चलिए कहानियों के लिए ही सही...

Submitted by admin on Wed, 06/04/2014 - 16:48
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दैनिक भास्कर (मधुरिमा), 04 जून 2014
प्रकृति होगी, तो कुछ कहने को होगा कम से कम। बिजली के खंभों पर लगे बल्बों पर भिनभिनाते कीड़ों से किसी कहानी को अलंकृत नहीं करना होगा। लेकिन हालात इसी ओर बढ़ते जमाने के दिख रहे हैं। गंदे नालों जैसी बना दी हैं हमने अपनी नदियां, शहरों से पेड़ गायब हैं, चिड़ियां इमारतों के रोशनदानों में घर बनाती हैं, भूख से बिलबिलाती गाएं खदेड़ दी जाती है, गमलो में बगीचे हैं और बगीचे, वो इतिहास हैं। मैदान रेत के हैं, डोंगरी और नावें तट पर पड़ी जर्जर हो रही हैं। प्रकृति के सौदर्य के कितने उदाहरण, कितनी ही उपमाएं सुन-सुनकर हम बड़े हुए हैं। कहानियों, कविताओं में उन फूलों, बेल-बूटों के नाम अब पहचान में नहीं आते, जो साहित्य के पन्नो पर रचे जाने से अमर हैं। किसी पात्र का गांव, उसका वातावरण, उसकी दुनिया कितनी सजीव लगती थी उसके माहौल के छोटे-से वर्णन के कारण। बस, इतना ही कहने से कि ‘उसके छोटे से घर से घाट बस दस कदम दूर था। घाट पर बने शिव मंदिर के बगीचे से सुबह चार बजे पारिजात लेकर शिव का श्रृंगार करना उसका नियम था’ यह विवरण शब्दों से ही आंखों के सामने चित्र खींच देता है।

एक मिसाल आचार्य रामचंद्र शुक्ल की कहानी से भी देखिए-

‘बाग के दोनों ओर के कृषि संपन्न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्तृत राज्य का अवलोकन करते हम लोग चले। पावस की जरावस्था थी। प्रस्तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम बीच-बीच में करते जाते थे। ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषको को अन्नदान और सूर्यातप-तप्त पृथ्वी को वस्त्रदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कविओं से रायबहादुर की उपाधि मिलनी चाहिए।’

यहां जिक्र पावस यानी सावन के मौसम का है। कवियों के लिए वरदान है ये। जाने कितने छंद गढ़े जाते हैं हर बूंद पर। प्यासी-सूकी चटकी हुई कृषि भूमि तक पर कवि और लेखक मेहरबान होते हैं, लेकिन सीमेंट की सड़क पर, प्लास्टिक की बोतलों से अटे तट पर क्या कोई कविता लिखी जा सकती है? कविता के रूप में वो केवल रिसते हुए घाव होंगे या कटाक्ष। जो भीतर कहीं कुछ जगा न सके, मन को खुशियों की छांव में न ले जा सके, अपने आस-पास के प्रति अहसास न जगा सके, वो कैसा सृजन?

प्रकृति होगी, तो कुछ कहने को होगा कम से कम। बिजली के खंभों पर लगे बल्बों पर भिनभिनाते कीड़ों से किसी कहानी को अलंकृत नहीं करना होगा। लेकिन हालात इसी ओर बढ़ते जमाने के दिख रहे हैं। गंदे नालों जैसी बना दी हैं हमने अपनी नदियां, शहरों से पेड़ गायब हैं, चिड़ियां इमारतों के रोशनदानों में घर बनाती हैं, भूख से बिलबिलाती गाएं खदेड़ दी जाती है, गमलो में बगीचे हैं और बगीचे, वो इतिहास हैं। मैदान रेत के हैं, डोंगरी और नावें तट पर पड़ी जर्जर हो रही हैं।

हम आने वाले दिनों में सौंदर्य की उपमा क्या यूं देंगे- ‘प्लास्टिक की बोतल के ढक्कन जैसी आंखें, पॉलीथिन जैसी त्वचा या काई के रंग-सी हरी आंखें?’ अपनी सेहत, बच्चों के भविष्य की दुहाई के साथ-साथ, कविताओं के लिए, कहानियों के अनगढ़े पात्रों की पुकार पर ही सही, प्रकृति को बचा लें। साहित्य का सुकून सभ्यता का सबसे बड़ा सुकून है। और हमारी धरा पर ये प्रकृति तले ही पला, फला और फूला है। इस छांव का बचाया जाना जरूरी है।