्घाटन हुआ। इस पोस्टर सत्र में कुल 12 प्रपत्र सम्मिलित किये गये थे, परन्तु केवल 5 प्रपत्रों का ही प्रदर्शन हुआ। दो प्रपत्रों को छोड़कर अन्य तीन प्रपत्रों में जल संग्रहण और संरक्षण के संबंध में जानकारी दी गई दो प्रपत्र क्रमशः जल को वैद्युत संलेख से खोजने तथा जल के वेग मापन के लिये समर्पित थे। प्रपत्र के लेखक प्रतिभागियों के समक्ष अपने-अपने आलेखों का सार संक्षेप बड़े उत्साह से प्रस्तुत कर रहे थे और प्रतिभागी बड़े मनोवेग से उनको सुन रहे थे और पोस्टर भी देख, पढ़ रहे थे। दर्शक प्रतिभागियों के प्रश्नों का उत्तर भी लेखक बड़े संतोषजनक ढंग से दे रहे थे। पोस्टर सत्र का समापन निश्चित समय से हो गया।
पोस्टर सत्रोपरांत तीन तकनीकी सत्र संचालित किये गये जिनमें कुल 14 प्रपत्र/तकनीकी आलेख प्रस्तुत किये गये। प्रथम सत्र के सत्राध्यक्ष श्री डी.के. दारागुप्ता, पूर्व कार्यकारी निदेशक, ओ.एन.जी.सी. तथा सहसत्राध्यक्ष श्री एस. पाणिग्रही, कार्यकारी निदेशक-प्रधान, भूभौतिकीय सेवाएँ ओ.एन.जी.सी. थे। प्रथम तकनीकी सत्र में कुल 4 प्रपत्र प्रस्तुत किये गये, जो मूल रूप से अतिविशिष्ट श्रेणी में रखे जा सकते हैं और विषय की दृष्टि से यह प्रपत्र एक बड़ी परिधि को आत्मसात करते हैं। राष्ट्रीय जलनीति से लेकर सुदूर संवेदन द्वारा जल प्रबंधन तक तथा भौमजल के विस्तृत वर्णन से लेकर बाढ़-सूखा प्रबंधन तक जल संसाधनों के एक विस्तृत क्षेत्र को समेटे यह चारों प्रपत्र लेखकों ने बड़े सुचारू रूप से प्रस्तुत किये। सत्र की समाप्ति पर सत्राध्यक्ष ने प्रस्तुत किये गये समस्त तकनीकी आलेखों की समीक्षा भी की।
भोजनावकाश के उपरांत द्वितीय सत्र प्रारम्भ हुआ, जिसके सत्राध्यक्ष श्री उमाशंकर पाण्डेय, कार्यकारी निदेशक-प्रधान भूभौतिकी सेवाएँ, ओ.एन.जी.सी., मुम्बई तथा सहसत्राध्यक्ष श्री ए.के. परख, महाप्रबंधक, प्रखंड प्रबंधक, ओ.एन.जी.सी. थे। इस सत्र में कुल छः प्रपत्र/तकनीकी आलेख प्रस्तुत किये गये, जिनमें तीन प्रपत्र क्रमशः प्रतिरोधकता आंकड़ों के द्विविम व्युत्क्रमण (टू डायमेंशनल इनवर्जन) द्वारा, भूभौतिकीय सर्वेक्षण द्वारा तथा कुप संलेख निर्वचन द्वारा भौमजल (ग्राउन्ड वाटर) की खोज पर आधारित प्रपत्र थे। शेष तीन प्रपत्रों में दो प्रपत्र वर्षाजल संग्रहण (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) को समर्पित थे, जबकि अन्य एक तकनीकी आलेख में मानव गतिविधियों से गोदावरी डेल्टा विकास में हुए कुप्रभाव पर प्रकाश डाला गया। सभी प्रपत्रों के लेखकों ने अच्छा प्रस्तुतीकरण किया और प्रश्नों के सटीक उत्तर भी दिये परन्तु एक प्रपत्र जिसमें संलेख निर्वचन द्वारा जैसलमेर के बान्दह शैल समूह में अलवण जल के भण्डार की ओर संकेत किया गया था, वह शैल समूह की आश्मिकी (लिथोलॉजी) और अवसादिकीय पर्यावरण के अनुरूप नहीं लगता था इसलिए इस पर अधिक चर्चा हुई फिर भी समयाभाव के कारण स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई। इस सत्र का समापन सत्राध्यक्ष एवं सहसत्राध्यक्ष की समीक्षात्मक टिप्पणियों से हुआ।
तृतीय तथा अंतिम सत्र के सत्राध्यक्ष श्री अरुण कुमार, समूह महाप्रबंधक-द्रोणी प्रबंधक, ओ.एन.जी.सी., बड़ौदा और सहसत्राध्यक्ष श्री एम.ए. हसीब, महाप्रबंधक-प्रखण्ड प्रबंधक, ओ.एन.जी.सी. थे। इस सत्र में मात्र 4 प्रपत्र ही प्रस्तुत किये गये, शेष के लेखक अनुपस्थित थे। एक प्रपत्र को छोड़कर तीन प्रपत्र मुख्यतः जल संरक्षण तथा प्रबंधन पर आधारित थे। यद्यपि उनमें अंतर भी था जैसे एक केवल वर्षाजल संरक्षण पर था, दूसरा वर्षाजल तथा भौमजल के प्रबंधन पर था जबकि तीसरा ग्रामीण पेयजल प्रबंधन पर विस्तृत वर्णन सहित प्रस्तुत किया गया था शेष एक प्रपत्र भूभौतिकी सर्वेक्षण के आधार पर भौमजल अन्वेषण पर था। सभी लेखकगणों का प्रस्तुतीकरण सराहनीय था और हिन्दी भाषा का उपयोग भी अब सही ढंग से किया जाने लगा है। ओ.एन.जी.सी., बड़ौदा तथा भूविज्ञान परिषद, बड़ौदा का हिन्दी भाषा के माध्यम से प्रत्येक परिसंवाद आयोजित करने का यह संयुक्त अभियान बहुत सफल रहा है। हिन्दी के प्रति वैज्ञानिक समाज में जो सम्मान का भाव जाग्रत हो रहा है वह स्वागत योग्य है। यह सत्र भी समय से समाप्त हुआ। सत्राध्यक्ष के आग्रह पर सहसत्राध्यक्ष ने समीक्षात्मक टिप्पणी की। सत्राध्यक्ष ने प्रतिभागियों को परिसंवाद में भाग लेने के लिये धन्यवाद देकर सत्र का समापन कर दिया।
परम्परागत समापन सत्र भी आयोजित किया गया। श्री डी.के. शर्मा, पूर्व महाप्रबंधक (भूभौतिकी) ने समस्त प्रस्तुत किये ये तकनीकी आलेखों की अतिसंक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुत की, तत्पश्चात स्मृति चिन्ह प्रदान किये गये। बाहर से आये प्रतिभागियों से चाय के अल्प विरामों और भोजन के अंतराल के मध्य प्रतिक्रियाओं का आदान-प्रदान हुआ। प्रतिभागी तकनीकी आलेख के प्रस्तुतीकरण के उपरांत समयाभाव वश उस पर होने वाली चर्चा से बहुत संतुष्ट नहीं लगे। उनका विचार था कि लोगों को खुलकर बोलने का समय नहीं मिलता है। फिर भी प्रतिभागी कुल मिलाकर प्रसन्न लगे।
उक्त परिसंवाद में पोस्टर सत्र से लेकर तीसरे सत्र तक जो भी प्रस्तुत किया गया उस पर आधारित सार-संक्षेप निम्न पंक्तियों में दिया जा रहा है। इस परिसंवाद द्वारा यह रेखांकित करने का प्रयास किया गया है कि भारत के विभिन्न अंचलों में जल संसाधनों की क्या स्थिति है और भारत की बढ़ती जनसंख्या, बदलती जीवनशैली तथा बढ़ते शहरीकरण के परिप्रेक्ष्य में मृदु जल (फ्रेश वाटर) की मांग और आपूर्ति को लेकर क्या किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, भौमजल (ग्राउन्ड वाटर) के अतिशोषण पर तथा प्रदूषण पर चिन्ता व्यक्त की गई। उसकी खोज, उसके आपूरण तथा शुद्धिकरण के उपाय भी सुझाये गये। भारत की जनसंख्या, विश्व की कुल जनसंख्या के 17 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करती है जबकि विश्व के कुल अलवण जल का मात्र 4 प्रतिशत ही भारत के पास उपलब्ध है। अप्रैल 2015 के एक आंकलन के अनुसार भारत की कुल वार्षिक वर्षा जल उपलब्धता 1869 बिलियन क्यूबिक मीटर (सी.सी.एम.) थी, परन्तु व्यवहार्य जल उपलब्धता 1.123 बी.सी.एम. प्रति वर्ष थी। इस व्यवहार्य जल संसाधन में से धरातलीय जल और भौमजल का भाग क्रमशः 690 बी.सी.एम. प्रति वर्ष और 433 बी.सी.एम. प्रतिवर्ष है। 34 बी.सी.एम. को प्राकृतिक विसर्जन के लिये छोड़कर देश भर के लिये कुल वार्षिक भौमजल की उपलब्धता 399 बी.सी.एम. प्रतिवर्ष पाई गई है। आज अपने देश में 1544 घनमीटर मृदु जल प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष मिलता है। इस प्रकार भारत एक ‘‘जल त्रस्त’’ देश है और क्रमशः अपर्याप्त जल की स्थिति की ओर बढ़ रहा है। इसलिए अब उन तरीकों या प्रणालियों अथवा नवाचारों (इनोवेशन) की ओर ध्यान देना अनिवार्य हो गया है जिनसे हम अपने जल संसाधनों को उचित उपयोग द्वारा संग्रहण और संरक्षण से दीर्घायु कर सकते हैं।
सम्पूर्ण भारत में जल की उपलब्धता अत्यन्त असमान है, विशेष रूप से भौमजल की, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर यथेष्ट भिन्नता प्रदर्शित करता है। सिंधु गंगा ब्रह्मपुत्र के जलोढ़ (अल्यूविअल) मैदानों के जलभृतों (अक्विफर्स) में अत्याधुनिक अलवण जल है परन्तु प्रायद्वीपीय क्षेत्र जो भारत के दो तिहाई भाग का प्रतिनिधित्व करता है, उसमें भौमजल की अल्पता है, क्योंकि वहाँ से कठोर चट्टानों के 5 मीटर से 15 मीटर मोटाई के ऊपरी अपक्षीण आवरण में ही जल का संग्रहण हो सकता है। आज जल संसाधनों का सबसे बड़ा उपभोक्ता कृषि क्षेत्र है, जो भारत के कुल अलवण क्षेत्र का 84 प्रतिशत उपयोग करता है, जबकि घरेलू और औद्योगिक जगत क्रमशः 12 प्रतिशत तथा 4 प्रतिशत का ही उपयोग करते हैं। हमारे देश में मुख्य खाद्य फसलों के उत्पादन हेतु सिंचाई के लिये ब्राजील, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में दोगुने या चौगुने जल का उपयोग किया जाता है। यदि वैज्ञानिक विधि से कृषि के लिये जल का उपयोग किया जाय तो वर्तमान उपयोग के आधे जल को बचाया जा सकता है। कृषि क्षेत्र की सिंचाई का एक बड़ा हिस्सा 62.4 प्रतिशत तथा 85 प्रतिशत पेयजल ग्रामीण क्षेत्रों के लिये और 50 प्रतिशत पेयजल शहरी क्षेत्रों के लिये पूर्णतया भौमजल पर निर्भर है। भौमजल पर इस अतिनिर्भरता के कारण भौमजलस्तर (वाटर लेवल) में मूलभूत गिरावट आई है। भौमजल अन्वेषण हेतु भूभौतिकीय सर्वेक्षण, सुदूर संवेदन (रिमोट सेन्सिंग) तथा प्रतिरोधकता आंकड़ों के द्विविम व्युत्क्रमण (टू डाइमेन्शनल इनवर्जन) द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में जलभृत आंकलन आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त कूप संलेखों (बेल लॉगस) द्वारा अलवण जल के अनुक्षेत्र भी सुनिश्चित किये जाते हैं।
सेंट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड (सी.जी.डब्ल्यू.बी.) ने भौमजल विकास स्थिति और भौमजलस्तर की दीर्घकालीन प्रवृत्ति के आधार पर कुछ इकाइयां निर्धारित की हैं और इन्हें वर्गीकृत भी किया है। वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार देश की कुल इकाइयों में 30 प्रतिशत इकाइयां अतिशोषित या क्रान्तिक अर्धक्रान्तिक स्थिति में हैं। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान राज्यों में भौमजल का निष्कर्षण दायित्वहीन ढंग से किया गया है। और यदि वहाँ इसी दर से निष्कर्षण होता रहा तो एक दशक में भौमजल की पूरी तरह समाप्त हो जाने की आशंका है। वर्ष 2011 के आंकड़ों के अनुसार भौमजल की वार्षिक निकासी 245 बी.सी.एम. हुई है और भौमजल की विकास स्थिति 62 प्रतिशत है। 1960 की ‘‘हरित क्रांति’’ के पश्चात लगातार भौमजल का उपयोग सिंचाई में और पेयजल के लिये बढ़ता जा रहा है। इसके फलस्वरूप आज लाखों नलकूप देश के विभिन्न राज्यों में वेधित किये गये हैं। भौमजल के अतिनिष्कर्षण से भौमजलस्तर औसतन 1 मीटर से 3 मीटर तक प्रतिवर्ष गिरता जा रहा है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक आदि राज्य बहुत प्रभावित हुए हैं। समुद्र तटीय क्षेत्रों में भौमजल के अधिक निष्कर्षण से समुद्र जल के अतिक्रमण के कारण लवणता बढ़ती जा रही है और पानी पेयजल के अनुपयुक्त हो जाने का खतरा बढ़ रहा है।
जल प्रदूषण एक गंभीर खतरा है। दो प्रकार के प्रदूषक इसे प्रदूषित कर रहे हैं। एक वह जो प्राकृतिक भूजनित (जियोजेनिक) होते हैं जैसे- संखिया (आर्सेनिक), फ्लोराइड, नाइट्रेट तथा लोहा इत्यादि। दूसरे प्रदूषकों में सम्मिलित होते हैं बैक्टीरिया फॉस्फेट तथा भारी धातु जो मनुष्यों के क्रियाकलापों का परिणाम हैं। यह है मलजल (सीवेज), कृषि संबंधित विषाक्त पदार्थ तथा औद्योगिक बहिःस्राव (एफ्लुअन्ट)। गड्ढों में अपशिष्ट का भराव, सेप्टिक टैन्क, रिसते भूमिगत गैसटैन्क तथा रासायनिक खादें और कीटनाशकों का अति उपयोग प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं। वर्ष 2014-15 में भौमजल पर हुए आकलन के अनुसार भूजनित संदूषकों से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, असम, मणिपुर और कर्नाटक प्रभावित हुए हैं। वर्ल्ड वाटर इंस्टीट्यूट के अनुसार गंगा नदी में प्रत्येक मिनट लगभग 11 लाख लीटर गंदे नाले का पानी गिराया जाता है। यूनेस्को द्वारा दी गई विश्व जल विकास रिपोर्ट में भारतीय जल को दुनिया के अति प्रदूषित पानी में तीसरे स्थान पर रखा गया है। शहरों के मलजल, अपशिष्ट जल और औद्योगिक बहिःस्राव को प्रशोधित करना आवश्यक है इसके लिये आवश्यकतानुसार प्रशोधन संयंत्र लगाने की आवश्यकता है यद्यपि केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से इस दिशा में कार्य हुआ है परन्तु वह यथेष्ट नहीं है। अपशिष्ट जल को प्रशोधित करने के पश्चात के अतिरिक्त अन्य कार्यों जैसे- कारखानों में, सिंचाई में, बागवानी आदि में प्रयोग किया जा सकता है। इस तरह अलवण जल की आंशिक पूर्ति होगी।
भौमजल के दीर्घकालीन उपयोग के लिये मांग और आपूर्ति प्रबंधन की आवश्यकता है अर्थात यदि भौमजल का निष्कर्षण किया जाय तो इसके अनुसार ही पुनर्भरण द्वारा इसका संवर्धन किया जाय। कृषि क्षेत्र में भौमजल को अधिक दक्षता से उपयोग किया जाय, भौमजल का प्रबंधन और नियंत्रण जलभृत (अक्विफर) के मानचित्रण के आधार पर किया जाय और इसमें किसानों की सक्रिय सहभागिता अनिवार्य है। हमें कृषि की सिंचाई में जल के अपव्यय को बचाने के लिये नवाचार (इनोवेशन) और विशेष कुशलता की आवश्यकता है। हमें जल की बचत वाली तकनीकोिं को जैसे ट्रप्स तथा सेक्त सिंचाई प्रणाली (ड्रिप एण्ड स्प्रिन्कलर इरीगेशन सिस्टम) या ट्रप्स तथा रिसाव (ड्रिप एण्ड ट्रिकल) सिंचाई प्रणाली को अपनाने की आवश्यकता है, जिससे नियंत्रित एवं प्रभावी तरीके से फसलों को जल मिल सके। इसके अतिरिक्त किसानों को इस बात के लिये भी प्रोत्साहित किया जाय कि वह अधिक जल वाली फसलों को जैसे गेहूँ, धान तथा गन्ना के स्थान पर अल्प जल उपयोग करने वाली फसलें जैसे दालें, ज्वार तथा जौ आदि की खेती करें। भौमजल के संबंध में एक अति विशिष्ट सूचना प्रसारित करने की आवश्यकता है कि ऐसे अनुक्षेत्र (जोन) जिनमें भौमजल का पुनर्भरण (रिचार्ज) होता है उन्हें संरक्षित करना अति आवश्यक है जैसे- उत्तर प्रदेश के भाभर फुटहिल्स तथा तराई क्षेत्र, हरियाणा में अरावली तथा भूड़ क्षेत्र, देश के कछारी मैदान, दलदल और आर्द्र भूमि। इन क्षेत्रों को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील अनुक्षेत्र घोषित करना चाहिए।
वर्षाजल संग्रहण (रेन हार्वेस्टिंग), संरक्षण (कंजरवेशन) और प्रबंधन पर प्रपत्रों में बल दिया गया। जल संसाधन का प्राथमिक स्रोत वर्षण (प्रेसिपिटेशन) है जो वर्षा एवं हिमपात से प्राप्त होता है। भारत में कुल वर्षाजल का आकलन 400 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स प्रतिवर्ष किया गया है, जिसका वितरण मुख्यतः तीन प्रकार से होता है। 185 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स जल जहाँ ढाल मिलता है उधर प्रवाहित होकर जलाशयों, सरोवरों और नदियों में चला जाता है जो अंततः सागर में समा जाता है। 50 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स परिस्रवित होकर अधःस्तल में सपृक्त अनुक्षेत्र में संग्रहीत हो जाता है और 165 मिलियन हेक्टेयर मीटर्स मृदा द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जो मृदा को आर्द्रता प्रदान करता है और इसका कुछ भाग वाष्पीकृत हो जाता है। देश की महत्त्वपूर्ण सम्पदाओं में जल संसाधन एक प्रमुख घटक है। देश का धरातलीय जल एवं भौमजल संसाधन कृषि, पेयजल, औद्योगिक गतिविधियाँ, जल विद्युत उत्पादन, पशुधन उत्पादन, वनरोपण, मत्स्य पालन, नौकायन और मनोरंजक गतिविधियों आदि में मुख्य भूमिका निभाता है।
भारत एक विकासशील देश है। प्रत्येक क्षेत्र में उसकी प्रगति हो रही है और होनी है, साथ ही उसकी जनसंख्या में वृद्धि हो रही है। अतः वर्ष 2025 तक 1093 बिलियन क्यूबिक मीटर्स जल की आवश्यकता होगी। इसलिए हमारा देश वर्षाजल को बहकर समुद्र में समा जाने दे ऐसी विलासिता को आश्रय देने में सक्षम नहीं है। वर्षाजल संग्रहण (रेन हार्वेस्टिंग) शहरों के लिये बड़ा कारगर उपाय है। इससे छतों का पानी एकत्रित कर इससे जलभृतों का पुनर्भरण किया जाता है ताकि भौमजल का संवर्धन हो सके। जल संरक्षण (कंजर्वेशन) में बहुत सी ऐसी संक्रियाएं सम्मिलित हैं जिससे वर्षाजल को रोकने के उपाय के साथ-साथ अपशिष्ट जल का पुनःचक्रण (रिसाइक्लिंग) भी किया जाता है। जल का उचित उपयोग भी आवश्यक होता है जहाँ भी जल का अपव्यय होता है उसे घटाना और उचित उपयोग करना अनिवार्य है। मौजूदा जलाशयों के जीर्णोद्धार, कायाकल्प और नवीनीकरण के लिये अल्प जल क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। गाँवों में और आस-पास के क्षेत्रों में उपलब्ध जलाशयों की सूची बनानी चाहिए और उनका मानचित्रण भी करना चाहिए। इन जलाशयों में जल संग्रहण होने से पुनर्भरण में भी सहायता मिलेगी और वर्षाजल एकत्रित होने के लिये प्राकृतिक साधन भी उपलब्ध हो जायेंगे।
भारत में जल संसाधनों का प्रबंधन और बाढ़ तथा सूखे से निपटने के उपायों पर कुछ प्रपत्रों ने ध्यान आकर्षित किया। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप हरित गृह गैसों के उत्वर्जन में वृद्धि के कारण वैश्विक तापवृद्धि हो रही है, ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जलवायु में परिवर्तन हो रहा है, वर्षा अनियंत्रित हो गई है, नदी द्रोणियों में जल की कमी हो रही है और बड़ी-बड़ी नदियाँ नगरों के मल-जल का परिवहन कर रही हैं। ऐसे परिदृश्य में जल संसाधनों का उचित प्रबंधन आज की अनिवार्य आवश्यकता है। राजस्थान में परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियों को पुनर्जीवित किया जा रहा है जिससे अप्रत्याशित सफलता मिली है। जल प्रबंधन का पहला पाठ है- 1. जल संग्रहण, 2. इसी प्रकार जलागम का विकास करना भी आवश्यक है इसका अर्थ यह है कि मृदा (सॉयल), वनस्पति और जल का एक साथ संरक्षण और विकास, 3. जल का पुनःचक्रण और पुनःउपयोग जैसे शोधित अपशिष्ट जल औद्योगिक क्षेत्रों में काम में लाया जा सकता है। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में नहाने और बर्तन साफ करने के उपरांत जल बागवानी के काम में लाया जा सकता है, 4. जल संभर प्रबंधन- इसके अंतर्गत बहते हुए जल को रोकना और विभिन्न विधियों से जैसे जलाशयों द्वारा परिस्रवण कुँओं द्वारा पुनर्भरण की वृद्धि करना सम्मिलित है इसके अतिरिक्त धरातलीय जल का कुशल प्रबंधन भी जल संभर प्रबंधन का अंग है। केन्द्र और राज्य सरकारों ने देश में बहुत जल संभर विकास कार्यक्रम चलाये हैं। कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा भी चलाये जा रहे हैं। ‘‘हरियाली’’ केन्द्र सरकार द्वारा जल संभर विकास परियोजना है जिसमें ग्रामीण जनता के लिये पेयजल, सिंचाई, मत्स्य पालन और वनरोपण के लिये जल संरक्षण करने के लिये प्रशिक्षण दिया जाता है, 5. जल प्रदूषण की रोकथाम के लिये भी लोगों में जागरूकता लाने की आवश्यकता है।
बाढ़ और सूखे से निपटने के लिये अनेक प्रबंधन किये गये हैं और किये जा रहे हैं जैसे नदियों को जोड़ना, बांध बनाना, लोगों को बाढ़ से बचाने के लिये उपाय करना, सूचना तंत्र का विकास करना, नये घरों का ऊँचाई पर निर्माण करना वृक्षारोपण करना, नये जल संचयन जलाशयों का निर्माण करना आदि। इसी प्रकार सूखे से बचने के लिये जल का संग्रहण करना होगा, जल द्वारा सिंचाई, घरेलू तथा औद्योगिक उपयोग सभी क्षेत्रों में सूखे से निपटा जा सकता है। अब वह स्थिति आ गई है कि केन्द्र और राज्य सरकारी संस्थाओं, गैर-सरकारी तथा सामाजिक संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थानों और जन प्रतिनिधियों को मिलकर उपयुक्त प्रबंधन युक्तियों को देश में विकसित करने के लिये समन्वित प्रयास करना अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त जल संसाधनों के प्रति और विशेष रूप से भौमजल के प्रति दुरुपयोग को रोकने के लिये जागरूकता अभियान चलाये जाने चाहिए, क्योंकि जल नहीं रहा तो समस्त सृष्टि का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।
पूर्व महाप्रबंधक (भूविज्ञान), ओ.एन.जी.सी. तथा अध्यक्ष, भूविज्ञान परिषद, बड़ौदा-390010, गुजरात, भारत
सूर्यांश ए-5, साकेत हाउसिंग कॉलोनी, सूसन-तरसाली रिंग रोड, बड़ौदा-390010, गुजरात, भारत
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प्राप्त तिथि-29.09.2016 स्वीकृत तिथि-14.10.2016