चाणक्य की दृष्टि में आपदा प्रबंधन

Submitted by Hindi on Fri, 02/10/2017 - 12:32
Source
योजना, जनवरी 2017

प्राचीन भारत संस्कृतिपरक समाज था इसलिये विपदाओं का सामना और समाधान भी वह संस्कृति और समाज के आधार पर ही करने में सक्षम था, किन्तु आज जो समाज निर्मित हुआ है, वह सभ्यतापरक है, जिसमें व्यक्ति विशेष के हितों का संरक्षण समाज की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है। फलतः आपदाओं की संख्या और उनके नए-नए प्रकार बढ़ते जा रहे हैं। आज आवश्यकता है कि प्राचीन भारतीय परम्पराओं को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त किया जाए; यदि हम ऐसा कर सके, तो यह प्रकृति और समाज के संरक्षण तथा ‘आपदा प्रबंधन’ के दृष्टिकोण से उठाया गया बहुत बड़ा कदम होगा

आधुनिकता की दौड़ कहें या वैश्वीकरण का परिणाम, जो भी हो; इसमें कुछ शब्द, जो प्रायः चलन में नहीं थे, अब बहुधा प्रयुक्त किए जाते हैं। उनमें से ही एक शब्द है ‘आपदा प्रबंधन’। ऐसा नहीं है कि यह शब्द प्राचीनकाल में प्रयुक्त नहीं होता था। यदि प्रयुक्त नहीं होता था तो संस्कृत वांग्मय में यह प्राप्य कैसे है? लेकिन इतना तो तय है कि इसका प्रयोग या प्रचलन प्रायः नहीं ही होता था; क्योंकि समाज ने अपनी जीवन शैली को इतना व्यवस्थित और प्रकृति उन्मुखी किया हुआ था कि ‘आपदा’ जैसी स्थितियाँ प्रायः नहीं ही निर्मित होती थीं। फिर भी, संस्कृत वांग्मय में वेदों से लेकर 18वीं सदी तक इस विषय पर पर्याप्त सामग्री और विषय वस्तु उपलब्ध है। इस आलेख में, लोक विख्यात आचार्य विष्णुगुप्त उपाख्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर विषय का विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।

यों तो कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कुल मिलाकर 15 अधिकरण हैं और इन 15 अधिकरणों को कुल 150 अध्यायों और 180 प्रकरणों में विभाजित किया गया है। लेकिन चौथे अधिकरण के अध्याय 3 ‘उपनिपात प्रतिकारः’ के प्रकरण 78 तथा प्रथम अधिकरण के अध्याय 19 ‘निशान्त प्रणिधि’ जोकि पुस्तक का 15वाँ प्रकरण है, में तथा अधिकरण-2 के अध्याय 36 तथा पुस्तक के प्रकरण 55 में आपदा प्रबंधन विस्तार से चर्चा की गई है। सर्वप्रथम हम यहाँ पर यह समझने का प्रयास करते हैं कि ‘आपदा’ शब्द की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, तो ध्यान में आता है कि ‘आपदा’ पद “आ” उपसर्ग के क्विप और ताप प्रत्यय के संयोग से अस्तित्व में आता है। जिसका अर्थ है ‘संकट’। आपदा प्रबंधन से अभिप्राय है कि संकट का सामना करना, उसका समाधान ढूँढना या उस पर काबू पाना आदि-आदि।

जब हम आपदाओं के विषय में विचार करते हैं तो प्रायः वे तीन प्रकार की होती हैं। जिन्हें त्रिविध ताप के रूप में जाना जाता है। तुलसीदास ने इन्हीं को रामचरित मानस में दैविक, दैहिक, भौतिक तापा कहा है। जिसका अर्थ है कि ताप तीन प्रकार के होते हैं- (1) दैविक, जोकि देवों द्वारा दिए जाते हैं। (2) दैहिक, जोकि शरीर सम्बन्धी होते हैं और (3) भौतिक जोकि मनुष्य द्वारा उत्पन्न होते हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा में इन सभी तापों के नियमन के उपाय मनुष्यों ने जीवन शैली को विकसित करके कर लिये थे। किन्तु फिर भी कभी-कभी इनका सामना यदि मनुष्यों को करना पड़ जाता था, तो कौटिल्य ने उन पर पर्याप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया है। कौटिल्य ने विपत्तियों को आठ प्रकारों में विभाजित किया है। (1) अग्नि (2) जल (3) बीमारी (4) दुर्भिक्ष (5) चूहे (6) व्याघ्र (7) सांप और (8) राक्षस।

अग्निजन्य आपदाओं से बचाव


संस्कृत वांग्मय में अग्नि के तीन प्रकार बताए गए हैं।

(क) जठराग्नि : जोकि मनुष्य के शरीर का नियमन करती है।

(ख) दावाग्नि : जोकि जंगलों का नियमन करती है या जलाती है।

(ग) बड़वाग्नि : जोकि पानी का नियमन करती है या उसमें निवास करती है।

भारतीय समाज में इन तीनों ही अग्नि के नियमन और समुचित उपयोग की विधि विकसित कर ली गई थी; फिर भी कोटिल्य सावधानी के उपायों का वर्णन करते हैं। वे लिखते हैं कि गर्मी ऋतु में ग्रामवासियों के भोजन आदि के पकाने में अग्नि का उपयोग घर से बाहर करना चाहिए या गोप जोकि ग्राम का अधिकारी होता है, के द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर ही भोजन बनाया जाना चाहिए।

वे आगे लिखते हैं कि गर्मी की ऋतु में मध्याह्न के चार भागों में आग जलाने की मनाही कर देनी चाहिए। दूसरे उल्लंघनकर्ता को एक पण के आठवें भाग का दंड दिया जाए। यदि आवश्यक ही हो तो खुले स्थान पर आग का उपयोग किया जा सकता है। वे फिर आगे लिखते हैं कि यदि कोई व्यक्ति (निशि) समय में पाँच घड़ी तक आग जलावे तो उसे चौथाई पण दंड दिया जाए। इसके अतिरिक्त एक तरफ वे अग्नि के उपयोग को हर समय और हर स्थान पर करने का निषेध करते हैं वहीं वे दूसरी ओर अग्नि के शमन में उपयोगी साधनों के एकत्रीकरण पर भी बल देते हैं और ऐसा न करने पर भी वे दंड का प्रावधान सुनिश्चित करते हैं। वे लिखते हैं कि जो गर्मी के मौसम में अपने घर के सामने पानी से भरे घड़े, पानी से भरी नाँद, सीढ़ी, कुल्हाड़ी, सूप, छाज, कौंचा, फूस, आदि को निकालने के लिये लम्बा लट्ठ, और चमड़े की मशक आदि वस्तुओं का इन्तजाम करके न रखे उसे भी चौथाई पण का दंड दिया जाए। यदि हम समकालीन अग्निशमन विभाग के द्वारा भवन निर्माण की अनुमति के समय जो शर्तें बताई जाती हैं, को देखें तो ध्यान में आता है कि ये शर्तें लगभग वही हैं जो कौटिल्य ने बतायी हैं। उनका प्रकार आधुनिकता के चलते थोड़ा परिवर्तित हो सकता है।

सार्वजनिक स्थलों के लिये भी वे इसी प्रकार का प्रावधान देते हैं। वे लिखते हैं कि गलियों तथा बाजारों, चौराहों, नगरों के प्रधान द्वारों, खजानों, कोष्ठागारों, गज और अश्वशालाओं पर पानी से भरे एक हजार घड़ों का हर समय प्रबंध होना चाहिए। इसके अतिरिक्त वे गर्मी में उन शिल्पियों की बस्तियों या कार्यशालाओं की व्यवस्था किसी सुरक्षित स्थान पर करने की भी हिदायत देते हैं जोकि ज्वलनशील वस्तुओं से सम्बन्धित हों जैसे-बढ़ई और लुहार आदि-आदि। गृहस्वामी यदि घर में लगी हुई आग को बुझाने का प्रबंधन करे तो उस पर 12 पण का दंड और यदि उसका किरायेदार यह कृत्य करे तो 6 पण का दंड देना चाहिए।

यदि अपने ही घर में आग धोखे से लग जाए, तो गृहस्वामी को 54 पण का दंड दिया जाए। इस प्रकार से वे अग्नि से बचाव के उपायों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। मकान में आग लगाने वाले व्यक्ति को पकड़े जाने पर वे प्राण दंड की सजा का प्रावधान देते हैं।

यद्यपि ये जंगली पशु हमारी जैवविविधता के अनिवार्य अंग हैं किन्तु इनके अनियमन से सभी को हानि होती है। कौटिल्य ने इनके अतिक्रमण को भी एक आपदा माना और उसके समाधान के उपायों पर प्रकाश डाला। वे लिखते हैं कि इन से बस्तियों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये मृत-पशुओं की लाशों को जंगल में छुड़वा दिया जाए, जिससे इनके भोजनादि की व्यवस्था हो सके।

कौटिल्य अग्नि से बचाव के कुछ प्राकृतिक उपायों को भी अपनाने पर बल देते हैं- यद्यपि ये थोड़े चौंकाने वाले हैं किन्तु यदि इनके सूत्रों को हल करके इनका उपयोग गृह निर्माण के समय पर ही कर लिया जाए तो गृह को अग्नि से प्राकृतिक रूप से ही बचाया जा सकता है। आजकल कुछ कम्पनियाँ भी इस प्रकार के लेपों का प्रचार-प्रसार करती हैं।

जलजनित आपदाओं से रक्षा


कौटिल्य लिखते हैं कि नदी के किनारे बसे हुए ग्रामवासियों को चाहिए कि वे वर्षा ऋतु में असावधानीवश रात्रि में अपने घरों पर शयन करें। तथा सावधानीपूर्वक वे लकड़ी, बाँस के बेड़े, नाव आदि की भी व्यवस्था करके रखें। बहते हुए आदमियों के बचाव के लिये तुम्बी, मशक, तमेड़, लक्कड़ या लकड़ी के बेड़े से बचाया जाए। यदि कोई व्यक्ति बचाव के साधन होने पर भी डूबते हुये व्यक्ति को न बचाये तो उस पर 12 पण का दंड लगाया जाए। पूर्णमासी (जब चन्द्रमा पूरा होता है) को नदियों की पूजा कराई जाए। मन्त्रविद एवं अथर्ववेद के ज्ञाताओं से अतिवृष्टि की शान्ति के लिये जप, होम, यज्ञ आदि अनुष्ठान कराए जाएँ। वर्षा के शान्त होने पर इन्द्र, गंगा, पर्वत तथा समुद्र की पूजा कराई जाए। यहाँ पर कौटिल्य पूजा और अनुष्ठान की जो बात कर रहे हैं; वस्तुतः वह सूत्र रूप में ही है। पूजा-पाठ से अभिप्राय उनके व्यवस्थित रख-रखाव यानि प्रकृति चक्र या ऋतु चक्र के व्यवस्थित नियमन से है जिससे प्रकृति का क्रम टूटने न पावे और अतिवृष्टि-अनावृष्टि की स्थिति न निर्मित हो सके।

स्वास्थ्य आपदाएँ: रोगों से रक्षा


प्राचीन काल में खान-पान तथा जीवन शैली के चलते स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का सामना (बहुतायत में) यदा-कदा ही करना पड़ता था; किन्तु जब यह समस्या उत्पन्न होती थी तो एक महामारी का रूप ले लेती थी। ऐसी अवस्था में राज्य और समाज किस प्रकार से अपनी भूमिका का निर्वहन करें, उस पर कौटिल्य विस्तार से प्रकाश डालते हैं। वे लिखते हैं कि बीमारियों के दो प्रकार होते हैं- (1) कृत्रिम (2) अकृत्रिम। कृत्रिम बीमारी वे होती हैं जोकि एक राज्य अपने शत्रु राज्य में अशान्ति और अव्यवस्था निर्मित करने के लिये प्रयोग में लाता है। ये बीमारियाँ प्रायः (निशि) कर्मों के द्वारा ही फैलाई जाती हैं; इनके उपयोग की अनुमति विषम परिस्थितियों में ही दी जाने की बात कौटिल्य कहते हैं। इनका उल्लेख कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के 14वें अधिकरण (औपनिषदिक) में विस्तार से किया है। क्योंकि यह बहुत विस्तृत है अतः इसका उल्लेख करना यहाँ पर समीचीन प्रतीत नहीं होता है। दूसरा प्रकार अकृत्रिम या प्राकृतिक बीमारियों का है। ये वे बीमारियाँ हैं जो प्रकृति प्रदत्त या देशकाल परिस्थितियों के अनुसार होती हैं कभी ये कम या कभी ये ज्यादा होती हैं।

इनके नियमन के सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि इनके शमन के लिये वैद्य चिकित्सा द्वारा और सिद्ध एवं तपस्वी लोग शान्तिकर्ता, व्रत, उपवास आदि का उपयोग करें। इनके लिये वे कुछ सूत्र भी बताते हैं। यथा-गंगास्नान, (स्थानीय नदियों का उपयोग भी स्नान के लिये लिया जाता होगा) क्योंकि नदियाँ अपने साथ जल में लाभकारी वनस्पतियों के सत्व को समेटे हुए होती हैं। समुद्र पूजन तथा रात्रि जागरण करके ग्राम देवता की पूजा आदि-आदि। यद्यपि ये सभी बातें बहुत छोटी-छोटी हैं किन्तु इनके रहस्यों को समझने के लिये संस्कृत वाङमय रूपी मंदाकिनी में डुबकी लगाने की आवश्यकता है; बिना इस कार्य के सूत्रों का हल होना संभव नहीं है। हैजा, प्लेग तथा चेचक जैसी बीमारियों के लिये भी वे चिकित्सकीय उपायों के साथ-साथ वनस्पतियों के सहयोग की भी बात करते हैं। रोगों की समस्या न केवल मनुष्यों को परेशान करती थी बल्कि उनके जीवन के अभिन्न अंग पशुओं के लिये भी वह परेशानी का कारण होती थी।

प्राचीन भारत का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह था कि वह प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलता था। इसलिये प्रायः बड़ी व्याधियों से वह बचा रहता था। प्रकृति के साथ साहचर्य उसका सबसे बड़ा वैशिष्ट्य था। किन्तु आधुनिक काल के अभ्युदय के बाद से मशीनों के चलते उसने प्रकृति के समक्ष अनेक चुनौतियों को प्रस्तुत कर दिया, उन्हीं चुनौतियों के फलस्वरूप प्रकृति प्रदत्त आपदाओं की संख्या में वृद्धि हो गई।

इसलिये कौटिल्य उनके लिये भी अनेक उपचारों का उल्लेख सूत्र रूप में करते हैं। कौटिल्य जैसा वैज्ञानिक चिन्तक कोई भी बात ऐसे नहीं कह सकता, जोकि प्रमाणिक न हो, क्योंकि उसका सम्पूर्ण चिन्तन व्यावहारिक था और आज भी वह देश, काल, परिस्थितियों के अनुरूप व्यवहार होने पर सफल सिद्ध होता। आवश्यकता है तो, बस उन सूत्रों को हल करके उन्हें लागू करने की। जैसे वह पशुओं की बीमारी के लिये कहते हैं कि यदि पशुओं में बीमारी या महामारी फैल जाए तो गाँव-गाँव में रोग शान्ति के लिये शान्ति कर्म करवाए जाएँ (शान्तिकर्म से अभिप्राय उस रोग से सम्बन्धित उपचार को लागू करने से हैं) और पशुओं के अधिष्ठाता देवता जैसे-हाथी के सुब्रहमण्य, घोड़े के अश्विनी, गौ के पशुपति, भैंस के वरुण तथा बकरी के अग्नि आदि देवताओं की पूजा कराई जाए। भारतीय व्यवस्था का यह वैशिष्ट्य रहा है कि यहाँ पर प्रत्येक प्राणी का कोई-न-कोई अधिष्ठाता देव रहा है। अधिष्ठाता देव से उस प्राणी की प्रकृति को आसानी से समझकर उसके उपचार की व्यवस्था सुगमता से की जानी सम्भव है। जब कौटिल्य अधिष्ठाता देव की पूजा-अर्चना की बात कहते हैं तो वे उसकी प्रकृति को समझकर उसी के अनुरूप उपचार की बात कहते हुए प्रतीत होते हैं।

दुर्भिक्ष से रक्षा


दुर्भिक्ष से अभिप्राय अकाल से है। अकाल के समय राज्य और राजा की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस सन्दर्भ में कौटिल्य लिखते हैं कि राजा ऐसी अवस्था में जनता में बीज और अन्न का वितरण करके जनता पर अनुग्रह करें या फिर उनको उचित वेतन देकर दुर्ग या सेतु का निर्माण कराएँ। काम करने में असमर्थ लोगों को केवल अन्न दिया जाए या फिर उन्हें पास के ही ऐसे राज्य में पहुँचाने की व्यवस्था कर दी जाए जहाँ पर अकाल की समस्या न हो। इस समस्या के समाधान के लिये मित्र राजा से सहयोग लिया जा सकता है या फिर राज्य के धनिकों पर एकमुश्त कर अधिरोपित किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त वे यह भी सुझाव देते हैं कि दुर्भिक्ष की अवस्था यदि विषम है तो राजा प्रजा सहित अपने मित्र के क्षेत्र में चला जाए या फिर समुद्र के किनारे या बड़े-बड़े तालाबों के किनारे जाकर बस जाए, जिससे वहाँ पर जीवन-यापन लायक संसाधन प्राप्त हो सकें।

जैव अपदाएँ: चूहों आदि से रक्षा


चूहे जहाँ एक ओर मानव के सहयोगी के रूप में जाने जाते हैं वहीं वे कृषि को हानि पहुँचाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करते हैं। भारत में चूहों के मनोविज्ञान एवं गतिविधियों को समझने वाला समाज सदियों से रहा है, जो न केवल इनके क्रिया-कलापों से परिचित था बल्कि वह इनको नियमन करने में भी सक्षम था। कौटिल्य चूहों के दोनों ही प्रकार की भूमिका से परिचित थे इसलिये वे अनियमन की अवस्था में इसको एक आपदा के रूप में देखते हैं और इनके नियमन के उपायों पर प्रकाश डालते हैं। वे लिखते हैं कि ‘जीवो जीवस्य जीवनम’ इस सिद्धान्त को प्रश्रय देते हुए चूहों को नियन्त्रित करने के लिये बिल्ली, नेवले एवं दुमुहीं का सहयोग लेना चाहिए। ऐसी अवस्था में यदि कोई इनको मारे तो उस पर 12 पण का दंड किया जाए। वे उन पालतू कुत्तों के स्वामियों पर भी दंड का प्रावधान करते हैं जो दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं। जंगली कुत्तों के स्वतन्त्रता के वे पक्षधर हैं। इसके अतिरिक्त वे कुछ और प्रावधानों पर बल देते हैं यथा- सेहुड़ के दूध में साने हुए अनाज को या कुछ अन्य औषधियों (जिनका उल्लेख औपनिषदिक अधिकरण में करते हैं जिनका उल्लेख मैंने बीमारी वाले प्रकरण में कृत्रिम बीमारी के परिप्रेक्ष्य में किया है और अत्यधिक विस्तृत होने के कारण उसका उल्लेख करना समीचीन नहीं माना है) में मिले हुए अनाज को इधर-उधर बिखेर दिया जाए। चूहों को पकड़ने के लिये वे चूहेदानी के प्रयोग के भी पक्षधर हैं। वे सिद्ध एवं तपस्वियों के सहयोग की बात भी कहते हैं। विशेष पर्वों पर वे मूषक पूजा का प्रावधान भी सुनिश्चित करते हैं। इस प्रकार वे इस समस्या के समाधान के लिये चतुर्दिक उपायों पर विचार करते हैं।

जैव आपदाएँ: व्याघ्र आदि हिंसक प्राणियों से रक्षा


यद्यपि व्याघ्र जंगली प्राणी है फिर भी कभी-कभी वह या तो स्वयं ही या शत्रु राजा के द्वारा प्रेरित करने से मानवीय बस्तियों में प्रवेश करता है, जिससे भारी जन-धन की हानि होती थी। आज भी उन क्षेत्रों में जहाँ पर मनुष्यों ने वनों का अतिक्रमण कर लिया है और अपनी बस्तियाँ बसा ली हैं, उन क्षेत्रों में जंगली हिंसक पशुओं का प्रकोप बहुधा होता रहता है। यद्यपि ये जंगली पशु हमारी जैवविविधता के अनिवार्य अंग हैं किन्तु इनके अनियमन से सभी को हानि होती है। कौटिल्य ने इनके अतिक्रमण को भी एक आपदा माना और उसके समाधान के उपायों पर प्रकाश डाला। वे लिखते हैं कि इन से बस्तियों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये मृत-पशुओं की लाशों को जंगल में छुड़वा दिया जाए, जिससे इनके भोजनादि की व्यवस्था हो सके। इसके अतिरिक्त धतूरा और जंगली कोदी को मिलाकर पशुओं की लाशों में भरकर उन्हें जंगल में छोड़ दिया जाए। इस विपत्ति से बचने या सामना करने के लिये शिकारी और बहेलियों का सहयोग भी अपेक्षित है। वह मनुष्य, जो हिंसक पशुओं से घिरे मनुष्य की सहायता न करे उसको 12 पण का दंड दिया जाए तथा जो हिंसक पशुओं का शिकार करें उसे 12 पण इनाम के रूप में दिया जाए। कौटिल्य ने प्रत्येक विपदा से निवृत्ति के लिये पूजा का विधान दिया है; यहाँ पर भी वे व्याघ्र सदृश जंगली पशुओं से बचाव के लिये पर्वतों की पूजा का विधान देते हैं। पूजा से अभिप्राय है कि वे स्थान जहाँ से विपदा का आगमन या प्रारम्भ होता हो को समृद्ध किया जाए।

जैव आपदाएँ :
साँप आदि विषैले जीवों से रक्षा


मंत्र तथा जड़ी-बूटियों के जानकार लोग सर्पदंश के निवारण के लिये सदैव तत्पर रहें तथा नगरवासियों की आवश्यकतानुसार उनको मार सकें। इनसे बचाव के लिये भी वे पूजादि का विधान देते हैं।

सामाजिक आपदाएँ : राक्षसों से बचाव


राक्षसों से भी बचाव के लिये वे विधान का निर्धारण करते हैं। कौटिल्य का काल वह काल है जब बौद्ध धर्म का प्रचलन सर्वत्र हो चुका था। हीनयान और महायान सम्प्रदायों में उसका विभाजन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता था। महायान सम्प्रदाय में अनेक प्रकार के तान्त्रिक अनुष्ठानों को प्रश्रय मिला हुआ था। इन्हीं के कारण समाज में अनेक व्याधियों ने अपनी जड़ों को जमा लिया था। उन जड़ों के प्रतिकार के लिये वे अथर्ववेद के सहयोग का उल्लेख करते हैं। कौटिल्य यह भी कहते हैं कि इस प्रकार के भयों से राजा अपनी प्रजा की रक्षा करे तथा अथर्ववेद के ज्ञाता तान्त्रिक, सिद्धों एवं तपस्वियों को अपने राज्य में ससम्मान स्थान दे; जिससे समय पर वे इस प्रकार की व्याधियों से प्रजा की रक्षा कर सकें।

इस प्रकार, प्राचीन भारत में उपरिवर्णित आठ व्याधियाँ प्रायः प्रचलन में थीं। इनके उपायों के विषय में कौटिल्य ने सूत्र रूप में विधान दिए हैं। इसके अतिरिक्त देश-काल परिस्थितियों के अनुसार अन्य व्याधियों ने भी जन्म लिया होगा; तो मनुष्य को चाहिए कि वह उसी के अनुसार कार्रवाई करें। प्राचीन भारत का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह था कि वह प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलता था। इसलिये प्रायः बड़ी व्याधियों से वह बचा रहता था। प्रकृति के साथ साहचर्य उसका सबसे बड़ा वैशिष्ट्य था। किन्तु आधुनिक काल के अभ्युदय के बाद से मशीनों के चलते उसने प्रकृति के समक्ष अनेक चुनौतियों को प्रस्तुत कर दिया, उन्हीं चुनौतियों के फलस्वरूप प्रकृति प्रदत्त आपदाओं की संख्या में वृद्धि हो गई। वहीं उसे अपने बाजार को बनाए रखने के लिये भी मशीनों का उपयोग दिनोंदिन बढ़ाना पड़ रहा है। इसके कारण ही अनेक व्याधियों ने जन्म लिया है और मनुष्य के पास उनका विकल्प नहीं है। वह उनको समूल नष्ट करके और नए प्रकार की व्याधियों को जन्म देने के लिये तत्पर है।

प्राचीन भारत संस्कृतिपरक समाज था इसलिये विपदाओं का सामना या समाधान भी वह संस्कृति और समाज के आधार पर ही निकाल लेता था, किन्तु आज जो समाज निर्मित हुआ है, वह सभ्यतापरक है, जिसमें व्यक्ति विशेष के हितों का संरक्षण समाज की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है। फलतः आपदाओं की संख्या और उनके नए-नए प्रकार बढ़ते जा रहे हैं। आज आवश्यकता है कि प्राचीन भारतीय परम्पराओं को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त किया जाए; यदि हम ऐसा कर सकें, तो यह प्रकृति और समाज के संरक्षण तथा ‘आपदा प्रबन्धन’ के दृष्टिकोण से उठाया गया बहुत बड़ा कदम होगा।

संदर्भ
1. वामन शिव राम आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोष, मोतीलाल बनारसीदास, प्रा.लि. दिल्ली, वर्ष 1993, पृष्ठ-15

2. गोस्वामी तुलसीदास, रामचरित मानस, ‘उत्तरकाण्ड’ -दोहा-20/1 गीताप्रेस गोरखपुर, वर्ष

3. अग्निपुराण

4. कौटिल्य अर्थशास्त्र, चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, वर्ष 2013

लेखक परिचय


लेखक अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्विविद्यालय, भोपाल, मध्य प्रदेश के समाज विज्ञान संकाय के अधिष्ठाता (डीन) हैं। समाजशास्त्रीय सेमिनारों में इनकी सक्रिय उपस्थिति रही है। आप भारत विद्या के अध्येता हैं तथा संस्कृत वांङमय में वर्णित समकालीन मुद्दों को परिचय के साथ युवा वर्ग के सम्मुख रखते हैं। ईमेल: pawan_sharma1967@yahoo.co.in