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योजना, सितंबर 2004
बढ़ते तापमान के अलावा ऐसा और भी बहुत कुछ हमारी पृथ्वी पर हो रहा है, जिसके लिए ग्लोबल वार्मिंग ही जिम्मेदार है। लेकिन यह विडंबना ही है कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को जानते हुए भी दुनिया में इस समस्या से जूझने के प्रति लापरवाही ही देखने को मिल रही है। सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदाराना रवैया उन विकसित देशों का है, जिनकी ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका है।अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय का मानना है कि इस समय दुनिया को आतंकवाद की बजाय जो सबसे बड़ा खतरा झेलना पड़ रहा है, वह है ग्लोबल वार्मिंग। यह बात तो हर कोई जानता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी की सतह पर तापमान निरंतर बढ़ रहा है और बीते तीन साल पिछली शताब्दी से लेकर अब तक सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज हो चुके हैं, पर ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी समस्या यही नहीं है। यानी बढ़ते तापमान के अलावा ऐसा और भी बहुत कुछ हमारी पृथ्वी पर हो रहा है, जिसके लिए ग्लोगल वार्मिंग ही जिम्मेदार है। लेकिन यह विडंबना ही है कि ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को जानते हुए भी दुनिया में इस समस्या से जूझने के प्रति लापरवाही ही देखने को मिल रही है। सबसे ज्यादा गैर-जिम्मेदाराना रवैया उन विकसित देशों का है जिनकी ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने में सबसे बड़ी भूमिका है।
हाल ही में यह स्पष्ट हुआ है कि दुनिया की इकलौती महाशक्ति अमेरिका ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के अपने वादे को पूरा करने में नाकाम रहा है। वह न तो इन खतरनाक गैसों का उत्सर्जन कम कर पाया है और न ही पर्यावरणवादियों की माँग के मुताबिक उद्योगों पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने पर दंडकारी टैक्स लगा पाया है। हाल में, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अमेरिका की इंडस्ट्री का बचाव करते हुए कहा कि इस तरह की दंडकारी व्यवस्था लागू करने से पहले और ज्यादा शोध की जरूरत है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वास्तव में ग्रीनहाउस गैसें ही ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही हैं। शायद अमेरिका को यह अहसास नहीं है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से दुनिया को बाढ़, सूखे, भुखमरी और मलेरिया जैसी बीमारियों से मुक्ति पाने में मुश्किलें पेश आ रही हैं, बल्कि इनसे जुड़ी घटनाओं में और बढ़ोत्तरी हो रही है।
ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में स्पष्ट हुआ है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण सन 2080 तक अकेले ब्रिटेन में बाढ़ के कारण होने वाली मौतें दोगुनी हो जाएँगी। यह भी उल्लेखनीय है कि ग्रीनहाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में ब्रिटेन का योगदान दो फीसदी है, जबकि अमेरिका, जहाँ की आबादी वैश्विक जनंसख्या की तुलना में महज चार प्रतिशत है, ऐसी गैसों का 20 प्रतिशत से ज्यादा उत्सर्जन कर रहा है। अकेले अमेरिका ही हर साल 488 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में पहुँचा देता है और कनाडा के साथ मिलकर कुल विश्व तेल खपत का 44 फीसदी हिस्सा उपभोग कर लेता है। इसके बाद नंबर यूरोपीय देशों में रूस का आता है। यह भी गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसी) के मुताबिक दुनिया को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सन 2050 तक 60 फीसदी की कटौती करनी है, ताकि वह 1990 के स्तर पर आ सके।
यह ध्यान देने वाली बात है कि सौरमंडल के ज्यादातर ग्रह या तो भयंकर रूप से ठंडे हैं या अति गर्म। यही वजह है कि हमारी पृथ्वी के अलावा सौरमंडल के किसी अन्य ग्रह पर जीवन की संभावनाएँ नहीं हैं। यहाँ तक कि मंगल और शुक्र जैसे ग्रह भी हमारी पृथ्वी से तमाम समानताओं के बावजूद जीवनविहीन हैं। शायद इसकी वजह वही तापमान है, जिसका संतुलन जीवन की उत्पत्ति के लिए अनिवार्य होता है। लेकिन क्या पृथ्वी पर जीवन हमेशा सुरक्षित रहेगा? यह सवाल इस परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि बीते दो साल ऐसे वर्षों के रूप में दर्ज हो गए हैं, जो 1860 के बाद के सबसे गर्म वर्ष कहे जा रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक इकाई—वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन ने करीब एक हजार सालों के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद चेतावनी जारी की है कि गर्माती धरती एक खतरनाक अंजाम की ओर बढ़ रही है। तापमान में बढ़ोत्तरी के इस सिलसिले ने बीते 25 सालों में ही ज्यादा जोर पकड़ा है, जब पूरी दुनिया में औद्योगिक गतिविधियाँ बढ़ी हैं और खनिज तेल के उपभोग में ताबड़तोड़ इजाफा हुआ है। क्योटो जैसी संधियों को धता बताती दुनिया के लिए तापमान का बढ़ना खुशखबरी कतई नहीं हो सकती, ऐसा मौसम विज्ञानियों का साफ कहना है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इस खतरे को और बढ़ा रहा है और अब कहा नहीं जा सकता कि पृथ्वी पर जीवनदायी स्थितियाँ आखिर कब तक बची रहेंगी। मौसम विज्ञानियों ने ग्रीष्मकाल के गर्मतर होते जाने के जो कारण तलाशे हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों की दिनोंदिन बढ़ती मात्रा का है। वैज्ञानिकों का मत है कि ओजोन परत में खुद की मरम्मत की व्यवस्था है, लेकिन यह तभी होगा, जब उसे नुकसान पहुँचाने वाली गैसों का वहाँ पहुँचना बंद हो। यदि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ओजोन के संबंध में हुई मांट्रियल और वियना संधि को पूरी तरह लागू करते हुए आज क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों का उत्पादन व प्रयोग बंद कर दे, तो भी इस छिद्र को पूरी तरह भरने में आठ-दस दशक लग सकते हैं। क्योंकि अब तक जितनी सीएफसी गैसों-रसायनों का निर्माण हो चुका है, वे अगले कई दशक तक वायुमंडल में घुलते और पहुँचते रहेंगे, इसलिए उत्पादन बंद होने का ठोस असर 2075 से पहले देखने को नहीं मिलेगा।औद्योगिक क्रांति के बाद विश्व भर में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है, क्योंकि औद्योगिक सम्यता कोयले, पेट्रोलियम और नैचुरल गैस जैसे हाइड्रोकार्बन ईंधन पर निर्भर होती चली गई है। ग्लोबल तापमान की बढ़त की यही दर रही, तो 2080 तक तापमान में चार से सात डिग्री सेल्सियस की शर्तिया वृद्धि होनी निश्चित है। सन 2001 में अंटार्कटिका में 1200 वर्ग मील का बर्फीला टापू देखते-देखते पिघल गया। अंटार्कटिका के जिस पूर्वी तटीय इलाके से यह विशाल पिंड गायब हुआ है, वहाँ तापमान में काफी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इससे ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण बढ़ते तापमान की एक बार फिर से पुष्टि हुई। यह सही है कि मौसम में बदलाव की बात दुनिया भर में मान ली गई है और कोई एक कारण इस बदलाव की वजह नहीं है। एयर कंडीशनरों, रेफ्रीजरेटरों और फोम उद्योगों आदि से निकलने वाली क्लोरो-ज्लोरो कार्बन गैसों और वाहनों का धुआं, औद्योगिक व रासायनिक गतिविधियाँ किसी न किसी रूप में वातावरण में गर्मी घोल रही हैं। इसके अलावा धरती की हरित पट्टी और गर्मी सोखने वाले हिमखंड व जल भंडार सिकुड़ते जा रहे हैं, जिससे मौसम ने बदलाव की राह पकड़ी है। पराबैंगनी किरणों से धरती को बचाने वाली ओजोन परत के छीजने और धरती के रेगिस्तानीकरण के लिए भी कमोबेश वही वजहें जिम्मेदार हैं, जिनसे हमारे वायुमंडल में ठंडक की कमी और गर्मी की बढ़ोत्तरी हुई है। मलेरिया व डेंगू सरीखी अनेक उष्ण कटिबंधीय बीमारियाँ बढ़ते तापमान की वजह से ही अपने पांव पसार रही हैं।
ये गतिविधियाँ जहाँ एक ओर पराबैंगनी किरणों से धरती को बचाने वाली ओजोन परत के छीजने का सबब बनी हुई हैं, वहीं दूसरी ओर धरती के रेगिस्तानीकरण की राह सुलभ कर रही हैं। ऋतुओं में आ रहा बदलाव और वर्षा की कमी से सूखते जलस्रोत के कारण पैदा हो रहा जल संकट इन्हीं कारणों का परिणाम है, इससे किसी को भी इनकार नहीं है। बढ़ती आबादी की जरूरतों की पूर्ति के लिए संसाधनों के ताबड़तोड़ दोहन ने जल स्तर को लगातार नीचे पहुँचाने के अलावा पृथ्वी को अंदर ही अंदर कितना खोखला बना दिया है, तेल के खत्म होते भंडार आने वाले चंद वर्षों में यह साबित ही कर देंगे। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में तापमान में 1.08 डिग्री फॉरेनहाइट से 1.26 डिग्री फॉरेनहाइट की बढ़ोत्तरी तो महज एक सूचक भर है कि किसी तरह मानवीय क्रियाकलापों ने एक हरे-भरे ग्रह को काले-जहरीले धुएँ में लिपटे गर्म होते पिंड में तब्दील कर दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि अंटार्कटिका के अलावा किलिमंजारो पर्वत की बर्फीली चोटियों को 90 सालों में 75 प्रतिशत पिघला देने, हमारे गंगोत्री ग्लेशियर को आठ मीटर पीछे खिसका देने और 1972 के बाद से वेनेजुएला स्थित छह हिमनदों (ग्लेशियर्स) में से चार को पूरी तरह गायब करने जैसे अनेक मामलों में ग्रीनहाउस इफेक्ट से उपजी ग्लोबल वार्मिंग का ही हाथ है जो विकसित देशों की देन मानी जा सकती है।
जहाँ तक ओजोन परत के छीजने की बात है, तो आज हालात ये हैं कि ओजोन छिद्र का आकार 27 मिलियन वर्ग किलोमीटर हो गया, जो ऑस्ट्रेलिया के समस्त क्षेत्रफल का चार गुना है। यह सन 2000 वाला स्तर है, जब ओजोन परत में हुए छेद को सबसे बड़ा बताया गया था। वैज्ञानिकों का मत है कि ओजोन परत में खुद की मरम्मत की व्यवस्था है, लेकिन यह तभी होगा, जब उसे नुकसान पहुँचाने वाली गैसों का वहाँ पहुँचना बंद हो। यदि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ओजोन के संबंध में हुई मांट्रियल और वियना संधि को पूरी तरह लागू करते हुए आज क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों का उत्पादन व प्रयोग बंद कर दे, तो भी इस छिद्र को पूरी तरह भरने में आठ-दस दशक लग सकते हैं। क्योंकि अब तक जितनी सीएफसी गैसों-रसायनों का निर्माण हो चुका है, वे अगले कई दशक तक वायुमंडल में घुलते और पहुँचते रहेंगे, इसलिए उत्पादन बंद होने का ठोस असर 2075 से पहले देखने को नहीं मिलेगा।
मांट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हुई ‘ओजोन संधि’ पर 165 देशों ने सहमति की मुहर लगाई थी, और विकसित देशों को आरंभ में यह लक्ष्य सन 2000 तक पाना था, जिसे खिसकाकर 1996 तक भी लाया गया था। बाद में इसमें संशोधन किया गया और सीएफसी गैसों का उत्पादन बंद करने का लक्ष्य वर्ष 1999 घोषित किया गया। इस संधि पर फिर संशोधन हुआ और अब विकसित देशों को 2005 तक मिथाइल ब्रोमाइड का उत्पादन व प्रयोग तथा 2030 तक क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्पादन बंद करना है। हालांकि हाल में जिस तरह से अमेरिका ने मिथाइल ब्रोमाइड के मामले में ही वचनों से फिरने का जो उदाहरण पेश किया है, उसे देखते हुए नहीं लगता कि समझौतों को कूड़ेदान में नहीं डाला जाएगा।
ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा असर जीव और पादप प्रजातियों पर निश्चित रूप से पड़ेगा। हाल में हुए नेचर प्रत्रिका में प्रकाशित एक शोध में स्पष्ट कहा गया है कि साबित हुआ है कि सन 2050 वह साल हो सकता है, जब ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौजूदा समय की दुनिया के पेड़-पौधों और जीवधारियों के 50 फीसदी का सफाया हो चुका होगा। जैवविविधता के हिसाब से महत्त्वपूर्ण दुनिया के छह हिस्सों में कराए गए शोध ने साबित किया है कि ग्रीनहाउस गैसों, खास तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण इन हजारों प्रजातियों के जीवन पर संकट मंडरा सकता है। इस पत्रिका ने हाल ही में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर नजर रखने वाले विज्ञानी दलों ने जैवविविधता की दृष्टि से उपयोगी जिन छह क्षेत्रों में शोध किया है, वे समग्र रूप से दुनिया का 20 प्रतिशत क्षेत्र दर्शाते हैं। अध्ययन में ऐसे पौधों, स्तनपायी जानवरों, चिडि़यों, सरीसृप वर्ग के जीवों, मेंढ़कों, तितलियों और दूसरी महत्त्वपूर्ण जीव प्रजातियों को विशेष रूप से शामिल किया गया, जिन पर मौसम में बदलाव का सर्वाधिक असर पड़ने की आशंका जताई जाती रही है। अध्ययन में दुनिया भर में स्थापित 14 प्रयोगशालाओं के जरिए कुल मिलाकर 1103 प्रजातियों पर नजर रखी गई और अध्ययन का आकलन है कि इनमें से 15 से 37 प्रतिशत प्रजातियाँ सन 2050 तक उस क्लाइमेट चेंज के कारण पूरी तरह विलुप्त हो जाएँगी, जो ग्लोबल वार्मिंग जैसी विश्वव्यापी समस्या की देन है। जहाँ तक पेड़-पौधों और जीव प्रजातियों की संख्या की बात है, तो इस समय पृथ्वी पर करीब एक करोड़ 40 लाख प्रजातियाँ हैं और इनमें से करीब 12 हजार प्रजातियाँ विलोपन के कगार पर हैं।
यह पहला मौका नहीं है जब ग्लोबल वार्मिंग के कारण पैदा होने वाली किसी वड़ी समस्या का आकलन किया गया है। बीती सदी में 1903 में स्वांत एरिनस नामक वैज्ञानिक ने ग्रीनहाउस गैसों के कारण धरती के बढ़ते तापमान का सिद्धांत पेश किया था। इसके बाद 1938 में इंग्लैंड के जी.एस. कैलेंडर और फिर 1955 में हंगरी के वैज्ञानिक वेर्न न्यूमैन ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और उसके प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया था। लेकिन ये ग्रीनहाउस गैसें पृथ्वी की सेहत पर प्रतिकूल असर डाल रही हैं और ग्लोबल वार्मिंग जैसी विराट समस्या उत्पन्न कर रही हैं—इसका आकलन काफी देर से किया जा सका। 1958 में अमेरिकी वैज्ञानिक प्लास ने कार्बन डाइऑक्साइड तथा क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों के कारण पर्यावरण के विषाक्त होने का सिद्धांत पेश किया। सन 1974 में जब कार्बन डाइऑक्साइड के दुष्प्रभाव और तापमान बढ़ोत्तरी में उसकी भूमिका को कंप्यूटर मॉडलों तथा संबंधित अनुसंधानों के जरिए समझाया गया, तब कहीं जाकर दुनिया इस बारे में कुछ सचेत हुई और इसके पाँच वर्ष बाद 1979 में जिनेवा में पहले जलवायु सम्मेलन में समस्या की गंभीरता पर चर्चा की गई। इसके बाद 1980 में ऑस्ट्रिया में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम व विश्व मौसम विज्ञान संगठन की बैठक में जलवायु परिवर्तन को एक अंतरराष्ट्रीय समस्या के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई।
इसके बाद हालांकि पर्यावरण संबंधी अनेक सम्मेलनों में विकसित और विकासशील देशों में पर्यावरण को छीजने से बचाने और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाने की अनेक संधियाँ की गई, अनेक कसमें खाई गई, लेकिन सभी प्रयास खोखले साबित हुए। हाल ही में जिस तरह से क्योटो संधि पर अमेरिका के इनकार को देखते हुए रूस ने भी संधि को मानने में आनाकानी का रूख दिखाया है, उससे तो यही साबित होता है कि दुनिया पर्यावरण और जैव संपदा की साज-संवार से ज्यादा औद्योगिक प्रगति पर ध्यान दे रही है, भले ही इसका दुष्परिणाम आने वाली पीढि़यों को क्यों न भुगतना पड़े। नेचर में प्रकाशित हजारों जीव प्रजातियों के विलुप्त हो जाने की चेतावनी विकसित देशों को नींद से जगा पाएगी, इसमें भी संदेह है।
(लेखक पत्रकार हैं)
हाल ही में यह स्पष्ट हुआ है कि दुनिया की इकलौती महाशक्ति अमेरिका ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के अपने वादे को पूरा करने में नाकाम रहा है। वह न तो इन खतरनाक गैसों का उत्सर्जन कम कर पाया है और न ही पर्यावरणवादियों की माँग के मुताबिक उद्योगों पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने पर दंडकारी टैक्स लगा पाया है। हाल में, अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अमेरिका की इंडस्ट्री का बचाव करते हुए कहा कि इस तरह की दंडकारी व्यवस्था लागू करने से पहले और ज्यादा शोध की जरूरत है, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वास्तव में ग्रीनहाउस गैसें ही ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही हैं। शायद अमेरिका को यह अहसास नहीं है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से दुनिया को बाढ़, सूखे, भुखमरी और मलेरिया जैसी बीमारियों से मुक्ति पाने में मुश्किलें पेश आ रही हैं, बल्कि इनसे जुड़ी घटनाओं में और बढ़ोत्तरी हो रही है।
ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में स्पष्ट हुआ है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण सन 2080 तक अकेले ब्रिटेन में बाढ़ के कारण होने वाली मौतें दोगुनी हो जाएँगी। यह भी उल्लेखनीय है कि ग्रीनहाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में ब्रिटेन का योगदान दो फीसदी है, जबकि अमेरिका, जहाँ की आबादी वैश्विक जनंसख्या की तुलना में महज चार प्रतिशत है, ऐसी गैसों का 20 प्रतिशत से ज्यादा उत्सर्जन कर रहा है। अकेले अमेरिका ही हर साल 488 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में पहुँचा देता है और कनाडा के साथ मिलकर कुल विश्व तेल खपत का 44 फीसदी हिस्सा उपभोग कर लेता है। इसके बाद नंबर यूरोपीय देशों में रूस का आता है। यह भी गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसी) के मुताबिक दुनिया को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सन 2050 तक 60 फीसदी की कटौती करनी है, ताकि वह 1990 के स्तर पर आ सके।
ये हैं खतरे
यह ध्यान देने वाली बात है कि सौरमंडल के ज्यादातर ग्रह या तो भयंकर रूप से ठंडे हैं या अति गर्म। यही वजह है कि हमारी पृथ्वी के अलावा सौरमंडल के किसी अन्य ग्रह पर जीवन की संभावनाएँ नहीं हैं। यहाँ तक कि मंगल और शुक्र जैसे ग्रह भी हमारी पृथ्वी से तमाम समानताओं के बावजूद जीवनविहीन हैं। शायद इसकी वजह वही तापमान है, जिसका संतुलन जीवन की उत्पत्ति के लिए अनिवार्य होता है। लेकिन क्या पृथ्वी पर जीवन हमेशा सुरक्षित रहेगा? यह सवाल इस परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि बीते दो साल ऐसे वर्षों के रूप में दर्ज हो गए हैं, जो 1860 के बाद के सबसे गर्म वर्ष कहे जा रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक इकाई—वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन ने करीब एक हजार सालों के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद चेतावनी जारी की है कि गर्माती धरती एक खतरनाक अंजाम की ओर बढ़ रही है। तापमान में बढ़ोत्तरी के इस सिलसिले ने बीते 25 सालों में ही ज्यादा जोर पकड़ा है, जब पूरी दुनिया में औद्योगिक गतिविधियाँ बढ़ी हैं और खनिज तेल के उपभोग में ताबड़तोड़ इजाफा हुआ है। क्योटो जैसी संधियों को धता बताती दुनिया के लिए तापमान का बढ़ना खुशखबरी कतई नहीं हो सकती, ऐसा मौसम विज्ञानियों का साफ कहना है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इस खतरे को और बढ़ा रहा है और अब कहा नहीं जा सकता कि पृथ्वी पर जीवनदायी स्थितियाँ आखिर कब तक बची रहेंगी। मौसम विज्ञानियों ने ग्रीष्मकाल के गर्मतर होते जाने के जो कारण तलाशे हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों की दिनोंदिन बढ़ती मात्रा का है। वैज्ञानिकों का मत है कि ओजोन परत में खुद की मरम्मत की व्यवस्था है, लेकिन यह तभी होगा, जब उसे नुकसान पहुँचाने वाली गैसों का वहाँ पहुँचना बंद हो। यदि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ओजोन के संबंध में हुई मांट्रियल और वियना संधि को पूरी तरह लागू करते हुए आज क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों का उत्पादन व प्रयोग बंद कर दे, तो भी इस छिद्र को पूरी तरह भरने में आठ-दस दशक लग सकते हैं। क्योंकि अब तक जितनी सीएफसी गैसों-रसायनों का निर्माण हो चुका है, वे अगले कई दशक तक वायुमंडल में घुलते और पहुँचते रहेंगे, इसलिए उत्पादन बंद होने का ठोस असर 2075 से पहले देखने को नहीं मिलेगा।औद्योगिक क्रांति के बाद विश्व भर में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ा है, क्योंकि औद्योगिक सम्यता कोयले, पेट्रोलियम और नैचुरल गैस जैसे हाइड्रोकार्बन ईंधन पर निर्भर होती चली गई है। ग्लोबल तापमान की बढ़त की यही दर रही, तो 2080 तक तापमान में चार से सात डिग्री सेल्सियस की शर्तिया वृद्धि होनी निश्चित है। सन 2001 में अंटार्कटिका में 1200 वर्ग मील का बर्फीला टापू देखते-देखते पिघल गया। अंटार्कटिका के जिस पूर्वी तटीय इलाके से यह विशाल पिंड गायब हुआ है, वहाँ तापमान में काफी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इससे ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण बढ़ते तापमान की एक बार फिर से पुष्टि हुई। यह सही है कि मौसम में बदलाव की बात दुनिया भर में मान ली गई है और कोई एक कारण इस बदलाव की वजह नहीं है। एयर कंडीशनरों, रेफ्रीजरेटरों और फोम उद्योगों आदि से निकलने वाली क्लोरो-ज्लोरो कार्बन गैसों और वाहनों का धुआं, औद्योगिक व रासायनिक गतिविधियाँ किसी न किसी रूप में वातावरण में गर्मी घोल रही हैं। इसके अलावा धरती की हरित पट्टी और गर्मी सोखने वाले हिमखंड व जल भंडार सिकुड़ते जा रहे हैं, जिससे मौसम ने बदलाव की राह पकड़ी है। पराबैंगनी किरणों से धरती को बचाने वाली ओजोन परत के छीजने और धरती के रेगिस्तानीकरण के लिए भी कमोबेश वही वजहें जिम्मेदार हैं, जिनसे हमारे वायुमंडल में ठंडक की कमी और गर्मी की बढ़ोत्तरी हुई है। मलेरिया व डेंगू सरीखी अनेक उष्ण कटिबंधीय बीमारियाँ बढ़ते तापमान की वजह से ही अपने पांव पसार रही हैं।
ये गतिविधियाँ जहाँ एक ओर पराबैंगनी किरणों से धरती को बचाने वाली ओजोन परत के छीजने का सबब बनी हुई हैं, वहीं दूसरी ओर धरती के रेगिस्तानीकरण की राह सुलभ कर रही हैं। ऋतुओं में आ रहा बदलाव और वर्षा की कमी से सूखते जलस्रोत के कारण पैदा हो रहा जल संकट इन्हीं कारणों का परिणाम है, इससे किसी को भी इनकार नहीं है। बढ़ती आबादी की जरूरतों की पूर्ति के लिए संसाधनों के ताबड़तोड़ दोहन ने जल स्तर को लगातार नीचे पहुँचाने के अलावा पृथ्वी को अंदर ही अंदर कितना खोखला बना दिया है, तेल के खत्म होते भंडार आने वाले चंद वर्षों में यह साबित ही कर देंगे। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में तापमान में 1.08 डिग्री फॉरेनहाइट से 1.26 डिग्री फॉरेनहाइट की बढ़ोत्तरी तो महज एक सूचक भर है कि किसी तरह मानवीय क्रियाकलापों ने एक हरे-भरे ग्रह को काले-जहरीले धुएँ में लिपटे गर्म होते पिंड में तब्दील कर दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि अंटार्कटिका के अलावा किलिमंजारो पर्वत की बर्फीली चोटियों को 90 सालों में 75 प्रतिशत पिघला देने, हमारे गंगोत्री ग्लेशियर को आठ मीटर पीछे खिसका देने और 1972 के बाद से वेनेजुएला स्थित छह हिमनदों (ग्लेशियर्स) में से चार को पूरी तरह गायब करने जैसे अनेक मामलों में ग्रीनहाउस इफेक्ट से उपजी ग्लोबल वार्मिंग का ही हाथ है जो विकसित देशों की देन मानी जा सकती है।
चपेट में ओजोन परत
जहाँ तक ओजोन परत के छीजने की बात है, तो आज हालात ये हैं कि ओजोन छिद्र का आकार 27 मिलियन वर्ग किलोमीटर हो गया, जो ऑस्ट्रेलिया के समस्त क्षेत्रफल का चार गुना है। यह सन 2000 वाला स्तर है, जब ओजोन परत में हुए छेद को सबसे बड़ा बताया गया था। वैज्ञानिकों का मत है कि ओजोन परत में खुद की मरम्मत की व्यवस्था है, लेकिन यह तभी होगा, जब उसे नुकसान पहुँचाने वाली गैसों का वहाँ पहुँचना बंद हो। यदि अंतरराष्ट्रीय समुदाय ओजोन के संबंध में हुई मांट्रियल और वियना संधि को पूरी तरह लागू करते हुए आज क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों का उत्पादन व प्रयोग बंद कर दे, तो भी इस छिद्र को पूरी तरह भरने में आठ-दस दशक लग सकते हैं। क्योंकि अब तक जितनी सीएफसी गैसों-रसायनों का निर्माण हो चुका है, वे अगले कई दशक तक वायुमंडल में घुलते और पहुँचते रहेंगे, इसलिए उत्पादन बंद होने का ठोस असर 2075 से पहले देखने को नहीं मिलेगा।
मांट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हुई ‘ओजोन संधि’ पर 165 देशों ने सहमति की मुहर लगाई थी, और विकसित देशों को आरंभ में यह लक्ष्य सन 2000 तक पाना था, जिसे खिसकाकर 1996 तक भी लाया गया था। बाद में इसमें संशोधन किया गया और सीएफसी गैसों का उत्पादन बंद करने का लक्ष्य वर्ष 1999 घोषित किया गया। इस संधि पर फिर संशोधन हुआ और अब विकसित देशों को 2005 तक मिथाइल ब्रोमाइड का उत्पादन व प्रयोग तथा 2030 तक क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्पादन बंद करना है। हालांकि हाल में जिस तरह से अमेरिका ने मिथाइल ब्रोमाइड के मामले में ही वचनों से फिरने का जो उदाहरण पेश किया है, उसे देखते हुए नहीं लगता कि समझौतों को कूड़ेदान में नहीं डाला जाएगा।
निशाने पर जीव-पादप प्रजातियाँ
ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा असर जीव और पादप प्रजातियों पर निश्चित रूप से पड़ेगा। हाल में हुए नेचर प्रत्रिका में प्रकाशित एक शोध में स्पष्ट कहा गया है कि साबित हुआ है कि सन 2050 वह साल हो सकता है, जब ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौजूदा समय की दुनिया के पेड़-पौधों और जीवधारियों के 50 फीसदी का सफाया हो चुका होगा। जैवविविधता के हिसाब से महत्त्वपूर्ण दुनिया के छह हिस्सों में कराए गए शोध ने साबित किया है कि ग्रीनहाउस गैसों, खास तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण इन हजारों प्रजातियों के जीवन पर संकट मंडरा सकता है। इस पत्रिका ने हाल ही में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) पर नजर रखने वाले विज्ञानी दलों ने जैवविविधता की दृष्टि से उपयोगी जिन छह क्षेत्रों में शोध किया है, वे समग्र रूप से दुनिया का 20 प्रतिशत क्षेत्र दर्शाते हैं। अध्ययन में ऐसे पौधों, स्तनपायी जानवरों, चिडि़यों, सरीसृप वर्ग के जीवों, मेंढ़कों, तितलियों और दूसरी महत्त्वपूर्ण जीव प्रजातियों को विशेष रूप से शामिल किया गया, जिन पर मौसम में बदलाव का सर्वाधिक असर पड़ने की आशंका जताई जाती रही है। अध्ययन में दुनिया भर में स्थापित 14 प्रयोगशालाओं के जरिए कुल मिलाकर 1103 प्रजातियों पर नजर रखी गई और अध्ययन का आकलन है कि इनमें से 15 से 37 प्रतिशत प्रजातियाँ सन 2050 तक उस क्लाइमेट चेंज के कारण पूरी तरह विलुप्त हो जाएँगी, जो ग्लोबल वार्मिंग जैसी विश्वव्यापी समस्या की देन है। जहाँ तक पेड़-पौधों और जीव प्रजातियों की संख्या की बात है, तो इस समय पृथ्वी पर करीब एक करोड़ 40 लाख प्रजातियाँ हैं और इनमें से करीब 12 हजार प्रजातियाँ विलोपन के कगार पर हैं।
क्या कहता है इतिहास
यह पहला मौका नहीं है जब ग्लोबल वार्मिंग के कारण पैदा होने वाली किसी वड़ी समस्या का आकलन किया गया है। बीती सदी में 1903 में स्वांत एरिनस नामक वैज्ञानिक ने ग्रीनहाउस गैसों के कारण धरती के बढ़ते तापमान का सिद्धांत पेश किया था। इसके बाद 1938 में इंग्लैंड के जी.एस. कैलेंडर और फिर 1955 में हंगरी के वैज्ञानिक वेर्न न्यूमैन ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और उसके प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया था। लेकिन ये ग्रीनहाउस गैसें पृथ्वी की सेहत पर प्रतिकूल असर डाल रही हैं और ग्लोबल वार्मिंग जैसी विराट समस्या उत्पन्न कर रही हैं—इसका आकलन काफी देर से किया जा सका। 1958 में अमेरिकी वैज्ञानिक प्लास ने कार्बन डाइऑक्साइड तथा क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) गैसों के कारण पर्यावरण के विषाक्त होने का सिद्धांत पेश किया। सन 1974 में जब कार्बन डाइऑक्साइड के दुष्प्रभाव और तापमान बढ़ोत्तरी में उसकी भूमिका को कंप्यूटर मॉडलों तथा संबंधित अनुसंधानों के जरिए समझाया गया, तब कहीं जाकर दुनिया इस बारे में कुछ सचेत हुई और इसके पाँच वर्ष बाद 1979 में जिनेवा में पहले जलवायु सम्मेलन में समस्या की गंभीरता पर चर्चा की गई। इसके बाद 1980 में ऑस्ट्रिया में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम व विश्व मौसम विज्ञान संगठन की बैठक में जलवायु परिवर्तन को एक अंतरराष्ट्रीय समस्या के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई।
इसके बाद हालांकि पर्यावरण संबंधी अनेक सम्मेलनों में विकसित और विकासशील देशों में पर्यावरण को छीजने से बचाने और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर लगाम लगाने की अनेक संधियाँ की गई, अनेक कसमें खाई गई, लेकिन सभी प्रयास खोखले साबित हुए। हाल ही में जिस तरह से क्योटो संधि पर अमेरिका के इनकार को देखते हुए रूस ने भी संधि को मानने में आनाकानी का रूख दिखाया है, उससे तो यही साबित होता है कि दुनिया पर्यावरण और जैव संपदा की साज-संवार से ज्यादा औद्योगिक प्रगति पर ध्यान दे रही है, भले ही इसका दुष्परिणाम आने वाली पीढि़यों को क्यों न भुगतना पड़े। नेचर में प्रकाशित हजारों जीव प्रजातियों के विलुप्त हो जाने की चेतावनी विकसित देशों को नींद से जगा पाएगी, इसमें भी संदेह है।
(लेखक पत्रकार हैं)