आइए! खुद लिखें एक निर्मल कथा

Submitted by Hindi on Fri, 05/10/2013 - 11:38
सामुदायिक स्तर पर सबसे पहले वह काम करें, जो अल्पकालिक हो, समुदाय ने खुद तय किया हो और उसे सीधे सकारात्मक लाभ देता हो। हो सकता है कि नदी प्रदूषण के कारण हैंडपम्प के पानी में चढ़ आई बदबू और फ्लोरोसिस का इलाज पहला काम बन जाये। हो सकता है कि नदी की बीमारी ने किसी गांव को बेरोजगार कर दिया हो, उसे रोज़गार देना पहली जरूरत हो। इस पहले काम को किसी भी हालत में असफल नहीं देना है। इसकी तैयारी चाकचौबंद रहे। इसके बाद हम देखेंगे कि काम का प्रवाह इतनी तेजी से बह निकलेगा कि उसे संभालने के लिए हमें कई ईमानदार हाथों को अपनी भूमिका में लाना पड़ेगा। सरकार जब करेगी, तब करेगी... आइए! हम अपनी नदी की एक निर्मल कथा खुद लिखें। उसकी कार्ययोजना बनाएं भी और उसे क्रियान्वित भी खुद ही करें। हां! सिद्धांत न कभी खुद भूलें और न अन्य किसी को भूलने दें। नदी निर्मलता एक दीर्घकालिक काम है। ऐसे दीर्धकालिक कामों की कार्ययोजना के चार चरण की मांग करती हैं: समझना, समझाना, रचना और सत्याग्रह। हो सकता है कि कभी कोई आपात मांग सत्याग्रह को पहले नंबर पर ले आए या कभी कोई तात्कालिक लक्ष्य इस क्रम को उलट-पलट दे; लेकिन सामान्य क्रम यही है।

समझना


....तो कार्ययोजना का सबसे पहला काम है अक्सर जाकर अपनी नदी का हालचाल पूछने का। यह काम अनायास करते रहें। अखबार में फोटो छपवाने या प्रोजेक्ट रिपोर्ट में यूसी लगाने के लिए नहीं, नदी से आत्मीय रिश्ते बनाने के लिए। यह काम नदी और उसके समाज में उतरे बगैर नहीं हो सकता। नदी और उसके किनारे के समाज के स्वभाव व आपसी रिश्ते को भी ठीक-ठीक समझकर ही आगे बढ़ना चाहिए। नदी जब तक सेहतमंद रही, उसकी सेहत का राज क्या था? यह समझना भी बेहद जरूरी है। ठीक से कागज़ पर चिन्हित कर लें कि नदी को कौन-कौन, कितना, कहां-कहां और किस तरीके व वजह से प्रदूषित कर रहा है। नदी, खेती, धरती, पेयजल, सेहत, आमदनी, समाज और संस्कार पर प्रदूषण के प्रभावों को एक बार खुद जाकर ठीक आंखों से देख-समझ लें।

समझाना


समझकर दूसरे को समझाने के लिए जरूरी है कि कम से कम एक श्रमनिष्ठ कार्य हम खुद अपने लिए तय करें। उसे सबसे पहले उनके बीच करें, जिनकी जिंदगी सीधे नदी से जुड़ी है। लोगों में जिज्ञासा जगाने और प्रेरित करने का इससे कारगर औजार कोई और नहीं हैं। जिज्ञासा जब जवाब की मांग करने लगें, तब जो खुद को ठीक से समझ आ गया हो, उन्हें समझाएं। खुद भी उनसे समझने का भाव कभी खोएं नहीं। प्रधान से संवाद करें, लेकिन पंचों से ज्यादा और निजी संवाद करें। इस पूरी प्रक्रिया में अपने लिए तय किया श्रमनिष्ठ काम साधना की तरह जारी रखें। प्रेरणा में जितनी अहम् भूमिका आध्यात्मिक शक्तियों की होती है, उतनी हमारे खुद द्वारा किए श्रमनिष्ठ काम की भी। हमारा श्रमनिष्ठ काम और नदी के साथ व्यवहार का हमारा स्वअनुशासन उन्हें अनुशासित होने को प्रेरित करेगा। जो स्वअनुशासित नहीं, वह दूसरे को नियंत्रित नहीं कर सकता; प्रदूषक को तो कदापि नहीं। जिस दिन लोग नदी से अपने रिश्ते और अपने जिंदगी पर उसके असर का पाठ ठीक से याद कर लेंगे;उनकी जिंदगी में नदी के प्रति व्यवहार का अनुशासन स्वतः आना शुरु हो जायेगा। नदी प्रदूषण मुक्ति के लिए भी वे स्वतः ही लामबंद हो जायेंगे।

सत्याग्रह की तैयारी


एक बार लामबंद हो गए लोगों को सिर्फ बात से नहीं बांधे रखा जा सकता। इस लामबंद शाक्ति को चार तरह के काम में ज़िम्मेदारी से लगाने की जरूरत होती है। एक, नदी के प्रति स्वअनुशासन। दूसरा, जो कुछ घट रहा है, उसकी निगरानी करना और तीसरा, रचना के श्रमनिष्ठ और सामुदायिक काम। ये तीनों काम हमेशा नहीं किए जा सकते। यदि हम इन तीनों में से कोई न कोई एक काम हमेशा नहीं दे सके, तो लामंबद हाथ जल्द ही बिखर जाएंगे...हम निराश होंगे और नदी भी।

व्यवहार का स्वअनुशासन


स्वअनुशासन का पहला काम दूसरे काम की स्वयमेव तैयारी है। अपने स्तर पर हर शहरी कम से कम इतना तो पक्का कर ही सकता है कि सीवेज की पाइप लाइनों में शौच का पानी ही जाये; नहाने-धोने और बर्तन मांजने का रसायन नहीं। कॉलोनी नई हो, तो व्यक्तिगत या सामुदायिक सेप्टिक टैंक अपनायें। सीवेज पाइप, पानी के बाजार और पॉली कचरे को कहें- ‘नो’।

जननिगरानी तंत्र का विकास


दूसरे काम के रूप में जन निगरानी तंत्र विकसित करें। यह जन निगरानी तंत्र ही एक दिन नदी प्रदूषण का नियंत्रक बनकर खड़ा हो जायेगा। यह समाज से भी नदी की सुरक्षा सुनिश्चित कर देगा और सरकार से भी। इसके लिए उसे सतत् प्रशिक्षित, प्रेरित व प्रोत्साहित करें। जन निगरानी की भूमिका निभाना एक ज़िम्मेदारी भी है और हकदारी भी। हकदारी और ज़िम्मेदारी एक-दूसरे की पूरक हैं। दोनों एक-दूसरे के बगैर नहीं आती। इन दोनों के आते ही काम के लिए जरूरी संसाधन लोग खुद जुटा लेते हैं। व्यक्ति आधारित अभियान व्यक्ति पर निर्भर करते हैं। एक बार हकदारी और ज़िम्मेदारी का सशक्त और वैचारिक तंत्र बना देने के बाद व्यक्ति न रहे, तो काम रुकता नहीं। यही लक्ष्य रहना चाहिए।

खैर! जरूरी है कि निगरानी से आये तथ्यों को हम प्रचारित करें। लोगों को उन पर अपनी प्रतिक्रिया करने दें। प्रतिक्रिया देने वालों को चिन्हित करते जायें और उन प्रतिक्रियाओं को कहीं दर्ज करते जायें। देखियेगा! प्रतिक्रिया हमारे कार्य को सत्य के आग्रह की दिशा में मोड़ देगी और प्रतिक्रिया देने वाले ही एक दिन हमारे सत्याग्रह के साथी बन जायेंगे। यह वह वक्त होगा, जब पक्ष और विपक्ष..दोनों का स्पष्ट दिखने शुरु हो जायेंगे। सकारात्मक और आशावादी भाव खोये बगैर विपक्ष से ईमानदार और खुला संवाद तेज कर दें। विपक्ष से बंद कमरे में किया छोटा सा संवाद भी संदेह और टूटन पैदा करता है। पक्ष को प्रेरित, प्रोत्साहित और जोड़कर रखें। उसके निजी सुख-दुख में साथ दिखें। संघर्ष अवश्यंभावी हुआ, तो वह आपके साथ दिखेगा। अंततः नदी भी निर्मल होगी और समाज भी। रचना उसका स्वभाव बन जायेगा और संघर्ष में सफलता हासिल लेना उसका संकल्प।

रचना: सातत्य की सारथी


ध्यान रखें कि प्रचार, सत्याग्रह यानी संघर्ष का पहला साथी है और जब तक कार्य पूर्ण न हो जाये, उससे पूर्व किया गया प्रचार रचना का पहला शत्रु। इसकी सावधानी बरतें। अक्सर कार्यकर्ता प्रचार मोह में इतना फंस जाते हैं कि कार्य शुरू बाद में होता है, रुकावटें उनका रास्ता रोककर पहले खड़ी हो जाती हैं। इसीलिए रचना के काम राजमार्ग के किनारे नहीं, पगडंडी के छोर पर करने चाहिए। बरगद अपने नीचे जल्दी किसी पौधे को पनपने नहीं देता और राजमहल अपने परिसर में उसकी इजाज़त के बगैर लगाये सुंदर से सुंदर फूल को भी अपनी अवमानना मानता है। अनुकूल अवसर का इंतजार करें। सातत्य खोयें नहीं। कोई करे न करे, हम अपना श्रमनिष्ठ काम करते रहें।

सामुदायिक स्तर पर सबसे पहले वह काम करें, जो अल्पकालिक हो, समुदाय ने खुद तय किया हो और उसे सीधे सकारात्मक लाभ देता हो। हो सकता है कि नदी प्रदूषण के कारण हैंडपम्प के पानी में चढ़ आई बदबू और फ्लोरोसिस का इलाज पहला काम बन जाये। हो सकता है कि नदी की बीमारी ने किसी गांव को बेरोजगार कर दिया हो, उसे रोज़गार देना पहली जरूरत हो। इस पहले काम को किसी भी हालत में असफल नहीं देना है। इसकी तैयारी चाकचौबंद रहे। इसके बाद हम देखेंगे कि काम का प्रवाह इतनी तेजी से बह निकलेगा कि उसे संभालने के लिए हमें कई ईमानदार हाथों को अपनी भूमिका में लाना पड़ेगा। फिर धारा स्वयमेव असल काम की ओर मुड़ जायेगी। सबसे ज्यादा कष्ट महसूस कर रही नदी किनारे की आबादी के क्षेत्र में तालाबों, बरसाती नालों, बागीचों, चारागाहों, वन आदि को ठीक ठाक करने में लगें। बरसाती नालों में आने वाले कचरे को नदी में आने से पहले ही रोक देने के लिए पत्थर आदि की सहायता से प्राकृतिक प्लांट लगा दें। बिना बिजली, बिना रसायन! सोख्ता पिट, गांव का ठोस कचरा, कम पानी और बिना रसायन की ज्यादा मुनाफ़े की जैविक खेती... तमाम काम इस रास्ते मे मददगार हो सकते हैं। यदि नदी गर्मियों में सूखी रहती है, तो नदी के भीतर मोड़ों पर कुण्ड बनाएं। नदी किनारे पर छोटी वनस्पति और पंचवटी के इतने बीज फेंके कि घोषित किए बगैर ही वह सघन हरित क्षेत्र में तब्दील हो जाये। ये हरियाली नीलगायों को बसेरा देकर हमारे खेतों में जाने से रोक देगी। कुण्डों में रुका पानी मवेशी पीयेंगे। बच्चे नदी में किलकिलारियां मारना सीख जायेंगे। नदी की उदासी मिटने लगेगी। अब नदी को दी दवाई असर करने लगेगी। जलकुंभी प्रमाण है कि नदी का पानी ठीक से चल नहीं रहा। उसे निकाल फेंकें। रुके पानी को चला दें। नदी के भीतर कचरा खाने वाले बड़े जीव और छोटे जीवाणुओं की लंबी सफाई फौज तैनात कर दें। नदियों में कॉलीफॉर्म का बढ़ता आंकड़ा कह रहा है कि मल नियंत्रण भी छोटी चुनौती नहीं।

सत्याग्रह: अंतिम साधना


सत्याग्रह का पहला और सबसे जरूरी काम है - सत्य का आग्रह करना। दूसरा काम है -जो कुछ पहले मौजूद है, उसमें से उचित प्रावधानों को निकालकर लागू करा देना। कृषि क्षेत्र भी नदी प्रदूषण का दोषी है। नदी किनारे के मठ-मंदिर और आश्रमों की ज़िम्मेदारी प्रेरक व नियंत्रक.. दोनों की है। वे अपनी ज़िम्मेदारी से चूक गये हैं। अतः उनसे स्वअनुशासन व ज़िम्मेदारी के निर्वाह का आग्रह करना ही होगा। अब मूर्ति विसर्जन से नदी खुश नहीं है। यह सत्य को कहना ही पड़ेगा। नगरपालिका और उद्योगों को भी नदी का दुश्मन मानकर हम उनसे बात करने से भी परहेज करते हैं। भूल जाते हैं कि बात करने से बात बनती है। समझें कि इनकी समस्या क्या है? हो सकता है कि लाभ के साथ शुभ का कोई संयोग बैठ जाये। हो सकता है कि हम उन्हे कोई समाधान दे सकें; वरना अंतिम समाधान तो है ही: उद्योग, मल और शोषक नदी से दूर जायें तथा रसायन खेती से।मनरेगा के तहत तालाबों के पुनरोद्धार पर कई अरब रुपया सिर्फ उचित जगह और उचित डिज़ाइन के अभाव में बेनतीजा साबित हुआ है। यह न होने दें। सही डिज़ाइन और सही जगह के चुनाव में सहयोग करें। प्रधानों को नदी प्रदूषण मुक्ति के काम में लगाने की उ.प्र. शासन की एक अच्छी योजना है। पिछले 15 वर्ष के दौरान भूजल संचयन को लेकर कितने ही शासनादेश जारी हुए हैं। सपा के पिछले शासनकाल के दौरान जारी तालाबों की कब्ज़ा मुक्ति और प्राकृतिक स्वरूप में लौटाने की कितनी शानदार अधिसूचना है! राष्ट्रीय हरित ट्रिब्युनल ने बिल्डरों द्वारा की जा रही भूजलनिकासी को नियंत्रित करने और यमुना में ठोस कचरा डंप होने पर लगाम लगाने को लेकर अच्छे फैसले दिए हैं। कभी इन सब को तलाशकर लागू करा दें। बस! आप देखेंगे कि यहीं से नदी की निर्मल कथा लिखने और बांचने...दोनों का काम स्वतः फैल जायेगा। क्या हम करेंगे?