चौमासा के बारहमासी फल

Submitted by Hindi on Tue, 09/06/2011 - 09:38
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गांधी-मार्ग, सितंबर-अक्टूबर 2011

हमारे पंचांग का सबसे अनूठा समय है चौमासा। कुल जितना पानी बरसता है हमारे यहां, उसका 70-90 प्रतिशत चौमासे में ही गिर जाता है। जिस देश में ज्यादातर लोग जमीन जोतते हैं, उसमें चौमासे की उपज से ही साल-भर का काम चलता है। केवल किसानों का ही नहीं, कारीगरों और व्यापारियों का और उनसे वसूले कर पर चलने वाले राजाओं का, राज्यों का भी।

बीत चला है अब चौमासा। आते समय उसकी चिंता नहीं की जिनने, वे उसके बीतने पर क्या सोच पाएंगे? फिर भी इसे विलंब न मानें। चौमासा तो फिर आएगा। तो आने वाले चौमासे की चिंता अब जरा आठ माह पहले ही कर लें। इसी पर टिका है हमारे पूरे समाज का, पूरे देश का भविष्य। जमीन और बादल का यह संबंध हमारे नए लोगों ने, नए योजनाकारों ने नहीं समझा है। पर इस संबंध को समझे बिना हमारा भविष्य, हमारी जमीन, हमारा आकाश निरापद नहीं हो पाएगा और जब आपदाएं बरसेंगी तो आज की नई अर्थ व्यवस्थाओं के रंग-बिरंगे छाते हमें बचा नहीं पाएंगे। भागवत पुराण हमें बतलाता है: भगवान विष्णु राजा बलि को दिए वचन का पालन करते हुए चार महीने के लिए सुतल में उनके द्वार पर चले जाते हैं। तब अन्य सभी देवता हरि का अनुसरण करते हुए चतुर्मास सोकर बिताते हैं। दीवाली के बाद, कार्तिक में शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवताओं का ‘अलार्म’ बजेगा। देवउठनी ग्यारस को। तब तक के लिए पारिवारिक मंगल कार्य और उत्सव नहीं होने। चतुर्मास के दो ही बड़े धार्मिक पर्व हैं: रक्षाबंधन और कृष्ण जन्माष्टमी। दोनों ही बाकी पर्वों की तुलना में, आयोजन में छोटे और घर के भीतर मनाए जाने वाले पर्व रहे हैं। यह बात अलग है कि इन दोनों का स्वरूप पिछले कुछ वर्षों में काफी बदल गया है। इस तरह देखें तो उत्सव और पर्व प्रधान हमारी परंपरा में यह चौमासा कुछ वीरान-सा लगता है।

इसकी वजह है। हमारे यहां सबसे महत्व की बातें धार्मिक अनुष्ठान और कथाओं में बुनी जाती हैं। उन्हें जानने के लिए कोई डिग्री नहीं चाहिए। अनपढ़ माना गया व्यक्ति भी चंद्रमा को देखकर समय का हिसाब रख सकता है। रुपए पैसे से लेकर व्यापार और संबंध-व्यवहार के संस्कार धार्मिक पर्वों में टंके हुए हैं। फिर पुराण उठा लें, चाहे लोकगीत।

हमारे पंचांग का सबसे अनूठा समय है चौमासा। कुल जितना पानी बरसता है हमारे यहां, उसका 70-90 प्रतिशत चौमासे में ही गिर जाता है। जिस देश में ज्यादातर लोग जमीन जोतते हैं, उसमें चौमासे की उपज से ही साल-भर का काम चलता है। केवल किसानों का ही नहीं, कारीगरों और व्यापारियों का और उनसे वसूले कर पर चलने वाले राजाओं का, राज्यों का भी। साल भर का पानी और भोजन, पशुओं का चारा। वर्ष शब्द ही वर्षा से आता है और बरस शब्द आता है बरसने से। चौमासा इस उपमहाद्वीप में जीवन का आधार रहा है। हमारा प्राण है।

इस समय अगर हमारे देवता हमसे पूजा-अर्चना का समय मांगे तो मुश्किल हो जाए। इस समय हर हाथ खेत में चाहिए। केवल खेती के लिए ही नहीं, साल भर के जल प्रबंध के लिए सबको जल स्रोतों पर मेहनत करनी होती थी। व्यापारी समाजों में भी चौमासे का बड़ा महत्व रहा है। यह समय संयम और अनुशासन का रहा है, फिर चाहे वो वैष्णव बनिया समाज हो चाहे जैन। भक्ति तो संभव है चौमासे में, परंतु धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान के लिए जैसी तैयारी चाहिए, उससे खेती का बड़ा नुकसान होता। क्योंकि ये सब हमारे ही देवता हैं तो वे हमारी मजबूरी भी जानते हैं। वे खूब समझदार हैं, इसलिए सो जाते हैं चार महीने, हमें बारिश से अपना साल-भर सींचने की आजादी देकर।

लेकिन चौमासे की बारिश में जो अब उलट-फेर हो रहा है, उससे तो सुतल में भगवान विष्णु की भी नींद उड़ जाती होगी आजकल। अगर ये ठीक से समझना हो तो पूछिए श्री भूपेद्रनाथ गोस्वामी से, जो निदेशक हैं पुणे में उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान के। मौसम विभाग की यह संस्था चौमासे की बारिश का, मॉनसून का पूर्वानुमान लगाती है। बहुत मुश्किल काम है। विज्ञान की अनेक विधाओं में मौसम सबसे कठिन शास्त्र है, क्योंकि विज्ञान का तरीका है नियंतकों को सामने रख उसे नापना जो परिवर्तनीय है। जो स्थिर है, उससे वो जानना जो चंचल है। जमीन ठोस है और पानी तरल। इन्हें पढ़ना आसान है क्योंकि वो बहुत कुछ स्थिर रहते हैं। वायुमंडल में तो सब कुछ चंचल होता है। सब कुछ तीन आयामों में चलायमान रहता है। फिर प्रकृति ने हमें धरती और पानी पर चलने-तैरने लायक तो बनाया है, पर उड़ने लायक नहीं। आकाश में जाकर हवा की गति और उसकी दिशा जानना, पहचानना बहुत मंहगा और कठिन होता है।

यहीं से कठिनाई बढ़नी शुरू होती है। उष्णकटिबंध इलाके में मौसम का पूर्वानुमान लगाना आमतौर पर बहुत ही टेढ़ा होता है। कटिबंधीय हवाओं का स्वभाव कुछ वैसा होता है जैसा तुलसीदासजी ने खल की प्रीति को बताया है- वो स्थिर नहीं होती। इन गोस्वामीजी का- यानी मौसम वाले, रामायण वाले नहीं, काम है इस खल की प्रीति का पूर्वानुमान लगाना। भूमध्य रेखा के आसपास सूर्य का प्रसाद कुछ ज्यादा ही मिलता है। ये गर्मी धरती और समुद्र से हवा में जाती है। गर्म हवाएं तेजी से सीधे ऊपर की ओर जाती हैं। ये कब कहां चली जाएं, कह नहीं सकते।

फिर भारतीय उपमहाद्वीप का भूगोल कुछ अजब ही है। एक तो हमारे यहां दुनिया का सबसे शक्तिशाली मॉनसून आता है- मानसून के एक आम दिन में 7,500 करोड़ टन वाष्प हवाओं के साथ हमारे पश्चिमी तट को लांघती है, जिसमें से 2,500 करोड़ टन रोज पानी के रूप में बरस जाता है। कटिबंध के कई और इलाके हैं जहां मानसून आता है लेकिन इतना पानी और इतना वेग कहीं नहीं होता। यह शक्तिशाली मानसून जा भिड़ता है दुनिया की सबसे ऊंची दीवार से, जो हिमालय के रूप में हमारे उत्तर में खड़ी है। इस दीवार के पार है तिब्बत का पठार। लाखों साल पहले यह एशिया का दक्षिणी तट हुआ करता था। भारतीय उपमहाद्वीप से टकराकर यह भाग समुद्रतल से पांच किलोमीटर ऊपर उठ गया है!

अगर हिमालय और तिब्बत जरा भी गर्म होते हैं तो उनकी हवाएं वायुमंडल में बहुत ऊपर पहुंचती हैं। इससे वहां एक खालीपन बन जाता है, जिसे मौसम वाले ‘डिप्रेशन’ कहते हैं। वैज्ञानिक अब मानते हैं कि यह डिप्रेशन ही अरब की खाड़ी और भारतीय महासागर से इतना ताकतवर मानसून हमारी तरफ खींच लाता है।

लाजिमी है कि जलवायु में होने वाले परिवर्तन मानसून पर असर डालेंगे। पर ये असर कैसे होंगे? पिछले कई साल से पुणे में गोस्वामी जी और उनके सहयोगी इस पर शोध कर रहे हैं। इस विषय पर उनका पहला बड़ा शोध-पत्र छह साल पहले छपा था। उसमें एक शताब्दी से ज्यादा के मानसून के आंकड़ों का विश्लेषण था। उससे कई नए तथ्य सामने आए हैं।

जैसे एक यह कि अब घमासान बारिश पहले से ज्यादा होने लगी है। 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में पिछले 20 साल में बढ़ोतरी हुई है। यही नहीं ऐसे दिनों में जितना पानी गिरता है वो भी बहुत बढ़ गया है। पहले कहीं, कभी एकाध बार बादल फटने की घटना होती थी। अब तो लगता है जैसे बादलों को फटने की आदत-सी हो चली है। पहले से कहीं प्रचंड होकर। तो क्या ऐसा मान लेना चाहिए कि मानसून की बारिश बढ़ रही है?

हमारे यहां खेती का कॅलेंडर परंपरा और धार्मिक पर्वों में गुथा हुआ है, इतना कि ये कहना मुश्किल है कि कृषि की तारीखों और पर्वों में क्या अंतर है। क्या हमारे पंचांगों में भी ये बदलाव लाना चाहिए? और क्या भगवान विष्णु को राजा बलि के द्वार पर जाने की अपनी तिथि भी बदलनी चाहिए? बदलेंगे तो भी किस आधार पर? किस मौसम मॉडल पर विश्वास करेंगे?

कतई नहीं। श्री गोस्वामी को यह भी पता लगा कि 10 सेंटीमीटर से कम बारिश के दिन घटते जा रहे हैं। जो इजाफा बादलों के फटने से होता है वो हल्की बारिश के कम होने से बराबर हो जाता है। कुल जितना पानी गिरता है, उसका औसत जस का तस बना हुआ है। लेकिन इससे हमारी समृद्धि का जरूर औसत बिगड़ जाएगा। गोस्वामीजी वो बताते हैं जो हर किसान हमको आपको बता सकता हैः तेज बारिश से बाढ़ और प्राकृतिक विपदाएं पहले से ज्यादा होंगी। और हल्की बरसात न होने से सूखा और अकाल, क्योंकि तेज बरसात का पानी ठहरता नहीं है। रिमझिम वर्षा का पानी धरती धीरे-धीरे सोख लेती है। और इस तरह भूजल में वृद्धि होती है। इसमें टेढ़ और पैदा होगी क्योंकि हमें पता भी नहीं चलेगा कि बाढ़ कब और कहां आएगी और कहां और कब अकाल बैठ जाएगा। गोस्वामी जी का कहना है कि बरसात के अतिवाद से उसका पूर्वानुमान लगाना असंभव होता जा रहा है। घनघोर घटाएं बहुत जल्दी बनती हैं और जब तक हम उनका निरीक्षण-परीक्षण करें, वे उसके पहले ही निपट जाती हैं।

पुणे के मौसमशास्त्रियों ने अपने पूर्वानुमान में होने वाली गलतियों का भी कुछ हिसाब रख लिया है। इसके लिए उन्होंने ऐसे सालों की तुलना की, जब बारिश का नाप और बंटवारा एक-सा था। तुलना में उन्हें दिखा कि पूर्वानुमान में होने वाली चूक बहुत जल्दी दुगनी हो चली थी। अगर 25 बरस पहले अनुमानित बारिश से दुगुनी या आधी बारिश होने में औसतन तीन दिन लगते थे तो अब डेढ़ ही दिन लगते हैं।

इसीलिए अब श्री गोस्वामी मानते हैं कि बारिश का अनुमान लगाना लगभग असंभव होता जा रहा है। अतिरेक बारिश से हवा में दबाव बदलता है। और ये तो हम जानते ही हैं कि दबाव से ही बादल आगे बढ़ते हैं। गोस्वामी कहते हैं: अगर हम अतिरेक बारिश का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते तो दबाव का भी नहीं लगा पाएंगे। मानसून में उलट-फेर तो हो ही रहा है, साथ ही हमारी समझ में भी अनिश्चय का दायरा बढ़ता जा रहा है।

हिमालय और तिब्बत जरा भी गर्म होते हैं तो उनकी हवाएं वायुमंडल में बहुत ऊपर पहुंचती हैं। इससे वहां एक खालीपन बन जाता है, जिसे मौसम वाले ‘डिप्रेशन’ कहते हैं। वैज्ञानिक अब मानते हैं कि यह डिप्रेशन ही अरब की खाड़ी और भारतीय महासागर से इतना ताकतवर मानसून हमारी तरफ खींच लाता है।

पर इस दायरे से बाहर जो निश्चित तौर पर पता चल रहा है वो तो और भी चिंताजनक है। श्री माधवन राजीवन नायर हमारे देश के एक जाने-माने मौसम वैज्ञानिक हैं। आजकल वे तिरुपति में राष्ट्रीय वायुमंडल शोध प्रयोगशाला में काम कर रहे हैं। उन्होंने भी जलवायु परिवर्तन से मानसून पर पड़ रहे प्रभाव पर कुछ काम किया है। यह अध्ययन दिखाता है कि हवा में दबाव के घटने से जो डिप्रेशन बनते हैं, वो घट रहे हैं। उनका अनुमान है कि यही कारण है कि छत्तीसगढ़ और झारखंड में बारिश कम हो रही है और अब वहां मानसून के पहुंचने में औसतन पांच दिन की देर होने लगी है। केरल पर भी पानी कम बरसने लगा है। उधर महाराष्ट्र पर बारिश बढ़ी है।

राजीवन का शोध यह भी दिखलता है कि जुलाई के महीने में बारिश कम होने लगी है और अगस्त में बढ़ी है। इसका हमारी खेती पर प्रभाव निश्चित है। तब ऐसी परिस्थिति में क्या किसानों को बुवाई का समय बदल देना चाहिए? हमारे यहां खेती का कॅलेंडर परंपरा और धार्मिक पर्वों में गुथा हुआ है, इतना कि ये कहना मुश्किल है कि कृषि की तारीखों और पर्वों में क्या अंतर है। क्या हमारे पंचांगों में भी ये बदलाव लाना चाहिए? और क्या भगवान विष्णु को राजा बलि के द्वार पर जाने की अपनी तिथि भी बदलनी चाहिए? बदलेंगे तो भी किस आधार पर? किस मौसम मॉडल पर विश्वास करेंगे? हर मॉडल अलग अनुमान लगा रहा है क्योंकि वायुमंडल की हमारी कुल समझ अभी बहुत कमजोर है।

मानसून पर दुनिया भर में हो रहे जलवायु परिवर्तन का असर होता है। परंतु वो असर क्या होगा, कह नहीं सकते। मसलन विश्व भर का तापमान बढ़ने से भाप ज्यादा बनेगी और बारिश भी ज्यादा होगी- ऐसा माना जा रहा है। पर उत्तरी ध्रुव पर जमी बर्फ के पिघलने से क्या होगा? ध्रुवीय बर्फ तो समुद्र में है सो बहुत फर्क नहीं होगा। पर ग्रीनलैण्ड की बर्फ तो मीठे पानी की है और जमीन के ऊपर जमी है। वो पिघल गई तो उत्तरी अंध महासागर में खूब सारा मीठा जल आ जाएगा। मीठे पानी का घनत्व खारे पानी से कम होता है। जाहिर है इससे समुद्र की धाराओं का प्रभाव भी बदल जाएगा और वहां समुद्र ठंडा पड़ेगा। श्री गोस्वामी का विश्वास है कि इससे मानसून कमजोर होगा। लेकिन फिर ये भी है कि बंगाल की खाड़ी का तापमान बाकी समुद्र की तुलना में और तेजी से उठ रहा है। इसलिए सारे जलवायु मॉडल अपूर्ण और अविश्वसनीय हैं, गोस्वामी कहते हैं।

मॉडलों को दुरुस्त करने के लिए आज के कम्प्यूटरों की तुलना में हमें कहीं ज्यादा शक्तिशाली महाकम्प्यूटर चाहिए। एक और जरूरत है कुशल और प्रतिभाशाली मौसम वैज्ञानिकों की। और साथ ही बहुत सारी मौसमी वेधशालाओं की, जो जलवायु के आंकड़े इकट्ठे कर सकें, खासकर समुद्र के ऊपर से। समुद्र के ऊपर बादलों का स्वरूप क्या होता है, ये हमें अंतरिक्ष में घूमते हुए उपग्रहों से नहीं पता चल सकता। विज्ञान उसका पूर्वानुमान नहीं लगा सकता, जिसके बुनियादी आंकड़े भी न हों उसके पास।

इस सबके लिए बहुत सारा धन चाहिए। क्या सरकार इतना सब जुटा पाएगी? क्या इस काम पर इतना खर्च करना चाहिए? जवाब बहुत सरल है और इसे गए बरस अगस्त में रिजर्व बैंक के गवर्नर दुवुरी सुब्बाराव ने दिया था। उन्होंने कहा कि उनकी मुद्रा नीति की सफलता मानसून पर निर्भर होगी। अभी इस बरस 14 जून को उन्होंने फिर कहा कि मुद्रा स्फीति की दर पैट्रोलियम के अंतराष्ट्रीय दाम और मानसून पर निर्भर है। माकपा के श्री चतुरानन मिश्र की अभी हाल ही में मृत्यु हुई है। उन्होंने एक बार कहा था कि भारत के कृषि मंत्री वो नहीं हैं, मानसून है!

हमारी अर्थव्यवस्था जिस तेल और पानी से चलती है, वो हमारी सीमा के बाहर से आते हैं। देश की आर्थिक आत्मनिर्भरता में सबसे महत्वपूर्ण रोड़े यही माने जाते हैं। जो देश की आर्थिक वृद्धि का बात-बात में जिक्र करते हैं उनके लिए मानसून पांव की बेड़ी है जो कटती ही नहीं। मानसून पर निर्भरता हमारे पिछड़ेपन का कारण बताया जाता है, अखबार में और सरकारी दस्तावेजों में भी। बड़े-बड़े बांध बनाने की वजह बतलाई जाती है मानसून से मुक्ति। जैसे चौमासा कोई गांव से आया गरीब संबंधी है, जिससे हमारे नवधनाड्य समाज को शर्म आती है।

पर ये नया समाज मानसून के बारे में अपने ही पुराने समाज से बहुत कुछ सीख सकता है। जैसे मानसून को मजबूरी नहीं मानना। उसे चौमासे का सुअवसर मानना जिसके बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता। अगर एक बार ये मान लें तो फिर राह आसान होगी। फिर हमें समझ में आएगा कैसे इतनी सहस्राब्दियों से इस उपमहाद्वीप में लोग जीते आए है, समृद्ध बने हैं, खुशहाल रहे हैं।

जितना पैसा बाढ़ के बचाव पर खर्च हुआ, उतना ही बाढ़ प्रभावित इलाका बढ़ता गया। मुंबई में एक दिन में गिरे एक मीटर पानी ने शहर का तीया-पांचा खोल कर मीठी नदी का रास्ता याद दिला दिया था, 26 जुलाई 2005 को। हमारे सारे बड़े शहर दूसरे शहरों-गांवों का पानी छीन लाते, चुराकर लाते हैं, इसलिए वे ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं।

हमारे समाज ने अपने गांव-शहर, खेत-खलिहान, घर-द्वार, यहां तक कि अपना मन भी चौमासे के हिसाब से ढाला है। चाहे राजस्थान में थार का रेगिस्तान हो या उत्तर बिहार के बाढ़ से पनपे इलाके। लोग आठ महीने जमीन का इस्तेमाल करते हुए चौमासे का ध्यान रखते थे। बारिश का पानी कैसे बहेगा, इससे तय होती थी जमीन की मिल्कियत। जिन आंकड़ों के बिना मौसम शास्त्री अपने आप को मजबूर पाते हैं वो आंकड़े, कई सौ सालों के लोकगीत और कहावतों में पिरोए जाते थे। चौमासे के अलग राग थे, और चौमासे से लोगों के जीवन में राग था। अनपढ़ भी जानता था बादलों का स्वभाव। हर कोई बादलों को ध्यान से देखता-बूझता था। यह पुराना पक्का सबक आधुनिक इंजीनियरी ने भुला दिया है। हमने अपने शहर जल स्रोतों के ऊपर या उनके रास्ते में बनाने शुरू कर दिए। बिहार में कोसी की बाढ़ को तटबंधों में रोकने की कवायद चली। जितना पैसा बाढ़ के बचाव पर खर्च हुआ, उतना ही बाढ़ प्रभावित इलाका बढ़ता गया। मुंबई में एक दिन में गिरे एक मीटर पानी ने शहर का तीया-पांचा खोल कर मीठी नदी का रास्ता याद दिला दिया था, 26 जुलाई 2005 को। हमारे सारे बड़े शहर दूसरे शहरों-गांवों का पानी छीन लाते, चुराकर लाते हैं, इसलिए वे ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं। पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं।

इस चौमासे में भी कई शहर पानी में डूबे हैं। उन्हें प्राकृतिक विपदा बताया जाता है। पर जलवायु परिवर्तन से अतिरेक होते मानसून का प्रकोप तो बढ़ेगा ही। हमें भी बदलना पड़ेगा। समझदारी में नहीं तो मजबूरी में।

अब की बारी जो चूक गए वो गांव, शहर, लोग अगले चौमासे में अपना काम करें।
उठो ज्ञानी खेत संभालो, बह निसरेगा पानी।