दिल्ली की प्यास (भाग 2)

Submitted by admin on Thu, 02/12/2009 - 02:05

वर्तमान नीतियां


बडे ख़ेद की बात है कि हमारी जल नियोजन नीतियों का अभी तक ठीक से पुनर्मूल्यांकन नहीं किया गया है। हमारे योजनाकारों द्वारा बनाई जाने वाली, बड़े-बड़े बाँधों, बैराजों और नहरों संबंधित परियोजनाओं के संबंध में भी अब संदेह उठने लगे हैं। सातवीं योजना प्रपत्र के सुझाव के अनुसार यदि हमने प्रमुख बड़े और मध्यम आकार की जल योजनाओं का पुनरीक्षण और पुनर्मूल्यांकन किया होता तो आठवीं योजना में इन परियोजनाओं पर 26000 करोड़ रुपया और इससे अगली योजना में लगभग दोगुनी राशि का निवेश न करना पड़ता। पंजाब और द्वाब में नहरों के विशद तंत्र से सिंचित क्षेत्र का भी ये हाल है कि वहां किसानों को इनसे जरूरत का 35 प्रतिशत पानी ही मिल पाता है। अतिरिक्त पानी के लिए उन्हें अपने टयूबवेल लगाने पड़ते हैं। नहरी परियोजनाओं की सिंचाई क्षमता, प्राधिकारियों ने 35 प्रतिशत मानी है। इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक वर्ष-वृत्त में 65 प्रतिशत पानी का क्षरण हुआ। शहरों को नहरों द्वारा जलापूर्ति करने में जलक्षरण (जिसमें जलाशय में वाष्पीकरण से हुआ क्षरण भी सम्मिलित है) 55 प्रतिशत है। नहरी सिंचाई पद्धति की अक्षमता के चलते अधिक नदी जल परिवर्तित किया जा रहा है। इसके कारण भूमिगत जलस्तर नीचा होते जाने का कुप्रभाव उन ज्यादातर किसानों पर पड़ रहा है; जो सिंचाई के लिए केवल कुओं पर निर्भर हैं। इस तरह उथली हो गयी नदियां, दिल्ली में जैसे यमुना, मल-मूत्र का भंडार ही नहीं बन गयी बल्कि, उनमें जो स्वच्छ जल होता भी था; वह भी प्रदूषित हो गया है और यह मनुष्य के लिए खतरनाक हो गया है। इस प्रकार दोषपूर्ण जल-प्रबन्धन दोगुना हानिकर बन गया है और मानव जीवन का नाश करना शुरू कर दिया है। जीवन के लिए जरूरी स्वच्छ जल की अब बेहद कमी पड़ गई है।

उच्चतम न्यायालय के मान्य न्यायाधीश जस्टिस कुलदीप सिंह ने 29 फ़रवरी 1996 के अपने एक आदेश में कहा था कि 'पानी प्रकृति का एक उपहार है, इसे किसी को भी अभिशाप में बदलने की अनुमति नहीं दी जा सकती। प्रथमत: मनुष्य को पीने के लिए जल का उपहार मिला है। नदी किनारे रहने वाले लोग प्यासे रहने को मजबूर किए जाएं, यह तो प्रकृति का उपहास करना हुआ। इसके विपरीत ऐसे लोग भी हैं, जो लाभकर स्थिति में हैं। उन्हें स्वच्छ जल पीने के अतिरिक्त अन्य उपयोगों में लाने की अनुमति मिली हुई है।' मान्य न्यायाधीश इस लेखक द्वारा दाखिल एक याचिका पर सुनवाई कर रहे थे। यह याचिका गंगा, यमुना में डाले जाने वाले जल-मल-कचरे का उचित ढंग से निपटान करने और इसके फलस्वरूप इन नदियों के प्राचीन वैभव को वापस लाए जाने की मांग के संबंध में थी।

याचिका के बाद दिए गए आदेश ने परोक्ष रूप से इस देश की जलनीति में परिवर्तन के प्रति युगान्तकारी प्रभाव डाला है। इससे पहले हमारे जल संसाधनों के उपयोग संबंधी योजनाओं में सदा सिंचाई को प्राथमिकता दी जाती थी। पीने का पानी तो मानों उपलब्ध था ही। नई राष्ट्रीय जलनीति ने इसके बाद ही पेयजल की सर्वोच्च प्राथमिकता का सिद्धांत स्थापित किया।

खेद है कि जल नियोजन नीतियां केवल सतही पानी को ध्यान में रखकर बनाई और लागू की जाती हैं। भूमिगत विशाल स्रोतों की उपेक्षा कर दी जाती है। हमारे योजनाकार और इंजीनियर ब्रिटिश राज की दो सौ साल पुरानी द्विआयामी जल नीतियों का आंख मीचकर अनुकरण कर रहे हैं। ऐसा करते हुए भी वह इस बात पर ध्यान नहीं दे रहे कि ब्रिटिश राज में भी इस बात की सावधानी बरती जाती थी, कि नदियों में पर्याप्त जल रहे। स्वतंत्र भारत के हमारे इंजीनियर और प्रशासक अपनी योजनाओं के परिणामों का मूल्यांकन करने में असफ़ल रहे हैं। उन्होंने जिस बांध, बैराज, नहर तंत्र की शुरूआत अति उत्साह से की थी, उसके दुष्परिणामों की वे प्राय: अनदेखी कर देते हैं। एक सर्वेक्षण में दर्जन भर से ज्यादा ऐसी कमियां सामने आई हैं; जिनसे प्रभावित लोगों की समस्याएं निरंतर बनी रहती हैं और जल की उपलब्धता में भी वार्षिक 60 प्रतिशत तक कमी आती है। ऐसी परियोजनाओं से उत्पन्न समस्याओं की एक लम्बी सूची होती है ।

इस देश में हजारों साल के अनुभव के आधार पर विकसित हुई त्रिआयामी जल-प्रबन्धन पद्धति, जो प्रकृति के अनुकूल थी, उसके लाभों पर विचार किए बिना ही छोड़ दी गई है। इसी प्रकार शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में जल-मल निपटान को उचित महत्व नहीं दिया जाता। इसे नालों के जरिए नदियों में छोड़ देने का आसान तरीका अपनाया गया है। इसमें से हमारे ज्यादातर शहरों में और इनके आसपास पर्यावरणीय महाविनाश देखने को मिलता है। केंद्र सरकार ने जल-प्रबंधन के विभिन्न पक्षों की देखभाल के लिए अनेक संस्थान स्थापित कर रखे हैं, पर कार्य क्षेत्र में अक्सर इनके हित आपस में टकराते हैं। जल-संसाधन मंत्रालय, केन्द्रीय जल आयोग और केंद्रीय भूमिगत जल बोर्ड के साथ राष्ट्रीय नदी जल संरक्षण निदेशालय भी केन्द्र सरकार में जल-प्रबन्धन के विभिन्न पक्षों के प्रति उत्तरदायी निकाय है। अपने संबंधित क्षेत्रों में अपनी समझ और नीतियों के अनुरूप कार्य करने में ये निकाय स्वतंत्र नहीं हैं। इनमें जो विभाग सरकार में अपना प्रभाव रखता है, वह अपनी परियोजनाओं के लिए धन और समर्थन जुटा लेता है। इससे अक्सर समन्वित जलप्रबंधन नीति छिन्न-भिन्न हो जाती है। यदि नदियों के थालों और भूमिगत जलाशयों जैसे महत्वपूर्ण स्रोतों का मानव कल्याण के लिए दोहन करना चाहते हैं, तो इनकी सुरक्षा के लिए समन्वित जलनीति आवश्यक है।

सन् 1946 में लेखक जब प्रथम बार दिल्ली आया था, तब उसे पिकनिक के लिए यमुना किनारे स्थित ओखला ले जाया गया था। अग्रेंजो द्वारा बनवाई गई आगरा नहर का मुख्यालय यहीं स्थित था। उस समय कोई भी यमुना के स्वच्छ नील जल में तैराकी कर सकता था और लाईसेंस से उसमें मछली पकड़ने की अनुमति भी थी। 1964 में यहां राष्ट्रीय नौका-दौड़ का आयोजन हुआ। तब लेखक को फ़िर नौसेना की ओर से रेस में हिस्सा लेने का संयोग मिला। उस समय भी पानी यहां पहले जैसा स्वच्छ और पर्वतीय धारा सा था। सातवें दशक के अंतिम वर्षों और आठवें दशक में इस स्थिति में बदलाव तब आने लगा जब, ज्यादा से ज्यादा पानी सिंचाई के लिए पश्चिम और पूर्वी यमुना नहरों में डाला जाने लगा। अंतत: आठवें दशक के अंत तक स्थिति यह हो गई कि ताजेवाला स्थित बैराज के निचले धारे में कोई पानी नहीं जाने दिया जा रहा था। इसमें बड़ी तादाद में शहरी जल-मल जमा हो गया था (आबादी बढ़ने के कारण)। इसका परिणाम यह हुआ कि साल में आठ महीने यमुना मृत नदी बनी रहने लगी। पूर्ववर्ती अंग्रेज सरकार जिसने उचित प्रवाह के स्तर से ज्यादा नदी से पानी निकालना निषिद्ध कर रखा था, के विपरीत दिल्ली की केंद्रीय सरकार इस सबकी असहायदर्शक बनी हुई है।

धीरे-धीरे जैसे-जैसे दिल्ली की आबादी बढ़ी और नगर जल-मल का निकास बढ़ता गया स्थिति भयावह हो उठी। सक्षम प्राधिकारियों से अपीलों और सेमिनारों के माध्यम से हस्तक्षेप के बावजूद भी, यह पत्थर सरकार और इसके आराम-तलब संस्थान नहीं हिले। हारकर 1992 में पूर्वोल्लिखित याचिका माननीय सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गई। याचिका का विषय यह था कि गंगा और यमुना दोनों में पर्याप्त प्रवाह योग्य पानी आने देना सुनिश्चित किया जाय और यह सुनिश्चित किया जाए कि यमुना में कोई अनुपचारित शहरी जल-मल न डाला जाएगा। गंगा में अनुपचारित, जल-मल न डाले जाने संबंधि एक याचिका पहले ही न्यायालय के पास विचाराधीन थी। यमुना को याचिका में वर्ष में आठ मास के लिए बिना कोई आक्सीजन और मरी मछली वाली मृत नदी कहा गया तो संबंधित सक्षम प्राधिकरणों ने बड़ी हाय तौबा मचाई। पर जब मान्य न्यायालय ने जोर देकर पूछा कि स्थिति को संभालने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं; तो उन्होंने यह तर्क पेश किया कि बढ़ती आबादी के चलते कुछ नहीं किया जा सका है। अभियोजनकर्ता को तब यह कहा गया कि यदि उसके द्वारा कोई वैकल्पिक नीति या एक्शन प्लान प्रस्तुत नहीं किया जाता है, तो प्रतिवादी केवल वाद-विवाद में अपना समय बर्बाद नहीं करेंगे। उस समय न्यायालय से प्रार्थना की गई कि विस्तृत रूप से वैकल्पिक नीतियां तैयार करने के लिए समय दिया जाए।

लेख – सुरेश्वर डी सिन्हा – पानी मोर्चा - कैसे स्वयं बुझाए, दिल्ली अपनी प्यास (भाग 2)

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