विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष
जनसंख्या के अनुपात में पानी की माँग एक तरफ तेजी से बढ़ रही है तो दूसरी तरफ पानी ज़मीन में गहरे से भी गहरे जा रहा है। परम्परागत स्रोतों को हम पहले ही सिरे से नकार चुके हैं। वे या तो अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुके हैं या इतने उपेक्षित कि अब वे पानी देने से रहे। वर्ष 2010 की वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट ने ही साफ कर दिया था कि भारत में जल स्तर लगातार घट रहा है। हम पानी का सबसे ज्यादा और फिजूल खर्च करने वाले देशों में गिने जाते हैं। इससे पीने के पानी की समस्या हर साल विकराल होती जा रही है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या पूरी दुनिया के लिये परेशानी का सबब बनती जा रही है। दुनिया की आबादी जिस तेज रफ्तार से बढ़ रही है, उससे कई पर्यावरणीय समस्याओं के खतरे अब साफ़ तौर पर सामने नजर आने लगे हैं। जनसंख्या विस्फोट का सबसे बुरा असर हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों पर भी दबाव बढ़ने लगता है। जल, जंगल और ज़मीन लगातार कम होते जा रहे हैं। दरअसल प्राकृतिक संसाधन तो हमारे पास उतने ही हैं सदियों से, अब उनमें तो कोई बढ़ोत्तरी सम्भव है नहीं।
दुनिया की आबादी 7 अरब तक पहुँच गई है और यह इतनी तेजी से लगातार बढ़ रही है कि वर्ष 2100 तक लगभग 11 अरब तक पहुँचने की विशेषज्ञों ने सम्भावना जताई है। अकेले भारत की जनसंख्या चीन से आगे बढ़ने की होड़ में है। स्वाभाविक ही है कि जैसे–जैसे जनसंख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे प्राकृतिक संसाधन कम होने लगते हैं। नदियाँ हों या ज़मीन के अन्दर का पानी, ज़मीन हो या जंगल, पहाड़ हो या खेत–खलिहान, पेड़–पौधे हो या वन्यजीव, खाद्य सामग्री हो या कपड़े इन सबकी अपनी एक सीमा है और उसी के अनुपात में ये हमें पिछली कई पीढ़ियों से जीवन के लिये जरूरी सामग्री उपलब्ध कराते रहे हैं।
बीते सालों में हमारी जनसंख्या जिस तेज गति से बढ़ी है उसने हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर एक नई तरह का संकट खड़ा किया है। बढ़ती हुई आबादी को पानी, खाद्य सामग्री और खेती के लिये ज़मीन उपलब्ध कराने के लिये हमने प्रकृति के सैकड़ों साल पुराने ताने–बाने को इस बेहूदगी और मनमाने ढंग से अस्त–व्यस्त किया है कि अब उसे ठीक करना भी हमारे लिये मुमकिन नहीं हो पा रहा है। हमने प्रकृति से जो छेड़छाड़ की है, उससे हमारे हाथ से कई संसाधन खो गए वहीं इससे प्रकृति में सैकड़ों सालों से बने पारिस्थितिकी तंत्र को भी काफी हद तक नेस्तनाबूद कर दिया है।
अकेले पानी के मामले में ही देखें तो स्थिति की भयावहता साफ़–साफ़ दिखती है। हर साल गर्मी आते ही दुनिया के कई देशों में पानी का संकट खड़ा हो जाता है। हजारों नदियों के लिये पहचाने जाने वाले भारत जैसे देश में भी जल संकट की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। एक तरफ जहाँ ज़मीन का पानी साल-दर-साल गहराता जा रहा है वहीं दूसरी और नदियाँ भी अब गर्मी के मौसम से पहले ही जवाब देने लगी हैं।
लोगों ने पहले ही अपने पारम्परिक जल स्रोतों कुएँ – कुण्डियाँ और तालाबों आदि को तो करीब–करीब बिसरा ही दिया है। पहले देखते हैं ज़मीन के पानी की स्थिति। आबादी बढ़ने से पानी की लगातार बढ़ती माँग जो पूरा करने के लिये बीते कुछ सालों में तेजी से धरती में सूराख कर नलकूप लगाए गए। हमारे यहाँ खेती में तो करीब-करीब यह नलकूप को ही एकमात्र विकल्प मान लिया गया है। अन्य जल स्रोतों से सिंचाई का आँकड़ा तेजी से घटा है।
जैसे–जैसे धरती में सुराख-दर-सुराख बढ़ते गए, वैसे–वैसे ज़मीन का पानी नीचे और नीचे उतरता चला गया। हमने ज़मीन के पानी पर अपनी निर्भरता इस हद तक बढ़ा दी कि धरती की कोख में करोड़ों सालों से रफ्ता–रफ्ता जमा होते रहे पानी के बेशकीमती खजाने को भी कुछ ही सालों में हमने उलीच डाला है। कई इलाकों में अब पानी के लिये ज़मीन में बहुत गहरा उतरना पड़ रहा है। बढ़ती हुई आबादी के लिये और–और पानी की जरूरत बढ़ती ही जा रही है।
20 साल पहले तक जहाँ 200-400 फीट पर पानी मिल जाया करता था वहीं अब इसके लिये 800 से 1000 फीट तक जाना पड़ रहा है। इसके बाद भी कई नलकूप बारिश के साथ ही दम तोड़ने लगते हैं। कह नहीं सकते कब ज़मीन का पानी भी साथ छोड़ जाए ...तब क्या होगा। इस बारे में आज तक हमने सोचा ही नहीं। जिस गति से हम ज़मीन का पानी उलीचते जा रहे हैं, उससे एक चौथाई भी हम वापस ज़मीन में रिसा नहीं पा रहे हैं।
पानी के बिना किसी भी देश का आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। पानी सिर्फ पीने तक ही सिमित नहीं है बल्कि इससे आगे यह भारत जैसे देश की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के लिये भी महत्त्वपूर्ण धुरी है। खेती के बिना भारत के लोगों की खुशहाली की कल्पना भी सम्भव नहीं है। किसानों की हालत बिना पानी के सोची भी नहीं जा सकती। भारत की बड़ी जनसंख्या गाँवों में और अधिकांश खेती पर ही जिन्दा हैं।
जनसंख्या के लगातार बढ़ने से एक तरफ जहाँ खेती की जोत कम-से-कमतर होती जा रही है वहीं दूसरी ओर नए खेत बनाने के लिये हर साल बड़ी तादाद में जंगलों को भी खत्म किया जा रहा है। हर साल घने जंगलों वाले इलाकों से पेड़ काटकर खेत बनाने की खबरें मिलती रहती हैं। इनमें ज्यादातर आदिवासी इलाकों से होती है। हालाँकि उनके सामने भी मजबूरी है। उन्हें रोज़गार मिल नहीं पा रहा और जंगलों के उत्पाद बिचौलिए औने–पौने दामों में ही खरीद लेते हैं इसलिये उनके सामने भी रोजी–रोटी का सवाल है।
ऐसे में हर साल वन विभाग के अधिकारियों और आदिवासियों के बीच संघर्ष की स्थितियाँ भी बनती है और कई आदिवासियों को जेल तक जाना पड़ता है। हालत इतने बुरे हैं कि यहाँ हर साल 3.2 फीसदी की दर से जलस्तर घट रहा है। हर साल हमारे देश में ही करीब 60 करोड़ लोग गर्मी के दिनों में पीने भर के पानी के लिये परेशान होते हैं। बीते 7 सालों में करीब 4 हजार कुओं में 54 प्रतिशत तक पानी की मात्रा कम हुई है।
यह कोई काल्पनिक भाव नहीं है कि अगले कुछ सालों में पीने के पानी की समस्या और भी भयावह रूप में हमारे सामने होगी। अभी ही जल संकट वाले इलाकों से हर साल पानी के लिये लड़ाई–झगड़ों और संघर्ष की खबरें पढ़ने-सुनने में आ रही है, पानी के लिये लोग एक–दूसरे के खून बहाने को उद्यत हो रहे हैं तो आगे क्या हालात होंगे कहना मुश्किल है।
जनसंख्या के अनुपात में पानी की माँग एक तरफ तेजी से बढ़ रही है तो दूसरी तरफ पानी ज़मीन में गहरे से भी गहरे जा रहा है। परम्परागत स्रोतों को हम पहले ही सिरे से नकार चुके हैं। वे या तो अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुके हैं या इतने उपेक्षित कि अब वे पानी देने से रहे। वर्ष 2010 की वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट ने ही साफ कर दिया था कि भारत में जल स्तर लगातार घट रहा है।
हम पानी का सबसे ज्यादा और फिजूल खर्च करने वाले देशों में गिने जाते हैं। इससे पीने के पानी की समस्या हर साल विकराल होती जा रही है। चिन्ता इतनी ही नहीं है, ज़मीनी पानी की स्थिति को लेकर जो आँकड़े हमारे सामने हैं, वे बताते हैं कि भारत का एक तिहाई से ज्यादा भाग अब डार्क जोन में बदल गया है मतलब यहाँ का ज़मीनी पानी अब खत्म होने की कगार पर है। अध्ययन बताते हैं कि देश के कुल 5723 विकासखण्डों में से 839 डार्क जोन में हैं जबकि 225 विकासखण्ड गम्भीर और 550 खण्ड अर्ध गम्भीर जोन में हैं। यह स्थिति बहुत भयावह है और समय रहते इस पर जरूरी ध्यान देने की जरूरत है वरना हमें पानी संकट की विभीषिका से कोई नहीं बचा सकता।
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