करीब–करीब आधे मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों के लिए प्रकृति ने अलार्म बजा दिया है। यह अलार्म है इस इलाके की धरती में करोड़ों साल से संग्रहित पानी के खत्म हो रहे भू-जल की। अब इस अलार्म को सुनने और समय रहते प्रयास करने की बारी हमारी है। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक़ साढ़े छः करोड़ सालों से संग्रहित होते आ रहे पानी के खजाने को खत्म करने की कगार पर हम पहुँच चुके हैं। इसका खुलासा हुआ है म.प्र. के धार जिले में कराए गए एक नलकूप खनन से। इस इलाके में पहली बार करीब 1000 फीट गहरे बोरिंग के बाद पानी निकल सका है।
धार से बदनावर जाते समय करीब 5 कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गाँव पड़ता है- तोरनोद। इस गाँव में एक किसान ने बीते दिनों अपने खेत में सिंचाई के लिए नलकूप खुदवाया। उसे लगा था कि बाक़ी किसानों की तरह ही उसके यहाँ भी जमीन में से पाँच–छः सौ फीट तक की गहराई से पानी निकल ही जायेगा। लेकिन नहीं निकला, गहराई बढ़ती ही चली गई। आखिरकार 1000 फीट खुदाई होने पर ही पानी निकल सका। यह बात जब बाक़ी किसानों को पता चला तो वे भी परेशान हो गये। पहली बार इतनी गहराई से पानी निकलने की बात ने सबको चौंका दिया। कुछ लोगों ने इसकी जानकारी इन्दौर के भू-गर्भ वैज्ञानिकों को दी। भू-गर्भ वैज्ञानिकों ने पूरी जाँच–पड़ताल के बाद जो कुछ बताया उसने इलाके के लोगों की ही नहीं आधे मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के विदर्भ, कोंकण क्षेत्र को भी चिन्ता में डाल दिया है।
इन्दौर के भूगर्भ वैज्ञानिक सुधीन्द्रमोहन शर्मा ने बताया कि यह एक तरह से प्रकृति का अलार्म है। इस इलाके में इतनी गहराई पर जमीन से पानी मिलना यह साबित करता है कि हमने जमीन में करोड़ो साल पहले से जमा होते आ रहे पानी के खजाने की आख़री बूँदे भी उलीचना शुरू कर दी है। अब इस गहराई से नीचे पानी मिलना सम्भव नहीं है। उन्होंने बताया कि यहाँ की जमीन में नीचे बेसाल्टिक चट्टानें हैं और इनके बीच–बीच के कुछ हिस्सों में पानी के भंडार होते हैं। इन्हीं का पानी हम नलकूप के जरिये उलीचते रहते हैं। हालाँकि इसका प्रभाव फिलहाल 5 वर्ग कि.मी. तक ही सीमित है लेकिन अब चिन्ता इस बात की है कि यहाँ एक हजार फीट गहराई के बाद इन बेसाल्टिक चट्टानों के नीचे से पानी के भंडार मुमकिन नहीं हो सकते।
हमारे यहाँ नलकूपों से ही करीब 60 फीसदी सिंचाई और 50 फीसदी पीने के पानी का उपयोग किया जाता है। यानी हम अब ज्यादा से ज्यादा जमीन के भंडारित पानी पर ही आश्रित होते जा रहे हैं। हम बारिश के पानी को भी धरती में रिसा नहीं पा रहे हैं हर साल सैकड़ों गैलन पानी नदी– नालों से होता हुआ व्यर्थ बह जाता है। कृत्रिम तरीके से पानी को धरती में रिसाने और भू-जल स्तर बढ़ाने की कई तकनीकें भू-वैज्ञानिकों ने हमारे सामने रखी है पर अब भी जागरूकता के अभाव में हम इन्हें नहीं अपना रहे हैं। यह हमारे पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है। आइये, जानते हैं यहाँ की भूगर्भीय बनावट को। इस तरफ का अधिकतम क्षेत्रफल बेसाल्ट लावा प्रवाहों से बना है। यहाँ की चट्टानों का निर्माण ज्वालामुखी फटने से निकले बेसाल्टिक मेग्मा के एक के बाद एक प्रकारातर में ठंडे होकर जमने से हुआ है। इस तरह की चट्टानों को प्रमुख रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है। पहला वेदर्ड बेसाल्ट यानी कच्चा पत्थर, दूसरा फेक्चर्ड बेसाल्ट यानी दरार या छेद वाला और तीसरा होता है मेसिव बेसाल्ट यानी काली चट्टान। दरअसल बारिश का जमीन में रिसने वाला पानी फेक्चर्ड बेसाल्ट में दरार, सन्धियों और छिद्रों के बीच संग्रहित होता रहता है। इससे नीचे मेसिव बेसाल्ट (काली चट्टान) में पानी संग्रहित करने की सम्भावना लगभग नगण्य होती है। यही कारण है कि इस परत में प्रायः पानी नहीं मिलता है। इस क्षेत्र में अच्छी बारिश के बाद भी बारिश का पानी प्राकृतिक रूप से जमीन के नीचे उतरकर भू-जल स्तर में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं कर पाता। अधिकांश ढ़लान वाली भौगोलिक संरचना होने से वर्षा जल संग्रहित होने की जगह तेजी से बहकर नदी नालों की ओर चला जाता है। दूसरी तरफ यहाँ की काली मिट्टी भी वर्षा जल को अपने में रोककर जमीन में रिसा पाने में सक्षम नहीं है। यही वजह है कि इस इलाके का भू-जल स्तर तेजी से गहराता जा रहा है।
बेसाल्टिक चट्टानों की इसी तरह की भू-गर्भ संरचनाएँ मध्य प्रदेश में मालवा के मंदसौर जिले से धार होते हुए महाराष्ट्र के विदर्भ-कोंकण इलाके और मुंबई तक पाई जाती हैं, ऐसे में खतरे के बादल इन सभी इलाकों के लिए हो सकते हैं। हम जिस तेजी से भू-जल का दोहन करते जा रहे हैं, उससे साफ़ है कि आज नहीं तो कल संकट से कोई नहीं बचा सकता। मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में पहले ही ऐसी स्थितियाँ बन चुकी हैं, जहाँ जमीन के अंदर पानी का भंडार खत्म होने की कगार के बहुत नजदीक तक पहुँच गया है। वहीं इस इलाके में अब तक ऐसी कोई स्थिति नहीं थी लेकिन अब इस नलकूप ने हमें चिन्तित कर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है।
करीब पाँच दशक पहले से ही मालवा-निमाड़ में जल संकट ने दस्तक देना शुरू कर दिया था। हर साल गर्मी का मौसम आते ही भू-जल स्तर तेजी से गिरने लगता है और पानी के लिए हाहाकार मचना शुरू हो जाता है। सत्तर के दशक में खेती के लिए नलकूपों के बढ़ते चलन ने इसे दिनो-दिन बढ़ाया ही है। बड़े पैमाने पर किसानों ने बैंक से कर्ज लेकर बोरिंग और विद्युत मोटरों के जरिये धरती के पानी को गहरे और गहरे तक जाकर उलीचा है। इसे सिंचाई के एकमात्र विकल्प के रूप में माना जाने लगा। वर्ष 1975 से 1990 तक के 15 सालों में ही अकेले मालवा-निमाड़ इलाके में 18 फीसदी हर साल की दर से नलकूप खनन में बढ़ोतरी हुई है।
जबकि 1991 से 2015 में यह दर करीब 30 फीसदी तक पहुँच गई है। नतीजतन अब गाँव–गाँव में नलकूपों की संख्या 300 से 1000 तक है। इनमें कुछ सूखे नलकूप भी हैं, जमीनी जल स्तर नीचे जाते रहने से हर साल सूखे नलकूपों की तादाद बढ़ती जा रही है। किसान इनकी जगह फिर नए बोरिंग करवा रहे हैं। पानी की यह समस्या अंधे विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जो बेहूदा छेड़-छाड़ की गई, उसका अनिवार्य परिणाम ही है। इस इलाके की समस्या और भी कठिन इसलिए है कि यहाँ का भू-गर्भ जिन काली चट्टानों से बना है, वह बारिश के रिसन और उसके संग्रह को भी प्रभावित करती है। जमीन के पानी को उलीचने के लिए कई बार इन चट्टानों को भी छेद कर नीचे तक जाना पड़ता है, इस अनिश्चय के साथ कि पता नहीं वहाँ भी पानी मिलेगा कि नहीं।
उधर हमने पानी के अपने परम्परागत संसाधनों को भुला कर करोड़ों साल से धरती में जमा बैंक बैलेंस की तरह पानी का उपयोग तेज कर दिया है। हमारे यहाँ नलकूपों से ही करीब 60 फीसदी सिंचाई और 50 फीसदी पीने के पानी का उपयोग किया जाता है। यानी हम अब ज्यादा से ज्यादा जमीन के भंडारित पानी पर ही आश्रित होते जा रहे हैं। हम बारिश के पानी को भी धरती में रिसा नहीं पा रहे हैं हर साल सैकड़ों गैलन पानी नदी– नालों से होता हुआ व्यर्थ बह जाता है। कृत्रिम तरीके से पानी को धरती में रिसाने और भू-जल स्तर बढ़ाने की कई तकनीकें भू-वैज्ञानिकों ने हमारे सामने रखी है पर अब भी जागरूकता के अभाव में हम इन्हें नहीं अपना रहे हैं। यह हमारे पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है।
लेखक से सम्पर्क :- 11 – ए, मुखर्जी नगर, पायोनियर स्कूल चौराहा, देवास म.प्र.- 455001मो.नं. 9826013806
धार से बदनावर जाते समय करीब 5 कि.मी. की दूरी पर एक छोटा सा गाँव पड़ता है- तोरनोद। इस गाँव में एक किसान ने बीते दिनों अपने खेत में सिंचाई के लिए नलकूप खुदवाया। उसे लगा था कि बाक़ी किसानों की तरह ही उसके यहाँ भी जमीन में से पाँच–छः सौ फीट तक की गहराई से पानी निकल ही जायेगा। लेकिन नहीं निकला, गहराई बढ़ती ही चली गई। आखिरकार 1000 फीट खुदाई होने पर ही पानी निकल सका। यह बात जब बाक़ी किसानों को पता चला तो वे भी परेशान हो गये। पहली बार इतनी गहराई से पानी निकलने की बात ने सबको चौंका दिया। कुछ लोगों ने इसकी जानकारी इन्दौर के भू-गर्भ वैज्ञानिकों को दी। भू-गर्भ वैज्ञानिकों ने पूरी जाँच–पड़ताल के बाद जो कुछ बताया उसने इलाके के लोगों की ही नहीं आधे मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के विदर्भ, कोंकण क्षेत्र को भी चिन्ता में डाल दिया है।
इन्दौर के भूगर्भ वैज्ञानिक सुधीन्द्रमोहन शर्मा ने बताया कि यह एक तरह से प्रकृति का अलार्म है। इस इलाके में इतनी गहराई पर जमीन से पानी मिलना यह साबित करता है कि हमने जमीन में करोड़ो साल पहले से जमा होते आ रहे पानी के खजाने की आख़री बूँदे भी उलीचना शुरू कर दी है। अब इस गहराई से नीचे पानी मिलना सम्भव नहीं है। उन्होंने बताया कि यहाँ की जमीन में नीचे बेसाल्टिक चट्टानें हैं और इनके बीच–बीच के कुछ हिस्सों में पानी के भंडार होते हैं। इन्हीं का पानी हम नलकूप के जरिये उलीचते रहते हैं। हालाँकि इसका प्रभाव फिलहाल 5 वर्ग कि.मी. तक ही सीमित है लेकिन अब चिन्ता इस बात की है कि यहाँ एक हजार फीट गहराई के बाद इन बेसाल्टिक चट्टानों के नीचे से पानी के भंडार मुमकिन नहीं हो सकते।
हमारे यहाँ नलकूपों से ही करीब 60 फीसदी सिंचाई और 50 फीसदी पीने के पानी का उपयोग किया जाता है। यानी हम अब ज्यादा से ज्यादा जमीन के भंडारित पानी पर ही आश्रित होते जा रहे हैं। हम बारिश के पानी को भी धरती में रिसा नहीं पा रहे हैं हर साल सैकड़ों गैलन पानी नदी– नालों से होता हुआ व्यर्थ बह जाता है। कृत्रिम तरीके से पानी को धरती में रिसाने और भू-जल स्तर बढ़ाने की कई तकनीकें भू-वैज्ञानिकों ने हमारे सामने रखी है पर अब भी जागरूकता के अभाव में हम इन्हें नहीं अपना रहे हैं। यह हमारे पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है। आइये, जानते हैं यहाँ की भूगर्भीय बनावट को। इस तरफ का अधिकतम क्षेत्रफल बेसाल्ट लावा प्रवाहों से बना है। यहाँ की चट्टानों का निर्माण ज्वालामुखी फटने से निकले बेसाल्टिक मेग्मा के एक के बाद एक प्रकारातर में ठंडे होकर जमने से हुआ है। इस तरह की चट्टानों को प्रमुख रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है। पहला वेदर्ड बेसाल्ट यानी कच्चा पत्थर, दूसरा फेक्चर्ड बेसाल्ट यानी दरार या छेद वाला और तीसरा होता है मेसिव बेसाल्ट यानी काली चट्टान। दरअसल बारिश का जमीन में रिसने वाला पानी फेक्चर्ड बेसाल्ट में दरार, सन्धियों और छिद्रों के बीच संग्रहित होता रहता है। इससे नीचे मेसिव बेसाल्ट (काली चट्टान) में पानी संग्रहित करने की सम्भावना लगभग नगण्य होती है। यही कारण है कि इस परत में प्रायः पानी नहीं मिलता है। इस क्षेत्र में अच्छी बारिश के बाद भी बारिश का पानी प्राकृतिक रूप से जमीन के नीचे उतरकर भू-जल स्तर में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं कर पाता। अधिकांश ढ़लान वाली भौगोलिक संरचना होने से वर्षा जल संग्रहित होने की जगह तेजी से बहकर नदी नालों की ओर चला जाता है। दूसरी तरफ यहाँ की काली मिट्टी भी वर्षा जल को अपने में रोककर जमीन में रिसा पाने में सक्षम नहीं है। यही वजह है कि इस इलाके का भू-जल स्तर तेजी से गहराता जा रहा है।
बेसाल्टिक चट्टानों की इसी तरह की भू-गर्भ संरचनाएँ मध्य प्रदेश में मालवा के मंदसौर जिले से धार होते हुए महाराष्ट्र के विदर्भ-कोंकण इलाके और मुंबई तक पाई जाती हैं, ऐसे में खतरे के बादल इन सभी इलाकों के लिए हो सकते हैं। हम जिस तेजी से भू-जल का दोहन करते जा रहे हैं, उससे साफ़ है कि आज नहीं तो कल संकट से कोई नहीं बचा सकता। मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में पहले ही ऐसी स्थितियाँ बन चुकी हैं, जहाँ जमीन के अंदर पानी का भंडार खत्म होने की कगार के बहुत नजदीक तक पहुँच गया है। वहीं इस इलाके में अब तक ऐसी कोई स्थिति नहीं थी लेकिन अब इस नलकूप ने हमें चिन्तित कर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया है।
करीब पाँच दशक पहले से ही मालवा-निमाड़ में जल संकट ने दस्तक देना शुरू कर दिया था। हर साल गर्मी का मौसम आते ही भू-जल स्तर तेजी से गिरने लगता है और पानी के लिए हाहाकार मचना शुरू हो जाता है। सत्तर के दशक में खेती के लिए नलकूपों के बढ़ते चलन ने इसे दिनो-दिन बढ़ाया ही है। बड़े पैमाने पर किसानों ने बैंक से कर्ज लेकर बोरिंग और विद्युत मोटरों के जरिये धरती के पानी को गहरे और गहरे तक जाकर उलीचा है। इसे सिंचाई के एकमात्र विकल्प के रूप में माना जाने लगा। वर्ष 1975 से 1990 तक के 15 सालों में ही अकेले मालवा-निमाड़ इलाके में 18 फीसदी हर साल की दर से नलकूप खनन में बढ़ोतरी हुई है।
जबकि 1991 से 2015 में यह दर करीब 30 फीसदी तक पहुँच गई है। नतीजतन अब गाँव–गाँव में नलकूपों की संख्या 300 से 1000 तक है। इनमें कुछ सूखे नलकूप भी हैं, जमीनी जल स्तर नीचे जाते रहने से हर साल सूखे नलकूपों की तादाद बढ़ती जा रही है। किसान इनकी जगह फिर नए बोरिंग करवा रहे हैं। पानी की यह समस्या अंधे विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जो बेहूदा छेड़-छाड़ की गई, उसका अनिवार्य परिणाम ही है। इस इलाके की समस्या और भी कठिन इसलिए है कि यहाँ का भू-गर्भ जिन काली चट्टानों से बना है, वह बारिश के रिसन और उसके संग्रह को भी प्रभावित करती है। जमीन के पानी को उलीचने के लिए कई बार इन चट्टानों को भी छेद कर नीचे तक जाना पड़ता है, इस अनिश्चय के साथ कि पता नहीं वहाँ भी पानी मिलेगा कि नहीं।
उधर हमने पानी के अपने परम्परागत संसाधनों को भुला कर करोड़ों साल से धरती में जमा बैंक बैलेंस की तरह पानी का उपयोग तेज कर दिया है। हमारे यहाँ नलकूपों से ही करीब 60 फीसदी सिंचाई और 50 फीसदी पीने के पानी का उपयोग किया जाता है। यानी हम अब ज्यादा से ज्यादा जमीन के भंडारित पानी पर ही आश्रित होते जा रहे हैं। हम बारिश के पानी को भी धरती में रिसा नहीं पा रहे हैं हर साल सैकड़ों गैलन पानी नदी– नालों से होता हुआ व्यर्थ बह जाता है। कृत्रिम तरीके से पानी को धरती में रिसाने और भू-जल स्तर बढ़ाने की कई तकनीकें भू-वैज्ञानिकों ने हमारे सामने रखी है पर अब भी जागरूकता के अभाव में हम इन्हें नहीं अपना रहे हैं। यह हमारे पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है।
लेखक से सम्पर्क :- 11 – ए, मुखर्जी नगर, पायोनियर स्कूल चौराहा, देवास म.प्र.- 455001मो.नं. 9826013806