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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
मेरी नदी यात्रा में नदियों ने तो मुझे सबक सिखाए ही; श्री राजेन्द्र सिंह जी के शब्द व व्यवहार, प्रो, जीडी अग्रवाल जी की जिजीविषा, मंदाकिनी घाटी की बहन सुशीला भंडारी के शौर्य, यमुना सत्याग्रह के साथी मास्टर बलजीत सिंह जी के निश्चल समर्पण, पाँवधोई में पहल के अगुवा साथी रहे आईएएस अधिकारी श्री आलोक कुमार की लगन, सई नदी के पानी को सूँघकर वापस लौट जाने वाली नीलगाय की समझ और कृष्णी नदी किनारे जिला सहारनपुर के गाँव खेमचन्द भनेड़ा के रामचरित मानस पाठ ने भी कई सबक सिखाए। मेेरी जड़ें उत्तर प्रदेश के जिला-अमेठी के एक गाँव में हैं। मेरे गाँव के दक्षिण से उत्तर में फिर दर्शन देने वाली मालती नाम की नदी बहती है। जब भी गाँव जाता हूँ, इससे मुलाकात होती ही है। बचपन से हो रही है। दिल्ली में पैदा हुआ। पाँचवीं के बाद सिविल लाइन्स में आई पी कॉलेज के पीछे स्थित रिंग रोड वाले स्कूल में पढ़ा।
अतः घर से स्कूल के रास्ते में पुराने पुल से आते-जाते दिन में दो बार यमुना जी के सलोनी छवि के दर्शन होना लाज़िमी है। अतः जब दिल्ली ने 1978 में यमुना की बाढ़ देखी, तो मैंने भी देखी। मॉडल टाउन और मुखर्जी नगर के डूब जाने की खबरें भी सुनी। जिनके पास दिल्ली में कहीं और जाने के साधन थे, यमुना पुश्ते के किनारे की कॉलोनियों के ऐसे लोग अपने-अपने घरों को ताला मारकर अन्यत्र चले गए थे।
हमें अपने एक मंजिला मकान की छत से ज्यादा, रेलवे लाइन की ऊँचाई का आसरा था। सो, हम कहीं नहीं गए। रेडियो बार-बार बताता था कि पानी कहाँ तक पहुँच गया है। हम भी दौड़कर देख आते थे। फौज ने उस वक्त बड़ी मदद की।
यमुना पुश्ते को टूटने नहीं दिया। उस समय मैंने नदी का एक अलग रूप देखा, किन्तु इसे मैं अपनी नदी यात्रा नहीं कह सकता। तब तक न मुझे तैरना आता था और न ही नदी से बात करना। मेरा मानना है कि उतरे तथा बात किये बगैर नदी की यात्रा नहीं की जा सकती।
इस बीच ईश्वर ने मेरे हाथ में कलम और कैमरा थमा दिया। 1991-92 में मैंने एक फिल्म लिखी - ‘गंगा मूल में प्रदूषण’। गढ़वाल के मोहम्मद रफी कहे जाने वाले प्रसिद्ध लोकगायक श्री चन्द्रसिंह राही द्वारा निर्देशित इस फिल्म को लिखने के दौरान मैंने पहली बार गंगा और इसके किनारों से नज़दीक से बात करने की कोशिश की उस वक्त तक हरिद्वार से ऊपर के शहर गंगा कार्य योजना का हिस्सा नहीं बने थे।
सरकार नहीं मानती थी कि ऋषिकेश के ऊपर शहर भी गंगा को प्रदूषित करते हैं। यह फिल्म यह स्थापित करने में सफल रही। कालान्तर में ऊपर के शहर भी गंगा कार्य योजना में शामिल किये गए। यहीं से मेरी नदी यात्रा की विधिवत् शुरुआत हुई।
1994 में दूरदर्शन हेतु ‘एचिवर्स’ नामक एक वृतचित्र शृंखला का निर्माण करना था। इसकी पहली कड़ी- ‘सच हुए सपने’ को फिल्माने मैं अलवर के तरुण आश्रम जा पहुँचा। इससे पूर्व राजस्थान के चुरु, झुंझनू, सीकर आदि इलाकों में जाने का मौका मिला था। उन इलाकों में मैंने रेत की नदी देखी थी; अलवर आकर रेत में पानी की नदी देखी। फिर उसके बाद बार-बार अलवर जाना हुआ।
एक तरह से अलवर से दोस्ती सी हो गई। वर्ष-2000 में देशव्यापी जलयात्रा के दौरान नदियों की दुर्दशा देख राजेन्द्र सिंह व्यथित हुए थे और ‘जलयात्रा’ दस्तावेज़ को संपादित करते हुए मैं। इसके बाद मैं सिर्फ नदी और पानी का हो गया।
इस बीच विज्ञान पर्यावरण केन्द्र, नई दिल्ली के तत्कालीन प्रमुख स्व. श्री अनिल अग्रवाल और तरुण भारत संघ के श्री राजेन्द्र सिंह की पहल पर ‘जल बिरादरी’ नामक एक अनौपचारिक भाई-चारे की नींव रखी गई। जलबिरादरी से मेरा जुड़ाव कुछ समय बाद समन्वय की स्वैच्छिक जिम्मेदारी में बदल गया।
इस जिम्मेदारी ने मुझसे नदी की कई औपचारिक यात्राएँ कराईं : गंगा लोकयात्रा, गंगा सम्मान यात्रा, गंगा पंचायत गठन यात्रा, गंगा एक्सप्रेस-वे अध्ययन यात्रा, हिण्डन प्रदूषण मुक्ति यात्रा, सई पदयात्रा, उज्जयिनी पद्यात्रा, गोमती यात्रा। यमुना, काली, कृष्णी, पाँवधोई, मुला-मुठा, सरयू, पांडु, चित्रकूट की मन्दाकिनी समेत कई छोटी-बड़ी कई नदियों के कष्ट और उससे दुखी समाज को देखने का मौका मिला।
राजस्थान के जिला अलवर, जयपुर तथा करौली के ग्रामीण समाज के पुण्य से सदानीरा हुई धाराओं को भी मैंने जानने की कोशिश की। इसके बाद तो मैंने नदी सम्मेलनों में बैठकर भी नदी की ही यात्रा करने की कोशिश की।
मेरी नदी यात्रा में नदियों ने तो मुझे सबक सिखाए ही; श्री राजेन्द्र सिंह जी के शब्द व व्यवहार, प्रो, जीडी अग्रवाल जी की जिजीविषा, मंदाकिनी घाटी की बहन सुशीला भंडारी के शौर्य, यमुना सत्याग्रह के साथी मास्टर बलजीत सिंह जी के निश्चल समर्पण, पाँवधोई में पहल के अगुवा साथी रहे आईएएस अधिकारी श्री आलोक कुमार की लगन, सई नदी के पानी को सूँघकर वापस लौट जाने वाली नीलगाय की समझ और कृष्णी नदी किनारे जिला सहारनपुर के गाँव खेमचन्द भनेड़ा के रामचरित मानस पाठ ने भी कई सबक सिखाए।
खासतौर से विज्ञान पर्यावरण केन्द्र की सिटीजन रिपोर्ट, श्री अमृतलाल वेंगड़ के नर्मदा यात्रा वृतान्त, श्री दिनेश कुमार मिश्र की ‘दुई पाटन के बीच’ तथा सत्येन्द्र सिंह द्वारा भारत के वेद तथा पौराणिक पुस्तकों से संकलित सामग्री के आधार पर रचित पुस्तकें अच्छी शिक्षक बनकर इस यात्रा में मेरे साथ रहीं।
सर्वश्री काका साहब कालेलकर, डॉ. खड़क सिंह वाल्दिया, अनुपम मिश्र, रामास्वामी आर. अय्यर, हिमांशु ठक्कर, कृष्ण गोपाल व्यास, श्रीपाद् धर्माधिकारी, अरुण कुमार सिंह और रघु यादव की पुस्तकों-लेखों तथा हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल पर नित नूतन सामग्री से मैं आज भी सीख रहा हूँ।
सच कहूँ तो, नदी के बारे में मैंने सबसे अच्छे सबक हिण्डन और सई नदी की पदयात्रा तथा अलग-अलग इलाकों के तालाबों, जंगल और खनन को पैरों से नापते हुए ही सीखे। इसी तरह किसी एक नदी और उसके किनारे के समाज के रिश्ते को समझने का सबसे अच्छा मौका मुझे तब हाथ लगा, जब राजेन्द्र सिंह जी ने मुझे अरवरी संसद के सत्र संवादों को एक पुस्तक का रूप देने का दायित्व सौंपा।
मेरी अब तक की नदी यात्रा ने स्याही बनकर कई किताबें/दस्तावेज़ लिखे और सम्पादित किये हैं: सिर्फ स्नान नहीं है कुम्भ, क्यों नहीं नदी जोड़?, गंगा क्यों बने राष्ट्रीय नदी प्रतीक?, गंगा जनादेश, गंगा माँग पत्र, गंगा ज्ञान आयोग अनुशंसा रिपोर्ट 2008, जलबिरादरी: पाँचवा सम्मेलन रिपोर्ट, अरवरी संसद, जलयात्रा, जी उठी जहाजवाली और डांग का पानी। मेरी इस यात्रा में गत् दो वर्षों से इंटरनेट और कम्प्यूटर सहायक हो गए हैं। अब मैं लगातार बह रहा हूँ और बहते-लिखते हुए तैरना सीख रहा हूँ। मेरी नदी यात्रा जारी है।