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दैनिक भास्कर (झरोखा), 30 अप्रैल 2014
भोपाल-इंदौर मार्ग पर सड़क के किनारे सीहोर से आष्टा और देवास तक के बीच दो-तीन प्याऊ दिख जाएंगे। खजूर के पत्तों और पुरानी चटाइयों के टुकड़ों से बनी छोटी-सी झोपड़ी में रखे मटकों वाले ये प्याऊ राह चलते प्यासों के लिए बड़ा आसरा हैं। आस-पास नजरें दौड़ाएं, तो समझ में आ जाएगा कि इन्हें कुछ दूर बनी झोपड़ी में रहने वाले किसान परिवारों ने बनाया होगा। किसान हमारे लिए अन्न उगाते हैं, पर खुद वंचित कहलाते हैं, फिर भी प्यासों की तकलीफ का उन्हें ही अहसास हुआ। जिसे कम मिला है, देने की अहमियत वही जान पाया! हैरत होती है।
जिज्ञासा ये हो सकती है कि अमूमन भारी वाहनों या कारों वाले इस मार्ग पर किसान परिवारों ने प्याऊ किसके लिए बनाए होंगे? ट्रक ढाबों पर रुकते हैं और कार वाले अपनी उड़ान के रास्ते में प्याऊ नहीं देखते। चंद अपने-से ग्रामीणों और लंबी दूरी की दोपहिया यात्रा का जोखिम उठाने वाले कुछ यात्रियों की प्रतीक्षा में रखे गए हैं ये मृदा पात्र। सूखे कंठ किसी के भी हों, उन्हें केवल जल चाहिए, सो वहां रखा है।
गुजरे वक्तों में प्याऊ बनवाने की ‘मानता’ मान ली जाती थी। एक तरह के पुण्य में गिना जाता था इसे। रईस अपने घर के बड़े-बुजर्गों की याद में भी इन्हें बनवाते थे। कभी-कभी बड़े कस्बों या गांवों से कुछ दूरी पर बड़े छायादार वटवृक्षों की जटाओं के नीचे मटके लेकर कुछ भले लोग बैठे रहते थे। पीतल के बड़े गिलासों में छलकते ठंडे जल का नजारा ही हर गर्मी से निजात दिला देता था।
प्याऊ मटकों के हों या सुराही वाले, इन्हें देखते ही राहत-सी मिलती हैं। किसी की अत्याधुनिक रसोई देखकर, भीतर बैठा देसी सहम जाता है। तभी किचन प्लेटफार्म पर शान से रखे मटके को देखकर इत्मीनान और अपनेपन का अहसास लौट आता है। जो माटी का मोल जानते हैं, उनके दिलों पर ऐतबार किया जा सकता है।
हम अपने संस्कारों में कुम्भकार को बड़ा कारीगर मानते रहे हैं। कुम्भ की वृहदाकार रूप में ही कल्पना की जाती हैं। बड़े समागमों की तुलना भी इसी नाम से की जाती है। माटी का यह पात्र हमारी संस्कृति में गहरे रचा-बसा है। कविताओं में टुम्मक टूं चलता है, गीतों में साज की तरह बजता है, चित्रों में पनिहारिन की तस्वीर को मायने देता है।
गोलाकार, सादा-सा मृदा पात्र माटी-पुत्रों का सच्चा प्रतिनिधि है। माटी-पुत्र कई रंगों का, ढंगों का, धातुओं का मुलम्मा चढ़ा चुके पर मटका सदा से जैसा था, वैसा ही है। समय के आर-पार..
जिज्ञासा ये हो सकती है कि अमूमन भारी वाहनों या कारों वाले इस मार्ग पर किसान परिवारों ने प्याऊ किसके लिए बनाए होंगे? ट्रक ढाबों पर रुकते हैं और कार वाले अपनी उड़ान के रास्ते में प्याऊ नहीं देखते। चंद अपने-से ग्रामीणों और लंबी दूरी की दोपहिया यात्रा का जोखिम उठाने वाले कुछ यात्रियों की प्रतीक्षा में रखे गए हैं ये मृदा पात्र। सूखे कंठ किसी के भी हों, उन्हें केवल जल चाहिए, सो वहां रखा है।
गुजरे वक्तों में प्याऊ बनवाने की ‘मानता’ मान ली जाती थी। एक तरह के पुण्य में गिना जाता था इसे। रईस अपने घर के बड़े-बुजर्गों की याद में भी इन्हें बनवाते थे। कभी-कभी बड़े कस्बों या गांवों से कुछ दूरी पर बड़े छायादार वटवृक्षों की जटाओं के नीचे मटके लेकर कुछ भले लोग बैठे रहते थे। पीतल के बड़े गिलासों में छलकते ठंडे जल का नजारा ही हर गर्मी से निजात दिला देता था।
प्याऊ मटकों के हों या सुराही वाले, इन्हें देखते ही राहत-सी मिलती हैं। किसी की अत्याधुनिक रसोई देखकर, भीतर बैठा देसी सहम जाता है। तभी किचन प्लेटफार्म पर शान से रखे मटके को देखकर इत्मीनान और अपनेपन का अहसास लौट आता है। जो माटी का मोल जानते हैं, उनके दिलों पर ऐतबार किया जा सकता है।
हम अपने संस्कारों में कुम्भकार को बड़ा कारीगर मानते रहे हैं। कुम्भ की वृहदाकार रूप में ही कल्पना की जाती हैं। बड़े समागमों की तुलना भी इसी नाम से की जाती है। माटी का यह पात्र हमारी संस्कृति में गहरे रचा-बसा है। कविताओं में टुम्मक टूं चलता है, गीतों में साज की तरह बजता है, चित्रों में पनिहारिन की तस्वीर को मायने देता है।
गोलाकार, सादा-सा मृदा पात्र माटी-पुत्रों का सच्चा प्रतिनिधि है। माटी-पुत्र कई रंगों का, ढंगों का, धातुओं का मुलम्मा चढ़ा चुके पर मटका सदा से जैसा था, वैसा ही है। समय के आर-पार..