गेहूँ

Submitted by Hindi on Wed, 08/10/2011 - 17:20
गेहूँ एक खाद्यान्न जिसकी खेती अत्यंत प्राचीन काल से हो रही है। इसकी उत्पत्ति के स्थान के विषय में मतभेद हैं। डीकेंडोल के विचार से इसकी उत्पत्ति दजला फरात की घाटी में हुई। कुछ अमेरीकन वैज्ञानिकों का मत है कि सीरिया और पैलेस्टाइन इसकी उत्पत्ति के स्थान हैं। बेबीलोन के विचार से ड्यूरम (Durum) जाति के गेहूँ का मूल स्थान अबीसीनिया और वलगेअर (Vulgare) जाति के गेहूँ का मूल स्थान भारत का उत्तर पश्चिमी भाग तथा अफगानिस्तान है। संसार में सबसे अधिक क्षेत्रफल में गेहूँ की खेती होती है। धान का स्थान द्वितीय है। भारतवर्ष में गेहूँ का लगभग 69 प्रतिशत क्षेत्र यदि एक रेखा मुंबई से कलकत्ते तक खींची जाए तो इसके उत्तर की ओर होगा। इस प्रकार उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में गेहूँ उत्पन्न करने वाला अधिक क्षेत्रफल पाया जाता है।

गेहूँ ठंडी, गरम और शीतोष्ण जलवायु में होने के कारण संसार के प्रत्येक भाग में उगाया जाता है, परंतु ठंडे भाग ही उसके लिए अधिक उपयुक्त हैं। आद्र, गरम जलवायु इसके लिए अनुपयुक्त है। संसार के बहुत से भागों में या तो जाड़ों के प्रारंभ में या बसंत ऋतु में बोया जाता है। जो क्रमानुसार विंटर ह्वीट और स्प्रिंग ह्वीट कहलाता है। भारतवर्ष में वर्षा ऋतु अनुपयुक्त होने के कारण यह जाड़ों में, जिसे रबी की फसल कहते हैं, पैदा किया जाता है। इसे जमने, बढ़ने और फूल आने के लिए ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है, परंतु पकने के लिए गरम जलवायु लाभदायक है। इसके लिए दुमट भूमि भी उपयुक्त है, परंतु मटियार दुमट अधिक उत्तम समझी जाती है, वैसे यह अन्य भूमियों पर भी हो सकती है। ड्यूरम जाति का गेहूँ कपासवाली काली मिट्टी में भी अच्छी तरह से विकसित होता है।

गेहूँ बोने के लिए खेत की अच्छी तैयारी आवश्यक है। खेत तैयार होने पर मिट्टी अच्छी प्रकार भुरभुरी होनी चाहिये। इसके लिए खेत की तैयारी शस्यचक्र पर भी निर्भर रहती है। गेहूँ उत्तर प्रदेश में अधिकतर चौमस, पलिहर, या खरीफ की फसल, जैसे मक्का, मूँग, उड़द, धान आदि, अथवा हरी खाद के पश्चात्‌ बोया जाता है। परती पड़े खेत में एक जुताई यदि हो सके तो पिछली रबी की फसल कटने के बाद गरमी में कर देनी चाहिए। वर्षा ऋतु में समयानुसार जुलाई, अगस्त से दो तीन जुताई, खर पतवार दूर करने के लिए मिट्टी पलटने वाले हल से, कर देनी चाहिए। वर्षा ऋतु समाप्त होने से पूर्व ही जुताई कल्टिवेटर हल, देशी हल या हैरो से करनी चाहिए तथा प्रत्येक बार पाटा लगा देना चाहिए। इससे मिट्टी भुरभुरी होगी, ढेले भी टूटेंगे, खेत समतल होगा तथा खेत में नमी स्थिर रह सकेगी। कुल 10 या 12 जुताइयों में खेत बोने योग्य हो जायगा।

खरीफ की फसल काटने के पश्चात्‌ एक या दो जुताइयाँ, यदि नमी काफी हो तो, मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए। आवश्यकता हो तो पलेवा भी कर लेना चाहिए। यदि घास अधिक हो तो जुताई के पश्चात्‌ कटीला पाटा, हैरो आदि चलाकर घास निकाल देनी चाहिए। शेष तैयारी पहले की भाँति करनी चाहिए।

जिस खेत में हरी खाद देनी हो उसमें यदि हो सके तो गरमी में एक जुताई, पिछली रबी की फसल काटकर, कर देनी चाहिए। यदि सिंचाई के साधन उपलब्ध हों तो हरी खाद के लिए उस क्षेत्र में उपयुक्त कोई शैबिक (leguminous) फसल, जैसे सनई, मूँग, ढेंचा, गुआर आदि बो देनी चाहिए। यदि पलेवा हो सके तो पिछली अच्छी वर्षा के साथ हरी खादवाली फसल बोनी चाहिए। खेतों में फास्फेट खाद हरी खादवाली फसल बोने से पहले ही भूमि में डाल देनी चाहिए। हरी खादवाली फसल की जुताई उचित समय पर होनी आवश्यक है। जुताई में गेहूँ बोने से लगभग दो माह पूर्व हो जानी चाहिए, जिससे खाद बोते समय तक सड़कर ठीक दशा में आ सके। उत्तर प्रदेश में हरी खाद 15 अगस्त तक जोत देनी चाहिए। देर में जुताई होने से हानि की संभावना रहती है। जहाँ वर्षा कम होती हो तथा सिंचाई के साधन न हों वहाँ हरी खाद ठीक न रहेगी। हरी खाद जोतने के पश्चात्‌ तीन चार सप्ताह तक फिर जुताई आदि न करनी चाहिए। बाद में खेत की तैयारी अन्य विधियों के समान ही कर लेनी चाहिए।

जहाँ वर्षा कम होती है, सिंचाई की समुचित व्यवस्था भी नहीं है तथा भूमि ढालू है वहाँ भूमि तथा जलसंरक्षण की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। अच्छी उपज लेने के लिए खाद देना आवश्यक है। अधिकतर भूमियों में नाईट्रोजन की कमी पाई जाती है। कहीं कहीं फॉस्फोरस की भी कमी रहती है। पोटाश या अन्य पोषक तत्वों की कमी अधिकांश स्थानों में नहीं पाई जाती है। नाइट्रोजन जहाँ तक हो सके आधा भाग कार्बनिक (organic) खाद के रूप में तथा शेष रासायनिक खादों के रूप में दिया जा सकता है। कार्बनिक खाद, जैसे घूरा, कंपोस्ट, आदि, खेत की तैयारी के समय, बोआई से एक दो मास पूर्व, खेत में मिला देनी चाहिए। रासायनिक खाद, जैसे ऐमोनियम सल्फेट, बोने से पहले बिखेरकर, या पहली सिंचाई के साथ, फसल में खाद डालने के हेतु खेत में डाल देनी चाहिए। बीज के साथ मिलाकर डालने में जमाव कम हो सकता है। साधारणत गेहूँ के लिए 50 पौंड नाइट्रोजन प्रति एकड़ पर्याप्त होता है। अधिक नाइट्रोजन से फसल के गिरने की आशंका बढ़ जाती है और गिरने से उपज घट जाती है। जिन खेतों में फास्फोरस की कमी हो वहाँ सुपरफॉस्फेट, या हड्डी की खाद, तीन या चार इंच गहरे हल के पीछे भूमि में डाल देनी चाहिए। बोते समय बीज के नीचे भी यह खाद डाली जा सकती है।

बीज की बोआई ताप कम हो जाने पर प्रारंभ करनी चाहिए। उत्तर प्रदेश में उचित ताप लगभग 22 अक्टूबर तक पहुँचता है। उचित उपज के लिए बुआई दो तीन सप्ताह में समाप्त कर देनी चाहिए। पंजाब में बुआई का समय नवंबर के प्रारंभ से अंत तक रहता है तथा उत्तर प्रदेश में मध्य नवंबर तक स्थानांतर से समय बदल सकता है।

अधिकतर बीज हल के साथ ड्रिल (drill) बाँधकर, या हल के पीछे, या किसी सीड ड्रिल से पंक्तियों में बोते है। पंक्तियों का अंतर 9 से लेकर 12 इंच तक होता है। जहाँ खेत में नमी अधिक होती है वहाँ बिखेर कर भी बोते हैं। यदि बीज कम हो तो बराबर अंतर पर एक दाना बोकर अधिक पैदावार के लेने के लिए हाथ से भी बोते हैं। हाथ से बोने में बीज की मात्रा 6 सेर से लेकर 8 सेर प्रति एकड़ लगती है। इसकी अपेक्षा बिखेर कर बोने में बीज की मात्रा अधिक लगती है। ड्रिल से बोकर पाटा नहीं लगाया जाता। अन्य विधियों से बोकर हल्का पाटा लगाना आवश्यक है।

बुआई के पश्चात्‌, जहाँ सिंचाई की आवश्यकता होती है, वहाँ, जमने से पूर्व, सिंचाई के लिए क्यारियाँ बना देनी चाहिए। यह कार्य माँझे या मिट्टी पलटने के हल से किया जा सकता है। यदि वर्षा न हो तो बोआई के लगभग एक मास पश्चात्‌ पहली सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली सिंचाई देर में करने से जड़ें गहरी हो जाती हैं। परंतु दीमक का आक्रमण हो या नमी कम हो तो सिंचाई जल्दी कर देनी चाहिए। सिंचाइयों की संख्या आवश्यकतानुसार विभिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न होती है। उत्तर प्रदेश में अधिकतर भागों में 2, 3 सिंचाइयाँ पर्याप्त होती हैं, किन्हीं-किन्हीं स्थानों में 6-7 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। एक सिंचाई दाने में दूध पड़ते समय अधिक आवश्यक होती है। असिंचित और सिंचित क्षेत्रों की उपज में नदियों के कछार को छोड़कर काफी अंतर होता है।

यदि खेत में खरपतवार अधिक हो तो निराई से उपज बढ़ जाती है। वैसे सिंचाई के अतिरिक्त अन्य और किसी कार्य की आवश्यकता नहीं होती।

गेहूँ भली प्रकार पकने पर ही काटना चाहिए। पाश्चात्य देशों में कटाई, मड़ाई सब मशीन द्वारा एक साथ साथ होती है। परंतु भारत में अधिकतर पहले गेहूँ को काटकर खलिहान में एकत्र कर लेते हैं और धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा भाग लेकर बैलों से मड़ाई करते हैं। मड़ाई के लिए कुछ यंत्र, जैसे ओलपैड (Olpad), ्थ्रोशर आदि भी प्रयोग में आते हैं। उसाई करके भूसा और दाने को अलग कर लेते हैं। गेहूँ की प्रति एकड़ उपज उत्तर प्रदेशीय सिंचित क्षेत्र में लगभग 15 से 20 मन तक तथा असिंचित क्षेत्र में 8 से 10 मन तक होती है।

गेहूँ के बहुत से शस्यचक्र हैं, जैसे (1) ज्वार, चना, परती, गेहूँ, (2) ज्वार तथा अरहर, परती, गेहूँ (3) हरी खाद, गेहूँ, कपास, गन्ना, आदि।

अधिक उपज लेने के लिए उपयुक्त बीज की भी आवश्यकता होती है। गेहूँ की बहुत सी जातियाँ हैं। इसकी जातियों का वर्गीकरण क्रोमोसोम (chromosome) की संख्या के आधार पर (14,28,42) तीन भागों में किया गया है। इसकी बहुत सी उपजातियाँ हैं। भारतवर्ष में 28 क्रोमोसोम वाली जातियों में ट्रिटिकम डाइकोकम (Triticum Dicoccum) तथा ट्रिटिकम ड्र्यूरम है। तीसरी 42 क्रोमोसोम वाली ट्रिटिकम वलगेरी (Triticum Vulgare) है । ड्यूरम जाति का गेहूँ अधिकतर काली मिट्टी में बोया जाता है। ट्रिटिकम डाइकोलम गेहूँ महाराष्ट्र तथा गुजरात के कुछ भाग में बोया जाता है। सबसे अधिक खेती ट्रिटिकम वलगेरी की होती है। अन्य जातियाँ यहाँ के लिए उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं।

ड्यूरम की व्यापारिक जातियाँ बाँसी, कठिया, जलालिया, गंगाजली के नाम से प्रसिद्ध रही हैं। महाराष्ट्र तथा गुजरात प्रदेश में ड्यूरम की कुछ उन्नतिशील जातियों के नाम हैं : मोतिया, गुलाब, जय, विजय।

ट्रिटिकम वलगेरी की व्यापारिक जातियाँ शरबती, सफेद, पिस्सी, चंदौसी, लाल कनक आदि कहलाती हैं। गेहूँ की उन्नतिशील जातियाँ निकालने का कार्य पहले पूसा (बिहार) में प्रारंभ हुआ था। भूकंप के पश्चात्‌ सन्‌ 1935 से यह कार्य नए पूसा (नई दिल्ली) में हो रहा है और पूसा की जातियाँ एन. पी. (न्यू पूसा) के नाम से विख्यात्‌ हैं। पंजाब, उत्तर प्रदेश, आदि में भी कार्य हुआ है। ट्रि. वलगेरी की मुख्य उन्नतिशील जातियाँ एन. पी. 4, एन. पी. 12, एन. पी. 52, एन. पी. 125 तथा एन. पी. 165 हैं। हाल ही में गेरुआ आदि बीमारियों से बचनेवाली एन. पी. 710, एन. पी. 718, एन. पी. 761, एन. पी. 770 आदि उपजातियाँ निकाली गई हैं। पंजाब से भी 8 ए, 9 डी, एन. पी. 518, पंजाब 591 आदि उपजातियाँ निकाली गई हैं। उत्तर प्रदेश में सी. 13 बहुत प्रचलित रहा है। कुछ जातियाँ विदेशों से भी आई हैं।

पहचानने के विचार से गेहूँ का वर्गीकरण सीकुरदार और मुड़िया में किया जाता है। पकने के हिसाब से शीघ्र (early), मध्य (medium), अथवा देर (late) से पकने वाली जातियों में भी विभाजन होता है।

गेहूँ में सबसे भयंकर रोग गेरुई (गिरवी) या रतुवा (Rust) है। इस बीमारी की कई जातियाँ हैं। इससे तने पर तथा पत्तियों पर लाल, काले, पीले आदि धब्बे पड़ जाते हैं। अधिकतर नमी बढ़ जाने पर ये बीमारियाँ शीघ्रता से बढ़ती हैं। रोकथाम के लिए ऐसी जातियाँ बोनी चाहिए जिनमें यह बीमारी कम लगती है।

दूसरी बीमारी कँडवा (Smut) है। इसमें बाली का दाना काले बुरादे से भर जाता है। बंटुआ (Bunt) में दाने का भीतरी भाग काला और बदबूदार हो जाता है। इन बीमारियों के लिए यदि बोते समय बीज को गर्म पानी, फार्मलीन आदि से ठीक कर लिया जाए तो रोगों का बहुत कुछ नियंत्रण किया जा सकता है।(दुर्गाशंकर नागर.)

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संदर्भ
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