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9 सितंबर 2011, साउथ एशियन डॉयलॉगस् ऑन इकोलॉजिकल डेमोक्रेसी (सैडेड) नई दिल्ली
‘केंद्रीय श्रम राज्य मंत्री, भारत सरकार’ श्री हरीश रावत बाद के दौर में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री भी रहे। 9 सितंबर 2011 को हिमालय दिवस के अवसर पर उनका वक्तव्य हुआ था। उनके वक्तव्य का लिखित पाठ यहां प्रस्तुत है।
मैं तो चाहूंगा कि एक दिन ऐसा आए कि भारत की संसद कहे कि हम कई ‘डे’ मनाते हैं अब हम एक दिन ‘हिमालय डे’ भी मनाएंगे। मेरा ये भी मानना है कि ये हिमालय सिर्फ तीस प्रतिशत भू-भाग का हिस्सा नहीं बल्कि तमाम हिस्सों का रेगूलेटर है। अगर यह रेगूलेटर सही दिशा में काम करेगा तभी हमें आॅक्सीजन और जीवन मिलेगा और अगर यह सही दिशा में नहीं चला तो चाहे आप दस अपोलो और खोल लीजिए, कुछ नहीं हो सकता। मेरा मानना है कि हिमालय को समझने के लिए अगर आप बहुगुणा जी को सुन लें और समझ लें तो पर्यावरण के प्रति एक समझ बनती है। हमारे लिए यह भी बड़ी खुशी की बात है कि देश के नीतिकारों, विचारकों के बीच भी बहुगुणा जी का बड़ा सम्मान है।
पर्यावरण खासकर हिमालयी सरोकारों को उन्होंनें चिन्हित और चित्रित किया है। आज हम विकास के मानक को पर्यावरण से अलग रख कर देख ही नहीं सकते और न समझ सकते हैं। एक समय था जब हम-लोग पर्यावरण नहीं बल्कि केवल विकास की बात करते थे। उस समय भी बहुगुणा जी हमको रास्ता दिखाते थे। सन् 1980 में जब वन संरक्षण के लिए कानून बनाने की बात हो रही थी तब हम जैसे लोग कानून के विरोधी थे।
इस संबंध में बात करने के लिए जब हम लोग इंदिरा जी के पास गए तो उन्हें बताया कि इससे हमारे राज्य का विकास रूक जाएगा। तब उन्होंने कहा था कि विकास तभी होगा जब पहाड़ रहेंगे। यदि हम इस कानून को नहीं बनाएंगे तो पेड़ बचेंगे ही नहीं और जब पेड़ नहीं बचेंगे तो नदियां नहीं बचेंगी, देश नहीं बचेगा फिर तुम अकेले बचकर क्या तय करोगे? ये तुम्हारी आज की सोच हो सकती है लेकिन कल के उत्तराखंड को बनाने वहां के पहाड़ को बचाने के लिए यह कानून बनाना जरूरी है। मैं उस समय केवल 27-28 साल का था।
तब हमारी सोच का अपना दायरा था और जब उस कानून को बनाने के बाद चुनाव आया तब चुवान के लिए हेलीकाॅप्टर में जाते थे। तब आज की तरह सुरक्षा का ताम-झाम नहीं होता था। एक ही हेलीकाॅप्टर में सब जाते थे। प्रधानमंत्री को आप नजदीक से देख सकते थे। साथ बैठ सकते थे। बात कर सकते थे। उसी हेलीकाॅप्टर में मैं भी था। नीचे देखा कि अल्मोड़ा के जंगलों में आग लगी है तब बीपी सिंह हमारे मुख्यमंत्री थे वो भी साथ थे। इंदिरा जी ने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि हरीश तुमको यहां से नीचे डाल देते हैं। मैनें कहा जी मैं समझा नहीं! तब उन्होंने कहा तुम लोग तो संसद में खूब चपड़-चपड़ करते हो। देखो नीचे आग लगी है। कभी यहां के लोगों से भी बात करते हो? इसके बाद जब हम लोग पिथौरागढ़ की जनसभा में पहुंचे तो इंदिरा जी का पूरा भाषण आग और पहाड़ के जंगलों पर था।
मुझे खुशी है कि हम समय के प्रवाह के साथ कई क्षेत्रों में आगे बढ़े हैं। मेरा मानना है कि जो लोग कहते हैं कि पहाड़ का पानी और युवा पलायन कर चुका है तो मैं कहूंगा कि यह स्वभाविक प्रक्रिया है लेकिन इसे परिमार्जित किया जा सकता है। इनमें वो गुण पैदा किए जा सकते हैं जो मनुष्य के लिए या किसी भी क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं। आज हमारे सामने जो सबसे बड़ी कठिनाई आ रही है वो है कि हिमालय का जो विकास है जिसमें मैं शिक्षा समेत अन्य चीजों को भी जोड़ता हूं, उसका धरातल से अब कोई संबंध नहीं रह गया है। जब मैं जूनियर हाईस्कूल में पढ़ता था तब हमारे शिक्षक सफाई अभियान चलाया करते थे। हमारे कृषि के अध्यापक हमें बताते थे कि हम कैसे अपने घर के आस-पास फूल या पौधे लगाकर हरियाली बनाए रख सकते हैं।
आज हम अपने बच्चों को नहीं बता रहे हैं कि पेड़-पौधों का क्या महत्व है। हमारी खेती के बारे में भी कोई जानकारी नहीं दी जा रही है जिस वजह से वो धीरे-धीरे छूट रही है। आज हिमालयी क्षेत्रों के लिए खेती एक बड़ी चुनौती है। इस विषय पर हमारे नीति निर्माताओं, पदाधिकारियों और सरकार को गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। पहाड़ी खेती का संबंध बहुत सी चीजों से है जिसमें बागवानी भी शामिल है। हम देख रहे हैं कि किस तरह मौदानों में थोड़ी सी बारिश होने पर बाढ़ सी स्थिति बन जाती है।
इसका सबसे बड़ा कारण है कि पहाड़ों में खेतों की खुदाई ही नहीं हो रही है। जब खुदाई ही नहीं होगी तो पानी कैसे ठहरेगा? पानी जमीन में नहीं जा पा रहा है। पानी ऊपर से बहकर गांवों में पहुंच रहा है और गांव में तो हमने सीसी मार्ग बना दिया है तो पानी तीव्र वेग से बहता। जमीन को काटता हुआ आगे बढ़ जाता है। आज भावर के जमीन कट रहे हैं। पानी तो बरस रहा है पर भूगर्भ का पानी लगातार कम हो रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि पहाड़ की खेती छूट रही है। हमारे जंगल लगातार खत्म हो रहे हैं जो कि हमारे आॅक्सिजन हैं। जो सरकारी जंगल हैं वो तो सुरक्षित हैं पर बाकी जंगल, बागवानी और अन्य चीजें खत्म होती जा रही हैं।
अभी अमेरिका के साथ देहरादून में हम एक मीटिंग कर रहे हैं जिसमें इन क्षेत्रों से संबंधित सभी लोगों को शामिल किया जा रहा है। हम उस मीटिंग में पर्यावरण से संबंधित सभी मुद्दों पर बात करना चाह रहे हैं। साथ ही राज्य सरकार से बात करके कि किस तरह से पहाड़ के एग्रीकल्चर, होर्टीकल्चर को फिर से पुनर्जीवित किया जा सकता है, पर चर्चा होगी। मेरे लिए विकास का यह मतलब यह नहीं है कि हम अपनी बुनियादी चीजों को छोड़ दें। दुनिया के अंदर जिन देशों ने बहुत तरक्की की है, वहां अगर आप देखेंगे तो उन्होंने अपनी खेती और खेती में अपनी बुनियादी चीजों को नहीं छोड़ा है।
उन्होंने अपनी बुनियादी चीजों को ही तकनीकी रूप से विकसित किया है। लेकिन हमने तकनीक का मतलब यह लगाया है कि अपनी बुनियादी चीज को छोड़ दो और हम तो अब आधुनिक हो गए हैं, ज्ञानी हो गए हैं, बहुत आगे निकल आए हैं अब पुरानी चीजें छोड़ दो! आप देखते ही हैं कि आज हमारा पढ़ा-लिखा वर्ग खेती से, जमीन से, बागवानी से अपनी संस्कृति से कट रहा है। हम उन्हें जोड़ कर नहीं रख सकते। मुझे लगता है कि जब इस तरह की गोष्ठियां होती हैं, बात-चीत होती है तो इसका मतलब है हम उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अगर देश हमारी नहीं सुनेगा तो देश उसकी कीमत चुकाएगा।
आज दिल्ली में बैठकर प्लानिंग कमीशन या पाॅलिसी बनाने वाले लोग या सरकार में बैठे लोग अगर यह मान रहे हैं कि एक छोटा सा उत्तराखंड है, एक छोटा सा हिमाचल है और जो भी मध्य हिमालयी क्षेत्र हैं ये क्या हैं? यहां तो नौ या दस या जम्मू कश्मीर जोड़ लीजिए तो ग्यारह सांसद हैं, तो भारत की संसद के अंदर ये क्या ताकत रखेंगे? ऐसे में मेरा मानना है कि ये सांसद अपनी कीमत पर बैठेंगे क्योंकि ये ही एक ऐसा हिस्सा है जो सारे उत्तरी भारत की जलवायु के नियंत्रण का काम करता है। हमारे पास गंगा है यमुना है। जितनी भी नदियां हैं उसका उद्गम इन्हीं स्थानों से होता है और दुनिया का बड़ा जलाशय हिमालय है और हम इसको सुरक्षित रखते हैं। अगर यह सूख जाएगा तो उत्तर भारत कहां से पानी पाएगा?
इसलिए देश के लोगों के लिए यह जरूरी है कि वे गम्भीरता से हिमालय के बारे में सोचें। आज की स्थितियों के अनुसार बहुत सारी चीजों में बदलाव की जरूरत है क्योंकि आज का भारत 1980 का भारत नहीं है। आज एक साधन-सम्पन्न भारत है। एक शक्तिशाली भारत है। एक महा शक्तिशाली भारत है इसलिए इस महा शक्तिशाली भारत को महान हिमालय के लिए गम्भीरता से सोचना चाहिए। आप लोग हिमालय दिवस मना रहे हैं। मैं तो चाहूंगा कि एक दिन ऐसा आए कि भारत की संसद कहे कि हम कई ‘डे’ मनाते हैं अब हम एक दिन ‘हिमालय डे’ भी मनाएंगे। मेरा ये भी मानना है कि ये हिमालय सिर्फ तीस प्रतिशत भू-भाग का हिस्सा नहीं बल्कि तमाम हिस्सों का रेगूलेटर है। अगर यह रेगूलेटर सही दिशा में काम करेगा तभी हमें आॅक्सीजन और जीवन मिलेगा और अगर यह सही दिशा में नहीं चला तो चाहे आप दस अपोलो और खोल लीजिए, कुछ नहीं हो सकता।
मैं तो चाहूंगा कि एक दिन ऐसा आए कि भारत की संसद कहे कि हम कई ‘डे’ मनाते हैं अब हम एक दिन ‘हिमालय डे’ भी मनाएंगे। मेरा ये भी मानना है कि ये हिमालय सिर्फ तीस प्रतिशत भू-भाग का हिस्सा नहीं बल्कि तमाम हिस्सों का रेगूलेटर है। अगर यह रेगूलेटर सही दिशा में काम करेगा तभी हमें आॅक्सीजन और जीवन मिलेगा और अगर यह सही दिशा में नहीं चला तो चाहे आप दस अपोलो और खोल लीजिए, कुछ नहीं हो सकता। मेरा मानना है कि हिमालय को समझने के लिए अगर आप बहुगुणा जी को सुन लें और समझ लें तो पर्यावरण के प्रति एक समझ बनती है। हमारे लिए यह भी बड़ी खुशी की बात है कि देश के नीतिकारों, विचारकों के बीच भी बहुगुणा जी का बड़ा सम्मान है।
पर्यावरण खासकर हिमालयी सरोकारों को उन्होंनें चिन्हित और चित्रित किया है। आज हम विकास के मानक को पर्यावरण से अलग रख कर देख ही नहीं सकते और न समझ सकते हैं। एक समय था जब हम-लोग पर्यावरण नहीं बल्कि केवल विकास की बात करते थे। उस समय भी बहुगुणा जी हमको रास्ता दिखाते थे। सन् 1980 में जब वन संरक्षण के लिए कानून बनाने की बात हो रही थी तब हम जैसे लोग कानून के विरोधी थे।
इस संबंध में बात करने के लिए जब हम लोग इंदिरा जी के पास गए तो उन्हें बताया कि इससे हमारे राज्य का विकास रूक जाएगा। तब उन्होंने कहा था कि विकास तभी होगा जब पहाड़ रहेंगे। यदि हम इस कानून को नहीं बनाएंगे तो पेड़ बचेंगे ही नहीं और जब पेड़ नहीं बचेंगे तो नदियां नहीं बचेंगी, देश नहीं बचेगा फिर तुम अकेले बचकर क्या तय करोगे? ये तुम्हारी आज की सोच हो सकती है लेकिन कल के उत्तराखंड को बनाने वहां के पहाड़ को बचाने के लिए यह कानून बनाना जरूरी है। मैं उस समय केवल 27-28 साल का था।
तब हमारी सोच का अपना दायरा था और जब उस कानून को बनाने के बाद चुनाव आया तब चुवान के लिए हेलीकाॅप्टर में जाते थे। तब आज की तरह सुरक्षा का ताम-झाम नहीं होता था। एक ही हेलीकाॅप्टर में सब जाते थे। प्रधानमंत्री को आप नजदीक से देख सकते थे। साथ बैठ सकते थे। बात कर सकते थे। उसी हेलीकाॅप्टर में मैं भी था। नीचे देखा कि अल्मोड़ा के जंगलों में आग लगी है तब बीपी सिंह हमारे मुख्यमंत्री थे वो भी साथ थे। इंदिरा जी ने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि हरीश तुमको यहां से नीचे डाल देते हैं। मैनें कहा जी मैं समझा नहीं! तब उन्होंने कहा तुम लोग तो संसद में खूब चपड़-चपड़ करते हो। देखो नीचे आग लगी है। कभी यहां के लोगों से भी बात करते हो? इसके बाद जब हम लोग पिथौरागढ़ की जनसभा में पहुंचे तो इंदिरा जी का पूरा भाषण आग और पहाड़ के जंगलों पर था।
मुझे खुशी है कि हम समय के प्रवाह के साथ कई क्षेत्रों में आगे बढ़े हैं। मेरा मानना है कि जो लोग कहते हैं कि पहाड़ का पानी और युवा पलायन कर चुका है तो मैं कहूंगा कि यह स्वभाविक प्रक्रिया है लेकिन इसे परिमार्जित किया जा सकता है। इनमें वो गुण पैदा किए जा सकते हैं जो मनुष्य के लिए या किसी भी क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं। आज हमारे सामने जो सबसे बड़ी कठिनाई आ रही है वो है कि हिमालय का जो विकास है जिसमें मैं शिक्षा समेत अन्य चीजों को भी जोड़ता हूं, उसका धरातल से अब कोई संबंध नहीं रह गया है। जब मैं जूनियर हाईस्कूल में पढ़ता था तब हमारे शिक्षक सफाई अभियान चलाया करते थे। हमारे कृषि के अध्यापक हमें बताते थे कि हम कैसे अपने घर के आस-पास फूल या पौधे लगाकर हरियाली बनाए रख सकते हैं।
आज हम अपने बच्चों को नहीं बता रहे हैं कि पेड़-पौधों का क्या महत्व है। हमारी खेती के बारे में भी कोई जानकारी नहीं दी जा रही है जिस वजह से वो धीरे-धीरे छूट रही है। आज हिमालयी क्षेत्रों के लिए खेती एक बड़ी चुनौती है। इस विषय पर हमारे नीति निर्माताओं, पदाधिकारियों और सरकार को गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। पहाड़ी खेती का संबंध बहुत सी चीजों से है जिसमें बागवानी भी शामिल है। हम देख रहे हैं कि किस तरह मौदानों में थोड़ी सी बारिश होने पर बाढ़ सी स्थिति बन जाती है।
इसका सबसे बड़ा कारण है कि पहाड़ों में खेतों की खुदाई ही नहीं हो रही है। जब खुदाई ही नहीं होगी तो पानी कैसे ठहरेगा? पानी जमीन में नहीं जा पा रहा है। पानी ऊपर से बहकर गांवों में पहुंच रहा है और गांव में तो हमने सीसी मार्ग बना दिया है तो पानी तीव्र वेग से बहता। जमीन को काटता हुआ आगे बढ़ जाता है। आज भावर के जमीन कट रहे हैं। पानी तो बरस रहा है पर भूगर्भ का पानी लगातार कम हो रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि पहाड़ की खेती छूट रही है। हमारे जंगल लगातार खत्म हो रहे हैं जो कि हमारे आॅक्सिजन हैं। जो सरकारी जंगल हैं वो तो सुरक्षित हैं पर बाकी जंगल, बागवानी और अन्य चीजें खत्म होती जा रही हैं।
अभी अमेरिका के साथ देहरादून में हम एक मीटिंग कर रहे हैं जिसमें इन क्षेत्रों से संबंधित सभी लोगों को शामिल किया जा रहा है। हम उस मीटिंग में पर्यावरण से संबंधित सभी मुद्दों पर बात करना चाह रहे हैं। साथ ही राज्य सरकार से बात करके कि किस तरह से पहाड़ के एग्रीकल्चर, होर्टीकल्चर को फिर से पुनर्जीवित किया जा सकता है, पर चर्चा होगी। मेरे लिए विकास का यह मतलब यह नहीं है कि हम अपनी बुनियादी चीजों को छोड़ दें। दुनिया के अंदर जिन देशों ने बहुत तरक्की की है, वहां अगर आप देखेंगे तो उन्होंने अपनी खेती और खेती में अपनी बुनियादी चीजों को नहीं छोड़ा है।
उन्होंने अपनी बुनियादी चीजों को ही तकनीकी रूप से विकसित किया है। लेकिन हमने तकनीक का मतलब यह लगाया है कि अपनी बुनियादी चीज को छोड़ दो और हम तो अब आधुनिक हो गए हैं, ज्ञानी हो गए हैं, बहुत आगे निकल आए हैं अब पुरानी चीजें छोड़ दो! आप देखते ही हैं कि आज हमारा पढ़ा-लिखा वर्ग खेती से, जमीन से, बागवानी से अपनी संस्कृति से कट रहा है। हम उन्हें जोड़ कर नहीं रख सकते। मुझे लगता है कि जब इस तरह की गोष्ठियां होती हैं, बात-चीत होती है तो इसका मतलब है हम उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अगर देश हमारी नहीं सुनेगा तो देश उसकी कीमत चुकाएगा।
आज दिल्ली में बैठकर प्लानिंग कमीशन या पाॅलिसी बनाने वाले लोग या सरकार में बैठे लोग अगर यह मान रहे हैं कि एक छोटा सा उत्तराखंड है, एक छोटा सा हिमाचल है और जो भी मध्य हिमालयी क्षेत्र हैं ये क्या हैं? यहां तो नौ या दस या जम्मू कश्मीर जोड़ लीजिए तो ग्यारह सांसद हैं, तो भारत की संसद के अंदर ये क्या ताकत रखेंगे? ऐसे में मेरा मानना है कि ये सांसद अपनी कीमत पर बैठेंगे क्योंकि ये ही एक ऐसा हिस्सा है जो सारे उत्तरी भारत की जलवायु के नियंत्रण का काम करता है। हमारे पास गंगा है यमुना है। जितनी भी नदियां हैं उसका उद्गम इन्हीं स्थानों से होता है और दुनिया का बड़ा जलाशय हिमालय है और हम इसको सुरक्षित रखते हैं। अगर यह सूख जाएगा तो उत्तर भारत कहां से पानी पाएगा?
इसलिए देश के लोगों के लिए यह जरूरी है कि वे गम्भीरता से हिमालय के बारे में सोचें। आज की स्थितियों के अनुसार बहुत सारी चीजों में बदलाव की जरूरत है क्योंकि आज का भारत 1980 का भारत नहीं है। आज एक साधन-सम्पन्न भारत है। एक शक्तिशाली भारत है। एक महा शक्तिशाली भारत है इसलिए इस महा शक्तिशाली भारत को महान हिमालय के लिए गम्भीरता से सोचना चाहिए। आप लोग हिमालय दिवस मना रहे हैं। मैं तो चाहूंगा कि एक दिन ऐसा आए कि भारत की संसद कहे कि हम कई ‘डे’ मनाते हैं अब हम एक दिन ‘हिमालय डे’ भी मनाएंगे। मेरा ये भी मानना है कि ये हिमालय सिर्फ तीस प्रतिशत भू-भाग का हिस्सा नहीं बल्कि तमाम हिस्सों का रेगूलेटर है। अगर यह रेगूलेटर सही दिशा में काम करेगा तभी हमें आॅक्सीजन और जीवन मिलेगा और अगर यह सही दिशा में नहीं चला तो चाहे आप दस अपोलो और खोल लीजिए, कुछ नहीं हो सकता।