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प्रजातंत्र लाइव, 29 अप्रैल 2015
विडम्बना देखिए कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण को समझने के लिए तैयार नहीं है। वह अपनी समस्त ऊर्जा प्रकृति को गुलाम बनाने में झोंक रहा है। 21वीं सदी का मानव अपनी सभ्यताओं और संस्कृतियों से कुछ सीखने को तैयार नहीं। उसका चरम लक्ष्य प्रकृति की चेतना को चुनौती देकर अपनी श्रेष्ठता साबित करना है। इन्सान को समझना होगा कि यह समष्टि-विरोधी आचरण है। प्रकृति पर प्रभुत्व की भरपाई है।
नेपाल में आए इस भूकम्प ने भारत के पूर्वी राज्यों को भी दहलाया है। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में कई लोगों की जानें गई हैं। विडम्बना है कि वैज्ञानिकता के इस चरम युग में अभी तक भूकम्प का पूर्वानुमान लगाने का भरोसेमन्द उपकरण विकसित नहीं किया जा सका। वैज्ञानिक अभी तक भूकम्पीय संवेदनशील इलाकों को चिन्हित करने तक ही सक्षम है। हालाँकि वे इस दिशा में अग्रसर हैं और सम्भव है कि आने वाले वर्षों में उपकरण विकसित कर ले जाएँ।
हालाँकि रूस और जापान में आए अनेक भूकम्पों के पर्यवेक्षण से पूर्वानुमान के संकेत सामने आए हैं। मसलन, भूकम्प आने से पहले उस क्षेत्र के निकटवर्ती चट्टानों से गुजरने वाली भूकम्पीय तरंगों की गति में परिवर्तन आ जाता है। इसी तरह चीनी भूकम्प वैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार साँप, चींटी, दीमक तथा अन्य जन्तुओं को अपने बिलों से बाहर निकल आना, मछलियों का जल से बाहर निकल आना, बत्तखों का पानी में न घुसना, चिड़ियों का तेजी से चहचहाना और कुत्तों का रोना इत्यादि ऐसी बातें हैं जो भूकम्प के आने की भरपूर सूचना देती हैं।
यह प्रकृति द्वारा प्रदत्त पशुओं में संवेदन-शक्ति होती है लेकिन यह संकेत वैज्ञानिक और भरोसेमन्द नहीं है और न ही इससे सटीक अनुमान लगाया जा सकता है। भूकम्प कभी भी आ सकते हैं। कुछ क्षेत्र इसके लिए बेहद संवेदनशील हैं जहाँ भूकम्पों के आघात सर्वाधिक होते हैं। ये क्षेत्र पृथ्वी के वे दुर्बल हिस्से हैं, जहाँ वलन (फोल्डिंग) और भ्रंश (फाल्टिंग) जैसी हिलने की घटनाएँ अधिक होती हैं। विश्व के भूकम्प क्षेत्र मुख्यतः दो तरह के हिस्सों में हैं एक, परिप्रशांत (सकर्म पैसिफिक) क्षेत्र जहाँ 90 फीसद भूकम्प आते हैं और दूसरे, हिमालय और आल्पस क्षेत्र। भारत के भूकम्प वाले क्षेत्रों का देश के प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
हिमालयी क्षेत्र भू-सन्तुलन की दृष्टि से एक अस्थिर क्षेत्र है। यह अब भी अपने निर्माण की अवस्था में है। यही वजह है कि इस क्षेत्र में सबसे अधिक भूकम्प आते हैं। निश्चित रूप से उत्तरी मैदानी क्षेत्र भयावह भूकम्प के दायरे से बाहर है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित भी नहीं है। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बताया गया है कि भूगर्भ की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। दरअसल, इस मैदान की रचना जलोढ़ मिट्टी से हुई है और हिमालय के निर्माण के समय सम्पीड़न के फलस्वरूप इस मैदान में कई दरारें बन गईं। यही वजह है कि भूगर्भिक हलचलों से यह क्षेत्र शीघ्र ही कम्पित हो जाता है।
भारत में कई बार भूकम्प से जन-धन की भारी तबाही हो चुकी है। 11 दिसम्बर 1967 में कोयना के भूकम्प में सड़कें तथा बाजार वीरान हो गए। हरे-भरे खेत ऊबड़-खाबड़ भू-भागों में बदल गए। हजारों लोगों की मौत हुई। अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी और 1992 में महाराष्ट्र के उस्मानाबाद और लातूर के भूकम्पों में हजारों व्यक्तियों की जानें गईं और अरबों रुपए की सम्पत्ति का नुकसान हुआ। उत्तरकाशी के भूकम्प में लगभग पाँच हजार लोग काल-कलवित हुए। 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज हिस्से में आए भूकम्प में 30,000 से अधिक लोगों की जानें गई थीं। उचित होगा कि वैज्ञानिक न सिर्फ भूकम्प के पूर्वानुमानों का भरोसेमन्द उपकरण विकसित करें बल्कि आवश्यक यह भी है कि भवन-निर्माण में इस प्रकार की तकनीक का प्रयोग किया जाए जो भूकम्प से पैदा होने वाली आपदा को सह सके क्योंकि भूकम्प में सर्वाधिक नुकसान भवनों आदि के गिरने से होता है।
जापान में दुनिया के सर्वाधिक भूकम्प आते हैं इसलिए जापानियों ने अपनी ऐसी आवास-व्यवस्था विकसित कर ली है जो भूकम्प के अधिकतर झटकों को सहन कर सकती है। इसके अलावा, जन-साधारण को इस आपदा के समय किए जाने वाले कार्य और व्यवहार के बारे में भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए लेकिन प्रकृति के कहर से बचने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपाय उसके साथ तालमेल है। विडम्बना है कि विकास की अन्धी दौड़ में हम प्रकृति के विनाश पर आमादा हैं। यह तथ्य है कि अन्धाधुन्ध विकास के नाम पर इन्सान हर साल 7 करोड़ हेक्टेयर वनों का विनाश कर रहा है। पिछले सैकड़ों बरसों में उसके हाथों प्रकृति की एक-तिहाई से अधिक प्रजातियाँ नष्ट हुई हैं। जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसदी कमी आई है। जैव विविधता पर संकट है। वनों के विनाश से हर साल 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है।
बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोक कर बाँध बनाए जाने से खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो गया है। जल का दोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है। पेयजल और खेती में इस्तेमाल होने वाले पानी का संकट गहराने लगा है। गंगा और यमुना जैसी अनगिनत नदियाँ सूखने के कगार पर हैं और वे प्रदूषण से कराह रही हैं। सीवर का गन्दा पानी और औद्योगिक कचरा बहाए जाने के कारण क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों से उनका पानी जहरीला होता जा रहा है।
यदि जल संरक्षण और प्रदूषण पर ध्यान नहीं दिया गया तो 200 बरसों में भूजल स्रोत सूख जाएगा लेकिन विडम्बना है कि भोग का लालची मानव इन सबसे बेफिक्र है। नतीजतन, मौसमी बदलावों मसलन, ग्लोबल वॉर्मिंग, ओजोन, क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, भूकम्प, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी अनेक विपदाओं से उसे जूझना पड़ रहा है। 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन, 1992 में जेनेरियों, 2002 में जोहान्सबर्ग, 2006 में मॉन्ट्रियल और 2007 में बैंकॉक सम्मेलन के जरिए जलवायु परिवर्तन को लेकर चिन्ता जताई गई। पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कानून बनाए गए लेकिन उस पर अमल नहीं हुआ। मनुष्य आज भी अपने दुराग्रहों से चिपका हुआ है।
प्रकृति से खिलवाड़ का उसका तरीका और जघन्य हो गया है। लिहाजा, प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी हो गई है। उसकी रौद्रता के आगे बचाव के वैज्ञानिक साधन बौने हो गए हैं। अमेरिका, जापान, चीन और कोरिया जिनकी वैज्ञानिकता और तकनीकी क्षमता का सभी लोहा मानते हैं, वे भी इस कहर के आगे झुले हैं। अलास्का, चिली और कैरीबियाई क्षेत्र हैती में आए भीषण भूकम्प की बात हो या जापान में सुनामी से बचाव के वैज्ञानिक उपकरण धरे के धरे रह गए।
समझना होगा कि प्रकृति सर्वकालिक है। मनुष्य अपनी वैज्ञानिकता के चरम बिन्दु पर क्यों न पहुँच जाए, प्रकृति की एक छोटी-सी छेड़छाड़ सभ्यता का सर्वनाश करने में सक्षम है लेकिन विडम्बना है कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण को समझने के लिए तैयार नहीं है। वह अपनी समस्त ऊर्जा प्रकृति को गुलाम बनाने में झोंक रहा है। 21वीं सदी का मानव अपनी सभ्यताओं और संस्कृतियों से कुछ सीखने को तैयार नहीं। उसका चरम लक्ष्य प्रकृति की चेतना को चुनौती देकर अपनी श्रेष्ठता साबित करना है। इन्सान को समझना होगा कि यह समष्टि-विरोधी आचरण है और प्रकृति पर प्रभुत्व की लालसा की एक क्रूर हठधर्मिता भी। इसके अलावा, भविष्य में आने वाली विपत्ति का संकेत भी है।
नेपाल में आए इस भूकम्प ने भारत के पूर्वी राज्यों को भी दहलाया है। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में कई लोगों की जानें गई हैं। विडम्बना है कि वैज्ञानिकता के इस चरम युग में अभी तक भूकम्प का पूर्वानुमान लगाने का भरोसेमन्द उपकरण विकसित नहीं किया जा सका। वैज्ञानिक अभी तक भूकम्पीय संवेदनशील इलाकों को चिन्हित करने तक ही सक्षम है। हालाँकि वे इस दिशा में अग्रसर हैं और सम्भव है कि आने वाले वर्षों में उपकरण विकसित कर ले जाएँ।
हालाँकि रूस और जापान में आए अनेक भूकम्पों के पर्यवेक्षण से पूर्वानुमान के संकेत सामने आए हैं। मसलन, भूकम्प आने से पहले उस क्षेत्र के निकटवर्ती चट्टानों से गुजरने वाली भूकम्पीय तरंगों की गति में परिवर्तन आ जाता है। इसी तरह चीनी भूकम्प वैज्ञानिकों के अध्ययन के अनुसार साँप, चींटी, दीमक तथा अन्य जन्तुओं को अपने बिलों से बाहर निकल आना, मछलियों का जल से बाहर निकल आना, बत्तखों का पानी में न घुसना, चिड़ियों का तेजी से चहचहाना और कुत्तों का रोना इत्यादि ऐसी बातें हैं जो भूकम्प के आने की भरपूर सूचना देती हैं।
यह प्रकृति द्वारा प्रदत्त पशुओं में संवेदन-शक्ति होती है लेकिन यह संकेत वैज्ञानिक और भरोसेमन्द नहीं है और न ही इससे सटीक अनुमान लगाया जा सकता है। भूकम्प कभी भी आ सकते हैं। कुछ क्षेत्र इसके लिए बेहद संवेदनशील हैं जहाँ भूकम्पों के आघात सर्वाधिक होते हैं। ये क्षेत्र पृथ्वी के वे दुर्बल हिस्से हैं, जहाँ वलन (फोल्डिंग) और भ्रंश (फाल्टिंग) जैसी हिलने की घटनाएँ अधिक होती हैं। विश्व के भूकम्प क्षेत्र मुख्यतः दो तरह के हिस्सों में हैं एक, परिप्रशांत (सकर्म पैसिफिक) क्षेत्र जहाँ 90 फीसद भूकम्प आते हैं और दूसरे, हिमालय और आल्पस क्षेत्र। भारत के भूकम्प वाले क्षेत्रों का देश के प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
हिमालयी क्षेत्र भू-सन्तुलन की दृष्टि से एक अस्थिर क्षेत्र है। यह अब भी अपने निर्माण की अवस्था में है। यही वजह है कि इस क्षेत्र में सबसे अधिक भूकम्प आते हैं। निश्चित रूप से उत्तरी मैदानी क्षेत्र भयावह भूकम्प के दायरे से बाहर है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित भी नहीं है। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बताया गया है कि भूगर्भ की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। दरअसल, इस मैदान की रचना जलोढ़ मिट्टी से हुई है और हिमालय के निर्माण के समय सम्पीड़न के फलस्वरूप इस मैदान में कई दरारें बन गईं। यही वजह है कि भूगर्भिक हलचलों से यह क्षेत्र शीघ्र ही कम्पित हो जाता है।
भारत में कई बार भूकम्प से जन-धन की भारी तबाही हो चुकी है। 11 दिसम्बर 1967 में कोयना के भूकम्प में सड़कें तथा बाजार वीरान हो गए। हरे-भरे खेत ऊबड़-खाबड़ भू-भागों में बदल गए। हजारों लोगों की मौत हुई। अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी और 1992 में महाराष्ट्र के उस्मानाबाद और लातूर के भूकम्पों में हजारों व्यक्तियों की जानें गईं और अरबों रुपए की सम्पत्ति का नुकसान हुआ। उत्तरकाशी के भूकम्प में लगभग पाँच हजार लोग काल-कलवित हुए। 26 जनवरी, 2001 को गुजरात के भुज हिस्से में आए भूकम्प में 30,000 से अधिक लोगों की जानें गई थीं। उचित होगा कि वैज्ञानिक न सिर्फ भूकम्प के पूर्वानुमानों का भरोसेमन्द उपकरण विकसित करें बल्कि आवश्यक यह भी है कि भवन-निर्माण में इस प्रकार की तकनीक का प्रयोग किया जाए जो भूकम्प से पैदा होने वाली आपदा को सह सके क्योंकि भूकम्प में सर्वाधिक नुकसान भवनों आदि के गिरने से होता है।
जापान में दुनिया के सर्वाधिक भूकम्प आते हैं इसलिए जापानियों ने अपनी ऐसी आवास-व्यवस्था विकसित कर ली है जो भूकम्प के अधिकतर झटकों को सहन कर सकती है। इसके अलावा, जन-साधारण को इस आपदा के समय किए जाने वाले कार्य और व्यवहार के बारे में भी प्रशिक्षित किया जाना चाहिए लेकिन प्रकृति के कहर से बचने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपाय उसके साथ तालमेल है। विडम्बना है कि विकास की अन्धी दौड़ में हम प्रकृति के विनाश पर आमादा हैं। यह तथ्य है कि अन्धाधुन्ध विकास के नाम पर इन्सान हर साल 7 करोड़ हेक्टेयर वनों का विनाश कर रहा है। पिछले सैकड़ों बरसों में उसके हाथों प्रकृति की एक-तिहाई से अधिक प्रजातियाँ नष्ट हुई हैं। जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसदी कमी आई है। जैव विविधता पर संकट है। वनों के विनाश से हर साल 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइऑक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है।
बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोक कर बाँध बनाए जाने से खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो गया है। जल का दोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है। पेयजल और खेती में इस्तेमाल होने वाले पानी का संकट गहराने लगा है। गंगा और यमुना जैसी अनगिनत नदियाँ सूखने के कगार पर हैं और वे प्रदूषण से कराह रही हैं। सीवर का गन्दा पानी और औद्योगिक कचरा बहाए जाने के कारण क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों से उनका पानी जहरीला होता जा रहा है।
यदि जल संरक्षण और प्रदूषण पर ध्यान नहीं दिया गया तो 200 बरसों में भूजल स्रोत सूख जाएगा लेकिन विडम्बना है कि भोग का लालची मानव इन सबसे बेफिक्र है। नतीजतन, मौसमी बदलावों मसलन, ग्लोबल वॉर्मिंग, ओजोन, क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, भूकम्प, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी अनेक विपदाओं से उसे जूझना पड़ रहा है। 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन, 1992 में जेनेरियों, 2002 में जोहान्सबर्ग, 2006 में मॉन्ट्रियल और 2007 में बैंकॉक सम्मेलन के जरिए जलवायु परिवर्तन को लेकर चिन्ता जताई गई। पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कानून बनाए गए लेकिन उस पर अमल नहीं हुआ। मनुष्य आज भी अपने दुराग्रहों से चिपका हुआ है।
प्रकृति से खिलवाड़ का उसका तरीका और जघन्य हो गया है। लिहाजा, प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी हो गई है। उसकी रौद्रता के आगे बचाव के वैज्ञानिक साधन बौने हो गए हैं। अमेरिका, जापान, चीन और कोरिया जिनकी वैज्ञानिकता और तकनीकी क्षमता का सभी लोहा मानते हैं, वे भी इस कहर के आगे झुले हैं। अलास्का, चिली और कैरीबियाई क्षेत्र हैती में आए भीषण भूकम्प की बात हो या जापान में सुनामी से बचाव के वैज्ञानिक उपकरण धरे के धरे रह गए।
समझना होगा कि प्रकृति सर्वकालिक है। मनुष्य अपनी वैज्ञानिकता के चरम बिन्दु पर क्यों न पहुँच जाए, प्रकृति की एक छोटी-सी छेड़छाड़ सभ्यता का सर्वनाश करने में सक्षम है लेकिन विडम्बना है कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण को समझने के लिए तैयार नहीं है। वह अपनी समस्त ऊर्जा प्रकृति को गुलाम बनाने में झोंक रहा है। 21वीं सदी का मानव अपनी सभ्यताओं और संस्कृतियों से कुछ सीखने को तैयार नहीं। उसका चरम लक्ष्य प्रकृति की चेतना को चुनौती देकर अपनी श्रेष्ठता साबित करना है। इन्सान को समझना होगा कि यह समष्टि-विरोधी आचरण है और प्रकृति पर प्रभुत्व की लालसा की एक क्रूर हठधर्मिता भी। इसके अलावा, भविष्य में आने वाली विपत्ति का संकेत भी है।