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दैनिक जागरण, 28 नवम्बर, 2017
भारत सरकार के जल संसाधन मंत्री के तौर पर मैंने तालाब संवर्धन की एक बड़ी योजना बनायी, जिसका फायदा राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश (अविभाजित), महाराष्ट्र ने बड़े पैमाने पर उठाया। उत्तराखण्ड में भी भारत सरकार ने हरिद्वार के करीब सौ तालाबों व नैनीताल के कुछ तालों को सुधारने के लिये प्रोजेक्ट स्वीकृत किया। जिन राज्यों के पास एक निर्धारित मशीनरी थी, उन्होंने उपरोक्त योजना का भरपूर लाभ उठाया।
कुछ निर्णय छोटे होते हैं, मगर उनका महत्त्व दूरगामी होता है। ऐसे निर्णय राज्य के विकास की आवश्यकता विशेषतः क्षेत्रीय विशेषताओं को ध्यान में रखकर लिये जाते हैं। उत्तराखण्ड में पलायन, जल संकट, सीमान्त क्षेत्र की उपेक्षा, क्षेत्रीय विकास में असन्तुलन, प्रति व्यक्ति औसत आय में असन्तुलन, पहाड़ों में चकबन्दी, गरीबी, बेरोजगारी, असन्तुलित शहरीकरण आदि बड़े सवाल हैं। इनके हल खोजने के साथ-साथ इनसे जुड़े हुए छोटे पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। ऐसा ही प्रश्न चकबन्दी है। चकबन्दी का राज्य में उपलब्ध वर्तमान ढाँचा 17 वर्षों से हरिद्वार में उलझा पड़ा है और वहाँ चकबन्दी की बुरी स्थिति है। क्या वर्तमान चकबन्दी ढाँचे के साथ पर्वतीय क्षेत्रों की चकबन्दी को बढ़ाया जा सकता है? जो ध्यान और सोच पर्वतीय क्षेत्रों की आवश्यकता है उसे स्पष्टतः चिन्हित किए बिना अगले दस साल तक भी पर्वतीय चकबन्दी के विषय को कानून बनाने के बावजूद हम आगे नहीं बढ़ा पाएँगे।उत्तराखण्ड के सर्वांगीण नियोजित विकास के रास्ते में सतत जल उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है। गंगा, यमुना, शारदा व उसकी सहायक नदियों वाले उत्तराखण्ड में जल समस्या को इन नदियों से परे देखना पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के परिणाम स्वरूप अब बरसात में रिमझिम बारिश व शरद ऋतु की बर्फबारी कम होती जा रही है। ऐसा लम्बे समय से हो रहा है। प्रकृति में आए इस परिवर्तन का नतीजा हम सभी देख रहे हैं। पहाड़ों पर काफी कुछ बदलाव महसूस किए जा सकते हैं। पहले थोड़ी सी बारिश के बाद भी जगह-जगह जलस्रोत नजर आने लगते थे। अब हालात गम्भीर होने लगे हैं। आलम यह है कि नये जलस्रोत नहीं फूट रहे हैं, पुराने सूख रहे हैं। परिणाम स्वरूप सिंचाई व पेयजल के लिये वर्षभर पानी की उपलब्धता घटती जा रही है। छोटी नदियाँ बल्कि मझोली नदियाँ भी धीरे-धीरे बरसाती होती जा रही हैं। इनके जलस्तर में आ रही कमी संकेत है कि आने वाला वक्त कैसा होगा। इस चुनौती का उत्तर वर्षाजल का संग्रह है। यदि हम एक मिशन के तहत प्रतिवर्ष 30 प्रतिशत वर्षाजल संग्रहित कर लें तो ग्रामीण विकास का परिदृश्य बदलना प्रारम्भ हो जाएगा। पिछली सरकार ने वन विभाग से छोटे-छोटे खालों के साथ-साथ जंगलों के ढालों में बड़ी संख्या में ट्रेंचेज बनवाए। सिंचाई विभाग को छोटे जलाशय बनाने का काम सौंपा। मेरा मानना है कि 30 प्रतिशत जल संग्रह के लक्ष्य को पाने के लिये एक समर्पित मशीनरी की आवश्यकता है। यह कार्य अलग विभाग या निदेशालय ही कर सकता है।
भारत सरकार के जल संसाधन मंत्री के तौर पर मैंने तालाब संवर्धन की एक बड़ी योजना बनायी, जिसका फायदा राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश (अविभाजित), महाराष्ट्र ने बड़े पैमाने पर उठाया। उत्तराखण्ड में भी भारत सरकार ने हरिद्वार के करीब सौ तालाबों व नैनीताल के कुछ तालों को सुधारने के लिये प्रोजेक्ट स्वीकृत किया। जिन राज्यों के पास एक निर्धारित मशीनरी थी, उन्होंने उपरोक्त योजना का भरपूर लाभ उठाया। मगर उत्तराखण्ड उलझा रह गया। मुझे खेद है कि राज्य के तालाबों व जलाशयों के मरने व सिकुड़ने का सिलसिला जारी है और हम जागने की बजाय सो जाना चाहते हैं। उत्तराखण्ड से इस दिशा में जो भी प्रयास अभी तक किए गए हैं, उनका पटाक्षेप हो रहा है।
कूड़ा प्रबन्धन शहरों की समस्या तो है ही बड़े गाँव भी इस समस्या से बुरी तरह से ग्रस्त हैं। मैदानी क्षेत्रों के गाँवों में चले जाइए। वहाँ का दृश्य मनोमस्तिष्क को विचलित कर देता है। पानी की निकासी का प्रबन्ध न होने से और तालाब जहाँ सारा पानी जाता था, उसके सिकुड़ने या खत्म होने से गाँवों में जल भराव एक बड़ी समस्या बन गया है। गाँवों में जहाँ जिन्दगी सुकून देती थी, अब चुनौतीपूर्ण बन गई है। शहरी औद्योगिक क्षेत्रों के निकट के गाँवों के हालात और बुरे हैं, क्योंकि इनकी जनसंख्या बहुत बढ़ गई है। शौचालयों व गाँवों की आन्तरिक सड़कों व गलियों की स्थिति बहुत चिन्ताजनक है। ज्यों-ज्यों शहरीकरण बढ़ेगा कूड़ा-कचरे का प्रबन्धन चुनौती बनता जाएगा। गाँवों में पानी की निकासी व शहरों के कूड़ा प्रबन्धन के लिये उत्तराखण्ड की पुरानी व्यवस्थाओं से अलग हटकर सोचने और काम करने की आवश्यकता है। राज्य को अपने सभी नागरिकों को घर देने के लिये शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में पचपन हजार घरों की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों व नए शहरीकृत क्षेत्रों में यह कार्य उत्तराखण्ड आवास एवं विकास अथॉरिटी कर सकती है, परन्तु पुराने-संकरे नगरीय क्षेत्रों में नए मकान बनाना चुनौतीपूर्ण है। कूड़ा प्रबन्धन एवं ड्रेनेज सिस्टम को गठित करने के लिये राज्य सरकार ने कूड़ा प्रबन्धन व ग्रामीण रोड व ट्रेनेज निर्माण के लिये पृथक विभाग बनाए।
क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करना व सीमान्त गाँवों से बढ़ते हुए पलायन को रोकना बड़ी चुनौती है। केन्द्र सरकार की दो योजनाओं सीमान्त क्षेत्र विकास और पिछड़ा क्षेत्र विकास से राज्य को जोड़ने का कोई निर्धारित माध्यम उत्तराखण्ड में नहीं है। हमें यदि राज्य के विभिन्न जिलों व जिलों के कुछ क्षेत्रों के मध्य विकास के असन्तुलन को समाप्त करना है तो सीमान्त व पिछड़े क्षेत्रों की समस्याओं के चिन्हीकरण व निदान के लिये स्पष्ट व सशक्त माध्यम खड़ा करना आवश्यक है। यह कार्य ग्रामीण विकास व पंचायती राज के ढाँचे के अन्तर्गत सम्भव नहीं है, क्योंकि इन विभागों के पास कुछ और बड़े कार्य हैं। अतः सीमान्त तथा पिछड़ा क्षेत्र विकास विभागों का महत्त्व हमें न चाहते हुए स्वीकार करना चाहिए।
उत्तराखण्ड में गरीबी के विरुद्ध भेड़ व बकरीपालन एक बड़ा हथियार है। वर्ष 2014 से पहले राज्य में स्थापित बकरी व भेड़ पालन केन्द्र प्रायः समाप्त हो गए थे। पिछली सरकार ने बकरी, भेड़ पालन के लिये अहिल्या बाई होल्कर मिशन प्रारम्भ किया। उत्तराखण्ड को अपने तरीके से माइक्रो प्लानिंग की आवश्यकता है। हमें कुछ निर्णय लीक से हटकर करने चाहिए। एक बड़ी छतरी की बजाय छोटी-छोटी छतरियों के तहत इन योजनाओं को संचालित किया जाना चाहिए। हमें खबरदार रहना चाहिए कि कहीं हमारी राजनैतिक सोच कुछ अच्छी पहलों को समय से पहले मार न दें। राज्य सरकार द्वारा पूर्व सृजित विभागों को बड़े विभागों में समायोजित करना कुछ ऐसा ही कदम है। यूँ आने वाला समय प्रत्येक निर्णय का मूल्यांकन करेगा, परन्तु कहीं ऐसा न हो विकास के आगे बढ़ते समय में हम पीछे न छूट जाएँ।
(लेखक उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हैं)