कवि जिस माटी के गुण गाते थकते नहीं थे, आज वह माटी ही थक चली है। सुजला, सुफला, शस्य श्यामला धरती बंजर बनती जा रही है।
चरागाह नष्ट हो रहे हैं। पशुपालक उखड़ रहे हैं। किसानों के साथ अभी कुछ ही पहले तक उनके बहुत अच्छे संबंध थे। पर्यावरण की बदली परिस्थितियों ने आज उन्हें आमने-सामने खड़ा कर दिया है। कचहरियों में पड़े आधे से ज्यादा मामले निजी जमीन में पशुओं की ‘गैरकानूनी’ चराई को लेकर हैं।
एक तरफ देश में चारे और जलाऊ लकड़ी का संकट बढ़ता ही जा रहा है और दूसरी तरफ सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों में और अब सुब-बुल सफेदा जैसे पेड़ बड़े पैमाने पर लगाए जा रहे हैं, जो न जलाए जा सकेंगे, न पशुओं को खिलाए जा सकेंगे। वे सब उसी बाजार का पेट भरेंगे, जिसके कारण यह संकट बढ़ा है।
भूमि और वन की रक्षा के लिए उठे चिपको, भीनासर जैसे आंदोलन एक बार फिर बता रहे हैं कि पर्यावरण की इन समस्याओं का हल तकनीक या बेहतर प्रबंध में नहीं, बल्कि अपनी परंपरा में है।
देश की लगभग 8 लाख हेक्टेयर जमीन हर साल बींहड़ बनती जा रही है। जिस रफ्तार से बीहड़ को रोकने का काम किया जा रहा है, उस हिसाब से कार्यक्रम को पूरा करने में 150 वर्ष लगेंगे और तब ये बीहड़ दुगने हो जाएंगे।
पिछले 30 वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना हुआ पर इसके कारण लाखों हेक्टेयर फसल और वन चौपट हुए हैं और अनेक गांव वीरान।
सन् 1987 में देश के करीब दो-तिहाई हिस्से पर अकाल की गहरी छाया रही। प्रकृति की ‘निर्भरता’ से अपने को ‘मुक्त’ मानने का गर्व करने वाले पंजाब और हरियाणा के हिस्से भी इसकी चपेट में आए।
अकाल से भी ज्यादा भयंकर है अकेले पड़ जाना। संकट के समय समाज में एक-दूसरे का साथ देने और निभाने वाली जो परंपराएं थीं, अब वे नष्ट होती जा रही हैं। संवेदना की जिस पूंजी के सहारे समाज बड़े-बड़े संकट पार कर लेता था, क्या हम उस पूंजी को बचा पाएंगे?
कवि जिस माटी के गुन गाते थकते नहीं थे, अब वह माटी ही थक चली है। किसी भी तरह की जमीन के बारे में आज यह नहीं कहा जा सकता कि वह ठीक हालत में है।
हमारे देश में मुख्य रूप से तीन तरह की जमीन है-खेती की जमीन, जंगल की जमीन और चरागाह की जमीन। इनमें चरागाह की जमीन की कुछ ज्यादा ही उपेक्षा की गई है। पिछले दौर में बड़े-बड़े चरागाह खेती की जमीन में बदल दिए गए हैं, जिससे चारा जुटाने का भार जंगलों और फिर खेती की जमीन पर भी आ गया है। नतीजा है अधपेट पशु और बिगड़ती जा रही नस्ल, जबकि विशेषज्ञ बहस में पड़े हैं कि देश में पशुओं की संख्या जरूरत से ज्यादा है। उधर, अत्याधिक चराई के कारण जंगलों की बढ़वार घटी है और भूक्षरण बढ़ चला है। इस कारण वन वाले तो पशुओं को दुश्मन मानते ही थे, अब तो पर्यावरण वाले भी यही दुहराने लगे हैं।
चरागाहों की उपेक्षा के कारण पैदा हुई पर्यावरण समस्याओं से यह बात साफ हो गई है कि उपरोक्त तीनों प्रकार की जमीन का प्रबंध अलग-अलग विभागों के हाथ सौंपने का यही परिणाम होगा कि जमीन और जीवन और भी बिगड़ता जाएगा। खेती की भूमि का प्रबंध कृषि और सिंचाई विभाग के हाथ में है, जंगलों का प्रबंध जंगल-विभाग के पास है, तो चरागाह का प्रबंध पशुपालन विभाग के अधीन है। ये विभाग आपस में सलाह-मशविरा नहीं करते, एक-दूसरे की समस्या को जानने की कोशिश नहीं करते। कुल मिलाकर सुजला, सुफला, शस्य श्यामला धरती तेजी से बंजर बनती जा रही है।
देश की धरती को बिगाड़ने में अंधाधुंध बढ़ते जा रहे खनन उद्योग का भी बड़ा हाथ है। इन उद्योगों ने धरती की बरबादी को रोकने की तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया है।
चरागाह नष्ट हो रहे हैं। पशुपालक उखड़ रहे हैं। किसानों के साथ अभी कुछ ही पहले तक उनके बहुत अच्छे संबंध थे। पर्यावरण की बदली परिस्थितियों ने आज उन्हें आमने-सामने खड़ा कर दिया है। कचहरियों में पड़े आधे से ज्यादा मामले निजी जमीन में पशुओं की ‘गैरकानूनी’ चराई को लेकर हैं।
एक तरफ देश में चारे और जलाऊ लकड़ी का संकट बढ़ता ही जा रहा है और दूसरी तरफ सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों में और अब सुब-बुल सफेदा जैसे पेड़ बड़े पैमाने पर लगाए जा रहे हैं, जो न जलाए जा सकेंगे, न पशुओं को खिलाए जा सकेंगे। वे सब उसी बाजार का पेट भरेंगे, जिसके कारण यह संकट बढ़ा है।
भूमि और वन की रक्षा के लिए उठे चिपको, भीनासर जैसे आंदोलन एक बार फिर बता रहे हैं कि पर्यावरण की इन समस्याओं का हल तकनीक या बेहतर प्रबंध में नहीं, बल्कि अपनी परंपरा में है।
देश की लगभग 8 लाख हेक्टेयर जमीन हर साल बींहड़ बनती जा रही है। जिस रफ्तार से बीहड़ को रोकने का काम किया जा रहा है, उस हिसाब से कार्यक्रम को पूरा करने में 150 वर्ष लगेंगे और तब ये बीहड़ दुगने हो जाएंगे।
पिछले 30 वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना हुआ पर इसके कारण लाखों हेक्टेयर फसल और वन चौपट हुए हैं और अनेक गांव वीरान।
सन् 1987 में देश के करीब दो-तिहाई हिस्से पर अकाल की गहरी छाया रही। प्रकृति की ‘निर्भरता’ से अपने को ‘मुक्त’ मानने का गर्व करने वाले पंजाब और हरियाणा के हिस्से भी इसकी चपेट में आए।
अकाल से भी ज्यादा भयंकर है अकेले पड़ जाना। संकट के समय समाज में एक-दूसरे का साथ देने और निभाने वाली जो परंपराएं थीं, अब वे नष्ट होती जा रही हैं। संवेदना की जिस पूंजी के सहारे समाज बड़े-बड़े संकट पार कर लेता था, क्या हम उस पूंजी को बचा पाएंगे?
कवि जिस माटी के गुन गाते थकते नहीं थे, अब वह माटी ही थक चली है। किसी भी तरह की जमीन के बारे में आज यह नहीं कहा जा सकता कि वह ठीक हालत में है।
हमारे देश में मुख्य रूप से तीन तरह की जमीन है-खेती की जमीन, जंगल की जमीन और चरागाह की जमीन। इनमें चरागाह की जमीन की कुछ ज्यादा ही उपेक्षा की गई है। पिछले दौर में बड़े-बड़े चरागाह खेती की जमीन में बदल दिए गए हैं, जिससे चारा जुटाने का भार जंगलों और फिर खेती की जमीन पर भी आ गया है। नतीजा है अधपेट पशु और बिगड़ती जा रही नस्ल, जबकि विशेषज्ञ बहस में पड़े हैं कि देश में पशुओं की संख्या जरूरत से ज्यादा है। उधर, अत्याधिक चराई के कारण जंगलों की बढ़वार घटी है और भूक्षरण बढ़ चला है। इस कारण वन वाले तो पशुओं को दुश्मन मानते ही थे, अब तो पर्यावरण वाले भी यही दुहराने लगे हैं।
चरागाहों की उपेक्षा के कारण पैदा हुई पर्यावरण समस्याओं से यह बात साफ हो गई है कि उपरोक्त तीनों प्रकार की जमीन का प्रबंध अलग-अलग विभागों के हाथ सौंपने का यही परिणाम होगा कि जमीन और जीवन और भी बिगड़ता जाएगा। खेती की भूमि का प्रबंध कृषि और सिंचाई विभाग के हाथ में है, जंगलों का प्रबंध जंगल-विभाग के पास है, तो चरागाह का प्रबंध पशुपालन विभाग के अधीन है। ये विभाग आपस में सलाह-मशविरा नहीं करते, एक-दूसरे की समस्या को जानने की कोशिश नहीं करते। कुल मिलाकर सुजला, सुफला, शस्य श्यामला धरती तेजी से बंजर बनती जा रही है।
देश की धरती को बिगाड़ने में अंधाधुंध बढ़ते जा रहे खनन उद्योग का भी बड़ा हाथ है। इन उद्योगों ने धरती की बरबादी को रोकने की तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया है।
- चरागाह
- हिमालय में चराई
- राजस्थान : सिमटते चरागाह
- सार्वजनिक जमीन
- चार विकल्प
- राजस्थान में घुमंतू
- घुमंतुओं का आवागमन
- सूखा और अभाव
- अपार संभावनाएं
- आगे क्या करें?
- भीनासर आंदोलन - शायद इसलिए गोचर हरा-भरा है
- बीहड़
- उजाड़ का फैलाव
- बीहड़ सुधार की विशाल योजना
- परती परिकथा
- खनन
- जंगल का कटान
- वायु प्रदूषण का एक बड़ा कारण खनन
- भूमि संवर्धन को अनिवार्य बनाया जाए खनन से पहले
- खुदाई की राजनीति
- गंधमार्दन : सत्याग्रह की ताजी गंध