सवाल उठता है कि बड़ी व विकट होती आपदाओं का सामना करने की तैयारी कैसे करें। यदि हम इन सवालों को एक मुख्य प्राथमिकता बनाएं व सरकार तथा प्रशासन भी इस प्राथमिकता के अनुकूल ही तैयार रहे, तो जलवायु बदलाव के प्रतिकूल दुष्परिणामों को चाहे पूरी तरह न रोका जा सके, पर इन दुष्परिणामों को काफी कम अवश्य किया जा सकता है।
जलवायु बदलाव की समझ रखने वाले अधिकांश विशेषज्ञ व संस्थान यह चुनौती दे रहे हैं कि इस संकट को नियंत्रित करने के लिए बहुत व्यापक प्रयास अभी नहीं हुए तो कुछ वर्षो में हालात हाथ से निकल जाएंगे। इसलिए अब समय आ गया है कि इन्हें बचाने की कोशिशें अभी से शुरू कर दी जाएं। कुछ कदम हैं, जो तुरंत ही उठाए जा सकते हैं। सबसे पहले तो वनों को बचाना बहुत जरूरी है। अनुमान है कि हमारी दुनिया से हर एक मिनट में तकरीबन 50 फुटबॉल मैदानों के बराबर ट्रॉपिकल या उष्ण कटिबंधीय वन नष्ट हो जाते हैं यानी प्रतिवर्ष 55 लाख हेक्टेयर। कई जगह इन्हें जलाकर नष्ट कर दिया जाता है और सिर्फ इसी वजह से धरती पर 20 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। कहीं इन वनों को काट दिया जाता है। कभी लकड़ी के लिए, कभी उद्योगों के लिए, तो कभी खेती के लिए।
वनों की रक्षा का कार्य सदा से महत्वपूर्ण रहा है। मिट्टी व जल संरक्षण, बाढ़ व सूखे के संकट को कम करने व आदिवासियों-गांववासियों की आजीविका की दृष्टि से वनों !की उपयोगिता सदा रही है और अब कार्बन डाइऑक्साइड को सोखने की वनों की क्षमता जलवायु बदलाव के दौर में बहुत महत्वपूर्ण हो गई है।
जरूरी है कि जलवायु बदलाव को रोकने के लिए जो वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं, उनका एक बड़ा हिस्सा उन समुदायों तक पहुंचाया जाए, जो वनों की रक्षा करते रहे हैं और भविष्य में इसके लिए सहायता उपलब्ध होने पर इस कार्य को ज्यादा बेहतर ढंग से कर सकते हैं। साथ ही पौधारोपण व नए वृक्षों की देख-रेख का महत्वपूर्ण कार्य भी आगे बढ़ना चाहिए।
वनों की रक्षा के साथ दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु अक्षय ऊर्जा स्रोतों को आगे बढ़ाने का है। अब तक सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा आदि को ऊर्जा क्षेत्र के हाशिये पर ही स्थान मिला। जलवायु बदलाव के संकट के समाधान में इनकी भूमिका स्पष्ट होने के बाद स्थिति बदली है व अक्षय ऊर्जा स्रोतों को ऊर्जा क्षेत्र में अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिलवाने के प्रयास जोर पकड़ रहे हैं।
ग्रीनपीस जैसे संगठनों ने पाया है कि अक्षय ऊर्जा के विकेन्द्रित विकास से उन लोगों व समुदाय की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में अधिक मदद मिलेगी, जो इस समय बिजली के संकट से अधिक त्रस्त हैं। ऊर्जा संरक्षण पर भी अधिक जोर देना होगा। विश्व में जलवायु बदलाव के समाधान के लिए जो राशि उपलब्ध है, वह गरीब व विकासशील देशों को अक्षय ऊर्जा विकास के लिए प्रचुर मात्रा में मिलनी चाहिए।
अक्षय ऊर्जा विकास व ऊर्जा संरक्षण पूरी दुनिया को संकट से बचाने के क्षेत्र हैं, अत: इनकी नई तकनीकी को पेटेंट, रॉयल्टी आदि से मुक्त रखना होगा। इन क्षेत्रों में जो भी नई-नई तकनीकें आती हैं, वे सभी देशों और लोगों को नि:शुल्क उपलब्ध होनी चाहिए।
कृषि में यदि जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया जाए व अनावश्यक मशीनीकरण से बचा जाए तो इससे जलवायु बदलाव का संकट कम करने में भी मदद मिलेगी। औद्योगीकरण में विलासिता की वस्तुओं के स्थान पर सब लोगों की जरूरत के उत्पादों पर अधिक ध्यान देना होगा। पूरी अर्थव्यवस्था में उच्चतम प्राथमिकता सब लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने पर जोड़ देनी चाहिए व इसके लिए उन तकनीकों को प्रोत्साहित करना चाहिए, जिनमें ग्रीनहाऊस गैस उत्सर्जन व अन्य प्रदूषण कम हो।
यह भी जरूरी है कि कारोबार और व्यापार के उस तौर-तरीके को भी बदला जाए, जो पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं या अपरोक्ष रूप से तापमान बढ़ाने का काम करते हैं। जलवायु बदलाव का मुद्दा मात्र अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस तक सीमित नहीं रहना चाहिए, इसे आम लोगों की भाषा में उन तक पंहुचाने का सतत प्रयास करना चाहिए, विशेषकर विकट होती आपदाओं की स्थिति में लोग कैसे इनका सामना करने की तैयारी करें व इसके लिए सरकार क्या सहायता कर सकती है, इस पर अधिक ध्यान देना चाहिए।
दुनिया भर में विकट होती आपदाओं के समाचार मिल रहे हैं। पाकिस्तान के 20 प्रतिशत लोग 2010 में भीषण बाढ़ की चपेट में आए। वर्षा सामान्य से 200 से 700 प्रतिशत अधिक हुई, पर साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ कि बड़ी बाढ़ का सामना करने की तैयारी अब पहले के मुकाबले और पिछड़ चुकी है।
सवाल उठता है कि बड़ी व विकट होती आपदाओं का सामना करने की तैयारी कैसे करें। यदि हम इन सवालों को एक मुख्य प्राथमिकता बनाएं व सरकार तथा प्रशासन भी इस प्राथमिकता के अनुकूल ही तैयार रहे, तो जलवायु बदलाव के प्रतिकूल दुष्परिणामों को चाहे पूरी तरह न रोका जा सके, पर इन दुष्परिणामों को काफी कम अवश्य किया जा सकता है।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।