वन, वृक्ष और नदी का सरकारी प्रबंधन

Submitted by Hindi on Sat, 09/24/2011 - 10:21
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस

भारत में प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और स्वामित्व कमोवेश सरकारी विभागों के ही हाथ में है। इसके बावजूद इन संसाधनों में आ रही कमी आश्चर्य का विषय है। यदि वन संपदाएं निजी एवं सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों में सुरक्षित नहीं हैं तो इन्हें संभालने के लिए सीधे-सीधे आम जनता को सामने आना होगा।

कृषि संत मासानोबू फुकूओका के अनुसार ‘‘प्रकृति ने सभी प्राणियों के भरण-पोषण की व्यवस्था की है। प्रकृति में सात मूल तत्व हैं- मिट्टी, पानी, हवा, वनस्पति जगत, जीव-जन्तु, सूक्ष्म जीवाणु तथा सूर्य का प्रकाश।’’ इनमें से किसी एक तत्व के बीमार या नष्ट हो जाने से उसका प्रभाव अन्य तत्वों पर भी पड़ना शुरु हो जाता है। यह माना जाता है कि हिमालय पर्वत 33000 वर्ग कि.मी. या 17 प्रतिशत हिम से आच्छादित है। हिमालय के क्षेत्र में लगभग 15000 हिमनद हैं। इनमें से कुछ हिमनद 60 कि.मी. से अधिक और कुछ 3 से 5 कि.मी. लम्बे हैं।

यह एक अद्भुत तथ्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग की नदियां लगभग हिमालय के एक ही स्थान से निकलती हैं। कैलाश पर्वतमाला के हिमनद पूर्व की ओर बहने वाली ब्रम्हपुत्र का जलस्रोत है। सिन्धु नदी इसी पर्वतमाला से मानसरोवर उत्तर-पश्चिम से प्रवाहित है। मानसरोवर के पश्चिम में स्थित राकास झील सतलुज नदी का स्रोत है। मानसरोवर से ही 100 कि.मी. दूर की हिमालय की पर्वतमालाओं से भागीरथी और अलकनंदा अपनी सहायक नदियों के साथ नीचे उतरकर पवित्र गंगा में मिल जाती है। इसी तरह घाघरा, गंडक एवं कोसी नदियां कई अन्य सहायक नदियों के साथ हिमालय से निकलती हैं।

संसद के मानसून सत्र में एक प्रश्न के उत्तर में जल संसाधन व अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री विनसेंट एच. पाला ने बताया है कि आगामी 20 वर्षों में हिमालयी उपक्षेत्र के देश भारत, नेपाल, चीन और बांग्लादेश हर वर्ष लगभग 275 अरब घन मीटर जलस्तर की गिरावट का सामना करेंगे।

इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमनदों के पिघलने से हिमालय से बहने वाली नदियों में बाढ़ का भी खतरा बढ़ा है। पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि से धु्रवों पर जमे हुए हिमखंड भी पिघल रहे हैं। इससे समुद्र का जलस्तर 1 मीटर तक ऊपर उठ सकता है। इससे समुद्रतटीय क्षेत्र डूब जाएंगे तथा इससे मानसूनी हवाएं प्रभावित होंगी। जिससे भारत में लम्बा सूखा भी पड़ सकता है।

इस तरह मानव एवं प्रकृति का संबंध विध्वंसात्मक हो गया है। पृथ्वी पर उत्पन्न पारिस्थितिकीय असन्तुलन हर प्राणी को प्रभावित कर रहा है। हम ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमखंडों को पिघलने से नहीं रोक सकते। तो हम क्या कर सकते हैं? भारत के अनेक प्रदेशों के पर्वतों पर कोई हिमनद नहीं है। इसलिए प्रकृति ने विशाल हिमनदों का काम हमारे वनों को सौंप रखा है। भगवान शंकर की पिण्डी पर जैसे किसी घड़े से बूंद-बूंद पानी अनवरत गिरता रहता है उसी तरह हमारे वन भी वर्षा की करोड़ों-अरबों बूंदों को धरती में सहेजकर वर्ष भर नदियों का अभिषेक करते रहते हैं।

एक वृक्ष अपनी जड़ों के आसपास लगभग 500 गैलन पानी रोककर रखता है। वन क्षेत्र की सतह के पास जलस्तर रहने से घास और कई तरह की वनस्पतियां भी खूब विकसित होती हैं और जल समेटती हैं। घास भू-कटाव को रोकने के साथ-साथ भूमिगत जल के वाष्पीकरण को भी रोकती है।

एक अनुमान के अनुसार वर्षा का लगभग 33 प्रतिशत पानी धरती के भीतर समाना चाहिए परन्तु बड़े पैमाने पर वनों के विनाश के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। वनों के निकट स्थित तालाबों, पोखरों और नदियों को वर्ष भर अन्तर-भूमि जल नहीं मिल रहा है। वनों के नष्ट हो जाने पर अन्य वनस्पतियों में स्वतः खत्म होने की प्रक्रिया शुरु जाती है। धरातल से हरियाली का आवरण हट जाने से नदियों के पेटे में गाद जमने लगती है। इससे नदियों की जलग्रहण क्षमता कम हो जाती है जिससे मानसूनी वर्षा से बाढ़ें आनी लग जाती हैं। जिससे जन-धन और कृषि की हानि होती है।

नर्मदा नदी विध्यांचल और सतपुड़ा पर्वत के संगम स्थल मैकल पर्वत से निकलने के कारण मैकलसुता कहलाती है। इन पर्वतों पर स्थित वन नर्मदा को सदनीरा बनाते हैं तथा यहां से बहने वाली सभी छोटी नदियां नर्मदा की सहेलियां हैं। वनों की कटाई से ये स्थित छोटी-छोटी नदियां भी सूख गई हैं।

वनों की सबसे अधिक कटाई वन-विभाग द्वारा ही की जाती है। कई बार सरकारी कटाई का आधार वृक्षों की वृद्धावस्था और बीमारी को माना जाता है। यही वन कटाई का बड़ा ‘बहाना’ है। वन विभाग को डॉक्टर बनकर जंगल में जाने की क्या जरुरत है? इस प्रक्रिया में जबकि प्रकृति अपना इलाज खुद करती है। सरकारी कुल्हाड़ी के पीछे ‘अन्य’ कुल्हाड़ियां भी वन का रास्ता पकड़ लेती हैं। सरकार की नीतियों के कारण ही जंगलों में ‘वृक्षसंहार’ चल रहा है।

इसी तरह चम्बल नदी मध्यप्रदेश के बड़े शहर इंदौर के नजदीक महू के पश्चिम में स्थित उच्च भूमि से, बेतवा नदी भोपाल के दक्षिण पठार से और सोन नदी नर्मदा के उद्गम से कुछ दूर स्थित पेन्ड्रा से निकलकर मध्यप्रदेश को हरा-भरा बनाती हैं। वनों के कटने के बाद इन नदियों में भी जल सूख गया है तथा पहाड़ी झरने और करोड़ों झिरियां भी सूख गई हैं। वनस्पतियों की जड़ें पहाड़ी झिरियों को सतत प्रवाहमान बनाये रखती हैं। भारतीय संविधान में वन एवं पर्यावरण की रक्षा को विशेष महत्व दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48(क) में दिये गये नीति निर्देशक तत्वों के अनुसार ‘‘राज्य, देश के पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्धन का एवं वन्य तथा वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।’’

नर्मदा नदी पर बन रहे इंदिरा सागर जलाशय के लिए 40 हजार हेक्टेयर और सरदार सरोवर जलाशय के लिए 1,38,000 हेक्टेयर वन क्षेत्र काटकर डुबा दिया गया है। इसी प्रकार अनेक नदीघाटी परियोजनाओं में लाखों हेक्टेयर का वनक्षेत्र काटकर डुबाया जा चुका है। परियोजनाओं से विस्थापितों को पुनः बसाने के लिए भी जंगल काटा गया है। वन क्षेत्रों में खनन उद्योग खतरनाक स्तर तक बढ़ गया है। इन परियोजनाओं से जल-स्रोत नष्ट होने का खतरा है।

मध्यप्रदेश व देश के अन्य प्रदेशों के अनेक जिलों में वन-विभाग के काष्ट-डिपो वृक्षों की लाशों से भरे पड़े है। वनों की सबसे अधिक कटाई वन-विभाग द्वारा ही की जाती है। कई बार सरकारी कटाई का आधार वृक्षों की वृद्धावस्था और बीमारी को माना जाता है। यही वन कटाई का बड़ा ‘बहाना’ है। वन विभाग को डॉक्टर बनकर जंगल में जाने की क्या जरुरत है? इस प्रक्रिया में जबकि प्रकृति अपना इलाज खुद करती है। सरकारी कुल्हाड़ी के पीछे ‘अन्य’ कुल्हाड़ियां भी वन का रास्ता पकड़ लेती हैं। सरकार की नीतियों के कारण ही जंगलों में ‘वृक्षसंहार’ चल रहा है। संसद में हथियार लेकर जाना अपराध है तो प्रकृति की संसद हमारे वनों में भी वृक्ष कटाई के हथियार लेकर जाना भी अपराध होना चाहिए। चाहे वे सरकारी हथियार ही क्यों न हों।

हम लोगों को सुधारने का दावा करते हैं लेकिन सरकार को कौन सुधारेगा? यह सिद्ध हो चुका है कि इस देश के पर्यावरण को सरकार के संगठित संगठनों से सबसे अधिक नुकसान पहुंच रहा है। सरकार के वन-विभाग में ‘फारेस्ट-मैनेजमेन्ट’ की बैलेन्स शीट को किसी कंपनी की ‘बैलेन्स-शीट’ की तरह देखने की परंपरा बंद होनी चाहिए।

यह स्मरण रखना जरुरी है कि वनों की व्यावसायिक कटाई एवं स्थानीय वनवासियों एवं ग्रामवासियों द्वारा जंगल के उपयोग में अंतर करना जरुरी है। ब्रिटिश फारेस्ट सेटलमेन्ट अधिनियम (1860) में निस्तार अधिकारों को कुछ सीमा तक मान्यता दी गई थी। परन्तु अंग्रेजों ने वनों को उनकी निजी संपत्ति मानकर उसकी देखरेख के लिए एक वनविभाग बनाया था। सन् 1952 में नई वन नीति बनी थी परन्तु औद्योगिक विकास की जरुरतों के लिए इसमें भी कई विरोधाभास थे। सन् 1980 और 1994 में नये वन कानूनों का मसविदा सरकार द्वारा जारी किया गया था। विश्व बैंक से सहायता प्राप्त करने के लिऐ वन सुरक्षा समिति एवं ग्राम वन समितियां बनाई गई हैं। इन वन योजनाओं को लाभ कमाने के साधन के रुप में देखा गया है। हमारी नदियां और पानी के अन्य स्रोत असहाय हैं क्योंकि हमारे वन असहाय है।

हमें समझना होगा कि संसार का कोई भी देश ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए पिघलते हिमनदों को सुरक्षित और संवर्धित नहीं कर सकता है। लेकिन वनों को बचाकर और बढ़ाकर आने वाली पीढ़ियों का जीवन खुशहाल बनाया जा सकता है।

डॉ. कश्मीर उप्पल शासकीय महाविद्यालय इटारसी से सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।