लेखक
जहाँ आज हमें पुनर्भरण बढ़ाने की जरूरत है वहाँ उसे घटाने का काम कर रहे हैं। हमारे पास जल संसाधन सीमित है। देश की ज़मीन पर प्रकृति हमें 4000 घन किलोमीटर पानी देती है। यह पानी वर्षा और हिमपात के रूप में होता है। इस 4000 घन किलोमीटर (4000 अरब घन मीटर या 4000 बीसीएम) पानी में से 20 फीसद से ज्यादा भाप बनकर उड़ जाता है। पचास से 60 फीसद पानी बाँधों, तालाबों, खेतों और कच्ची ज़मीन से रिसकर ज़मीन में चला जाता है। विश्व के सभी देश जल संकट से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक रूप से जल विपन्न देशों के सामने यह संकट सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। भारतवर्ष भी तेजी से बढ़ी अपनी जनसंख्या के कारण अब जल विपन्न देशों की श्रेणी में है। साल-दर-साल जल प्रबन्धन करते हुए हम जैसे-तैसे काम चला रहे हैं। सिर्फ आज की स्थिति देखें तो हालात इतने डरावने हैं कि कल के इन्तज़ाम के लिये विशेषज्ञों को कोई भी विश्वसनीय और वैध उपाय सूझ नहीं रहा है।
इतनी भयावह स्थिति है कि ज़मीन के भीतर का पानी यानी भूजल ऊपर खींचकर काम चलाना पड़ रहा है। भूजल की स्थिति यह है कि पूरे देश में भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। हालांकि 80 और 90 के दशक में जल विज्ञानियों ने इस मामले में हमें आगाह किया था। इसके पहले सत्तर के दशक में तत्कालीन सरकार ने पूर्व सक्रियता दिखाते हुए भूजल प्रबन्धन के लिये केन्द्रीय भूजल बोर्ड के रूप में नियामक संस्था बना ली थी। तब की सरकार की चिन्ताशीलता का एक सबूत यह भी है कि 80 के दशक के मध्य में इनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट बना लिया गया।
इसके बाद 90 के दशक में केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की स्थापना कर दी गई और भूजल प्रबन्धन के काम ने रफ्तार पकड़ ली। हाल के वर्षों में भूजल को गम्भीरता से लेने का एक और सबूत 2007 में पेश भूजल प्रबन्धन पर विशेषज्ञ समूह की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट है जिसमें देश में भूजल की स्थिति की साफ तस्वीर है और वे संकेत हैं कि इस मामले में सरकार को क्या-क्या करने की जरूरत है।
हालांकि 128 करोड़ आबादी और संघीय ढाँचे वाले देश में जहाँ पानी का मसला राज्य का विषय बताया जाता रहा हो वहाँ केन्द्रीय नियामक संस्था ज्यादा कर भी क्या सकती थी। यह जटिल विषय है। फिर भी वस्तुस्थिति के आकलन और महत्त्वपूर्ण तथ्यों के संकलन में केन्द्रीय भूजल संस्थाओं ने वाकई बड़ी मेहनत की। पानी के इन्तज़ाम के मामले में आगे के सोच विचार के लिये उनके अध्ययन से जुटाए गए आँकड़े ही आज हमें कुछ उपाय सोच सकने लायक बनाए हैं। वरना मौजूदा हालात पर अगर आज से वस्तुस्थिति के अध्ययन के काम पर लगते तो कम से कम पाँच साल इसी काम पर खर्च हो जाते।
देश के जल संकट पर आज बात करते समय हमें यह भी याद करना चाहिए कि अस्सी के दशक में जब जल संकट की बातें उठती थीं तब वे स्थानीय स्तर के संकट तक सीमित थीं। स्वाभाविक रूप से तब देश में कुल जल उपलब्धता यानी बारिश से मिले कुल पानी की उपलब्धता को भी देखा जाता था और कहा जाता था कि इसी तरह सोचते और करते रहे तो सन् 2020 तक और अगर बहुत बुद्धिमानी से काम किया गया तो भी 2050 तक हालात बेकाबू हो जाएँगे।
बहरहाल तब से आज तक यानी पिछले 35 साल में फुटकर-फुटकर जल प्रबन्धन करते हुए हम गुजारा कर रहे हैं। लेकिन पूर्वानुमान के आधार पर सन् 2020 की स्थिति का जो अनुमान हमने लगाया था वह समय लगभग आ गया है। यही कारण है कि पूरे देश में पानी को लेकर हाहाकार की खबरें शुरू हो गई हैं। भूजल का स्तर भयावह रूप से नीचे उतर रहा है। ये खबरें 1980 के दशक की खबरों से अलग हैं। अलग इस तरह हैं कि 1980 के दशक में भूजल की स्थिति इतनी भयावह नहीं थी।
भूजल भण्डार के सहारे हमें साल-दर-साल पानी की बढ़ती जरूरत तीव्रता से महसूस नही हुई। हालांकि पीने के लिये या सिंचाई के लिये भूजल की बढ़ती निर्भरता के कारण यह जरूर हुआ कि ज़मीन के नीचे से पानी खींचने के लिये बिजली की किल्लत को लेकर हाहाकार मचने लगा। किसी तरह उससे भी पार पाया जाता रहा और पानी को ज़मीन के नीचे से खींचा जाता रहा। लेकिन बिलकुल नई समस्या यह है कि भूजल स्तर नीचे खिसकते रहने से अब कुओं/बोरवेल/टयूबवेल गहरा करने की जरूरत पड़ने लगी।
ज्यादातर किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग के लोगों की स्थिति ऐसी नहीं है कि यह खर्चा उठा सकें। और इधर भूजल के गिरते जलस्तर के कारण भूजल पर कानूनी अधिकार का मसला अलग है। बत्तीस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले देश में इस काम के लिये सरकारी स्तर पर ही कुछ किए जाने का विकल्प बचता है।
हमें भूजल दोहन की सीमा का पता चल गया है। इस तथ्य से भी हम परिचित हो गए हैं कि भूजल के प्राकृतिक पुनर्भरण की एक सीमा है। यदि पुनर्भरण बढ़ाना है तो वर्षाजल से भूजल स्तर को बनाए रखने के लिये कृत्रिम उपाय करने ही होंगे। ये अप्राकृतिक उपाय इसलिये करने होंगे क्योंकि भूजल का अति दोहन भी तो हम कृत्रिम उपायों से ही कर रहे हैं।
इतना ही नहीं हम शहरीकरण और विकास की अति वासना में भूजल के पुनर्भरण की प्राकृतिक स्थितियों को बदलकर यानी मिट्टी की सतह वाली ज़मीन को तारकोल की सड़कों, कारखानों और रिहायशी इमारतों से ढँकते जा रहे हैं। यानी जहाँ आज हमें पुनर्भरण बढ़ाने की जरूरत है वहाँ उसे घटाने का काम कर रहे हैं।
हमारे पास जल संसाधन सीमित है। देश की ज़मीन पर प्रकृति हमें 4000 घन किलोमीटर पानी देती है। यह पानी वर्षा और हिमपात के रूप में होता है। इस 4000 घन किलोमीटर (4000 अरब घन मीटर या 4000 बीसीएम) पानी में से 20 फीसद से ज्यादा भाप बनकर उड़ जाता है। पचास से 60 फीसद पानी बाँधों, तालाबों, खेतों और कच्ची ज़मीन से रिसकर ज़मीन में चला जाता है।
इसे ही हम भूजल भण्डार का पुनर्भरण कहते हैं और बारिश के दिनों में अपनी मौजूदा क्षमता के मुताबिक बाँधों, तालाबों और जलाशयों में हम सिर्फ 10 से 12 फीसद पानी ही रोक कर रख पाते हैं। मोटा अनुमान है कि बारिश के पानी का 15 से 20 फीसद पानी मानसून के दिनों में बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला जाता हैै। इसी सतही जल को रोककर रखने के लिये पिछले 60 साल से हम नए-नए बाँध बनाने के लिये एड़ी से चोटी का दम लगा रहे हैं। नही बढ़ा पाए।
उधर बाँधों के बनने से विस्थापन और पेड़-पौधे खत्म होने के खिलाफ जन आन्दोलनों के कारण बाँध परियोजनाएँ क्रियान्वित करना भी सरकारों के लिये उतना आसान नहीं रहा। पिछले कुछ साल अविरल धारा और निर्मल धारा के नाम पर बाँधों का विरोध होता रहा। इस माहौल में अब नए बाँधों की बातें और माँग उठना भी कम हो गया। जबकि बढ़ती जनसंख्या के लिये अतिरिक्त अनाज और पीने, नहाने, धोने और दूसरे निस्तार के लिये पानी की जरूरत दिन-पर-दिन बढ़ रही है।
जाहिर है इसे पूरा करने के लिये एक ही विकल्प हो सकता था वह था भूजल। इस सदी का दूसरा दशक आते-आते बल्कि यूँ कहें कि आज 2015 तक की स्थिति यह बन गई है कि हम ग्रामीण क्षेत्रों में 90 फीसद और शहरी इलाकों में 55 फीसद पानी की आपूर्ति भूजल से ही ले रहे हैं।
भूजल के इस अति दोहन का स्तर यह है कि हम 300 से 350 घन किलोमीटर पानी ज़मीन से उलीचकर इस्तेमाल कर रहे हैं। आज बारिश का पानी भूजल का जितना पुनर्भरण कर रहा है उसकी मात्रा 200 से 250 घन किलोमीटर से ज्यादा नही है। यानी भूजल का इस्तेमाल पुनर्भरण से कहीं ज्यादा है। यही बात चिन्ता का मुख्य विषय है। एक बार फिर दोहराया जा सकता है कि भूजल स्तर गिरने का कारण यही है और यह प्रवृत्ति दिन प्रतिदिन आधार पर बढ़ रही है।
केन्द्रीय भूजल बोर्ड के बिलकुल नए आँकड़े तो उपलब्ध नहीं है लेकिन 2007 में पेश विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट को आधार मानें तो पिछले 8 साल में भूजल का इस्तेमाल बढ़ते रहने के आधार पर हम कह सकते हैं कि अगले साल ही यानी 2016 की गर्मियों में खासकर 2016 के जून के पहले हफ्ते में देश के ज्यादातर हिस्सों में पानी को लेकर हाहाकार की सनसनीखेज खबरें सुनने को मिल सकती हैं।
अगले साल जून के पहले दो हफ्तों में जल संकट का विश्लेषण करते समय देश में सूखा पड़ने की बातें कही जा रही होंगी। लेकिन क्या उसे सूखे की परिभाषा के लिहाज से सूखा कह पाएँगे? क्या वह स्थिति प्राकृतिक आपदा कही जा सकेगी? आपदा का एक लक्षण उसका आकस्मिक होना होता है। जबकि कोई भी जल विज्ञानी उसका पूर्वानुमान सरलता से लगा सकता है।
रही बात यह कि शासन, प्रशासन या प्रौद्योगविद इन परिस्थितियों के बारे में जोर देकर क्यों नहीं कहते? दरअसल उनकी सीमा यह है कि इस समस्या का कोई सुसाध्य या व्यवहारिक समाधान तात्कालिक तौर पर उनके पास फिलहाल नहीं है। जाँच पड़ताल करने के काम में लगें तो अल्पकालिक और दीर्घकालिक उपाय एक साथ करने की बात आएगी।
तब हमें मानना पड़ता है कि पिछले 40 साल से हम जो कुछ कहते और करते आए हैं वह अपनी क्षमता के मुताबिक पूरी ताकत और पूरी सामर्थ्य से करते आए हैं। हाँ यह बात अलग है कि कोई क्रान्तिकारी कदम उठाया जा सकता था। अपने औद्योगिक विकास, रहन-सहन के स्तर को ऊपर उठाने वाले काम यानी दूसरे प्रकार की सुख समृद्धि बढ़ाने वाले काम छोड़कर जल प्रबन्ध के काम पर हम लग सकते थे। लेकिन उस स्थिति में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के संचालकों को जन समर्थन मिलना शायद बड़ा मुश्किल होता। हो सकता कि उस समय की उन अनागत विकट परिस्थितियों को यह कहकर छोड़ा गया हो कि- ‘आगे की आगे देखेंगे।’
लेकिन तबका वह ‘आगा’ अब हमारे सामने है। क्योंकि पूरा अन्देशा है कि अगले साल या एक दो साल के भीतर ही देश के गाँव खेत के लिये पानी माँग रहे होंगे। शहर पीने और नहाने, धोने के लिये अतिरिक्त पानी की माँग कर रहे होंगे। महानगरों खासतौर पर दिल्ली में पानी पर ही आक्रामक राजनीति हो रही होगी। बहुत सम्भव है कि पानी की कमी के कारण अनाज उत्पादन घटने की सनसनीखेज ख़बरें आ रही होंगी। स्वभावतः जल प्रबन्धन की प्राथमिकता के लिये जन आकांक्षा के प्रदर्शन का नया रूप हमें दिख सकता है।
बहुत सम्भव है कि हमें एक दो साल के भीतर ही अपनी विकास दर या आर्थिक वृद्धि दर या स्मार्ट सिटी जैसी बातें छोड़कर सबसे पहले पानी के इन्तज़ाम पर लगना पड़े। वरना कहीं ऐसा ना हो कि हजार दो हजार साल बाद इतिहास पढ़ाते समय यह पढ़ाया जाए कि 21वीं सदी में भारतवर्ष अपने लिये पानी तक का इन्तज़ाम नहीं कर पाया।
इतनी भयावह स्थिति है कि ज़मीन के भीतर का पानी यानी भूजल ऊपर खींचकर काम चलाना पड़ रहा है। भूजल की स्थिति यह है कि पूरे देश में भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। हालांकि 80 और 90 के दशक में जल विज्ञानियों ने इस मामले में हमें आगाह किया था। इसके पहले सत्तर के दशक में तत्कालीन सरकार ने पूर्व सक्रियता दिखाते हुए भूजल प्रबन्धन के लिये केन्द्रीय भूजल बोर्ड के रूप में नियामक संस्था बना ली थी। तब की सरकार की चिन्ताशीलता का एक सबूत यह भी है कि 80 के दशक के मध्य में इनवायरनमेंट प्रोटेक्शन एक्ट बना लिया गया।
इसके बाद 90 के दशक में केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण की स्थापना कर दी गई और भूजल प्रबन्धन के काम ने रफ्तार पकड़ ली। हाल के वर्षों में भूजल को गम्भीरता से लेने का एक और सबूत 2007 में पेश भूजल प्रबन्धन पर विशेषज्ञ समूह की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट है जिसमें देश में भूजल की स्थिति की साफ तस्वीर है और वे संकेत हैं कि इस मामले में सरकार को क्या-क्या करने की जरूरत है।
हालांकि 128 करोड़ आबादी और संघीय ढाँचे वाले देश में जहाँ पानी का मसला राज्य का विषय बताया जाता रहा हो वहाँ केन्द्रीय नियामक संस्था ज्यादा कर भी क्या सकती थी। यह जटिल विषय है। फिर भी वस्तुस्थिति के आकलन और महत्त्वपूर्ण तथ्यों के संकलन में केन्द्रीय भूजल संस्थाओं ने वाकई बड़ी मेहनत की। पानी के इन्तज़ाम के मामले में आगे के सोच विचार के लिये उनके अध्ययन से जुटाए गए आँकड़े ही आज हमें कुछ उपाय सोच सकने लायक बनाए हैं। वरना मौजूदा हालात पर अगर आज से वस्तुस्थिति के अध्ययन के काम पर लगते तो कम से कम पाँच साल इसी काम पर खर्च हो जाते।
देश के जल संकट पर आज बात करते समय हमें यह भी याद करना चाहिए कि अस्सी के दशक में जब जल संकट की बातें उठती थीं तब वे स्थानीय स्तर के संकट तक सीमित थीं। स्वाभाविक रूप से तब देश में कुल जल उपलब्धता यानी बारिश से मिले कुल पानी की उपलब्धता को भी देखा जाता था और कहा जाता था कि इसी तरह सोचते और करते रहे तो सन् 2020 तक और अगर बहुत बुद्धिमानी से काम किया गया तो भी 2050 तक हालात बेकाबू हो जाएँगे।
बहरहाल तब से आज तक यानी पिछले 35 साल में फुटकर-फुटकर जल प्रबन्धन करते हुए हम गुजारा कर रहे हैं। लेकिन पूर्वानुमान के आधार पर सन् 2020 की स्थिति का जो अनुमान हमने लगाया था वह समय लगभग आ गया है। यही कारण है कि पूरे देश में पानी को लेकर हाहाकार की खबरें शुरू हो गई हैं। भूजल का स्तर भयावह रूप से नीचे उतर रहा है। ये खबरें 1980 के दशक की खबरों से अलग हैं। अलग इस तरह हैं कि 1980 के दशक में भूजल की स्थिति इतनी भयावह नहीं थी।
भूजल भण्डार के सहारे हमें साल-दर-साल पानी की बढ़ती जरूरत तीव्रता से महसूस नही हुई। हालांकि पीने के लिये या सिंचाई के लिये भूजल की बढ़ती निर्भरता के कारण यह जरूर हुआ कि ज़मीन के नीचे से पानी खींचने के लिये बिजली की किल्लत को लेकर हाहाकार मचने लगा। किसी तरह उससे भी पार पाया जाता रहा और पानी को ज़मीन के नीचे से खींचा जाता रहा। लेकिन बिलकुल नई समस्या यह है कि भूजल स्तर नीचे खिसकते रहने से अब कुओं/बोरवेल/टयूबवेल गहरा करने की जरूरत पड़ने लगी।
ज्यादातर किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग के लोगों की स्थिति ऐसी नहीं है कि यह खर्चा उठा सकें। और इधर भूजल के गिरते जलस्तर के कारण भूजल पर कानूनी अधिकार का मसला अलग है। बत्तीस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले देश में इस काम के लिये सरकारी स्तर पर ही कुछ किए जाने का विकल्प बचता है।
हमें भूजल दोहन की सीमा का पता चल गया है। इस तथ्य से भी हम परिचित हो गए हैं कि भूजल के प्राकृतिक पुनर्भरण की एक सीमा है। यदि पुनर्भरण बढ़ाना है तो वर्षाजल से भूजल स्तर को बनाए रखने के लिये कृत्रिम उपाय करने ही होंगे। ये अप्राकृतिक उपाय इसलिये करने होंगे क्योंकि भूजल का अति दोहन भी तो हम कृत्रिम उपायों से ही कर रहे हैं।
इतना ही नहीं हम शहरीकरण और विकास की अति वासना में भूजल के पुनर्भरण की प्राकृतिक स्थितियों को बदलकर यानी मिट्टी की सतह वाली ज़मीन को तारकोल की सड़कों, कारखानों और रिहायशी इमारतों से ढँकते जा रहे हैं। यानी जहाँ आज हमें पुनर्भरण बढ़ाने की जरूरत है वहाँ उसे घटाने का काम कर रहे हैं।
हमारे पास जल संसाधन सीमित है। देश की ज़मीन पर प्रकृति हमें 4000 घन किलोमीटर पानी देती है। यह पानी वर्षा और हिमपात के रूप में होता है। इस 4000 घन किलोमीटर (4000 अरब घन मीटर या 4000 बीसीएम) पानी में से 20 फीसद से ज्यादा भाप बनकर उड़ जाता है। पचास से 60 फीसद पानी बाँधों, तालाबों, खेतों और कच्ची ज़मीन से रिसकर ज़मीन में चला जाता है।
इसे ही हम भूजल भण्डार का पुनर्भरण कहते हैं और बारिश के दिनों में अपनी मौजूदा क्षमता के मुताबिक बाँधों, तालाबों और जलाशयों में हम सिर्फ 10 से 12 फीसद पानी ही रोक कर रख पाते हैं। मोटा अनुमान है कि बारिश के पानी का 15 से 20 फीसद पानी मानसून के दिनों में बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला जाता हैै। इसी सतही जल को रोककर रखने के लिये पिछले 60 साल से हम नए-नए बाँध बनाने के लिये एड़ी से चोटी का दम लगा रहे हैं। नही बढ़ा पाए।
उधर बाँधों के बनने से विस्थापन और पेड़-पौधे खत्म होने के खिलाफ जन आन्दोलनों के कारण बाँध परियोजनाएँ क्रियान्वित करना भी सरकारों के लिये उतना आसान नहीं रहा। पिछले कुछ साल अविरल धारा और निर्मल धारा के नाम पर बाँधों का विरोध होता रहा। इस माहौल में अब नए बाँधों की बातें और माँग उठना भी कम हो गया। जबकि बढ़ती जनसंख्या के लिये अतिरिक्त अनाज और पीने, नहाने, धोने और दूसरे निस्तार के लिये पानी की जरूरत दिन-पर-दिन बढ़ रही है।
जाहिर है इसे पूरा करने के लिये एक ही विकल्प हो सकता था वह था भूजल। इस सदी का दूसरा दशक आते-आते बल्कि यूँ कहें कि आज 2015 तक की स्थिति यह बन गई है कि हम ग्रामीण क्षेत्रों में 90 फीसद और शहरी इलाकों में 55 फीसद पानी की आपूर्ति भूजल से ही ले रहे हैं।
भूजल के इस अति दोहन का स्तर यह है कि हम 300 से 350 घन किलोमीटर पानी ज़मीन से उलीचकर इस्तेमाल कर रहे हैं। आज बारिश का पानी भूजल का जितना पुनर्भरण कर रहा है उसकी मात्रा 200 से 250 घन किलोमीटर से ज्यादा नही है। यानी भूजल का इस्तेमाल पुनर्भरण से कहीं ज्यादा है। यही बात चिन्ता का मुख्य विषय है। एक बार फिर दोहराया जा सकता है कि भूजल स्तर गिरने का कारण यही है और यह प्रवृत्ति दिन प्रतिदिन आधार पर बढ़ रही है।
केन्द्रीय भूजल बोर्ड के बिलकुल नए आँकड़े तो उपलब्ध नहीं है लेकिन 2007 में पेश विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट को आधार मानें तो पिछले 8 साल में भूजल का इस्तेमाल बढ़ते रहने के आधार पर हम कह सकते हैं कि अगले साल ही यानी 2016 की गर्मियों में खासकर 2016 के जून के पहले हफ्ते में देश के ज्यादातर हिस्सों में पानी को लेकर हाहाकार की सनसनीखेज खबरें सुनने को मिल सकती हैं।
अगले साल जून के पहले दो हफ्तों में जल संकट का विश्लेषण करते समय देश में सूखा पड़ने की बातें कही जा रही होंगी। लेकिन क्या उसे सूखे की परिभाषा के लिहाज से सूखा कह पाएँगे? क्या वह स्थिति प्राकृतिक आपदा कही जा सकेगी? आपदा का एक लक्षण उसका आकस्मिक होना होता है। जबकि कोई भी जल विज्ञानी उसका पूर्वानुमान सरलता से लगा सकता है।
रही बात यह कि शासन, प्रशासन या प्रौद्योगविद इन परिस्थितियों के बारे में जोर देकर क्यों नहीं कहते? दरअसल उनकी सीमा यह है कि इस समस्या का कोई सुसाध्य या व्यवहारिक समाधान तात्कालिक तौर पर उनके पास फिलहाल नहीं है। जाँच पड़ताल करने के काम में लगें तो अल्पकालिक और दीर्घकालिक उपाय एक साथ करने की बात आएगी।
तब हमें मानना पड़ता है कि पिछले 40 साल से हम जो कुछ कहते और करते आए हैं वह अपनी क्षमता के मुताबिक पूरी ताकत और पूरी सामर्थ्य से करते आए हैं। हाँ यह बात अलग है कि कोई क्रान्तिकारी कदम उठाया जा सकता था। अपने औद्योगिक विकास, रहन-सहन के स्तर को ऊपर उठाने वाले काम यानी दूसरे प्रकार की सुख समृद्धि बढ़ाने वाले काम छोड़कर जल प्रबन्ध के काम पर हम लग सकते थे। लेकिन उस स्थिति में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के संचालकों को जन समर्थन मिलना शायद बड़ा मुश्किल होता। हो सकता कि उस समय की उन अनागत विकट परिस्थितियों को यह कहकर छोड़ा गया हो कि- ‘आगे की आगे देखेंगे।’
लेकिन तबका वह ‘आगा’ अब हमारे सामने है। क्योंकि पूरा अन्देशा है कि अगले साल या एक दो साल के भीतर ही देश के गाँव खेत के लिये पानी माँग रहे होंगे। शहर पीने और नहाने, धोने के लिये अतिरिक्त पानी की माँग कर रहे होंगे। महानगरों खासतौर पर दिल्ली में पानी पर ही आक्रामक राजनीति हो रही होगी। बहुत सम्भव है कि पानी की कमी के कारण अनाज उत्पादन घटने की सनसनीखेज ख़बरें आ रही होंगी। स्वभावतः जल प्रबन्धन की प्राथमिकता के लिये जन आकांक्षा के प्रदर्शन का नया रूप हमें दिख सकता है।
बहुत सम्भव है कि हमें एक दो साल के भीतर ही अपनी विकास दर या आर्थिक वृद्धि दर या स्मार्ट सिटी जैसी बातें छोड़कर सबसे पहले पानी के इन्तज़ाम पर लगना पड़े। वरना कहीं ऐसा ना हो कि हजार दो हजार साल बाद इतिहास पढ़ाते समय यह पढ़ाया जाए कि 21वीं सदी में भारतवर्ष अपने लिये पानी तक का इन्तज़ाम नहीं कर पाया।