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दैनिक जागरण, 15 फरवरी, 2018
सबसे पहले पेड़ों की अवैध कटाई करने वालों को रोका गया। प्रशासन और वन विभाग के जरिए कार्रवाई करवाई गई। रात के अंधेरे में कटाई न हो सके लिहाजा जंगल में ऊँचे पेड़ पर मचान बनाया गया, ताकि निगरानी हो सके। बीहड़ में जंगल तैयार हो सके, इसके लिये पानी सहेजा गया। ग्रामीणों ने भी इस काम में हाथ बँटाना शुरू किया। बीहड़ के 10 बड़े नालों को चिन्हित किया गया। इसके बाद यहाँ मिट्टी और बजरी की मोटी दीवारें बनाकर बंधान बनाए गए।
उत्तरी मध्य प्रदेश में चम्बल किनारे का यह बीहड़ कभी खतरनाक दस्युओं की पनाहगाह हुआ करता था। चम्बल नदी के डूब क्षेत्र में आने के कारण यहाँ दूर-दूर तक बस रेत के खोखले टीले और मौसमी झाड़ियाँ ही नजर आती हैं। आबादी के इर्द-गिर्द ही कुछ छोटे जंगल अस्तित्व में बचा पाते हैं। यदि ये जंगल भी न हों तो ग्रामीणों की कृषि योग्य भूमि बीहड़ में तब्दील हो जाती है। कटाव के कारण हर साल उपजाऊ भूमि बीहड़ की जद में आ जाती है। जिसे रोकना चुनौतीपूर्ण रहा है।पुरावसकलां गाँव के साथ भी ऐसा ही हुआ। गाँव के पास 40 बीघे में फैला एक जंगल हुआ करता था। मुरैना जिले के अंबाह ब्लॉक में ब्लॉक में आने वाले इस गाँव का वह जंगल अवैध कटाई की भेंट चढ़ गया था, जिसके बाद बीहड़ इस गाँव की दहलीज तक आ पहुँचा। सात साल की कोशिश के बाद गाँव वाले बीहड़ को खदेड़ने और जंगल को वापस लाने में कामयाब रहे। अब वे दोबारा इसे नहीं खोना चाहते।
बदल गई तस्वीर
तस्वीर बदलने में समय जरूर लगा, लेकिन बदल गई। एक तस्वीर सात साल पुरानी है, जिसमें बीहड़ और पेड़ों के कटने के बाद बचे ठूँठ ही नजर आ रहे हैं। दूसरी तस्वीर नई है, जिसमें उसी जगह पर जंगल दिख रहा है। पहली तस्वीर तब बनी जब अज्ञानता के चलते लोगों ने छोटे फायदे के लिये गाँव के जंगल काट दिये। दूसरी तस्वीर, अब बनी है, जब पानी रोककर, पौधरोपण कर, जंगल पर पहरा बैठाकर ग्रामीणों ने बीहड़ को फिर हरा-भरा कर दिया।
जब भुगता परिणाम तब चेते
साल 2010 तक पुरावसकलां गाँव के पास करीब 30 से 40 बीघा जमीन पर फैले बीहड़ के जंगल को ग्रामीणों ने ईंधन और आरा मशीन की जरूरत के लिये काटकर साफ कर दिया। गिने-चुने दरख्त ही बाकी थे। इसमें एक प्राचीन छैंकुर (एक कंटीला जंगली पौधा) भी शामिल था, जिससे लोगों की आस्था जुड़ी हुई थी।
अकेले बचे छैंकुर को देखकर गाँव के एक शिक्षक ब्रजकिशोर तोमर को लगा कि प्रकृति गाँव से मुँह मोड़ रही है। हुआ भी कुछ ऐसा ही। बारिश की वजह से मिट्टी बहती रही और कटाव से गाँव की उपजाऊ जमीन भी बीहड़ में तब्दील हो गई। तोमर ने इस तबाही का अन्त करने की ठानी। अपने मित्र चिम्मन सिंह और अनिल सिंह के साथ मिलकर शुरुआत की।
ऐसे लौटा लाये हरियाली
सबसे पहले पेड़ों की अवैध कटाई करने वालों को रोका गया। प्रशासन और वन विभाग के जरिए कार्रवाई करवाई गई। रात के अंधेरे में कटाई न हो सके लिहाजा जंगल में ऊँचे पेड़ पर मचान बनाया गया, ताकि निगरानी हो सके। बीहड़ में जंगल तैयार हो सके, इसके लिये पानी सहेजा गया। ग्रामीणों ने भी इस काम में हाथ बँटाना शुरू किया। बीहड़ के 10 बड़े नालों को चिन्हित किया गया। इसके बाद यहाँ मिट्टी और बजरी की मोटी दीवारें बनाकर बंधान बनाए गए।
ये हुआ फायदा
पहले जहाँ इस 40 बीघा जमीन पर गिनती के पेड़ बचे रह गए थे। वहीं अब यहाँ प्रति बीघा 15 से 20 पेड़ हैं, जो मिट्टी को जकड़े हुए हैं। यहाँ मिट्टी को जकड़े रखने वाले देशी बबूल, कम पानी उपयोग करने वाले शीशम और नीम लगाए गए हैं। बारिश का पानी बंधानों से रुक जाता है, जिससे मिट्टी बह नहीं पाती। इस रुके हुए पानी से आस-पास का जलस्तर भी बढ़ा है और पशुओं के लिये पर्याप्त पानी भी गर्मी आने तक यहाँ बना रहता है।
विशेषज्ञों ने भी की तारीफ
पर्यावरण सम्बन्धी विषयों के जानकार सोपान जोशी साल 2016 में पुरावसकलां में हुए प्रयोग को देखने आये। जोशी कहते हैं कि सरकारें बीहड़ नियंत्रण के लिये बहुत प्रयास कर चुकीं, लेकिन नतीजा नहीं निकला। जोशी के मुताबिक पुरावसकलां के ग्रामीणों ने पानी रोकने और बीहड़ को हरा-भरा करने का सफल प्रयोग अपने स्तर पर किया है। जो सराहनीय है। ग्रामीण ओमकार सिंह कहते हैं कि बीहड़ बढ़ने की रफ्तार में पिछले दो सालों में कमी दिखी है। गाँव के मोहन सिंह, रामवीर सिंह कहते हैं कि इस बदलाव के बारे में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था।