भविष्य का कृषि संकट: कार्पोरेट खेती/कार्पोरेट जमींदारी

Submitted by editorial on Mon, 07/23/2018 - 13:22


संकट में किसानसंकट में किसान शायद भारत अब किसानों का देश नहीं कहलाएगा। यहाँ खेती तो की जाएगी लेकिन किसानों के द्वारा नहीं, खेती करने वाले कार्पोरेट्स होंगे, कार्पोरेट किसान। पारिवारिक खेती की जगह कार्पोरेट खेती। आज के अन्नदाता किसानों की हैसियत उन बंधुआ मजदूरों या गुलामों की होगी, जो अपनी भूख मिटाने के लिये कार्पोरेट्स के आदेश पर काम करेंगे। उनके लिये किसानों की समस्याओं का समाधान किसानों के अस्तित्व को ही मिटाना है।

इस समय देश में खेती और किसानों के लिये जो नीतियाँ और योजनाएँ लागू की जा रही हैं उसके पीछे यही सोच है। किसानों को खेती से बाहर करने की योजना उन्होंने बना ली है। अगर किसान अपने अस्तित्व का यह अन्तिम संग्राम नही लड़ पाया तो उसकी हस्ती हमेशा के लिये मिटा दी जाएगी। उनके लिये न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।

उन्होंने पहले ही साजिशपूर्वक देश की ग्रामीण उद्योग व्यवस्था तोड़ दी और गाँवो के सारे उद्योग बन्द कर दिये। जैसी की उनकी नीति रही है, स्थानीय उत्पादक विरुद्ध ग्राहकों के हितों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया गया। स्थानीय उद्योगों में उत्पादित वस्तुओं को घटिया व महँगा और कम्पनी उत्पादन को सस्ता व क्वालिटी उत्पादन के रूप में प्रचारित कर यहाँ की दुकानों को कम्पनी उत्पादनों से भर दिया गया।

स्थानीय उत्पादन की जगह कार्पोरेट उत्पादन को प्रमोट करने में यहाँ के व्यापारियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। कार्पोरेट उत्पादनों को ग्राहकों तक पहुँचाने के लिये व्यापारियों का इस्तेमाल कर कार्पोरेट्स ने माल बेचने के लिये खुद की व्यवस्था बना ली है। अब उन्हें दुकानदारों और व्यापारियों की आवश्यकता नहीं है। छोटे-मोटे व्यापारियों ने अपने व्यापार और देशी उद्योगों के पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारकर उसे कार्पोरेट के हवाले कर दिया है।

जो तस्वीर उभरकर आ रही है वह अत्यन्त भयावह है। दुनिया में खेती का कार्पोरेटीकरण किया जा रहा है। अब उद्योग, व्यापार और खेती सब कुछ कार्पोरेट्स करेंगे। वह इन सभी पर एक के बाद एक अपना कब्जा करते जा रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन, उद्योग और व्यापार पर तो उन्होंने पहले ही कब्जा कर लिया। अब देश की खेती और किसानों की बारी है। जो पहले ही गुलामों की जिन्दगी जी रहे हैं, कार्पोरेट्स उनका अस्तित्व ही मिटाना चाहते हैं। वह खेती पर कब्जा करना चाहते हैं ताकि कार्पोरेट उद्योगों के लिये कच्चा माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरूरी उत्पादन अपनी सुविधाओं और नीतियों के अनुसार कर सकें। कार्पोरेट खेती के लिये तर्क गढ़ा गया है कि पूँजी की कमी, छोटी जोतों में खेती अलाभप्रद होना, यांत्रिक और तकनीकी खेती करने में अक्षमता के कारण पारिवारिक खेती करने वाले किसान खेती का उत्पादन बढ़ाने के लिये में सक्षम नही हैं।

कार्पोरेट खेती का मुख्य उद्देश्य लूट की व्यवस्था का वैश्विक विस्तार करना और गुणवत्ता व मात्रा के आधार पर अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के लिये, अपनी फर्मों के लिये कैप्टिव या खुले बाजार में पर्याप्त मात्रा में कृषि उत्पादन और आपूर्ति शृंखला को एकीकृत करना है। कार्पोरेट्स प्रत्यक्ष स्वामित्व, पट्टा या लम्बी लीज पर जमीन लेकर खेती करेंगे या किसान समूह से अनुबन्ध करके किसानों को बीज, क्रेडिट, उर्वरक, मशीनरी और तकनीकी आदि उपलब्ध कराकर खेती करेंगे।


कार्पोरेट खेतीकार्पोरेट खेती खेती की जमीन, कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन, आयात निर्यात आदि सभी पर कार्पोरेट्स अपना नियंत्रण करना चाहते हैं। दुनिया के विशिष्ट वर्ग की भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिये जैव ईंधन, फलों, फूलों या खाद्यान्न खेती भी दुनिया की बाजार को ध्यान में रखकर करना चाहते है। वे फसलें, जिनमें उन्हें अधिकतम लाभ मिलेगा उन्हें पैदा करेंगे और अपनी शर्तों व कीमतों पर बेचेंगे।

अनुबन्ध खेती और कार्पोरेट खेती के अनुरूप नीतिगत सुधार के लिये उत्पादन प्रणालियों को पुनर्गठित करने और सुविधाएँ देने के लिये नीतियाँ और कानून बनाये जा रहे हैं। दूसरी हरित क्रान्ति के द्वारा कृषि में आधुनिक तकनीक, पूंजी निवेश, कृषि यंत्रीकरण, जैव तकनीक और जीएम फसलों, ई-नाम आदि के माध्यम से अनुबन्ध खेती, कार्पोरेट खेती के लिये सरकार एक व्यवस्था बना रही है।

डब्ल्यूटीओ का समझौता, कार्पोरेट खेती के प्रायोगिक प्रकल्प, अनुबन्ध खेती कानून, कृषि, रिटेल और फसल बीमा योजना में विदेशी निवेश, किसानों के लिये संरक्षक सीलिंग कानून हटाने का प्रयास, आधुनिक खेती के लिये इजराइल से समझौता, खेती का यांत्रिकीकरण, जैव तकनीक व जीएम फसलों को प्रवेश, कृषि मंडियों का वैश्विक विस्तारीकरण के लिये ई-नाम, कर्ज राशि का विस्तारीकरण, कर्ज चुकाने में अक्षमता पर खेती की गैर-कानूनी जब्ती, कृषि उत्पादों की बिक्री के लिये शृंखला जाल के प्रायोगिक प्रकल्प, सुपर बाजार की शृंखला, जैविक ईंधन जट्रोफा, इथेनॉल के लिये गन्ना और फलों, फूलों की खेती आदि को बढ़ावा देने की सिफारिशें, निर्यातोन्मुखी कार्पोरेटी खेती और विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते के तहत वैश्विक बाजार में खाद्यान्न की आपूर्ति की बाध्यता आदि सभी को एक-साथ जोड़कर देखने से कार्पोरेट खेती की तस्वीर स्पष्ट होती है।

इस समय देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ रॉथशिल्ड, रिलायंस, पेप्सी, कारगिल, ग्लोबल ग्रीन, रलीज, आइटीसी, गोदरेज, मेरीको आदि के द्वारा पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगना, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ आदि प्रदेशों में फलों में आम, काजू, चीकू, सेब, लीची, सब्जिओं में आलू, टमाटर, मशरुम, स्वीट कॉर्न आदि की खेती की जा रही है। उच्च शिक्षित युवा जो आधुनिक खेती करने, छोटी दुकानों में सब्जी बेचने, प्रसंस्करण करने आदि का काम कर रहे हैं, जिसे मीडिया प्रोजेक्ट कर रही है, उसमें से अधिकांश कार्पोरेटी व्यवस्था स्थापित करने के लिये प्रायोगिक प्रकल्पों पर काम कर रहे है।

भारत में किसी भी व्यक्ति या कम्पनी को एक मर्यादा से अधिक खेती खरीदने के लिये सीलिंग कानून प्रतिबन्ध करता है। विद्यमान कानून के चलते कार्पोरेट घरानों को खेती पर सीधा कब्जा करना सम्भव नहीं है। इसलिये सीलिंग कानून बदलने के लिये प्रयास किया जा रहा है। कुछ राज्यों में अनुसन्धान और विकास, निर्यातोन्मुखी खेती के लिये कृषि व्यवसाय फर्मों को खेती खरीदने की अनुमति दी गई है तो कहीं पर कम्पनियों के निदेशकों या कर्मचारियों के नाम पर खेती खरीदी गई है तो कहीं राज्य सरकारों ने नाम मात्र पट्टे पर जमीन दी है। बंजर भूमि खरीदने या किराए पर लेने की अनुमति दी जा रही है। सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि किस कानून के तहत कार्पोरेट को जमीन दी गई है।

कृषि में किसानों की आय दोगुनी करने के लिये नीति आयोग का सुझाव यह है कि किसानों को कृषि से गैर कृषि व्यवसायों में लगाकर आज के किसानों की संख्या आधी की जाए, तो बचे हुए किसानों की आमदनी अपने आप दोगुनी हो जाएगी। आयोग कहता है, “कृषि कार्यबल को कृषि से इतर कार्यों में लगाकर किसानों की आय में काफी वृद्धि की जा सकती है। अगर जोतदारों की संख्या घटती रही तो उपलब्ध कृषि आय कम किसानों में वितरित होगी।”

वे आगे कहते है कि वस्तुत: कुछ किसानों ने कृषि क्षेत्र को छोड़ना शुरु भी कर दिया है और कई अन्य कृषि को छोड़ने के लिये उपयुक्त अवसरों की तलाश कर रहे हैं। किसानों की संख्या 14.62 करोड से घटकर 2022 तक 11.95 करोड़ करना होगा। जिसके लिये प्रतिवर्ष 2.4 प्रतिशत किसानों को गैर कृषि रोजगार से जोड़ना होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार आज देश में लगभग 40 प्रतिशत किसान अपनी खेती बेचने के लिये तैयार बैठे हैं।

केंद्रीय वित्त मंत्री ने संसद में कहा था कि सरकार किसानों की संख्या 20 प्रतिशत तक ही सीमित करना चाहती है। अर्थात यह 20 प्रतिशत किसान वही होंगे, जो देश के गरीब किसानों से खेती खरीद सकेंगे और जो पूँजी, आधुनिक तकनीक और यांत्रिक खेती का इस्तेमाल करने के लिये सक्षम होंगे। यह सम्भावना उन किसानों के लिये नहीं है जो खेती में लूटे जाने के कारण परिवार का पेट नहीं भर पा रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि आज के शत-प्रतिशत किसानों की खेती पूँजीपतियों के पास हस्तान्तरित होगी और वह किसान कार्पोरेट घराने होंगे।

किसानों की संख्या 20 प्रतिशत करने के लिये ऐसी परीस्थितियाँ पैदा की जा रही हैं कि किसान स्वेच्छा से या मजबूर होकर खेती छोड़ दे या फिर ऐसे तरीके अपनाये जाएँ जिसके द्वारा किसानों को झाँसा देकर फँसाया जा सके। किसान को मेहनत का मूल्य न देकर सरकार खेती को घाटे का सौदा इसीलिये बनाए रखना चाहती है ताकि कर्ज का बोझ बढ़ाकर उसे खेती छोड़ने के लिये मजबूर किया जा सके। जो किसान खेती नही छोड़ेंगे उनके लिये अनुबन्ध खेती के द्वारा कार्पोरेट खेती के लिये रास्ता बनाया जा रहा है। देश में उद्योग और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिये पहले ही करोड़ों हेक्टेयर जमीन किसानों के हाथ से निकल चुकी है। अब कार्पोरेट खेती के लिये बची हुई जमीन धीरे-धीरे कार्पोरेट्स के पास चली जाएगी। जो दुनिया में खेती पर कब्जा करने के अभियान पर निकले हैं।

लूट की व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाकर उसे स्थाई और अधिकृत बनाना कार्पोरेट की नीति रही है। भारत में जब अंग्रेजी राज स्थापित हुआ तब जमींदारी कानून के द्वारा लूट की व्यवस्था बनाई गई। लगान लगाकर किसानों को लूटा गया। अनुबन्ध खेती, कार्पोरेट खेती जमींदारी का नया प्रारूप है। अब केवल लगान ही नहीं, खेती को हर स्तर पर लूट की व्यवस्था बनाकर खेती ही लूट ली जाएगी।

भारत की पहचान ‘भारत किसानों का देश है’ हमेशा के लिये मिटा दी जाएगी। देश के लोगों ने सोचा था कि आजादी उनके जीवन में खुशहाली लेकर आएगी। समता मूलक समाज रचना का उनका सपना पूरा होगा। आजादी के मायने यही थे कि हमारे भविष्य हम खुद बना पाएँगे, गाँव समृद्ध होंगे और लोग सम्मानपूर्वक जीवन जी पाएँगे। लेकिन यह नहीं हो पाया। देश खाद्यान्न सुरक्षा, आत्मनिर्भरता को हमेशा के लिये खो रहा है। यह परालम्बित्व राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये बड़ा खतरा है। अब भारत फिर से गुलामी की जंजीरो में बंध चुका है।

लेखक सम्पर्क सूत्र

Vivekanand Mathane,
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