हाहाकार में न बदल जाए पानी का शोर

Submitted by admin on Thu, 03/24/2011 - 17:14
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डेली न्यूज एक्टिविस्ट

सन् 2020 तक जिस भारत को हम विकसित राष्ट्र की श्रेणी में देखना चाहते हैं, पानी के हाहाकार के आगे वह भी महज एक संकल्प के सिवा और कुछ नहीं रह जाएगा। भारत की जल नीति कैसे अपने वास्तविक जल संरक्षण के लिए काम करके भारत को चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम बना सके, इस पर आज शायद सबसे ज्यादा सोचने की जरूरत है। शहरी जल संकट को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि हम शहरी जल नीति तैयार करके स्वस्थ भारत का निर्माण करें, यही आज की मांग है। समझना होगा कि जल ही भारत का भविष्य है, बशर्ते वह सुरक्षित और संरक्षित रहे..

सन् 2020 तक जिस भारत को हम विकसित राष्ट्र की श्रेणी में देखना चाहते हैं, पानी के हाहाकार के आगे वह भी महज एक संकल्प के सिवा और कुछ नहीं रह जाएगा। भारत की जल नीति कैसे अपने वास्तविक जल संरक्षण के लिए काम करके भारत को चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम बना सके, इस पर आज शायद सबसे ज्यादा सोचने की जरूरत है। शहरी जल संकट को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि हम शहरी जल नीति तैयार करके स्वस्थ भारत का निर्माण करें, यही आज की मांग है। समझना होगा कि जल ही भारत का भविष्य है, बशर्ते वह सुरक्षित और संरक्षित रहे..युक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने इस बार जल दिवस के एक संदेश में कहा था कि विश्व को पानी के लिए संघर्ष करने का यह चुनौतीपूर्ण समय है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न ही गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुद्ध पानी तक पहुंच और सैनिटेशन यानी साफ-सफाई संबंधी सहdाब्दि विकास लक्ष्य तक पहुंचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं। बान की मून की यह विश्व व्यापी चिंता जरूर सोचने के लिए बाध्य करती है। फिलहाल, पानी बचाने की मुहिम भारत में तेज हो रही है। अब लगभग एक शोर हर राज्य से आने लगा है कि पानी को कैसे संरक्षित किया जाए। शहरीकरण जब से बेतहाशा बढ़ा है और झुग्गी-झोपड़ियां बढ़ने लगी हैं तो यह चिंता और बढ़ गई है। यह जो कचरे में इजाफा हो रहा है, वह सरकार और शहरी आबादी के लिए चिंताजनक है। विश्व में लगभग 12 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास पानी का एक नल नहीं है। साफ-सफाई से वंचित लोग लगभग 50 लाख हैं। सोचिए कि इनके भविष्य और जीवनचर्या का क्या होगा? जल प्रबंधन की चुनौती झेलते हमारे शहर और शहरी आबादी को पानी के अभाव में थोक की बीमारियां जो मिलने वाली हैं, वह अलग है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों के उच्चायोग ने पानी को सबके मानवाधिकार के रूप में बताया है। जबकि विश्व में साढ़े छह अरब की आबादी के मानवाधिकार के रूप में चिन्हित पानी की दशा यह है कि वह खुद सबके मानवाधिकार का हिस्सा नहीं बन सकता।

इस बाबत नारे और प्रसंविदाएं इसीलिए हमारे जीवन का अंग नहीं बन पाती हैं, क्योंकि हम जिस उत्सुकता और गर्मजोशी से इन्हें पास करते हैं, उतनी ही जागरूकता से लागू करने में हम पीछे रह जाते हैं। खुद भारत में पानी को लेकर जो बहस है, वह कागजों पर ज्यादा है। कुछेक राज्य अगर जागरूक होकर अपने मिशन में जुट भी गए हों तो लगभग सवा अरब की भारतीय आबादी का कल्याण कैसे हो सकेगा। यमुना और गंगा का पानी आस्था के स्तर पर उन्हीं लोगों के लिए पवित्र है, जो गंगा और यमुना को पूज्य देवीमाता के रूप में जानते हैं। ये इतने भोले और सहज लोग हैं कि इन्हें यह नहीं पता है कि हमारी गंगा और यमुना को कितने कचरों से प्रदूषित किया जा चुका है। यमुना की हकीकत दिल्ली के लोग जानते हैं और कानपुर के लोग गंगा के बारे में जानते हैं। इन शहरों के लोग किसी मंगल पर्व पर इन नदियों में स्नान नहीं करना चाहते, क्योंकि उन्हें पता है कि ये अब न तो नहाने लायक बची हैं और न पवित्र करने लायक। भारत सरकार एक राज्य के रूप में पानी जैसे मानवाधिकार को कैसे आम नागरिक का हिस्सा बना सकेगी, यह वास्तव में एक बड़ी चुनौती है। चुनौती इसलिए, क्योंकि सरकार के पास न तो प्रभावकारी नीति है और न ही केंद्र व राज्यों के पास ऐसा तंत्र जो जल संरक्षण के लिए बनी नीतियांे को जल्दी से जल्दी लागू कर सके। इस प्रकार एक संजाल में फंसी हमारी जल नीति जो सबके जीवन से जुड़ी है, इस पाले से उस पाले तक खेल की तरह खेली जा रही है। यों तो पारम्परिक रूप से जल संरक्षण की बात भारत में बहुत पुरानी है। लेकिन जब से पानी सर्व सुलभ हुआ और लोग अपने निजी जीवन में उपभोगवादी बनने लगे, तब से जल और इसके विविध dोतों के प्रति लोगों का तौर-तरीका बिल्कुल ही बदलता चला गया है। किसान भी अब जिस तरह से पहले अपने खेत-खलिहान और पारंपरिकता को जीता था उससे अलग हो गया। आज हालत यह है कि शहर सोच रहा है गांव जल बचाएंगे और गांव सोच रहा है कि शहर से जल बचाया जाएगा, लेकिन शहर प्लास्टिक ऑफ द वाटर का शिकार हो गया है। उधर गांवों के लिए निगमीकरण के खिलाड़ी आस लगाए बैठे हैं कि कभी ऐसा वक्त जरूर आएगा, जब निजीकरण के नाम पर हमें गांव में पानी बेचने के लिए दे दिया जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के उच्चायोग और दुनिया के देश इस फिराक में हैं कि कन्वेंशन में प्रस्ताव पास करके हम जल क्रांति ला देंगे तो यह कोरी कल्पना है। रियो-डि-जेनरो में 2012 का सम्मेलन पानी को केंद्र में रखकर किया जाना है। इसके लिए तैयारियां जोरों से चल रही हैं, लेकिन पानी क्या वास्तव में बचाया जाएगा, यह कहना मुश्किल है। यूएन-वाटर पैनल जहां टिकाऊ जल प्रविधि के लिए कार्य कर रहा है, वहीं भारत सरकार के पास ऐसी एक भी टिकाऊ जल नीति के लिए कोई कमेटी नहीं बनाई गई है। यही हाल रहा तो गरीबी, असमानता और बेरोजगारी दूर करने के लिए व्यापक योजनाएं क्रियान्वित करने की मंशा रखने वाली सरकार आनेवाले दिनों में केवल पानी के मुद्दे पर सिमट कर रह जाएगी। सन् 2020 तक जिस भारत को हम विकसित राष्ट्र की श्रेणी में देखना चाहते हैं, पानी के हाहाकार के आगे वह भी महज एक संकल्प के सिवा और कुछ नहीं रह जाएगा। भारत की जल नीति कैसे अपने वास्तविक जल संरक्षण के लिए काम करके भारत को चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम बना सके, इस पर आज शायद सबसे ज्यादा सोचने की जरूरत है। शहरी जल संकट को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि हम शहरी जल नीति तैयार करके स्वस्थ भारत का निर्माण करें, यही आज की मांग है। समझना होगा कि जल ही भारत का भविष्य है, बशर्ते वह सुरक्षित और संरक्षित रहे।