बढ़ती आबादी यानी प्रकृति पर खतरे की घंटी

Submitted by RuralWater on Sat, 07/11/2015 - 16:00

विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष


देश में आज करीब सवा दो करोड़ लोगों के सिर पर किसी तरह की छत तक नहीं है वहीं करीब 60 करोड़ लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। प्राकृतिक आपदाओं में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणों से हमें महफूज रखने वाली ओजोन परत भी लगातार छीजती जा रही है। धरती के तपने में हर साल इजाफा हो रहा है। साल-दर-साल धरती का तापमान बढ़ता ही जा रहा है। जंगलों का सफाया होते जाने से कई इलाके तेजी से रेगिस्तान में बदलने की दिशा में हैं।

भारत की आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उसी गति से प्रकृति पर भी खतरे की घंटी अब साफ–साफ सुनाई देने लगी है। जनसंख्या प्राकृतिक संसाधनों को करीब-करीब रौंदती हुई सी बढ़े जा रही है। तेजी से बढ़ती आबादी के लिये प्राकृतिक संसाधन जुटाना मुश्किल-से-मुश्किलतर होता जा रहा है। जल, जंगल और ज़मीन जैसे संसाधन बढ़ती आबादी के मान से कमतर होते जा रहे हैं।

लोग पीने के पानी तक को तरसने को मजबूर हैं। उस पर भी लालच इतना कि सैकड़ों सालों से बनी जल संरचनाओं तथा नदियों–तालाबों तक पर अतिक्रमण करने से भी नहीं चूक रहे। धरती की कोख के पानी आख़िरी बूँद तक उलीचे जा रहे हैं। बारिश के पानी को धरती में रंजाने की कोई तकनीक हम इस्तेमाल कर नहीं रहे। जंगलों को काट रहे हैं महज जलाने की लकड़ी के लिये या थोड़ी सी खेती के लिये। ज़मीन के छोटे–छोटे से टुकड़े के लिये खून बहाया जा रहा है। यह किस तरह की दुनिया में जी रह हैं हम।

एक हमारे पूर्वज थे जिन्होंने उस संसाधन विहीन समय में भी अपनी भावी पीढ़ी की चिन्ता करते हुए तमाम ऐसी विरासत हमारे सामने रखी जो आज भी हमें जीने के लिये जरूरी संसाधन मुहैया कराती है। हर इलाके में ऐसी कुएँ –कुण्डियाँ, बावड़ियाँ, ताल–तलैया, पोखर–जोहड़, प्राकृतिक बाँध, पेड़–पौधे, जंगल, खेत-खलिहान और भी न जाने क्या–क्या...लम्बी फेहरिश्त है उनके कामों की।

कम लोग होते हुए भी उन्होंने संसाधनों के अभाव में भी हमेशा समाज और आने वाले कल की चिन्ता की। सोचिए वे भी यदि हमारी तरह के होते तो आज हम कहाँ होते...? क्या हमें आज पानी मिल पाता, क्या हमें साफ़ हवा मिल पाती, क्या हमें प्रकृति की अनमोल नेमत के रूप में नदियाँ और पहाड़ मिल पाते, क्या हमें सोना उपजाने वाले खेत मिल पाते.... शायद कुछ नहीं। हमें मिलती जीवन रहित उजाड़ और बियाबान धरती, दूर–दूर तक तपती रेगिस्तान की तरह।

अकाल की सी स्थिति ....सोचने में ही कैसा लगता है। पल भर में ही सोच के दायरे से बाहर निकलने के लिये छटपटाने लगते हैं हम। क्या ऐसा नहीं लगता कि हम तेजी से इस दुस्वप्न की ओर बढ़ रहे हैं। हम अपनी प्राकृतिक विरासत के अंधाधुंध दोहन से उसे बुरी तरह खत्म करते हुए आखिर किस अंधेरे कुएँ की ओर बढ़े जा रहे हैं।

आबादी हमारे यहाँ प्रकृति पर बोझ बनती जा रही है। आबादी प्रकृति में सहायक नहीं बल्कि उसे खत्म करने की हद तक अंधे दोहन में ही सहभागी बन रही है। तर्क यह भी दिया जाता है कि आबादी बढ़ेगी तो संसाधन भी बढ़ेंगे पर कैसे। बीते कुछ सालों में हमारी आबादी जिस गति से बढ़ी क्या हमने अपने संसाधन बढ़ाए। धरती का सीना छलनी कर-करके हम पीने का पानी ही जुटा पाए हैं।

तेजी से बढ़ती आबादी ने थोड़ी सी ज़मीन के लालच में तालाबों और नदियों के परम्परागत रास्तों और जलग्रहण क्षेत्रों में भी पक्का अतिक्रमण कर दिया। हमने नदियों के प्राकृतिक रास्ते रोककर उन्हें बाँधने की कोशिश तो की पर क्या हम इसमें कामयाब हो पाए हैं। क्या इन प्रयासों से बिजली के अलावा हमें कुछ हासिल हुआ और वह भी किस तरह, किस कीमत पर, कितने लोगों को उजाड़कर या प्रकृति के कितने नुकसान के बाद। हमें इन बिन्दुओं पर विस्तार और गम्भीरता से सोचना ही होगा।

फ़िलहाल भारत की जनसंख्या 1.2 अरब तक पहुँच गई है और इसी गति से बढ़ती रही तो अगले 15 सालों में हम दुनिया के नम्बर एक पर पहुँच सकते हैं। हम विकास में भले ही पिछड़े हुए हों आबादी में हमारा सानी कोई नहीं होगा। हमारे एक–एक राज्य ही दुनिया के कुछ देशों की जनसंख्या पर भारी हैं जैसे तमिलनाडु की आबादी फ्रांस से ज्यादा है तो मध्य प्रदेश की ही जनसंख्या थाईलैंड से ज्यादा है।

इटली से ज्यादा राजस्थान तथा दक्षिण अफ्रीका से ज्यादा गुजरात की आबादी है। जबकि हमारे पास दुनिया का केवल 2.4 प्रतिशत ही क्षेत्र है और उसमें भी प्राकृतिक संसाधन में हम बहुत पीछे हैं। यही वजह है कि हमें बढ़ती हुई प्राकृतिक और मानवजनित आपदाओं का सामना तो करना ही पड़ता है, सबसे ज्यादा खतरा जल, जंगल और जमीन के कम होते जाने का उठाना पड़ रहा है। वहीं जलवायु तेजी से बदल रही है, ग्लोबल वार्मिंग जैसी चुनौतियाँ हमारे सामने है। बढ़ती हुई आबादी के लिये सरकारें भी तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करती है, जो बाद के दिनों में गहरे और बड़े रूप के संकट हमारे सामने लाता है। बीते दिनों हमने इस तरह की कई त्रासदियों को बहुत करीब से देखा–परखा है।

उत्तराखण्ड के जल प्रलय का हादसा हो या महाराष्ट्र के मलिण गाँव के ज़मीन में समा जाने की विभीषिका। पर्यावरण पर नुकसान की कीमत हमें कई लोगों की जान की बड़ी कीमत देकर चुकाना पड़ा है। नदियों के रास्ते पर अतिक्रमण और जंगलों के खत्म होते जाने से हर साल बाढ़ से हालत गम्भीरतम होते जा रहे हैं। जंगलों के खत्म होते जाने से हमें बाढ़, सूखे, तथा पारिस्थितिकी तंत्र के बिगड़ने जैसे खतरों को झेलना पड़ता है। वहीं जनसंख्या का दबाव गरीबी, बेरोज़गारी, कुपोषण, मकानों की कमी, चिकित्सा सुविधाओं और अन्य सुविधाओं की कमी, पानी की कमी, खेती के लिये ज़मीन की कमी, बिजली की कमी जैसे कई रूप में देखी जा सकती है। इससे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय समस्याएँ खड़ी होती हैं।

हमारे देश में आज करीब सवा दो करोड़ लोगों के सिर पर किसी तरह की छत तक नहीं है वहीं करीब 60 करोड़ लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। प्राकृतिक आपदाओं में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। सूरज की अल्ट्रावायलेट किरणों से हमें महफूज रखने वाली ओजोन परत भी लगातार छीजती जा रही है। धरती के तपने में हर साल इजाफा हो रहा है। साल-दर-साल धरती का तापमान बढ़ता ही जा रहा है।

जंगलों का सफाया होते जाने से कई इलाके तेजी से रेगिस्तान में बदलने की दिशा में हैं। आदर्श स्थितियों में अच्छे पर्यावरण के लिये न्यूनतम 33 फीसदी जमीन पर जंगल होना जरूरी है पर फिलहाल हमारे पास सिर्फ 11 फीसदी ही जंगल बचे हैं। खेतों की जमीन पर भी बुरा असर पड़ रहा है। दूसरी तरफ खाद्यान्न संकट भी बढ़ रहा है। भारत की उपजाऊ मिट्टी कीटनाशकों और रासायनिक खादों के सम्पर्क में आने से खराब हो रही है। कई इलाकों में उसकी उर्वरा क्षमता में भी कमी आई है तो कहीं–कहीं बंजर तक हो गई है। अभी देश में 18.3 करोड़ हेक्टेयर में से मात्र 14.1 करोड़ हेक्टेयर में ही खेती हो पा रही है।

यही हालात रहे तो आने वाले समय में हम भी साबूत नहीं रह पाएँगे। आने वाली पीढ़ियाँ हमें हमारे किये और पर्यावरणीय गलतियों के लिये कभी माफ़ नहीं करेगी। अभी भी कोई बहुत देर नहीं हुई है। यदि हम अपनी गलतियों का प्रायश्चित करना चाहें तो कर सकते हैं पर कहीं ऐसा न हो जाए कि हम सोचते ही रह जाएँ और इतनी देर हो जाए कि फिर कहीं से भी लौटना असम्भव हो जाए।