हिफाजत कैसे हो

Submitted by RuralWater on Mon, 07/04/2016 - 12:53
Source
कादम्बिनी, मई 2016

हमारे ज्यादातर जलस्रोत प्रायः प्रदूषित हो चुके हैं। खासकर अधिकतर नदियाँ प्रदूषित हैं। इसका एक सबसे बड़ा कारण औद्योगिक कचरा है। जब तक उस पर नियंत्रण नहीं होगा, नदी सफाई योजनाएँ असफल होने के लिये अभिशप्त रहेंगी। इसके अलावा हमें खुद भी अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा। बड़े बाँधों के निर्माण से लोगों की जमीनें तो डूबी ही हैं, उन्हें खुद भीषण जल संकट का सामना करना पड़ रहा है।

सैलानी और तीर्थ यात्री गंगा के किनारे ऋषिकेश में स्कूलों की सालाना छुट्टियों के दिनों में अर्से से आते रहे हैं। मुझे याद है जब हम बच्चे थे, तब अपनी पढ़ाई के दौरान की सालाना छुट्टियाँ किसी प्याऊ पर पानी पिलाने के काम में बिताते थे। उस समय तक हमारी यही समझ बनी थी कि सालाना छुट्टियाँ इसी काम के लिये होती हैं। तब हर मोड़-चौराहे पर गर्मियों में प्याऊ लगते थे। जिनके खात्मे के साथ सड़क के किनारे लगे नल और हैण्डपम्प तक उखाड़ लिये गए।

हमारी प्यास बुझाने और गर्मियों में हाथ-मुँह, पैर आदि धोकर नहाने की आधी प्रक्रिया से ठंडक और तरो-ताजगी पाने के अहसास को हमसे छीना। बाद की गर्मियों में ठंडक का अहसास दिलाने के लिये एक तेल सिर पर उड़ेलने की तजवीज लेकर ‘सहस्त्राब्दि का महानायक’ आया। देश के राष्ट्रीय सम्मान से नवाजे गए इस नायक के जरिए सन्देश मिला कि शरीर की स्वच्छता से ज्यादा जरूरी बाजार की शान है।

यह बात सही है कि पानी को टिहरी में बाँधने को लेकरर राय विभक्त थी, तब ऋषिकेश के लोगों का उस योजना की इस राय पर एक दिखा कि पानी कहीं भी बाँधो, परियोजना का मुख्य गोदाम यहीं बने। उन दिनों कुछ लोग बगल से इतराते हुए इसलिये निकलते थे, क्योंकि तब वे सीमेंट लादे होते। यहाँ के बनते हुए मकानों से बाँध की प्रगति पता चलती। बाँध बनना लगातार लम्बा खिंचने से इस शहर की एक शक्ल निखरी-निखरी दिखने लगी।

बाँध और झील में जिनकी जमीन डूब गई वे तो दूसरी जगह जमीन और नगदी मुआवजा पाकर उबर गए, जिनकरी जमीन डूबने से बच गई वे पानी के इस खेल में दो तरफा ऐसे डूब मरे हैं कि उसके दंश अब तक पीढ़ियों से झेलने के लिये अभिशप्त हैं। इन्हें किसी तरह का कोई नगदी मुआवजा या जमीन नहीं मिली। बाँध व झील बनने से इनके गाँव तक पहुँचने के रास्ते घुमावदार होने से अब इनका एक दिन में ऋषिकेश से लौटना सम्भव नहीं रहा।

इस इलाके को ‘काला पानी’ भी पुकार जाता है। इसके पीछे भी एक कहानी हैा। यहाँ गाँव तक आने-जाने में ज्यादा समय लगने से मिलने-जुलने वाले, हमारे यहाँ आने और अपने यहाँ बुलाने वाले कतराने लगे। पानी के साथ रिश्ते कैसे बहते चले गए, यह बात इस गाँव के लोग ही जानते हैं कि किस तरह ये अपने रिश्ते-नाते वालों से अलग-थलग हो गए हैं।

जिला पौड़ी-गढ़वाल के ब्लॉक यमकेश्वर के गाँव कुलाऊँ के एक तरफ से गंगा सीधे हरिद्वार की तरफ और दूसरी तरफ से इसका पानी नहर के रूप में 14 किमी. दूर हरिद्वार के चिल्ला पॉवर प्लांट पहुँचकर 144 मेगावाट बिजली बनाता था। अभी तक इस गाँव के खेतों तक नहर का पानी नहीं पहुँचा है। इस गाँव में रहने वाले वन विभाग के कर्मचारियों के घर बिजली से रोशन रहते और गाँव वाले पीढ़ियों से अंधेरे में रहे। स्थानीय ग्रामीण काफी कड़े संघर्ष के बाद वर्ष 2013 में बिजली लाने में सफल हुए।

गंगा के मुहाने खूबसूरत दिखें इसके लिये आस्था पथ को धर्म से जोड़कर दिखाया गया, जबकि इसके नीचे जगह देकर शहर के सीवेज को गंगा में खोल दिया। शहर में गरीब बस्तियों जैसे-चन्द्रभागा नदी के किनारे, वनखंडी, सर्वहारा नगर आदि के सीवेज खुले रहे। गंगा को दुनिया भले ही सम्मान की दृष्टि से देखे, लेकिन इस शहर के ‘सम्मानितों’ ने इसे सीवेज ढोने के एक बढ़िया माध्यम से अलग कोई महत्त्व नहीं दिया।

एक संसदीय कमेटी की वर्ष 2000 की एक रिपोर्ट के अनुसार- ‘उस समय ऋषिकेश के ट्रीटमेंट प्लांट तक यहाँ का 6.5 एमएलडी सीवेज पहुँचता था।’ समिति ने तब इसको अपग्रेड किये जाने की जरूरत बताई, क्योंकि क्षमता से ज्यादा सीवेज यहाँ पहुँच रहा था। समिति ने अपने दौरे के दौरान पाया था कि गंगा में प्लास्टिक बैग नालों में तैर रहे थे, गौशालाओं से गोबर गंगा में डल रहा था, मरे हुए मानव व पशु गंगा में तैर रहे थे।

यहाँ गंगा में सरस्वती की एक जलधारा मिलती थी। उसके एक हिस्से को ढँककर उस पर बाजार खड़ा किया गया। बाकी हिस्से में उसे खुले सीवेज में बदल दिया गया। त्रिवेणी घाट पर रोज शाम गंगा की आरती गाई जाती रही, जबकि गंगा की आरती समिति के कार्यालय के साथ बनाए गए सार्वजनिक शौचालय के सीवेज को सीधे इसी नाले से जोड़कर सीधा गंगा में छोड़ा गया।

त्रिवेणी घाट के सामने, यानी गंगा के दूसरे मुहाने को पिछले लम्बे अर्से से व्यक्तियों व पशुओं की कब्रगाह के रूप में इस्तेमाल करने की बात और अधिक दहला देने वाली है। पानी में बहकर आई लाशों को किसी भी पेड़ की जड़ से बाँधकर धीरे-धीरे पानी में घुलाकर खत्म कर दिया जाता रहा। यह सब लाश बरामदगी न दिखाने व कई तरह की कागजी और कानूनी खानापूर्ति से बचने के लिये किया जाता रहा। अनदेखी की शिकायत गंगा के बारे में करना इसलिये उचित नहीं, क्योंकि देश की इस राष्ट्रीय नदी को प्रधानमंत्री सीधे देखते रहे हैं। जिस गंगा के जल को लोग इतना पवित्र मानते हैं कि उससे अपने गृहों की शुद्धि करते हैं, मृत्यु समीप देखने पर मुँह में जिसकी दो बूँदे डालना पवित्र मानते हैं। उसी गंगा की यह दुरावस्था किसी कोढ़ के रोग से कम नहीं है। उसमें भी खाज यह है कि इस असफलता के लिये कोई जिम्मेदार नहीं है?

(लेखक ‘वॉलंटियर्स इन सर्विस टू इण्डियाज ऑप्रेस्ड एंड नेग्लेक्टेड’ - ‘विजन’ के संस्थापक हैं)