भूमि उर्वरता की मूल रूप में निरूपण सूक्ष्म जीवों का योगदान

Submitted by Hindi on Tue, 08/02/2016 - 16:47
Source
अनुसंधान (विज्ञान शोध पत्रिका), 2015

भारत की जनसंख्या की कुल आबादी का अधिकांश भाग ग्रामीण अंचलों में बसता है। जिसके जीवन का मूल आधार कृषि पर निर्भर एवं ग्रामीण किसान व आम जनमानस का भरण-पोषण एवं पालन रोजगार के साधन की आर्थिक निर्भरता पर निहित है। आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं.जवाहर लाल नेहरू ने कृषि पर विशेष ध्यान दिया तथा विशेषकर भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने पूरी लगन के साथ अपना ध्यान भारतीय कृषि की उत्पादन क्षमता बढ़ाने एवं भुखमरी अकाल के कारण भोजन के अभाव में अकाल मृत्यु से बचाने के लिये निष्ठापूर्वक अथक प्रयास करके कृषि भूमि की उर्वरता को बढ़ाने के लिये अनेकों प्रकार के प्रयोग किये एवं भारत सरकार के नेतृत्व में नये रासायनिक उत्पादक संयंत्रों की स्थापना की जिसमें कृत्रिम रासायनिक खाद का निर्माण भी शुरू कर दिया।

हरित क्रांति के बाद भारतीय कृषक रबी एवं खरीफ फसलों के अलावा नकदी फसलों की बोआई का प्रचलन लगातार बढ़ाया, किसानों की प्रति हेक्टेयर उत्पादन क्षमता की होड़ लगा दी जिसके परिणाम स्वरूप कृषि भूमि की पारिस्थितिकी तंत्र नियमन-संचालन व संतुलन खराब होता चला गया किसान उत्पाद बढ़ाने एवं अत्यधिक आर्थिक लाभ कमाने के भंवर जाल में पड़कर भूमि की उर्वरता को बनाये रखने में पिछड़ते चले गये। भारतीय किसानों पर कृषि उत्पादन क्षमता बनाये रखने के लिये कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता तथा कृषि भूमि पर प्रति हेक्टेयर में कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों का मानक क्षमता से अधिक उपयोग करके किसान अधिकाधिक उत्पाद प्राप्त करने की निरंतर चेष्टा बढ़ती गई।

फलस्वरूप कृषि भूमि की उर्वरता सतत रूप से घटती गई। भारतीय किसान व कृषि वैज्ञानिकों की चिंता का प्रमुख कारण भारती की बढ़ती जनसंख्या एवं भोजन उपलब्ध कराने की भारत सरकार की कटिबद्धता के कारण कृषि भूमि पर अधिक से अधिक सघन कृषि करने का दबाव बना हुआ है। आर्थिक क्षतिपूर्ति किसानों द्वारा नहीं कर पाने के कारण कई प्रदेश के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जिसे भारतीय कृषि के दूरगामी दुष्परिणाम के रूप में देखा जा रहा है।

भूमि की उर्वरता को सबसे पहले सैद्धांतिक रूप से एवं कृषि भूमि में होने वाले अतिसूक्ष्म पारिस्थितिकिय संरचना एवं भौतिक व रसायनिक क्रिया को आपसी समन्वय एवं संचालन को चित्र-1 में प्रदर्शित किया गया है।

.भूमि उर्वरता मूल रूप निरूपण की तकनीकी विधि- भूमि की उर्वरता मूल रूप निरूपण में सूक्ष्म जीवों की तकनीकी का उपयोग वर्तमान समय में किया जा रहा है। जिससे अति सूक्ष्म जीवों की संख्या व बायोमास में बढ़ोत्तरी की जा सके जिसके परिणाम स्वरूप भूमि की पारिस्थितिकि में निरंतर सुधार हो जाये जैसा की चित्र-1 में प्रदर्शित किया गया है। पोषक तत्व को संचलन नियमन व संतुलन के लिये आपसी कारकों में संतुलन बनाये रहना चाहिए जैविक व अजैविक कारकों में असामन्जस्य होने के कारण ही भूमि की उर्वरता पर भारी दबाव व क्षरण के कारण ही भूमि की उर्वरता की निरंतर क्षति हो रही है। निरंतर उत्पादकता भूमि की उर्वरता बनाये रखने के लिये सूक्ष्म जीवों द्वारा भूमि मूल रूप निरूपण की आवश्यकता होती है। भूमि की पारिस्थितिकिय तंत्र पर अधिक दबाव को कम करके एवं सूक्ष्म जीवों की जैविक प्रक्रिया को बढ़ा करके भूमि की उर्वरता का संतुलन सतत निम्न विधियों से बढ़ाया जा सकता है-

1. फसलों के अवशेष का संरक्षण।
2. पोषक तत्वों का पर्याप्त प्रबंधन करके।
3. अति सूक्ष्म जीवों के द्वारा कार्बन व नाइट्रोजन के अनुपात को नियंत्रित करके।
4. पोषक तत्वों की अपघटन की प्रक्रिया को संतुलित करके।
5. कृषि भूमि की सतत रूप से प्रबंधन करके।
6. हरित खाद का अधिक प्रयोग करके।
7. प्राकृतिक वन उन्मूलन को रोक करके।
8. झूम कृषि, स्लेश बर्न कृषि पर रोक लगा करके।
9. प्राकृतिक आग को लगने से रोक करके।
10. भूमि अपर्दन या प्राकृतिक प्रभाव को कम करके।
11. वैज्ञानिक तकनीकी द्वारा कम उर्वरता वाले फसलों की खोज करके।
12. चारागाहों का प्रबंधन करके तथा बायोपेस्टिसाइड का उपयोग करके।

पोषक तत्वों के बजट पूल में कार्बनिक व अकार्बनिक तत्व कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, सोडिमय, मैग्नीज, आयरन, जिंक, कॉपर फॉस्फोरस, सल्फर एवं ह्यूमस को छरित होने से रोक करके इसे संरक्षित एवं सुरक्षित रखने के लिये उपरोक्त वैज्ञानिक विधि से भूमि की उर्वरता के मूल रूपण में सूक्ष्म जीवों का योगदान करके एवं उर्वरता को बनाये रखने की प्रक्रिया को नियमित कर कृषि भूमि की भौतिक रासायनिक गुणों को सूक्ष्म जीवों द्वारा प्रयोग में लाकर भूमि की बनावट, भूमि की वायु और कार्बनिक व अकार्बनिक अवयव में सुधार से उत्पादकता बढ़ जाती है और भूमि सतत रूप से उर्वरा बनी रहती है।

नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले सूक्ष्म जीव निम्न वर्गों में विभक्त है- सहजीवी सूक्ष्म जीव राइजोबियम, कवक, लाइकेन नीले, हरित शैवाल (बीजीए), जलीय फर्ने एवं अनावृति बीजिय पौधे। सामान्यत: द्वि-दलीय या दलहनी फसलों की जड़ों में गाठ बनाकर वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को अमोनिया तथा नाइट्रेट में नाइट्रेजिनेज एन्जाइम की सहायता से स्थिरीकरण करके भूमि की नत्रजन को बढ़ा देने वाले जो निम्न हैं-

 

राइजोबियम की प्रजातियाँ

प्रयुक्‍त फसल

राइजोबियम लेग्‍यूमिनोसोरियम

मटर, चटरीमटरी, मसूर, लोबिया, सेम

राइजोबियम ट्रिपोली

बरसीम

राइजोबियम फैजियोलाई

सेम

राइजोबियम ल्‍यूपिनी

ल्‍यूपिन

राइजोबियम मेलिलोटाई

रिजका, फ्रेनूग्रीक

लोबिया समूह

लोबिया, गवार मूंग, चना, अरहर, मूंगफली, मोथा, सेम, ढैंचा, सनई, शीशम, नील

 

उपरोक्त प्रजाति की सूक्ष्मजीवी निम्न फसलों में प्रति हेक्टेयर वायुमण्डीय नाइट्रोजन को अमोनिया या नाइट्रेट के रूप में स्थिरीकरण करने का दर भिन्न-भिन्न हैं। मूंगफली (27 से 206) किग्रा/हे. चना (23 से 97) किग्रा/हे., मूंग में (50 से 66) किग्रा/हे. लोबिया में (9 से 125) क्रिग्रा/हे., अरहर में (4 से 200) किग्रा/हे., सोयाबीन (49 से 450) किग्रा/हे., एसी फसलों की अपरोटेशन फसलचर के तहत बोआई करने से भूमि की पारिस्थतिकिय तंत्र एवं उर्वरता दोनों में सामन्जस्य की स्थिति बनी रहती है।

एजोबैक्टर एवं एजोस्पाइरीलम- धान के अतिरिक्त सभी खाद्यान्न वर्ग में मुख्यत: बाजरा, ज्वार, तिलहन, नगदी फसलें, चारे, रेशेदान व अन्य फसलों जिसमें किसान बहुत कम उर्वरक का उपयोग करते हैं। उपरोक्त सूक्ष्म जीवों का फसलों के साथ उपयोग करने से पौधों के जड़ों की सतह पर स्वतंत्र रूप से रहते हुए वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को अमोनिया में परिवर्तित कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं तथा सभी सूक्ष्म जीवाणु पौधों की जड़ो एवं भूमि की सतह में विभिन्न प्रकार की कार्बनिक (शर्करा, एमिनो एसिड) एवं अकार्बनिक एवं अन्य पोषक तत्व समाहित कर भूमि ह्यूमस की मात्रा बढ़ा देते हैं जिसके कारण भूमि की मृदा में (25 से 35) किग्रा/हे. नाइट्रोजन तथा अन्य पोषक तत्व स्थापित हो जाता है ऐसी फसलों की उत्पादन में सूक्ष्म जीवों की सहायता से (10 से 15) प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है।

नीले हरित शैवाल- नीले हरित शैवाल उच्च नाईट्रोजन बंध वाले सूक्ष्म शैवालों की श्रेणी में अधिकांश जलीय नम भूमि व अल्पक्षारीय प्रकृतिवास में पाये जाते हैं। कुछ में विशिष्ट प्रकार की कोशिका हेट्रोरोसिस्ट होती है। इसमें नाइट्रोजिनेस इन्जाइम की सहायता से वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को अमोनियम या नाइट्रेट के रूप में अपने प्रकृतिवास में स्थीरीकरण करते है। इसके अतिरिक्त कुछ स्पिसीज जिसमें हेट्रेरोसिस्ट कोशिका नहीं पाई जाती हैं वे भी नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं, ऐसी कई वैज्ञानिकों की रिपोर्ट हैं। सहजीवी के रूप में स्थिरीकरण करने वाले निम्न नीले हरित शैवाल- नास्टॉक, पम्टीफार्मी, एनोबिना वेरियेटएलिस, टाइलोपोथिक्स टेनियुस, सिलेण्डोस्परम म्यूजस, ओलोसाइसा फर्टिलिसमा, कैलोथ्रिक्स पैरिएटिना एवं रिवोलेरिया, हेप्लोसिफान, साइटोनिया, माइक्रोसिस्टीस, आसोलेटैरिया व अन्य बहुत से स्पिसीज है जो नाइट्रोजन का यौगिकीकरण व स्थिरीकरण करते हैं।

नीले हरित शैवाल लगभग 20 से 40 किग्रा/हे. नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं तथा पौधों में अन्य कार्बनिक पदार्थों तथा पौध विकास वर्धक रसायनों जैसे पादप हार्मोंन की मात्रा में वृद्धि करते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सूक्ष्मजीवी जैसे लाइकेन में नोवेरिया स्पिसीज, पेल्टीजीरा गोनेरिया टिंगटोरिया हारबेसियस पौधे तथा साइकस की जड़ों में सहजीवी के रूप में साबिना व नास्टॉक स्पिसीज के नीले हरित शैवाल नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करते हैं। एन्थोसिरास जो एक ब्रायोफाइट पौधा है, के साथ एन्थोसिरास एनाबिना तथा जलीय फर्न एजोला के साथ सहजीवी के रूप में नीले हरे शैवाल कुछ डायटम के साथ अंत: सहजीवी के रूप में रोहेफोलोबिया गीबा आदि भी वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का योगीकरण करते हैं।

फॉस्फेटिक उर्वरक भी नाइट्रोजन के पश्चात पौधों के वृद्धि एवं विकास के लिये आवश्यक प्रमुख पोषक तत्व हैं। कृषि भूमि में फॉस्फोरस की घुलनशीलता को बनाये रखने के लिये सूडोमोनास स्ट्रेटा जीवाणु एवं माइक्रोराइजा का उपयोग करके फॉस्फोरस की घुलनशीलता की दर को बढ़ा देता है। भूमि की फॉस्फोरस चक्र की प्रक्रिया तेज हो जाती है जिससे पौधों की फॉस्फोरस की अवशोषण उपलब्धता बढ़ जाती है, परिणाम स्वरूप भूमि की उर्वरता एवं उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है।

सूक्ष्म जीवों की उपयोग करने की विधि एवं लाभ- मृदा उपचार विधि, बीज उपचार विधि, पौध उपचार विधि एवं भूमि उपयोग प्रबंधन विधि। सूक्ष्म जीवों के द्वारा भूमि उर्वरता मूल रूपे से लाभ लागत मूल्य बहुत सस्ते होने से आर्थिक रूप से गरीब किसानों के लिये उपयोगिता, सूक्ष्म जीवों द्वारा उर्वरता के साथ एंटी-बायोटिक या बायो-पेस्टिसाइड के रूप में उत्सर्जित करने से पेस्ट कंट्रोल नियंत्रण व भूमि की उर्वरता में कोई हानि नहीं होती है एवं किसी भी प्रकार से भूमि प्रदूषित नहीं होती है। भूमि की भौतिक और रासायनिक संरचना पर किसी प्रकार का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। किसानों की कृषि उत्पाद क्षमता लगभग 10 से 30 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। जिससे ऋण ग्रसित किसान आर्थिक बोझ को कम करके आर्थिक सम्पन्नता की ओर अग्रसर हो सकता है।

संदर्भ
1. शर्मा, संदीप, कृष्ण, श्री, दीक्षित, विरेन्द्र एवं सिंह, बजरंग (2011) जैविक खेती का कृषि में महत्व, विज्ञान-वाणी, अंक 17, पृ. 33।

2. सिंह, हेमा एवं अन्य (1994) रिजिड्यूज टीलेज फॉर सस्टेनेबल ड्राई लैण्ड फॉर्मिंग, ट्रॉपिकल इकोलॉजी, खण्ड-35, अंक-1, मु. पृ. 1-23।

3. मेयर्स, आर. जे. के. एवं अन्य (1994) द सिन्क्रोनाइजेशन ऑफ न्यूट्रिएन्ट मिनरलाईजेशन एण्ड प्लांट न्यूट्रिएंट डिमाण्ड, द बायोलॉजिकल मैनेजमेंट ऑफ ट्रॉपिकल श्वायल फर्टिलिटी, मु. पृ. 81-144।

4. ओमोटायो, ओ. ई. एवं अन्य (2009) श्वायल फटिर्लिटी रेस्टोरेशन टेक्निक इन सब सहारा-अफ्रीका यूजिंग ऑर्गेनिक रिसोर्सेज, अफ्रीकन जर्नल अॉफ एग्रीकल्चरल रिसर्च, खण्ड 4, अंक-3, मु. पृ.. 144-150।

सम्पर्क


लल्लन प्रसाद
असिस्टेंट प्रोफेसर, वनस्पति विज्ञान विभाग, बीएसएनवी पीजी कॉलेज, लखनऊ-226001, यूपी, भारतlallanbsnv@gmail.com

प्राप्त तिथि 31.07.2015, स्वीकृत तिथि 25.08.2015