देश को चाहिए अब एक जल संस्कृति

Submitted by Editorial Team on Wed, 06/12/2019 - 14:58
Source
राष्ट्रीय सहारा, 9 जून 2019

देश में इस समय 600 जिलों में से 400 से भी ज्यादा जिले सूखे की चपेट में हैं।देश में इस समय 600 जिलों में से 400 से भी ज्यादा जिले सूखे की चपेट में हैं।

देश इस समय पानी का भीषण संकट झेल रहा है। मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान और तेलंगाना जैसे बड़े 21 राज्य पिछले कइ सालों से भीषण जल संकट का सामना कर रहे हैं। इन राज्यों में महाराष्ट्र और राजस्थान की स्थिति तो काफी चिंताजनक है। महाराष्ट्र के लातूर जिले की स्थिति तो यह हो जाती है कि वहां कुएं, ट्यूबवैल और टैंकरों के आसपास बकायदा धारा 144 लगाकर पांच से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगा दी जाती है। राजस्थान में तो स्थिति यह हो जाती है कि यहां लो रात में पानी के रखे स्थान पर ताला लगाकर रख रहे हैं। कहना होगा कि देश में इस समय 600 जिलों में से 400 से भी ज्यादा जिले सूखे की चपेट में हैं।

पानी की कमी से जुड़े साक्ष्य हैं कि देश में दो लाख लोगों की मृत्यु साफ पानी की कमी के चलते हो जाती है। ये स्थितियां बताती हैं कि जल का प्राकृतिक चक्र टूट गया है और अब इससे आम जीवन भी प्रभावित होने लगा है। इस चक्र के बिगड़ने से धरती की गरमाहट भी लगातार बढ़ रही है। यह इसी का दुष्परिणाम है कि हिमालय पर भी ग्लेशियरों के पिघलने की खबरे तेजी से आ रही हैं। जल इस समय संकट में है और वह बचाव के लिए एक स्वदेशी संस्कृति की मांग कर रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जल संकट से उबरने के ऐतिहासिक उपाय न करने के कारण ही जल के लिए युद्ध जैसे स्थिति पैदा हो गई है। सच्चाई यह है कि जल संकट की यह घटना प्राकृतिक आपदा की तुलना में सरकार द्वारा निर्मित मानवीय कुप्रबंधन और हमारे द्वारा जल की संस्कृति विकसित न करने का परिणाम अधिक है। पिछले पांच दशकों का इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार के जल संकटों से निबटने के लिए पिछली सरकारों ने राहत कार्यों के तदर्थवाद से प्रभावित होकर रोग पर सतही मरहम तो लगाया, परंतु जल संकट जैसी आपदा से निबटने के स्थायी का समाधान ढूंढने का प्रयास नहीं किये।

जल संग्रहण के प्रति लापरवाह ही बने रहे। आज का जल संकट हमारे आधुनिक होने की ललक, लापरवाही और कृत्रित जीवन जीने का ही नतीजा है। अब यह जल और अधिक उपेक्षा सहने की स्थिति में नहीं है। नदियों की कलकल बंद होने से नदी संस्कृति टूट गई है। भूमिगत जल को बचाने के लिए जहां सरकारी नीति के जरिए वाटर वीक बनाने की जरूरत है, वहीं दूसरी ओर जल के उचित प्रबंधन करने के व्यावहारिक उपाय अपनाने की भी भारी जरूरत है। 

आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस पृथ्वी पर पर्याप्त मात्रा में जल होने के बावजूद लो प्यास से तड़प रहे हैं। पृथ्वी की दो तिहाई सतह पानी से ढकी है और इसका मात्र एक तिहाई भाग भूमि के रूप में है। इस धरती के कुल जल भंडार का 97 फीसद भाग समुद्र है। यहां पृथ्वी के कुल जल का 3 फीसद भाग विभिन्न स्रोतों से आता है। सामान्यतः भूजल का यही भाग साफ पानी कहलाता है। इसके अलावा दो तिहाई पानी ग्लेशियर हिमाच्छादित पहाड़ों और नदियों से मिलता है। इस जल के मानवीय कुप्रबंधन से ही जल संकट उत्पन्न होता है। पिछले पांच दशकों में विकास के आयातित माॅडल के तहत नगरों के विकास पर ही अधिक ध्यान देने से लोगों का गांव से बाहर की ओर पलायन तेज हुआ है। पलायन की इस तीव्रता से गांवों की अर्थव्यवस्था को ही चौपट नहीं किया, बल्कि इससे ग्रामीण संस्कृति भी प्रभावित हुई है। इसलिए यहां यह कहना अति प्रासंगिक होगा कि विकसित देशें का आधुनिकीकरण करने से देश में भी उपभोग की आक्रामक प्रवृत्ति बढ़ी है। जिससे जल के असमान उपभोग और उसके दुरुपयोग को भी बल मिला है। इस बाहरी संस्कृति के आक्रामक उपभोग ने तो गांव की जल संस्कृति को भी अपनी चपेट में ले लिया है। 

पानी से जुड़े अध्ययन बताते हैं कि एक आदमी को वर्ष में औसतन 1,700 घन मीटर से भी अधिक जल की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति के लिए जल की उपलब्धता 1,000 घन मीटर से नीचे चली जाती है तो यह मान लिया जाता है कि वहां पानी का अभाव हो चला है। पानी के उपभोग का यही गणित जब 500 घनमीटर से भी नीचे चला जाता है तो उस क्षेत्र में जल अकाल जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं।पिछले दिनों राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश और ओडिशा एवं उत्तर प्रदेश में जब सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी तो वहां प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 400 घन मीटर से भी चीने चली गई। आंकड़े बताते हैं कि 1951 में पेयजल की प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति उपलब्धता 5,177 घनमीटर थी, जो पिछले छह दशकों में घटकर 1,150 घनमीटर रह गई है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि यदि जल की उपलब्घ मात्रा घटन का यही हाल रहा तो आने वाले दशकों में देश के अधिकांश हिस्से सूखे की गिरफ्त में आ जाएंगे।

पिछले कई वर्षों के आकलन के आधार पर ग्रीनलैंड की रिपोर्ट-2017 ने तो आने वाले दशकों में जल संकट की विस्फोटक स्थिति की ओर संकेत किया है। इस जल संकट को एक आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि भारत में प्रव्यिक्ति जल की उपलब्धता 1,200 घनमीटर के आसपास होने के बावजूद यहां जल संकट जैसी त्रासदी से गुजरना पड़ रहा है। जिन प्रदेशों में आज जल का संकट है, वहां जल के निरंतर दोहन से आज जल स्तर 500 फीट से लेकर 1,500 फुट नीचे चला गया है। निश्चित ही यह हमारे पिछले पांच-छह दशकों में भूजल के मनमाने दोहन का ही नतीजा रहा है। सत्तर के दशक के बाद ट्यूबवैल लगाने की खुली छूट, पांच सितारा होटलों एवं विस्तारित काॅलोनियों का निर्माण तथा महानगरों व नगरों के फैलाव इत्यादि से भूजल का बहुत अधिक दोहन हुआ है। चार दशक पश्चात उसी का नतीजा आज गंभीर हल संकट के रूप में हमारे सामने है। इसके अतिरिक्त गहराते जल संकट के लिए वनों की कटाई भी कम उत्तरदायी नहीं है।

देश की आजादी के बाद जब-जब देश में सूखा पड़ा है, तब-तब करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं। साथ ही उससे देश की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई है। पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा पेयजल आपूर्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जलनीति बनाकर अरबों-खरबों रुपयों की योजना बनाई गई, परंतु पेयजल संकट आज भी हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है। इस जल संकट से छुटकारे के लिए आखिर हमें जल संरक्षण की अपनी स्वदेशी परंपरागत संस्कृति और उसके मित्व्ययी उपभोग पर ही लौटकर आना पड़ेगा। गौरतलब है कि वर्ष के कुल 8,760 घंटों में से मात्र 100 घंटे ही बरसात होती है। आज की हमारी सारी परेशानी इन 100 घंटों के पानी का विधिवत संग्रहण, कुल प्रयोग और सुप्रबंधन न करने को लेकर ही है। जल संग्रहण और उसके खर्च की प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए 133 एकड़ में फैले राष्ट्रपति भवन के साथ साथ देश के अन्य बड़े भवनों, आवास विकास परिषदों और विकास प्राधिकारणों  के लिए बारिश के पानी को एकत्रित करने के लिए परंपरागत जल संग्रहण की योजनाएं तैयार की गई हैं।

इसके साथ-साथ जल संग्रहण के परंपरागत तौर-तरीकों को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने भी तमाम योजनाएं तैयार करते हुए देश के कई प्रदेशों में जल संग्रह करने के ढांचों को विकसित करने के लिए अधिक से अधिक अनुदान देने का प्रावधान किया है। आखिरकार जल संग्रहण के ये सभी परंपरागत तरीके हमारी संस्कृति से पहले से ही जुड़े हैं, परंतु हमनें अपनी उपभोगी और बाजारू संस्कृति के सामने इन्हें अनुपयोगी समझकर छोड़ दिया है। जल के दुरुपयोग से हम भौतिक स्वच्छता के भ्रम में तो रहे, मगर उसके संग्रहण के लिए मन से हम लापरवाह ही बने रहे। आज का यह जल संकट भी हमारे आधुनिक होने की ललक, लापरवाही और कृत्रिम जीवन जीने का ही नतीजा है। अब यह जल और अधिक उपेक्षा सहने का स्थिति में नहीं है। नदियों की कलकल बंद होने से नदी संस्कृति टूट गई है। वायु को प्रदूषित करने से उसके घातक परिणाम हम झेल रहे हैं।

भूमिगत जल को बचाने के लिए जहां सरकारी नीति के जरिए वाटर वीके मनाने की जरूरत है, वहीं दसूरी ओर जल के उचित प्रबंधन करने के व्यावहारिक उपाय अपनाने की भी भारी जरूरत है।आज मानव के व्यवहार में जल संस्कृति को न केवल पुनर्जीवित करने और उसे समृद्ध बनानरे की भी समय की ज्वलंत मांग है। कड़वा सच यह है कि जल संरक्षण की जन चेतना के विस्तार के साथ साथ इसके जरिये मानव जीवन में जल से जुड़ा अनुशासन आना भी बहुत जरूरी है। जल के बचाव और उसके रखरखाव के जरिये हम जल संस्कृति को विकसित करने और तभी उसकी सार्थकता को सिद्ध करने में कामयाब हो पाएंगे।