आत्मनिर्भर होने से पहले ही हम सबको चेताया जाता है कि बजट बना कर चलो। दरअसल इस चेतावनी के पीछे सिखाने वाले दिनों को देखते हुए ही जेब ढीली करने की प्रवृत्ति विकसित करनी होती थी। केंद्र सरकार ने शुक्रवार को अपना आम बजट पेश कर दिया। भविष्य के हालातों का अभी से बजट बनाते हुए उसने आर्थिक पहलुओं के साथ पानी के प्रबंधन की भी कमर कसनी शुरू कर दी है अलग से जलशक्ति मंत्रालय गठित हो चुका है। प्रधानमंत्री मोदी अपने दूसरे कार्यकाल की पहली मन की बात में समस्या को जोर-शोर से उठा चुके हैं। स्वच्छ भारत मिशन की तरह 256 जिलों में इस अभियान को चलाने की सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति केंद्रीय आम बजट में दिख चुकी है। सरकार ने पानी के प्रबंधन का ये खाका इसलिए तैयार कर लिया है क्योंकि उसे अगले कुछ साल में अर्थव्यवस्था को 5 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचाना है। पानी नहीं रहेगा तो विकास पर प्रतिकूल असर पड़ेगा सरकार ने अपना पानी का बजट बना लिया है, समाज कब बनाएगा ? तमाम अध्ययन चीख-चीख कर भयावह संकट का इशारा कर रहे हैं। देश में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता पिछले 60 साल में 70 फीसद कम हो चुकी है। देश की सालाना जल जरूरत तो 3000 अरब घन मीटर है, जबकि हर साल 4000 अरब घन मीटर पानी बारिश के रूप में धरती को नसीब होता है। मुश्किल यह है कि हम 1.3 अरब लोग इसको केवल आठ फीसद ही सहेज पाते हैं। इस पानी को सहेजने का उपक्रम बढ़ाए। जितना ज्यादा पानी अपने अपनों की खातिर सहेजेंगे, आपका जल बजट उतना ही शानदार होगा। जल का प्रभावी प्रबंधन करें, पर बर्बाद न करें। आधे गिलास की दरकार है तो एक गिलास पानी से इनकार करें।
पहले समय में जहां पानी होता था, लोग वहीं बसते थे, लेकिन अब इसके विपरीत, जहां हम बसते हैं वहां पानी लेने जाना चाहते हैं। बहुमंजिली इमारतें इसका बड़ा उदाहरण हैं। प्रकृति में पानी ने सब की व्यवस्था की थी चाहे वह पहाड़ी हो या मैदानी इलाका। पहाड़ों में धारे गांवों को तर रखते थे, तो तालाब मैदानों को। राजस्थान में जहां पानी तलहटी में था, वहां और इस तरह की परिस्थितियों में कुओं की व्यवस्था थी। इतना ही नहीं खेती बाड़ी की फसलें भी प्रकृति द्वारा तय थी। जहां पानी नहीं था, वर्षा पोषित फसलों को साधा गया और जहां सतही पानी उपलब्ध था वहां धान गेहूं ने जगह बनाई। आज इसके विपरीत हम खेतों में पानी के लिए पताल पहुंच गए और इसलिए कुंए भी हाथ से निकल गए हैं। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि हमने पानी की नई व्यवस्था कायम की, जिसमें वितरण और उपयोग पर ज्यादा जोर था, न कि संरक्षण में। हमने पानी के लिए नदियों के स्तर की चिंता नहीं की। इसके परिणाम स्वरूप देश की छोटी बड़ी 4500 नदियां साथ छोड़ने को बैठ गई हैं। मतलब यह चलने के योग्य नहीं बचीं। उसका कारण साफ है कि नदियों के जलागम अब इस हाल में नहीं बचे कि वह पहले की तरह पानी को जोड़ सकें। कारण साफ है, उनमें वनाच्छादित क्षेत्रफल घटा है। फलस्वरुप वर्षा के पानी के सोखने की क्षमता है घट गई इसका दूसरा नुकसान बाढ़ के रूप में भी झेलना पड़ रहा है। ये प्राकृतिक बांध होते थे, जो वर्षा के पानी को रोकने में अहम भूमिका निभाते रहे। आज इनका अभाव साफ दिखाई देता है।
पानी को पाना है तो पानी के लिए पानी की पुरानी परंपराओं पर ही जीना होगा। पानी के लिए कोई नया विज्ञान चमत्कार नहीं दिखा सकता। नया विज्ञान हमेशा विकल्प तलाशता है। मतलब कुंओं से अगर पानी घटा दो पाताल में जाने के संयंत्र ढूंढ जाते रहे हैं। गुणवत्ता खत्म हुई तो प्यूरीफायर ने जगह बनाई या फिर बोतलों का व्यापार खड़ा हो गया।
50 साल पहले नदियों में जो पानी की चाल और मात्रा थी, वो गंभीर रूप से घट गई, इसलिए ऐसी परंपराएं थी की जलागम वनाच्छादित रहे और स्थानीय समुदाय उसके संरक्षण से जुड़ा रहे। वन नीति ने इस रिश्ते को खत्म किया और वन विभाग इस परंपरा को समझाने में असफल रहा। यह नदियां ही है जो समुद्र से पहले अपनी यात्रा में भूमिगत जल को भी संचित करती हैं। इनके गिरते स्तर ने भी भूमिगत जल पर संकट खड़ा कर दिया है। हमारी परंपरा का यह बड़ा हिस्सा रहा है कि हमने जल, जंगल, जमीन को हमेशा पूज्य दृष्टि से देखा और इसलिए उनकी अवहेलना करना अपराध माना जाता रहा है इस परंपरा की अनदेखी ने इन्हें उपयोगी वस्तु बना दिया और एक तरफा दोहन ने इन्हें गर्त में पहुंचा दिया। परंपराओं के पीछे हमेशा संरक्षित उपयोग का नियम रहा है और इसके छिन्न-भिन्न होने से संसाधन भी साथ छोड़ने में ही बेहतरी मान रहे हैं।
प्रकृति का पानी बार-बार एक इशारा करता रहा है कि मेरे उपयोग के साथ साथ मेरे संरक्षण की व्यवस्था पर भी चिंता करो। पानी को परंपरागत तरीकों से ही जोड़ा जा सकता है। कोई भी पानी चाहे वह हिमखंडों में हो या फिर नदी, कुओं और तालाबों में, वर्षा की देन है। परंपरा की इन कड़ियों को हमने समाप्त किया है और इसलिए अब पानी साथ नहीं है। पानी को पाना है तो पानी के लिए पानी की पुरानी परंपराओं पर ही जीना होगा। पानी के लिए कोई नया विज्ञान चमत्कार नहीं दिखा सकता। नया विज्ञान हमेशा विकल्प तलाशता है। मतलब कुंओं से अगर पानी घटा दो पाताल में जाने के संयंत्र ढूंढ जाते रहे हैं। गुणवत्ता खत्म हुई तो प्यूरीफायर ने जगह बनाई या फिर बोतलों का व्यापार खड़ा हो गया। विज्ञान की दिशा हमेशा विकल्पों पर ज्यादा केंद्रित रही है और यही मुख्य कारण रहा कि हम संसाधनों को जुटाने के प्रति गंभीर नहीं हुए, बल्कि विकल्प तलाशते रहे। अब जब वर्तमान विज्ञान पानी को लेकर असमंजस में है तो परंपराओं पर फोकस करना होगा। मन की बात कार्यक्रम में जल संचयन को लेकर प्रधानमंत्री द्वारा की गई बात तभी सार्थक होगी जब पानी के लिए हम परंपरा वाले रास्ते ही चुनें। हर घर, हर गांव के लिए चुनौती का समय है क्योंकि आज हमने संकट को नहीं समझा तो मानकर चलिए हम फिर कहीं भी जाएं पर पानी हमारे साथ नहीं जाने वाला।
पानी पर आर्थिक विकास
कुछ साल पहले फिक्की के सर्वे के अनुसार देश की 60 फीसद कंपनियों का मानना है कि जल संकट ने उनके कारोबार को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। इस सर्वे को हाल ही में चेन्नई की कंपनियों द्वारा उनके कर्मचारियों को दिए गए दिशा-निर्देश से जोड़कर देखने की जरूरत है, जिसमें कहा गया है कि सभी कर्मचारी अपने घर से ही काम करें। जल संकट के चलते आॅफिस न आएं। 1962 भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी चीन की दोगुने थी आज इसके प्रति व्यक्ति स्वच्छ भूजल की हिस्सेदारी चीन की 75 फीसद थी। 2014 में भारत की स्वच्छ भूजल की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी चीन की 54 फीसद रह गई। इस समय तक चीन की प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत से 3 गुना हो चुकी है।
उद्योग बेहाल
पिछले साल शिमला की रोजाना जलापूर्ति 4.4 करोड़ लीटर से कम होकर 1.8 करोड़ लीटर पर जा पहुंची। पानी के अभाव में पर्यटन चैपट हो गया। ऐसे में पानी नहीं होगा तो पर्यटन नहीं होगा, उद्योग अपने कच्चे माल को तैयार नहीं कर पाएंगे, लिहाजा देश की 5 पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना मूर्त रूप नहीं लेगा। वर्ष 2016 में विश्व बैंक के एक अध्ययन में चेताया गया है कि अगर भारत में संसाधनों का कुशलतम इस्तेमाल और उपायों पर ध्यान नहीं देता तो 2050 तक उसकी जीडीपी विकास दर 6 फीसद से भी नीचे रह सकती है। हाल ही में नीति आयोग की रिपोर्ट में बताया गया कि देश के कई औद्योगिक केंद्रों वाले शहर अगले साल तक शून्य भूजल स्तर तक जा सकते हैं। तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे उद्योगों से भरे पूरे राज्य अपनी शहरी आबादी के 53 से 72 फीसद हिस्से को ही जलापूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम हैं।
इजराइल से सीखे सिंचाई
देश की जीडीपी में खेती की 17 फीसद हिस्सेदारी है। पंजाब देश की चावल उत्पादन में 35 फीसद गेहूं उत्पादन में 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है, वहां भूजल स्तर हर साल आधे मीटर की दर से गिर रहा है। अभी देश में ज्यादातर सिंचाई डूब प्रणाली के तहत की जाती है, जिसमें खेत को पानी से लबालब कर दिया जाता है, जो गैर जरूरी है। पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचाने के लिए इजरायल की तर्ज पर ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली को व्यापक स्तर पर विकसित करने की दरकार है। तभी हम ‘‘हर ड्रॉप मोर क्रॉप’’ को चरितार्थ कर पाएंगे। कम पानी वाली फसलों और प्रजातियों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की दरकार है। 1 किलोग्राम चावल पैदा करने में 4500 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि गेहूं के लिए आंकड़ा 2000 लीटर है।
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