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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 8 अक्टूबर 2014
विशेषज्ञ बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच खुले में शौच के लिए जाने वाले लोगों की संख्या में करीब एक करोड़ लोगों की बढ़ोतरी हुई है। स्वच्छ भारत मिशन सिर्फ शौचालयों के निर्माण से पूरा नहीं होने को। यहां गंदगी और स्वच्छता का ककहरा पढ़ाना पड़ेगा लोगों को। पहले बताना पड़ेगा कि गंदगी है क्या, फिर सफाई की बात होगी। लोगों को समझाना बुझाना, उन्हें गंदगी और सफाई का अर्थ समझाना इसका जरूरी हिस्सा होना चाहिए। नहीं तो इससे पहले चलाए गए निर्मल भारत अभियान और टोटल सैनिटेशन प्रोग्राम की तरह इसके भी विफल होने की आशंका है। मोदी के सपनों के स्वच्छ इंडिया से कोसों दूर, अलग-थलग अपनी अस्वच्छता में लोटता, कीचड़-कचरे में सना-लिपटा एक हिंदुस्तान भी है। युगों से एक ही जगह पर। हर तरह के मिशन और अभियानों से दूर, उदासीन और अप्रभावित, किसी आधुनिक दर्शन के स्पर्श से अछूता। वहां कोई मोदीबाजी नहीं चलती। वहां न कोई सामाजिक अभियान है न राजनीति न स्वच्छता का कोई नव स्थापित धर्म।
राजघाट, बनारस में गंगा और वरुणा के संगम के पास ठहरा हूं। एक पुल है, जिस पर चलना भी अपने आप में साहस का काम है। किसी तरह पार हो जाए तो लगता है पता नहीं वापसी में सलामत मिलेगा या नहीं। वरुणा के पार, सुबह सूर्योदय से ठीक पहले पहुंच जाएं तो काशी में सूर्योदय के दैवीय सौंदर्य के बारे में प्रकृति प्रेमियों ने, कवियों ने, ज्ञानीजनों ने जो भी कहा है उसे भूल कर नए सिरे से कुछ सोचने की जरूरत पड़ेगी।
आपको कई खोपड़ियां दिखेंगी, घास, झाड़-झंखाड़, गंगा के किनारे घुटनों तक उगी फसलों, खर-पतवार के बीच और वातावरण में व्याप्त तरह-तरह की बदबुओं के चौतरफा प्रहार के बीच आपको ज्यादा नहीं सोचना पड़ेगा कि इन खोपड़ियों के नीचे की देह किस कार्य में लिप्त है। ये सिर्फ वे लोग नहीं जिनके घर पर टॉयलेट नहीं। इन्हें दूसरों की जमीन पर, खुले में निपटने में आनंद का भान होता है। इसका आनंद सिर्फ एक खास किस्म की सांस्कृतिक विरासत को जीने वाले ही समझ सकते हैं। न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वेयर में उछलने कूदने वाले भक्त नहीं। ये मस्त लोग हैं, जो दुनिया को अपने ठेंगे पर रखते हैं और खुद को बदलती दुनिया के हिसाब से ढालने की बनिस्बत अपनी तथाकथित सांस्कृतिक मस्ती में ही खुश हैं।
मशहूर अंग्रेज लेखक ब्रायन डब्ल्यू ऑल्डिस ने कहा है- सभ्यता है उस दूरी का नाम जिसे मनुष्य ने अपनी निष्ठा और स्वयं के बीच कायम कर रखी है। इस हिंदुस्तान पर यह बात लागू नहीं होती। लागू की ही नहीं जा सकती। खास कर मोदी के बनारस पर तो बिलकुल भी नहीं। यहां गंदगी और स्वच्छता को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा। जो दिल्ली, गुजरात में गंदगी है, उसे यहां गंदगी नहीं माना जाएगा। यहां गंदगी एक मानसिक अवस्था है। गंदगी की प्राचीन संस्कृति है, यहां और उसके गहरे धार्मिक, आध्यात्मिक निहितार्थ हैं।
आदि शंकराचार्य यहां आए थे और बार-बार गंगा में स्नान करते और वहां घाट की सीढ़ियों पर कोई असवर्ण उनको छू लेता। फिर उनको स्नान करना पड़ता। जब उन्होंने उसे डांट लगाई तो वह बोला क्या बार-बार उसे नहलाते हो जो साफ ही नहीं हो सकती। आत्मा तो कभी न गंदी होती है और न साफ। तुम किसे नहला रहे हो?
इस तरह का श्मशान ज्ञान, अस्तित्व की नश्वरता, उसकी क्षणभंगुरता का ज्ञान सदियों से काशी की रगों में बहता है। कभी बनारस आइए और यहां के आतंरिक कचरे की वाह्य अभिव्यक्ति देखिए। आधुनिक लोग कहेंगे- नो सिविक सेंस। खाली सड़कों पर भी बेतहाशा हॉर्न भौंकते हुए चलना। गंगा में अपनी बीमार आदतों को बहाते जाना, थूकना, साफा मार के अंगौछा-लंगोट धोना, फिर उसे मां कहकर उसकी पूजा भी करना, यह सब बनारसी मस्ती का हिस्सा है। डेढ़ पाव मलाई डकार कर वहीं दोना फेंक देना। मघई पान का बीड़ा जमा कर वहीं पिच्च से थूक मारना। असंवेदनशीलता और आलस्य यहां मौज-मस्ती जैसे शब्दों के पीछे शरण ले लेते हैं।
काशी इस दुनिया का सबसे पुराना जीवित शहर है। इस बात को दोहराते लोग अघाते नहीं। यहां का कचरा भी बहुत पुराना है। भारी भरकम, सदियों पुराने अतीत का वेग है इस कचरे में। भौतिक और सांस्कृतिक दोनों है। शिव और शव में फर्क नहीं। गंदगी और सफाई में कोई विशेष अंतर नहीं। इतने दिनों तक लोग गंदगी में रहे हैं कि सफाई यहां नई तरह की बीमारियां पैदा कर सकती है। जैसा आम तौर पर माना जाता है, यहां शव का स्पर्श अशुद्ध नहीं करता। पतली गलियां हैं जो मणिकर्णिका तक जाती हैं।
मणिकर्णिका महाश्मशान है, जहां हर समय कोई न कोई शव जलता है और शव न हो तो कभी किसी पुतले का अग्नि संस्कार किया जाता है। पर चिता की आग कभी बुझती नहीं यहां। आप भौतिक कचरा तो देर-सवेर साफ कर ही डालेंगे पर इस सांस्कृतिक कचरे का क्या होगा? यह जो रक्त में बहता है और यहां वहां से, किसी भी जगह न निकला तो फिर कचरा क्या है? इसमें तो प्रबल वेग है अतीत का और इसकी अनदेखी तो ईशनिंदा के समान गंभीर है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच खुले में शौच के लिए जाने वाले लोगों की संख्या में करीब एक करोड़ लोगों की बढ़ोतरी हुई है। स्वच्छ भारत मिशन सिर्फ शौचालयों के निर्माण से पूरा नहीं होने को। यहां गंदगी और स्वच्छता का ककहरा पढ़ाना पड़ेगा लोगों को। पहले बताना पड़ेगा कि गंदगी है क्या, फिर सफाई की बात होगी। लोगों को समझाना बुझाना, उन्हें गंदगी और सफाई का अर्थ समझाना इसका जरूरी हिस्सा होना चाहिए। नहीं तो इससे पहले चलाए गए निर्मल भारत अभियान और टोटल सैनिटेशन प्रोग्राम की तरह इसके भी विफल होने की आशंका है।
लोगों को अपनी पुरानी आदतें बदलनी होंगी। ऐसे असंख्य घर मिलेंगे जहां शौचालय को ही अपवित्र माना जाता है। घर में शौचालय का होना एक अशुभ लक्षण माना जाता है। ऐसे भी अनगिनत लोग मिलेंगे जो कहते हैं कि खुले में शौच पर जाना स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। प्रकृति की गोद का इससे बेहतर उपयोग क्या हो सकता है?
प्रभाते मल दर्शनम् का सिद्धांत रहा है अपने यहां। अब मल दर्शनम् तो खुले मैदान या खेत में ही हो सकता है, आधुनिक वेस्टर्न स्टाइल टॉयलेट में तो होने से रहा। नरेंद्र भाई के स्वच्छ भारत मिशन को इन सच्चाइयों से भी रूबरू होना पड़ेगा। इतनी सदियां हो गईं, भाई इसमें रहते अब तो सब कुछ फिर से समझना पड़ेगा।
(ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com)
राजघाट, बनारस में गंगा और वरुणा के संगम के पास ठहरा हूं। एक पुल है, जिस पर चलना भी अपने आप में साहस का काम है। किसी तरह पार हो जाए तो लगता है पता नहीं वापसी में सलामत मिलेगा या नहीं। वरुणा के पार, सुबह सूर्योदय से ठीक पहले पहुंच जाएं तो काशी में सूर्योदय के दैवीय सौंदर्य के बारे में प्रकृति प्रेमियों ने, कवियों ने, ज्ञानीजनों ने जो भी कहा है उसे भूल कर नए सिरे से कुछ सोचने की जरूरत पड़ेगी।
आपको कई खोपड़ियां दिखेंगी, घास, झाड़-झंखाड़, गंगा के किनारे घुटनों तक उगी फसलों, खर-पतवार के बीच और वातावरण में व्याप्त तरह-तरह की बदबुओं के चौतरफा प्रहार के बीच आपको ज्यादा नहीं सोचना पड़ेगा कि इन खोपड़ियों के नीचे की देह किस कार्य में लिप्त है। ये सिर्फ वे लोग नहीं जिनके घर पर टॉयलेट नहीं। इन्हें दूसरों की जमीन पर, खुले में निपटने में आनंद का भान होता है। इसका आनंद सिर्फ एक खास किस्म की सांस्कृतिक विरासत को जीने वाले ही समझ सकते हैं। न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वेयर में उछलने कूदने वाले भक्त नहीं। ये मस्त लोग हैं, जो दुनिया को अपने ठेंगे पर रखते हैं और खुद को बदलती दुनिया के हिसाब से ढालने की बनिस्बत अपनी तथाकथित सांस्कृतिक मस्ती में ही खुश हैं।
मशहूर अंग्रेज लेखक ब्रायन डब्ल्यू ऑल्डिस ने कहा है- सभ्यता है उस दूरी का नाम जिसे मनुष्य ने अपनी निष्ठा और स्वयं के बीच कायम कर रखी है। इस हिंदुस्तान पर यह बात लागू नहीं होती। लागू की ही नहीं जा सकती। खास कर मोदी के बनारस पर तो बिलकुल भी नहीं। यहां गंदगी और स्वच्छता को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा। जो दिल्ली, गुजरात में गंदगी है, उसे यहां गंदगी नहीं माना जाएगा। यहां गंदगी एक मानसिक अवस्था है। गंदगी की प्राचीन संस्कृति है, यहां और उसके गहरे धार्मिक, आध्यात्मिक निहितार्थ हैं।
आदि शंकराचार्य यहां आए थे और बार-बार गंगा में स्नान करते और वहां घाट की सीढ़ियों पर कोई असवर्ण उनको छू लेता। फिर उनको स्नान करना पड़ता। जब उन्होंने उसे डांट लगाई तो वह बोला क्या बार-बार उसे नहलाते हो जो साफ ही नहीं हो सकती। आत्मा तो कभी न गंदी होती है और न साफ। तुम किसे नहला रहे हो?
इस तरह का श्मशान ज्ञान, अस्तित्व की नश्वरता, उसकी क्षणभंगुरता का ज्ञान सदियों से काशी की रगों में बहता है। कभी बनारस आइए और यहां के आतंरिक कचरे की वाह्य अभिव्यक्ति देखिए। आधुनिक लोग कहेंगे- नो सिविक सेंस। खाली सड़कों पर भी बेतहाशा हॉर्न भौंकते हुए चलना। गंगा में अपनी बीमार आदतों को बहाते जाना, थूकना, साफा मार के अंगौछा-लंगोट धोना, फिर उसे मां कहकर उसकी पूजा भी करना, यह सब बनारसी मस्ती का हिस्सा है। डेढ़ पाव मलाई डकार कर वहीं दोना फेंक देना। मघई पान का बीड़ा जमा कर वहीं पिच्च से थूक मारना। असंवेदनशीलता और आलस्य यहां मौज-मस्ती जैसे शब्दों के पीछे शरण ले लेते हैं।
काशी इस दुनिया का सबसे पुराना जीवित शहर है। इस बात को दोहराते लोग अघाते नहीं। यहां का कचरा भी बहुत पुराना है। भारी भरकम, सदियों पुराने अतीत का वेग है इस कचरे में। भौतिक और सांस्कृतिक दोनों है। शिव और शव में फर्क नहीं। गंदगी और सफाई में कोई विशेष अंतर नहीं। इतने दिनों तक लोग गंदगी में रहे हैं कि सफाई यहां नई तरह की बीमारियां पैदा कर सकती है। जैसा आम तौर पर माना जाता है, यहां शव का स्पर्श अशुद्ध नहीं करता। पतली गलियां हैं जो मणिकर्णिका तक जाती हैं।
मणिकर्णिका महाश्मशान है, जहां हर समय कोई न कोई शव जलता है और शव न हो तो कभी किसी पुतले का अग्नि संस्कार किया जाता है। पर चिता की आग कभी बुझती नहीं यहां। आप भौतिक कचरा तो देर-सवेर साफ कर ही डालेंगे पर इस सांस्कृतिक कचरे का क्या होगा? यह जो रक्त में बहता है और यहां वहां से, किसी भी जगह न निकला तो फिर कचरा क्या है? इसमें तो प्रबल वेग है अतीत का और इसकी अनदेखी तो ईशनिंदा के समान गंभीर है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि 2001 से 2011 के बीच खुले में शौच के लिए जाने वाले लोगों की संख्या में करीब एक करोड़ लोगों की बढ़ोतरी हुई है। स्वच्छ भारत मिशन सिर्फ शौचालयों के निर्माण से पूरा नहीं होने को। यहां गंदगी और स्वच्छता का ककहरा पढ़ाना पड़ेगा लोगों को। पहले बताना पड़ेगा कि गंदगी है क्या, फिर सफाई की बात होगी। लोगों को समझाना बुझाना, उन्हें गंदगी और सफाई का अर्थ समझाना इसका जरूरी हिस्सा होना चाहिए। नहीं तो इससे पहले चलाए गए निर्मल भारत अभियान और टोटल सैनिटेशन प्रोग्राम की तरह इसके भी विफल होने की आशंका है।
लोगों को अपनी पुरानी आदतें बदलनी होंगी। ऐसे असंख्य घर मिलेंगे जहां शौचालय को ही अपवित्र माना जाता है। घर में शौचालय का होना एक अशुभ लक्षण माना जाता है। ऐसे भी अनगिनत लोग मिलेंगे जो कहते हैं कि खुले में शौच पर जाना स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। प्रकृति की गोद का इससे बेहतर उपयोग क्या हो सकता है?
प्रभाते मल दर्शनम् का सिद्धांत रहा है अपने यहां। अब मल दर्शनम् तो खुले मैदान या खेत में ही हो सकता है, आधुनिक वेस्टर्न स्टाइल टॉयलेट में तो होने से रहा। नरेंद्र भाई के स्वच्छ भारत मिशन को इन सच्चाइयों से भी रूबरू होना पड़ेगा। इतनी सदियां हो गईं, भाई इसमें रहते अब तो सब कुछ फिर से समझना पड़ेगा।
(ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com)