लेखक
सतलुज, गंगा, गोदावरी के मैदान, प्राकृतिक रूप से काफी समृद्ध हैं। जाहिर है कि कभी इसी समृद्धि के कारण, इन मैदानों में सर्वाधिक आबादी बसी। आज भी भारत की 50 प्रतिशत आबादी, इन्हीं मैदानों में रहती है। अकेले उत्तर प्रदेश की आबादी, ब्राजील के बराबर है और बिहार की आबादी, जर्मनी से ज्यादा है। मध्य प्रदेश और राजस्थान भी जनसंख्या विस्फोटक प्रदेश माने जाते हैं। इन मैदानों पर आबादी के दबाव का नतीजा भी अब सामने आने लगा है। हेमन्त भले ही न आया हो, जलवायु परिवर्तन का मौसम तो आ ही गया है। कहीं खेती पिछड़ने की चर्चा है, कहीं नवम्बर में गर्मी की, तो कहीं निगाहें पेरिस जलवायु सम्मेलन पर टिकी है। इससे उबे मन सवाल कर सकते हैं - “जलवायु बदल रही है, तो इसमें हम क्या करें? हमने थोड़े ही तापमान बढ़ाया है।... पूरे वायुमंडल का तापमान बढ़ा है। एक अकेले देश या व्यक्ति के करने से क्या होगा?’’
मेरा मानना है कि पृथ्वी में जो कुछ घट रहा है, जाने-अनजाने हम सभी का योगदान है; किसी का कम और किसी का ज्यादा। चाहे कचरा बढ़ा हो या भूजल उतरा हो; हरियाली घटी हो या तापमान बढ़ा हो, योगदान तो हम सभी ने कुछ-न-कुछ दिया ही है। अब इस पर विचारने की बजाय, विचार यह हो कि हम क्या करें? कोई एक देश या व्यक्ति अकेला क्या कर सकता है?
इसका सबसे पहला कदम यह है कि हम विश्व को आर्थिकी मानने की बजाय, एक शरीर मानना शुरू करें। पृथ्वी, एक शरीर ही है। सौरमंडल-इसका दिमाग, वायुमंडल-इसका दिल व उसमें संचालित होने वाली प्राणवायु, इसका नदियाँ इसकी नसें, भूजल इसकी रक्त वाहिनियाँ। दरख्त इसके फेफड़े, भूमि की परतें इसका पाचनतंत्र, किडनी, समुद्र इसका मूत्राशय और तापमान व नमी इसके उर्जा संचालक तत्व हैं। बुखार होने पर लक्षण भले ही अलग-अलग रूप में प्रकट होते हों, लेकिन प्रभावित तो पूरा शरीर ही होता है। आजकल पृथ्वी को बुखार है; प्रभावित भी पूरा शरीर ही होगा।
बुखार क्यों होता है? शरीर की क्षमता से अधिक गर्मी, अधिक ठंडी अथवा अधिक खा लेने से पेट में अपच...भोजन की सड़न या फिर कोई बाहरी विषाणु। पृथ्वी को भी यही हुआ है। हमने इसके साथ अति कर दी है।
बुखार होने पर हम क्या करते हैं। तीन तरीके अपनाते हैं। इसे सन्तति नियमन के इन तीन तरीकों से भी समझ सकते हैं कि पहला, ब्रह्मचर्य का पालन करें; ज्यादा उम्र में शादी करें। दूसरा, गर्भ निरोधकों का प्रयोग करें। तीसरा, प्रकृति को अकाल, बाढ़, सूखा व भूकम्प लाकर सन्तति नियमन करने दें।
हमारे द्वारा पहले दो तरीके न अपनाने पर प्रकृति तीसरा तरीका अपनाती है। दूसरा तरीका, भोग, उपभोग, खर्च बढ़ाने जैसा है। ब्रह्मचर्य, पूर्ण उपवास तथा अधिक उम्र में विवाह, आधा उपवास जैसा कार्य है। ये दोनो ही स्वावलम्बी व शरीर के द्वारा खुद के करने के काम हैं। इनके लिये बाहरी किसी तत्व पर निर्भरता नहीं है। इसी से शरीर का शोधन होगा और शरीर का बुखार उतरेगा।
स्पष्ट है कि उपभोग कम किये बगैर कोई कदम कारगर होगा; यह सोचना ही बेमानी है। किन्तु हमारी आर्थिक नीतियाँ और आदतें ऐसी होती जा रही हैं कि उपभोग बढ़ेगा और छोटी पूँजी खुदरा व्यापारी का व्यापार गिरेगा।
गौर कीजिए कि इस डर से पहले हम में से कई मॉल संस्कृति से डरे, तो अक्सर ने इसे गले लगाया। अब गले लगाने और डराने के लिये नया ई-बाजार है। यह ई बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलाएगा, कूरियर सेवा और पैकिंग इंडस्ट्री और पैकिंग कचरे को बढ़ाएगा। ई-बाजार, अभी यह बड़े शहरों का बाजार है, जल्द ही छोटे शहर-कस्बे और गाँव में भी जाएगा।
तनख्वाह की बजाय, पैकेज कमाने वाले हाथों का सारा जोर नए-नए तकनीकी घरेलू सामानों और उपभोग पर केन्द्रित होने को तैयार है। जो छूट पर मिले.. खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीड़ बढ़ाएगी और जाहिर है कि बाद में कचरा।
सोचिए! क्या हमारी नई जीवनशैली के कारण पेट्रोल, गैस व बिजली की खपत बढ़ी नहीं है? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चलकर क्या हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं? भारत की आबादी लगातार बढ़ रही है। क्या इसकी रफ्तार कम करना भी इसमें सहायक होगा? विचारणीय प्रश्न है।
गौर कीजिए कि भारत, आबादी के मामले में नम्बर दो है; किन्तु भारत में जनसंख्या वृद्धि दर, चीन से ज्यादा है। कारण कि भारत में प्रजनन दर, चीन के दोगुने के आसपास है। भारत के भीतर ही देखिए। सतलुज, गंगा, गोदावरी के मैदान, प्राकृतिक रूप से काफी समृद्ध हैं। जाहिर है कि कभी इसी समृद्धि के कारण, इन मैदानों में सर्वाधिक आबादी बसी।
आज भी भारत की 50 प्रतिशत आबादी, इन्हीं मैदानों में रहती है। अकेले उत्तर प्रदेश की आबादी, ब्राजील के बराबर है और बिहार की आबादी, जर्मनी से ज्यादा है। मध्य प्रदेश और राजस्थान भी जनसंख्या विस्फोटक प्रदेश माने जाते हैं। इन मैदानों पर आबादी के दबाव का नतीजा भी अब सामने आने लगा है।
कभी हरित क्रान्ति का अगुवा बना सतलुज का मैदान कृषि गुणवत्ता और सेहत के मामले में टें बोलने लगा है। गंगा के मैदान के दो बड़े राज्य - उत्तर प्रदेश और बिहार की प्रति व्यक्ति आय, संसाधनों की मारामारी और अपराध के आँकड़ें खुद ही अपनी कहानी कह देते हैं। खाली होते गाँव और शहरों में बढ़ता जनसंख्या घनत्व! पानी और पारिस्थितिकी पर भी इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा है।
जलवायु परिवर्तन इस दुष्प्रभाव को घटाए, इससे पहले जरूरी है कि हम जनसंख्या और जनसंख्या वितरण में सन्तुलन लाने की कोशिश तेज करें। तटस्थता से काम चलेगा नहीं। यह तटस्थता कल को औद्योगिक उत्पादन भी गिराएगी। नतीजा? स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का यह दौर, मानव सभ्यता में छीना-झपटी और वैमनस्य का नया दौर लाने वाला साबित होगा। आज ही चेतें।
मेरा मानना है कि पृथ्वी में जो कुछ घट रहा है, जाने-अनजाने हम सभी का योगदान है; किसी का कम और किसी का ज्यादा। चाहे कचरा बढ़ा हो या भूजल उतरा हो; हरियाली घटी हो या तापमान बढ़ा हो, योगदान तो हम सभी ने कुछ-न-कुछ दिया ही है। अब इस पर विचारने की बजाय, विचार यह हो कि हम क्या करें? कोई एक देश या व्यक्ति अकेला क्या कर सकता है?
इसका सबसे पहला कदम यह है कि हम विश्व को आर्थिकी मानने की बजाय, एक शरीर मानना शुरू करें। पृथ्वी, एक शरीर ही है। सौरमंडल-इसका दिमाग, वायुमंडल-इसका दिल व उसमें संचालित होने वाली प्राणवायु, इसका नदियाँ इसकी नसें, भूजल इसकी रक्त वाहिनियाँ। दरख्त इसके फेफड़े, भूमि की परतें इसका पाचनतंत्र, किडनी, समुद्र इसका मूत्राशय और तापमान व नमी इसके उर्जा संचालक तत्व हैं। बुखार होने पर लक्षण भले ही अलग-अलग रूप में प्रकट होते हों, लेकिन प्रभावित तो पूरा शरीर ही होता है। आजकल पृथ्वी को बुखार है; प्रभावित भी पूरा शरीर ही होगा।
बुखार क्यों होता है? शरीर की क्षमता से अधिक गर्मी, अधिक ठंडी अथवा अधिक खा लेने से पेट में अपच...भोजन की सड़न या फिर कोई बाहरी विषाणु। पृथ्वी को भी यही हुआ है। हमने इसके साथ अति कर दी है।
बुखार होने पर हम क्या करते हैं। तीन तरीके अपनाते हैं। इसे सन्तति नियमन के इन तीन तरीकों से भी समझ सकते हैं कि पहला, ब्रह्मचर्य का पालन करें; ज्यादा उम्र में शादी करें। दूसरा, गर्भ निरोधकों का प्रयोग करें। तीसरा, प्रकृति को अकाल, बाढ़, सूखा व भूकम्प लाकर सन्तति नियमन करने दें।
हमारे द्वारा पहले दो तरीके न अपनाने पर प्रकृति तीसरा तरीका अपनाती है। दूसरा तरीका, भोग, उपभोग, खर्च बढ़ाने जैसा है। ब्रह्मचर्य, पूर्ण उपवास तथा अधिक उम्र में विवाह, आधा उपवास जैसा कार्य है। ये दोनो ही स्वावलम्बी व शरीर के द्वारा खुद के करने के काम हैं। इनके लिये बाहरी किसी तत्व पर निर्भरता नहीं है। इसी से शरीर का शोधन होगा और शरीर का बुखार उतरेगा।
उपभोग बढ़ाता बाजार
स्पष्ट है कि उपभोग कम किये बगैर कोई कदम कारगर होगा; यह सोचना ही बेमानी है। किन्तु हमारी आर्थिक नीतियाँ और आदतें ऐसी होती जा रही हैं कि उपभोग बढ़ेगा और छोटी पूँजी खुदरा व्यापारी का व्यापार गिरेगा।
गौर कीजिए कि इस डर से पहले हम में से कई मॉल संस्कृति से डरे, तो अक्सर ने इसे गले लगाया। अब गले लगाने और डराने के लिये नया ई-बाजार है। यह ई बाजार जल्द ही हमारे खुदरा व्यापार को जोर से हिलाएगा, कूरियर सेवा और पैकिंग इंडस्ट्री और पैकिंग कचरे को बढ़ाएगा। ई-बाजार, अभी यह बड़े शहरों का बाजार है, जल्द ही छोटे शहर-कस्बे और गाँव में भी जाएगा।
तनख्वाह की बजाय, पैकेज कमाने वाले हाथों का सारा जोर नए-नए तकनीकी घरेलू सामानों और उपभोग पर केन्द्रित होने को तैयार है। जो छूट पर मिले.. खरीद लेने की भारतीय उपभोक्ता की आदत, घर में अतिरिक्त उपभोग और सामान की भीड़ बढ़ाएगी और जाहिर है कि बाद में कचरा।
सोचिए! क्या हमारी नई जीवनशैली के कारण पेट्रोल, गैस व बिजली की खपत बढ़ी नहीं है? जब हमारे जीवन के सारे रास्ते बाजार ही तय करेगा, तो उपभोग बढ़ेगा ही। उपभोग बढ़ाने वाले रास्ते पर चलकर क्या हम कार्बन उत्सर्जन घटा सकते हैं? भारत की आबादी लगातार बढ़ रही है। क्या इसकी रफ्तार कम करना भी इसमें सहायक होगा? विचारणीय प्रश्न है।
आबादी में भी है बढ़वार
गौर कीजिए कि भारत, आबादी के मामले में नम्बर दो है; किन्तु भारत में जनसंख्या वृद्धि दर, चीन से ज्यादा है। कारण कि भारत में प्रजनन दर, चीन के दोगुने के आसपास है। भारत के भीतर ही देखिए। सतलुज, गंगा, गोदावरी के मैदान, प्राकृतिक रूप से काफी समृद्ध हैं। जाहिर है कि कभी इसी समृद्धि के कारण, इन मैदानों में सर्वाधिक आबादी बसी।
आज भी भारत की 50 प्रतिशत आबादी, इन्हीं मैदानों में रहती है। अकेले उत्तर प्रदेश की आबादी, ब्राजील के बराबर है और बिहार की आबादी, जर्मनी से ज्यादा है। मध्य प्रदेश और राजस्थान भी जनसंख्या विस्फोटक प्रदेश माने जाते हैं। इन मैदानों पर आबादी के दबाव का नतीजा भी अब सामने आने लगा है।
कभी हरित क्रान्ति का अगुवा बना सतलुज का मैदान कृषि गुणवत्ता और सेहत के मामले में टें बोलने लगा है। गंगा के मैदान के दो बड़े राज्य - उत्तर प्रदेश और बिहार की प्रति व्यक्ति आय, संसाधनों की मारामारी और अपराध के आँकड़ें खुद ही अपनी कहानी कह देते हैं। खाली होते गाँव और शहरों में बढ़ता जनसंख्या घनत्व! पानी और पारिस्थितिकी पर भी इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा है।
तटस्थता घातक
जलवायु परिवर्तन इस दुष्प्रभाव को घटाए, इससे पहले जरूरी है कि हम जनसंख्या और जनसंख्या वितरण में सन्तुलन लाने की कोशिश तेज करें। तटस्थता से काम चलेगा नहीं। यह तटस्थता कल को औद्योगिक उत्पादन भी गिराएगी। नतीजा? स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का यह दौर, मानव सभ्यता में छीना-झपटी और वैमनस्य का नया दौर लाने वाला साबित होगा। आज ही चेतें।