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दैनिक भास्कर, 22 मार्च 2011
हम क्यों बचाएं पानी और कैसे? जिसके पास पानी की कमी नहीं है, वह यही सवाल पूछता है। सहज मासूमियत से। देश के पूर्वी छोर में स्थित मेघालय के चेरापूंजी कस्बे का आम बाशिंदा भी यही सवाल करता है। इस सवाल का जवाब चेरापूंजी में ही बढ़ रहे पेयजल संकट और पश्चिमी छोर में स्थित जैसलमेर की सदियों पुरानी जल संरक्षण परंपरा के मूल में मौजूद है। दैनिक भास्कर ने देश के इन दोनों छोर पर पहुंचकर अपने पाठकों के लिए खास तौर पर इस सवाल का जवाब खंगाला। पर्यावरण विशेषज्ञों और यहां रह रहे लोगों की जल संस्कृति के जरिए।
चेरापूंजी : 1198.7 सेमी. साल भर में औसत बारिश, देश में सर्वाधिक
सबसे ज्यादा पानी फिर भी पीने के पानी की परेशानी

चेरापूंजी में सबसे ज्यादा बारिश होती है। फिर भी यहां पीने के पानी का संकट है। इसलिए क्योंकि लोगों की घरों में पानी बचाकर रखने की आदत नहीं है। यहां पहाड़ ही पानी का जरिया हैं। बहती धाराओं के नीचे बनाए गए कुंड या इनके नीचे खासतौर पर रखी टंकियों में पानी जमा होता है। फिर पीवीसी पाइपों से सीधे घरों में पहुंचता है। स्थानीय निवासी 50 वर्षीय केनी का सवाल यहां की जलसंस्कृति की पूरी कहानी खुद ही कह देता है। उनसे जब पानी बचाने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने उल्टा सवाल दाग दिया, ‘आखिर हम क्यों बचाएं पानी और कैसे?’
हालात : जो सपने में नहीं सोचे थे
यहां पिछले पांच साल में हालात तेजी से बदले हैं। आबादी में बढ़ोतरी, पर्यटकों की बढ़ती संख्या, औद्योगीकरण, पहाड़ों के खनन आदि से पेयजल संकट गहराया है। करीब 80 साल पहले स्थापित रामकृष्ण मिशन के स्वामी अनुक्तानंद बताते हैं, ‘दिसंबर से फरवरी के बीच पीने के पानी का संकट बढ़ने लगा है। हमने कभी सपने में नहीं सोचा था कि यहां भी ऐसा होगा। स्थानीय लोग इफरात बारिश के चलते पानी की अहमियत नहीं जानते। न संरक्षण की आदत कभी रही।’
कोशिश: खर्चीली परियोजनाएं
मेघालय सरकार ने दो साल पहले छह किलोमीटर दूर स्थित नदी से चेरापूंजी को पेयजल आपूर्ति की योजना बनाई। दूसरे शहरों की तरह खर्चीली परियोजना। लेकिन शिलांग के भूविद् डॉ. एचजे सिमलेह कहते हैं, ‘इससे सिर्फ दस साल तक पेयजल आपूर्ति हो पाएगी। वह भी तब जबकि नदी के जलग्रहण क्षेत्र को बचाकर रखा जाए।’
समाधान: बहते पानी को रोकना

जैसलमेर : 16.40 सेमी. औसत सालाना बारिश पिछली एक सदी में
रेत की रग-रग में सहेज लेते हैं पानी की बूंदें

जैसलमेर में लोग रेत की रग-रग में पानी की बूंदें सहेजना जानते हैं। पानी की हर बूंद के उपयोग की परंपरा यहां सदियों पुरानी है। लोग खाट पर बैठकर नहाते हैं। नीचे इकट्ठा किए पानी को घर व बर्तन धोने जैसे कामों में लेते हैं। तीन तरह का पानी रखते हैं। पीने के लिए मीठा, रसोई के लिए कम खारा और अन्य कामों के लिए खारा, करीब हर घर में टांका होता है। लवां गांव में ही 1,000 घरों पर करीब 900 टांके हैं। खेतोलाई के रणजीताराम कहते हैं, ‘बरसात में ओले गिरते हैं तो लोग बर्तनों में इकट्ठा कर लेते हैं। फिर इस पानी को कई दिनों तक पीते हैं।’
सीख: मधुमक्खियों से भी
लोगों ने बूंद-बूंद सहेजना प्रकृति की छोटी-छोटी चीजों से सीखा है। मसलन, मधुमक्खियों से। लवां गांव की भीलणी जसकौरी एक भील गीत का हवाला देकर कहती हैं, ‘मौमाख्यां (मधुमक्खियां) फूलां स्यूं रस रो एक-एक कण चुग र शहद रो ढेर लगा सकै है, तो के म्हे माणस बादलां रै बरसतै रस नै नीं सहेज सकां!’ यानी, ‘मधुमक्खियां फूलों से रस का एक-एक कण बीनकर शहद का ढेर लगा सकती हैं तो क्या हम इंसान बादलों से बरसते रस को भी नहीं सहेज सकते?’
अनुशासन: पूरी सख्ती से
लवां के सरपंच रिटायर्ड कैप्टन मूलाराम कुमावत कहते हैं, ‘यहां पानी का अनुशासन सख्त है। गांव के तालाब पर, जहां से पीने का पानी मिलता है, जानवरों को नहीं जाने दिया जाता। जल संकट हो और घर में दामाद भी आ जाए तो हम विनती कर लेते हैं, बटाऊ सा घी पी ल्यो, पाणी मत मांगो। घर की छतों पर किसी को चप्पल-जूते पहनकर जाने की इजाजत नहीं होती, खासकर बारिश में। जिससे छत गंदी न हो और बारिश का साफ पानी टांकों, कुइयों, कुओं में सहेजा जा सके।’
चिंता: इसके बाद भी
