जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव कह रहे हैं कि काम पानी का हो, खेती या ग्राम स्वावलम्बन का; साझे की माँग जल्द ही आवश्यक हो जाने वाली है। सहकारी खेती, सहकारी उद्यम, सहकारी ग्रामोद्योग, सहकारी जलोपयोग प्रणाली के बगैर, गाँवों का अस्तित्व व विकास, एक अत्यन्त कठिन चढ़ाई होगी।
दुर्योग कहें या सुयोग, आर्थिक स्वावलम्बन के बाद से साझे के कार्यों की जगह गाँवों में भी कम होती जा रही है। साझे के नाम पर आज हमारे पास ग्राम पंचायत, शहरी मोहल्ला समितियों के अलावा स्वयंसेवी संगठन ही बचे हैं।
संवैधानिक तौर पर इनमें ग्राम पंचायतों को ही सबसे अधिक अधिकार प्राप्त है। इन्हें औजार बनाकर, हम अपने गाँवों का नक्शा बदल सकते हैं। 24 नवम्बर, 2015 को अपने नए पंचायती राज की उम्र 22 साल, सात महीने की हो गई है।
आइए इस मौके पर पलट कर देखें कि पंचायतीराज अपने मूल मन्तव्य में कितना सफल रहा। चूक के बिन्दु क्या हैं? हम क्या सुधारें? क्या अरवरी नदी की हमारी संसद, भारतीय संविधान से गठित पंचायत को कुछ सिखा सकती है?
राज का विकास, पंचायती का ह्रास
ग्रामसभा, पंचायती राज की आत्मा है और पंचायतें, उसका आवरण। आत्मा कभी मरती नहीं है, किन्तु क्या वर्तमान पंचायती राज की आत्मा जिन्दा है? नहीं, ज्यादातर राज्यों में ग्रामसभाओं का कोई अता-पता नहीं है। विकास योजना बनाने वाली ग्रामसभाओं की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं।
वर्तमान पंचायती राज, गाँव समाज में स्थानीय सामुदायिक संसाधनों के प्रति स्वामित्व का भाव जगाने में भी असफल ही साबित हुआ है। तालाब, जंगल, चारागाह समेत सामुदायिक भूमि और अन्य सामुदायिक सम्पत्ति के प्रबन्धन में साझेदारी के बढ़ते अभाव के पीछे एक कारण यह भी है।
मनरेगा ने ग्रामसभाओं को गाँवों की विकास योजना बनाने से लेकर काम के चयन व निगरानी तक की ज़िम्मेदारी व अधिकार दिये हैं, किन्तु ग्रामसभा से लेकर जिला स्तरीय सभाओं के निष्क्रिय व दिखावटी होने के चलते ज्यादातर जगह पंचायतें ही प्रमुख हो गई हैं।
पंचायतें, आज सरकारी विकास कार्यक्रमों की क्रियान्वयन एजेंसी मात्र बनकर रह गई हैं। पंचायत प्रतिनिधियों ने भी जनता की बजाय, सरकारी अधिकारियों की एजेंट की भूमिका स्वीकार ली है। पंचायती चुनाव, गाँव समाज के आपसी सामंजस्य और सद्भाव को तोड़ने का सबसे नुकीला औजार बन गए हैं।
सरकारी अनुदान आधारित पंचायती कार्यप्रणाली, सिर्फ पंचायत प्रतिनिधियों को ही नहीं, बल्कि गाँव समाज के आखिरी आदमी को भी भ्रष्ट बनाने वाली साबित हुई है। यह तो अन्तोदय होने की बजाय, भ्रष्टोदय हो गया! राज का विकास हुआ, पर पंचायती का तो ह्रास हो गया।
मूल चूक
मेरा मानना है कि मूल चूक, पंचायती राज की वर्तमान प्रणाली में ही है। यह प्रणाली, हमारे गाँवों को उस पंच-परमेश्वरी अवधारणा से दूर करती है, जिसकी मौजूदगी के कारण भारतीय गाँवों के बारे में लॉर्ड मेटकॉफ (1830) ने लिखा- “वे ऐसी परिस्थितियों में भी टिके रहते हैं, जिनमे हर दूसरी वस्तु का अस्तित्व मिट जाता है।’’
गौर कीजिए कि वर्तमान पंचायती राज, गाँवों को प्रशासनिक व क्रियान्वयन इकाई बनाने पर आमादा है, जबकि गाँव, मूल रूप से एक सांस्कृतिक इकाई है। पंचायती राज भूल गया है कि गाँव, सम्बन्धों की नींव पर बनते हैं और शहर, सुविधा की नींव पर। भारतीय संस्कृति के दो मूलाधार तत्व हैं: सहजीवन और सहअस्तित्व। सहजीवन, परिवार का आधार है और सहअस्तित्व, पड़ोस का।
इन दोनों तत्वों की जुगलबंदी से ही गाँव बने और बसे। जब तक ये दो तत्व रहेंगे, गाँव, गाँव रहेगा; वरना वह कुछ और हो जाएगा। क्या वर्तमान पंचायती राज प्रणाली, इन दो तत्वों की संरक्षक भूमिका में है? नहीं, वह तो सुविधा देने वाली अक्षम क्रियान्वयन इकाइयों की निर्माता बनकर रह गई है।
इस कारण भी हमारे गाँवों का गाँव बने रहना, दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। गाँव ने शहरों की बुराइयाँ तो अपना ली हैं, लेकिन अपनी अच्छाइयों की रक्षा करने में अब वह असमर्थ सिद्ध हो रहा है; लिहाजा, मेरा मानना है कि पंचायती राज की मौजूदा प्रणाली को एक बार फिर सुधार की जरूरत है। आइए, हम अपना आईना बदलें। एक आईना, अरवरी नदी की संसद भी हो सकती है।
एक आईना : अरवरी नदी संसद
उल्लेखनीय है कि राजस्थान, जिला अलवर की नदी अरवरी और उसके 70 गाँवों की पंचायत का नाम है- अरवरी संसद। 70 गाँवों की ग्रामसभा के चुनिन्दा 187 सांसद, इसके प्रतिनिधि हैं। हालांकि, ये प्रतिनिधि पंचायती राज प्रणाली की संवैधानिक चुनाव प्रक्रिया से चुने पंच-सरपंच नहीं हैं; बावजूद इसके, इन 70 गाँवों की खेती, ज़मीन, जंगल, नदी, तालाब आदि का प्रबन्धन और फैसला यही करते हैं। इनके अपने नियम हैं; पालना, प्रोत्साहन व दण्डित करने की अपनी प्रणाली है।
नियम है कि चुनाव सर्वसम्मति से हो। अपरिहार्य स्थिति में भी उम्मीदवार को कम-से-कम 50 प्रतिशत सदस्यों का समर्थन अवश्य प्राप्त हो। जब तक ऐसा न हो जाये, उस गाँव का प्रतिनिधित्व संसद में शामिल न किया जाये। असन्तुष्ट होने पर ग्रामसभा, सांसद बदल सकती है।
नदी संसद का प्रताप
ऐसे कितने ही उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि अरवरी संसद ने सिर्फ नियम ही नहीं बनाये, इनकी पालना भी की। अरवरी संसद के बनाए सारे नियम 70 गाँवों की व्यवस्था को स्वानुशासन की ओर ले जाते हैं। इस स्वानुशासन का ही नतीजा है कि स्वास्थ्य, शिक्षा से लेकर प्रति व्यक्ति आय के आँकड़ों में यह इलाक़ा पहले से आगे है। अपराध घटे हैं और टूटन भी।
इस बीच अरवरी के इस इलाके में एक-दो नहीं तीन-तीन साला अकाल आये; लेकिन नदी में पानी रहा; कुएँ अंधे नहीं हुए। आज इस इलाके में ‘पब्लिक सेंचुरी’ लें; ‘पब्लिक सेंचुरी’ यानी जनता द्वारा खुद आरक्षित वनक्षेत्र। शायद ही देश में कोई दूसरी घोषित पब्लिक सेंचुरी हो।
अरवरी के गाँवों में खुद के बनाए जोहड़, तालाब, एनीकट.. मेड़बन्दियाँ हैं। यहाँ भांवता-कोल्याला जैसे अनोखे गाँव हैं, जिन्होंने एक लाख रुपए का पुरस्कार लेने के लिये राष्ट्रपति भवन जाने से इनकार कर दिया, तो तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन खुद उनके गाँव गए।
देश-विदेश के सर्वोच्च इंजीनियरिंग, विकास, पंचायत व प्रबन्धन संस्थानों के प्रतिनिधियों से लेकर भारत के सांसद, पानी मंत्री, आरएसएस के पूर्व प्रमुख स्व. श्री सुदर्शन, ब्रिटिश प्रिंस चार्ल्स तक.....जाने कितनी हस्तियों ने खुद जाकर स्वानुशासन और एकता की इस मिसाल को बार-बार देखा।
नदी संसद की सीख
सत्याग्रह मीमांसा-अंक 169 (जनवरी 2000) में प्रख्यात गाँधीवादी नेता स्वर्गीय सिद्धराज ढड्ढा ने अरवरी संसद की खूबी बताते हुए लिखा - “आज की संसद के निर्णयों तथा उसके बनाए कानूनों की पालना का अन्तिम आधार पुलिस, फौज, अदालतें और जेल हैं। अरवरी संसद के पास अपने निर्णयों की पालना के लिये ऐसे कोई आधार नहीं हैं; न ही होने चाहिए। जनसंसद का एकमात्र आधार लोगों की एकता, अपने वचनपालन की प्रतिबद्धता और परस्पर विश्वास है। यही जनतंत्र की वास्तविक शक्तियाँ हैं। अतः अरवरी संसद का प्रयोग केवल अरवरी क्षेत्र के लिये नहीं....समूचे जनतंत्र के भविष्य के लिये भी महत्त्वपूर्ण है।’’ श्री ढड्ढा के बयान और अरवरी संसद की कार्यप्रणाली से क्या कभी देश की संसद, विधायिका और पंचायतें कुछ सीखेंगी?