मेरे अनेक मंत्रीमंडलीय सहयोगियों ने बीटी-बैंगन के मामले में मेरे फैसले का यह कहते हुए विरोध किया कि यह भारतीय विज्ञान और उसके भविष्य को नुकसान पहुँचाएगा। प्रतिबन्ध लगाने के बाद मैंने भारत में खाद्य पदार्थों में जैव-तकनीक के उपयोग पर विचार करने और उसके लिये कार्ययोजना विकसित करने के लिये डॉ. कस्तुरीरंगन के साथ छह विज्ञान अकादमियों के प्रमुखों से मुलाकात की।
वर्षों से पर्यावरण मंत्रालय को ऐसी सरकारी एजेंसी के रूप में देखा जाता था जिसे उद्योगों द्वारा मैनेज किया जा सकता था। इसके फैसलों से जो सर्वाधिक प्रभावित होते थे, उनके लिये यह पहुँच से बाहर की चीज थी। पर्यावरण मंत्रालय की इस छवि को बदलने के लिये यह जरूरी था कि इसे ऐसी जगह बनाई जाये, जहाँ हर कोई आ सके, कुछ खास लोगों को संरक्षण नहीं मिले। यह तभी सम्भव था जब यहाँ सभी हितधारकों के लिये जगह होती।
मेरे लिये उन लोगों तक पहुँचना महत्त्वपूर्ण था जिनकी आवाज निर्णय प्रक्रिया के दौरान सबसे कम सुनी जाती थी। यह न केवल मंत्रालय के कार्यकलाप में पारदर्शिता और जवाबदेही को बल देता बल्कि निर्णय लेने की जिम्मेवारी को भी सुनिश्चित करता।
तीन प्रमुख मुद्दों:- बीटी-बैंगन की व्यावसायिक शुरुआत, तटीय नियामक क्षेत्र (Coastal Regulation Zone, CRZ) नियंत्रण की नई नियमावली और ग्रीन इण्डिया मिशन (Green India Mission) विषय को लेकर बड़े पैमाने पर सार्वजनिक परामर्श आयोजित हुए। इन परामर्शों ने सरोकारों को उभारने व स्पष्ट समाधान खोजने और उन मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करके नीति बनाने के लिये जरूरी सूचनाएँ उपलब्ध कराई, जिनको अतिरिक्त कार्रवाई और विचार-विमर्श की आवश्यकता थी। मेरा विश्वास था कि व्यापक सार्वजनिक बहस अस्त-व्यस्त होने के बावजूद भी बेहतर फैसला करने में सहायक होंगे। इन परामर्शों ने नीतियों से सम्बन्धित बड़े प्रश्नों पर मेरे रुख को आकार देने में भी सहायता किया। बीटी-बैंगन सम्बन्धी परामर्श ने प्रस्तावित जैव-तकनीक नियामक प्राधिकरण की रूपरेखा तैयार करने में बड़ी सहायता की। अफसोस है कि सरकार ने प्राधिकरण का गठन करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। सीआरजेड नियमावलियों के बारे में परामर्श ने मत्स्यजीवी आजीविका गारंटी विधेयक (Fishermen Livelihood Guarantee Bill) का मसौदा तैयार करने के लिये महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध कराईं लेकिन यह आगे नहीं बढ़ पाया।
अनेक शहरों में हुए सार्वजनिक परामर्शों के अतिरिक्त कई बार मैंने छोटे समूहों के साथ चर्चाएँ आयोजित कीं। खासकर जब स्थानीय मसले केन्द्र में थे। पूर्वोत्तर प्रदेशों की पनबिजली परियोजनाओं खासकर अरुणाचल प्रदेश को लेकर गुवाहाटी में आयोजित सार्वजनिक परामर्श इसका अच्छा उदाहरण है। इससे कुछ ऐसी जानकारी मिली जिन्हें हम दूर दिल्ली में बैठे अक्सर नजरअन्दाज कर देते थे। उदाहरण के तौर पर, पूर्वोत्तर क्षेत्र समरूप नहीं हैं इसलिये अरुणाचल प्रदेश में पनबिजली का विकास करने से असम पर काफी नुकसानदेह प्रभाव हो सकता था। इसी प्रकार छोटे समूह के बीच परामर्श, नीलगिरि के कोटागिरि में घाट बचाओ आन्दोलन के साथ फरवरी 2010 में आयोजित हुआ, जिसने पर्यावरणविद माधव गाडगिल की अध्यक्षता में पश्चिमी पारिस्थितिकीय विशेषज्ञ समिति के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।
परामर्श कई बार हितधारक समूहों को बातचीत की मेज पर लाने का माध्यम बना जिसमें मंत्रालय और मैं मध्यस्थ की भूमिका में रहे। जैतापुर परमाणु ऊर्जा पार्क के लिये पर्यावरण अनुमति देना वैसा ही एक अवसर था। परियोजना के विकासकर्ता भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड (Nuclear Power Corporation of India Limited - NPCIL) और परियोजना क्षेत्र में कार्यरत नागरिक संगठनों के मंच ‘कोंकण बचाओ समिति’ (Konkan Bachao Samiti) के बीच बैठक मेरे कार्यालय में हुई। विचार था कि स्थानीय निवासियों के सरोकारों और प्रश्नों के निपटारे के लिये एक निरपेक्ष मंच प्रदान किया जाये और एनपीसीआईएल को एक-साथ सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करने का अवसर मिल सके, जो विरोधों के दौर में अक्सर गुम हो जाते हैं। प्रभावी और जिम्मेवार नीतियों को बनाने और बेकार के गतिरोधों से बचने में व्यापक परामर्शों के योगदान को राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के भीतर ‘महत्त्वपूर्ण वन्यजीव आवास स्थल या क्षेत्र’ (Critical Wildlife Habitats or Area) जिसे मानवीय उपस्थिति से मुक्त होना चाहिए को चिन्हित करने की मार्गदर्शिका के मामले में साफ देखा गया। मंत्रालय ने फरवरी 2011 में मार्गदर्शिका तैयार कर लिया परन्तु इसके कुछ प्रावधान वनाधिकार कानून 2006 के विपरीत थे। यह अभूतपूर्व अधिनियम है जो वन क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों के अधिकारों का अनुमोदन करता है। वन प्रशासन की मानसिकता में परिवर्तन की अपेक्षा करता है। मैंने वनाधिकार और वन्यजीव कार्यकर्ताओं, वैज्ञानिकों, समाज विज्ञानियों और जनजातीय कल्याण मंत्रालय के अधिकारियों के साथ बैठकें की और उनके सुझावों पर सहमत होते हुए नई मार्गदर्शिका तैयार करने के लिये दो महीने की समयसीमा तय कर दी।
मेरे अनेक मंत्रीमंडलीय सहयोगियों ने बीटी-बैंगन (Bt-brinjal) के मामले में मेरे फैसले का यह कहते हुए विरोध किया कि यह भारतीय विज्ञान और उसके भविष्य को नुकसान पहुँचाएगा। प्रतिबन्ध लगाने के बाद मैंने भारत में खाद्य पदार्थों में जैव-तकनीक के उपयोग पर विचार करने और उसके लिये कार्ययोजना विकसित करने के लिये डॉ. कस्तुरीरंगन के साथ छह विज्ञान अकादमियों के प्रमुखों से मुलाकात की। इस सबके बीच मैं व्यक्तिगत बातचीत और पत्र दोनों माध्यमों से प्रधानमंत्री को पूरी जानकारी देता रहा।
पारिस्थितिकीय सुरक्षा और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिये विशेषज्ञों और हितधारकों जिसमें आमलोग भी शामिल हैं, के साथ जूझना और परामर्श करना बेहद महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि जब मुझे कई परियोजनाओं को पर्यावरण अनुमति देने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण कदम, सार्वजनिक सुनवाई की अवमानना किये जाने की जानकारी मिली, तब मुख्यमंत्रियों और राज्य सरकारों को पत्र लिखते समय मैंने इसे प्रमुख बिन्दु बनाया। मैंने ओड़िशा में दक्षिण कोरिया की विशाल कम्पनी ‘पोस्को’ की एकीकृत इस्पात परियोजना को लगाने के पहले स्थानीय लोगों से सलाह लेना और उनके अधिकारों का सम्मान करना सुनिश्चित कराने के लिये अतिरिक्त मेहनत किया। मैंने मेघालय के फेरो-एलॉय इकाइयों में चारकोल की जरूरत को पूरा करने के लिये वन विनाश की समस्या पर राज्य सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिये उसे पत्र के माध्यम से सूचित किया। पत्र में मैंने यह सुझाव दिया कि पर्यावरण, वन, औद्योगिक इंजीनियरिंग के साथ ही स्थानीय आदिवासी समुदाय के नेताओं को लेकर एक समिति गठित की जाये जो समस्या का अध्ययन करके अल्प, मध्यम और दीर्घकालीन उपायों की सिफारिश करें।
मेरे इस पहल पर कई आलोचकों को लगा कि यह सार्वजनिक प्रचार पाने के नुस्खा या उन मसलों पर मेरे अपने निजी विचारों को थोपने का एक तरीका मात्र था। मैंने पाया कि सार्वजनिक परामर्श, जिनमें आमतौर पर अनसुनी रहने वाली आवाजें शामिल हुईं, नीति-निर्माण के नीरस काम को भी वास्तविक जीवन का स्पर्श देने में कामयाब रहे। यह लोगों के पास पहुँचने और यह प्रदर्शित करने के लिये कि आर्थिक गतिविधियाँ और विकास हमेशा पर्यावरण विरोधी और जनविरोधी नहीं होते, यह सार्वजनिक पक्षधरता का नमूना भी था। मुझे विश्वास है कि मेरी बहुचर्चित परस्पर क्रियाओं ने लोगों को एक-साथ खड़े होने और उन्हें अपनी बातें सुनाने के लिये उत्साहित किया। साथ ही पर्यावरण से सम्बन्धित मसलों का सामना करने के बारे में उन्हें अपने विचारों को आगे बढ़ाने का अवसर दिया।
यह अध्याय पर्यावरण मंत्रालय में सार्वजनिक स्थान को विस्तार देने, विशेषज्ञों से लेकर कार्यकर्ताओं और व्यापक जनसमुदाय के विभिन्न प्रकार के विचारों और दृष्टिकोणों के लिये मंत्रालय के द्वार खोलने के बारे में है। मुझे उम्मीद है कि यह संकलन इस दलील को मजबूत करेगा कि जब हम लोगों के पास पहुँचते हैं और उन्हें नीति-निर्माण की प्रक्रिया में सम्मिलित करते हैं तभी जिम्मेवार नीति और कानून बना पाते हैं। मुझे गहरा विश्वास है कि जब हम एक-दूसरे से बात करेंगे केवल तभी हम तेज आर्थिक विकास और गम्भीर पर्यावरण संरक्षण के बीच अनिवार्य सन्तुलन हासिल कर सकते हैं, जो समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के लिये नए भवन की आवश्यकता के बारे में 5 अक्टूबर 2009 को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को पत्र लिखा।
इससे पहले वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को अपने लिये नए भवन की आवश्यकता के बारे में मैंने 29 सितम्बर 2009 को पत्र द्वारा सूचित किया। अभी हम अर्द्धसैनिक बलों के परिसर के बीचों-बीच अवस्थित हैं, जो स्थान सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी और सीबीआई से घिरा है। यह हमारे मंत्रालय के लिये बहुत ही अनुपयुक्त स्थान है क्योंकि हमें समय-समय पर आम लोगों से मुलाकात करनी होती है। इस ठिकाने पर हमारे मंत्रालय से सम्पर्क करना नागरिक संगठनों के लिये भी सहज नहीं होता।
पर्यावरण मंत्रालय में सार्वजनिक स्थान को विस्तार देने, विशेषज्ञों से लेकर कार्यकर्ताओं और व्यापक जनसमुदाय के विभिन्न प्रकार के विचारों और दृष्टिकोणों के लिये मंत्रालय के द्वार खोलने के बारे में है। मुझे उम्मीद है कि यह संकलन इस दलील को मजबूत करेगा कि जब हम लोगों के पास पहुँचते हैं और उन्हें नीति-निर्माण की प्रक्रिया में सम्मिलित करते हैं तभी जिम्मेवार नीति और कानून बना पाते हैं।
संसद सदस्य (लोकसभा) रतन सिंह अजनाला द्वारा जीएम फसलों पर प्रतिबन्ध का अनुरोध करते हुए प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र का उत्तर:-
07 जून 2009
यह पत्र माननीय प्रधानमंत्री को सम्बोधित आपके पत्र दिनांक 16 फरवरी 2009 के सन्दर्भ में है, जिसमें आपने अानुवंशिक रूप से उन्नत (Genetically modified - GM) फसलों/खाद्य पदार्थों, खासतौर से बीटी-बैंगन पर तब तक प्रतिबन्ध लगाने का अनुरोध किया था जब तक देश में इस तकनीक से विकसित फसलों के स्वतंत्र मूल्यांकन की व्यवस्था नहीं हो जाती और उपभोक्ताओं एवं किसानों के अधिकारों का समुचित निपटारा नहीं हो जाता।
मंत्रालय में मामले का परीक्षण किया गया और मुझे बताया गया है कि भारत में वर्तमान जैव-सुरक्षा नियमावली, जीएम फसलों की जैव-सुरक्षा का मूल्यांकन करने में सक्षम है। जैव-तकनीक विभाग के अन्तर्गत (Review Committee on Genetic Manipulation - RCGM) और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय (Ministry of Forest and Environment) के अन्तर्गत ‘बायोटेक्नोलॉजी एंड द जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमिटी’ (Biotechnology and the Genetic Engineering Approval Committee - GEAC) द्वारा अपनाई गई जैव-सुरक्षा मार्गदर्शिका अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों का अनुपालन करती है जिसे आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organization for Economic Cooperation and Development - OECD), खाद्य पदार्थों पर प्रयुक्त अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों का आयोग (CODEX Alimentarius Commission) और अन्तरराष्ट्रीय पौध संरक्षण समझौता (International Plant Protection Convention - IPPC) ने निर्धारित किया है।
हमारा प्रयास हमेशा जैव-तकनीक फसलों के जमीनी परीक्षण की अनुमति देने का रहा है, जिसकी आवश्यकता वैज्ञानिक मूल्यांकन के लिये प्रयोग करने में होती हैं जो पूर्णतः पारदर्शी सुरक्षात्मक उपायों और मानदंडों के अनुसार होते हैं। मुझे उम्मीद है कि इससे आपकी चिन्ता दूर हो गई होगी।
वैधानिक परामर्शदाता संगठन (Statutory Advisory Body), जीईएसी की भूमिका के बारे में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के साथ सीधी बात
(पवार, जीएम फसलों और बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन को अनुमति देने के सबसे मुखर समर्थकों में एक थे)
21 जनवरी 2010
मेरा ध्यान आज के कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित रिपोर्टों की ओर गया है जिसमें आपने कहा है कि बीटी-बैंगन को अनुमति देने के बारे में जीईएसी का फैसला अन्तिम है और केन्द्र सरकार को इस मामले में कुछ नहीं करना है। यदि समाचार पत्र ने आपकी बातों को ठीक ढंग से रखा है तो मैं इस विचार से पूर्णतः असहमत होने की इजाजत चाहता हूँ।
जीईएसी सच ही एक वैधानिक संगठन है। लेकिन, जब मानवीय सुरक्षा के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय जुडे हों तो सरकार को पूरा अधिकार और बुनियादी जिम्मेवारी भी है कि जीईएसी की सिफारिशों के आधार पर अन्तिम फैसला करे। मैं भली-भाँति जानता हूँ कि मेरे पूर्ववर्ती, श्री टीआर बालू ने अप्रैल 2002 में बीटी-कॉटन को अन्तिम अनुमति दी थी।
बीटी-बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन के बारे में जीईएसी की सिफारिश 14 अक्टूबर 2009 को मेरे पास आई। मैं इस मामले में प्रकट की गई चिन्ताओं से पूरी तरह अवगत हूँ क्योंकि, बीटी-बैंगन आनुवंशिक रूप से उन्नत (जेनेटिकली मोडिफाइड) पहला खाद्य पदार्थ है। मैंने सात शहरों - कोलकाता, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, हैदराबाद, बंगलुरु, नागपुर और चंडीगढ़ में सार्वजनिक परामर्श आयोजित करने का फैसला किया। मैंने बैंगन उपजाने वाले छह महत्त्वपूर्ण राज्यों-पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, बिहार, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों को पत्र भी लिखा। इसके अतिरिक्त मैंने भारत और विदेश के पचास से अधिक शीर्ष वैज्ञानिकों की राय माँगी।
मैं 20 फरवरी तक बीटी-बैंगन के बारे में जीईएसी की सिफारिशों पर राय कायम करने की स्थिति में होऊँगा, तब मैं अपने अन्तिम विचारों से प्रधानमंत्री को अवगत कराने के साथ ही आपको और स्वास्थ्य मंत्री को भी उनसे अवगत कराऊँगा।
आप इससे सहमत होंगे कि हमारे जैसे लोकतंत्र में ऐसे फैसले जिनका दूरगामी परिणाम हो सकता है, बेहद सतर्कता और अधिकतम पारदर्शिता के साथ और इसे सुनिश्चित करने के बाद लेना होगा कि सभी हितधारकों की बातें सन्तोषप्रद ढंग से सूनी गई हैं। यही वह चीज है जिसे जीईएसी की सिफारिशों के मेरे पास आने के समय से मैं सुनिश्चित करना चाहता था। मैं जीईएसी और उसके कामों का सम्मान करता हूँ। हालांकि, सम्बन्धित मंत्री और संवेदनशील होने के नाते जीईएसी की सिफारिशों के बारे में किसी फैसले पर पहुँचने में मुझे आवश्यक समय लेने का व्यक्तिगत तौर पर अधिकार है जिससे आप सहमत होंगे। इसमें मेरा कोई व्यक्तिगत एजेंडा नहीं है, सिवा सुनने, समझने और तब फैसला करने का।
बीटी-बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन पर प्रतिबन्ध लगाने का ‘मुखर आदेश’ सभी वर्गों यथा वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, किसानों के समूहों और दूसरे हितधारकों के साथ विचार-विमर्श के बाद लिया गया था।
9 फरवरी 2010
जीईएसी की स्थापना पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अन्तर्गत मई 1990 में हुई थी। यह पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के नियम 1989 के अन्तर्गत वैधानिक संगठन है। यह जेनेटिकली मोडिफायड ऑर्गानिज्म के बड़े पैमाने पर परीक्षण और पर्यावरणीय प्रस्तुति की अनुमति देने के लिये अधिकृत है। लेकिन, बीटी-बैगन के मामले में 14 अक्टूबर 2009 को हुई अपनी 97वीं बैठक में जीईएसी ने फैसला किया कि पर्यावरणीय प्रस्तुति के बारे में अपनी सिफारिश को अन्तिम फैसला लेने के लिये सरकार पर छोड़ दे।
जीईएसी जो वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में अवस्थित है, ने अपनी सिफारिशों को मेरे पास भेजा। बीटी-बैंगन के बारे में जीईएसी की सिफारिशों के प्राप्त होने पर मैंने 16 अक्टूबर 2009 को इसकी सूचना मैंने उसे दी। मैंने सिफारिशों का अध्ययन किया और कार्रवाई करने का फैसला किया। जीईएसी को विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट (ईसी-2) 8 अक्टूबर 2009 को सौंपी गई जो उसके 14 अक्टूबर 2009 के फैसले का आधार बनी, जिसे तत्काल प्रभाव से सार्वजनिक किया गया। इसे सीधे वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के वेबसाइट पर अपलोड किया गया। बीटी-बैंगन के बारे में पूर्ववर्ती सभी रिपोर्टें और अध्ययन पहले से सार्वजनिक हैं। इस रिपोर्ट पर 31 दिसम्बर 2009 तक मन्तव्य माँगे जा रहे हैं और मैं उन्हें प्रोत्साहित करना चाहता हूँ। मेरा प्रस्ताव है कि जनवरी और फरवरी 2010 के दौरान विभिन्न जगहों पर वैज्ञानिकों, कृषि विशेषज्ञों, किसान संगठनों, उपभोक्ता समूहों और गम्भीर मानसिकता के गैर-सरकारी संगठनों जो जिम्मेवार ढंग से हिस्सेदारी करना चाहें, के साथ सार्वजनिक परामर्श आयोजित हों। इन परामर्शों में सभी प्रकार के विचार रखे जाएँ। बीटी-बैंगन के पक्ष और विपक्ष दोनों तरह के मजबूत विचार सामने आएँ हैं। मेरा उद्देश्य सार्वजनिक और राष्ट्रीय हित में सतर्क व सुविचारित निर्णय पर पहुँचना है।
बीटी-बैंगन पर पर्यावरण शिक्षा केन्द्र (सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एजुकेशन, सीईई) अहमदाबाद (सेंटर ऑफ एक्सेलन्स,जो वन एवं मंत्रालय द्वारा समर्थित है) ने 13 जनवरी 2010 से 6 फरवरी 2010 के बीच कोलकाता, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, नागपुर, चंडीगढ़, हैदराबाद और बंगलुरु में सार्वजनिक सभाएँ आयोजित की। इन सात सार्वजनिक सभाओं में विभिन्न तबके के लगभग 8000 लोगों ने उत्साह के साथ हिस्सा लिया।1
पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, बिहार, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों को पत्र भेजे गए क्योंकि यही बैंगन उपजाने वाले प्रमुख राज्य हैं जिनकी हिस्सेदारी भारत में बैगन उत्पादन में क्रमशः 30 प्रतिशत 20, 11, 6, 6 और 4 प्रतिशत हैं।2
मुझे आरम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि मेरी चिन्ता केवल बीटी-बैंगन को लेकर थी।3 कृषि में जेनेटिक इंजीनियरिंग और जैव तकनीक के व्यापक मसले को लेकर नहीं। मेरे सामने मसला इसमें सीमाबद्ध था कि बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण के बारे में जीईएसी की सिफारिशों का क्या करें?
सभी राज्यों, जिन्होंने मुझे पत्र लिखा, बीटी-बैंगन को लेकर आशंकाएँ प्रकट की और चरम सतर्कता बरतने का अनुरोध किया। यह हमारे संघात्मक ढाँचा के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था क्योंकि कृषि राज्य का विषय होता है। मैंने राज्य सरकारों के विचारों का निम्नलिखित निष्कर्ष निकाला जो राज्यों के मुख्यमंत्री/कृषि मंत्रियों द्वारा मेरे पास लिखित रूप से भेजे गए थे:-
आन्ध्र प्रदेश:- यह स्पष्ट है कि जीईएसी द्वारा एकत्र आँकड़े, संचालित परीक्षण और प्रसारित जानकारियाँ, बीटी-बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति देने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। जब तक पर्यावरण, मानव और पशु स्वास्थ्य की सुरक्षा के उपाय स्पष्ट तौर पर नहीं किये जाते, बीटी-बैंगन की व्यावसायिक खेती की अनुमति नहीं दी जा सकती।
केरल:- इन सब पर विचार करने के बाद केरल सरकार ने सभी जेनेटिकली मोडिफायड ऑर्गनिज्म के पर्यावरणीय प्रस्तुति को प्रतिबन्धित करने और केरल को जीएम मुक्त रखने का फैसला किया है। हम माननीय प्रधानमंत्री से अनुरोध करेंगे कि जीएम के बारे में नीति पर राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्विचार करें और इस पर कम-से-कम आगामी पचास वर्षों के लिये प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा करें।
छत्तीसगढ़: बीटी-बैंगन की व्यवसायिक खेती की अनुमति देने के पहले इसके सम्पूर्ण प्रभाव को देखने के लिये सभी प्रकार की जाँच संचालित की जानी चाहिए।
कर्नाटक:- बीटी-बैंगन की व्यावसायिक प्रस्तुति तब-तक रोकी जानी चाहिए जब तक सभी कोणों से इसका गहन परीक्षण के साथ ही सभी हितधारकों के विचार नहीं लिये जाते और इसकी जैव-सुरक्षा के बारे में दीर्घकालीन शोध नहीं होता। खाद्य-सुरक्षा एवं किसानों के कल्याण के मामले में इसके प्रभावों पर विचार किया जाना भी अतिमहत्त्वपूर्ण है।
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने मुझे बताया कि सरकार अपने विचार सभी परीक्षणों के पूरा हो जाने और भारत सरकार द्वारा फैसला कर लिये जाने के बाद ही प्रकट करेगी। प्रत्यक्ष रूप से बीटी तकनीक कीटनाशकों का उपयोग कम करने का इकलौता रास्ता नहीं है। कीटनाशक के प्रयोग का जनस्वास्थ्य पर घातक प्रभाव भटिंडा जैसी जगहों पर स्पष्ट दिखने लगा है, जिसके बारे में पंजाब के मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले मुझे बताया।
बिहार:- राज्य किसान आयोग, प्रदेश में बीटी-बैंगन को वर्तमान में प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं है। राज्य किसान आयोग की सिफारिशों पर राज्य सरकार ने विचार किया और सरकार उससे पूरी तरह सहमत है।
पश्चिम बंगाल:- मैंने जीईएसी की विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को डाउनलोड किया है। मैं समझता हूँ कि इस मसले पर क्षेत्रीय विशेषज्ञों द्वारा गहन पड़ताल की जरूरत है। मैं पूर्ववर्ती राज्य कृषि आयोग के कुछ सदस्यों से रिपोर्ट का परीक्षण करने और अपने विचार सरकार को भेजने का अनुरोध कर रहा हूँ ताकि सरकार इस विषय में समग्रतापूर्ण रुख अपना सके।
ओड़िशा:- ओड़िशा सरकार बीटी-बैंगन की प्रस्तुति का समर्थन नहीं करती। सरकार यह मानती है कि इसे लागू किये जाने के पूर्व इसकी यथेष्ट जमीनी जाँच और राज्य के छोटे एवं मंझोले किसानों के हित सुरक्षित किये जाने की जरूरत है।
इसके अतिरिक्त, उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री ने मुझसे बात की और राज्य में बीटी-बैंगन को प्रतिबन्धित करने के फैसले की जानकारी दी। तमिलनाडु के मुख्य सचिव ने मुझे सूचित किया कि तमिलनाडु अभी बीटी-बैंगन के व्यावसायीकरण के पक्ष में नहीं है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने मुझे कहा कि बीटी-बैंगन को केवल तभी प्रस्तुत किया जाना चाहिए जब सभी सन्देह और आशंकाओं का समुचित निदान हो जाये। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने मुझे बताया कि सरकार अपने विचार सभी परीक्षणों के पूरा हो जाने और भारत सरकार द्वारा फैसला कर लिये जाने के बाद ही प्रकट करेगी। प्रत्यक्ष रूप से बीटी तकनीक कीटनाशकों का उपयोग कम करने का इकलौता रास्ता नहीं है। कीटनाशक के प्रयोग का जनस्वास्थ्य पर घातक प्रभाव भटिंडा जैसी जगहों पर स्पष्ट दिखने लगा है, जिसके बारे में पंजाब के मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले मुझे बताया। उन्होंने मुझे बताया कि वह इलाका, विशाल कैंसरग्रस्त इलाके के रूप में उभरा है। बड़े स्तर (मैक्रो लेवल) पर खाद्य सुरक्षा और सूक्ष्म स्तर (माइक्रो लेवल) पर किसान की आमदनी से समझौता किए बगैर कीटनाशकों के प्रयोग को कैसे घटाए, यह हमारी कृषि की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक नीति का मसला है। इस सन्दर्भ में ध्यान देना उपयोगी होगा कि आन्ध्र प्रदेश के छह लाख किसान लगभग 20 लाख एकड़ इलाके में पूरी तरह गैर-कीटनाशक प्रबन्धन (नॉन पेस्टिसाइड मैनेजमेंट, एनपीएम) कृषि का व्यवहार कर रहे हैं। मैं स्वयं इस पहल को पिछले चार वर्षों से देख रहा हूँ। एनपीएम के व्यवहार का फायदा है कि इसमें रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को पूरी तरह बन्द कर दिया जाता है जबकि बीटी तकनीक केवल कीटनाशकों के छिड़काव को उल्लेखनीय रूप से घटाता है।
संयोग से जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के अन्तर्गत आठ मिशनों में से एक टिकाऊ कृृषि पर है जिसका एनपीएम अविभाज्य अंग है। वन एवं पर्यावरण मंत्री बनने के बहुत पहले मैंने 19 जनवरी 2009 को कृषि मंत्री को लिखा था कि आन्ध्र के एनपीएम प्रयोग का इस दृष्टि से मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कि क्या इसका बड़े पैमाने पर अनुकरण किया जा सकता है? बीटी-बैंगन के आलोचकों द्वारा सुरक्षा जाँच का मसला लगातार उठाया जाता है। बैंगन वैसे भी जिस सोलानासी नामक पौधा परिवार से आता है। वह दूसरों की अपेक्षा अधिक समस्याग्रस्त है क्योंकि इसमें अनेक प्राकृतिक विषैले तत्व होते हैं जो रस-प्रक्रिया (मेटाबोलिज्म) के भंग होने पर पुनः सतह पर आ सकते हैं। जिस तरह की जाँच की गई, कहा जाता है कि वे विषैले तत्वों का पता लगाने के लिये पर्याप्त सख्त नहीं थे। यह महत्त्वपूर्ण मसला है क्योंकि बैंगन हममें से अधिकांश लोगों के दैनिक उपभोग की वस्तु है।
मानवीय सुरक्षा के लिहाज से आवश्यक जाँच की संख्या और प्रकृति के बारे में बहस हो सकती है। परन्तु यह निर्विवाद है कि जाँच बीटी-बैंगन के विकासकर्ताओं द्वारा स्वयं किये गए किसी स्वतंत्र प्रयोगशाला में नहीं किये गए। इससे जाँचों की विश्वसनीयता पर तर्कसंगत सन्देह उत्पन्न होता है, ऐसा सन्देह जिसे मैं नजरअन्दाज नहीं कर सकता। आमतौर पर स्वीकृत वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार यह तथ्य है कि बैंगन बड़े पैमाने पर परागण छिड़कने वाली फसल है, इसलिये बीटी-बैंगन का उपयोग करने पर दूसरी किस्मों के साथ मिलावट होने का खतरा खासतौर से चिन्ताजनक है।
कई हलकों से बहुत ही गम्भीर आशंका प्रकट की गई है कि अगर बीटी-बैंगन को अनुमति दी गई तो मॉन्सेंटो द्वारा हमारी खाद्य शृंखला को नियंत्रित करने की सम्भावना है।4 वास्तव में ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बीटी-बैंगन के बारे में सार्वजनिक चिन्ताओं को स्वयं मॉन्सेंटो के साथ हुए अनुभवों ने बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित किया है। जो हो, मैं जरा भी पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं हूँ। मॉन्सेंटो ने भारत में बहुत अधिक निवेश किया है जिसमें शोध और विकास शामिल है। भारतीय मूल के अनेक वैज्ञानिक मॉन्सेंटो में काम करते हैं। एक देश के रूप में हमें राष्ट्रीय सम्प्रभुता को खतरे में डाले बिना मॉन्सेंटो की विशेषज्ञता और सक्षमताओं का पूरा लाभ उठाना निश्चित तौर पर सीखना चाहिए और उसकी बराबरी की ताकत भी विकसित करना चाहिए। दुर्भाग्य से कृषि में जैव-तकनीकी प्रयोगों में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश करने की स्थिति में हम नहीं दिखते। अगर ऐसा एक उद्यम होता तो मॉन्सेंटो को टक्कर दी जा सकती थी। यह सही है कि भारतीय कम्पनी माहिको उन्नत किस्म की बीटी-बैंगन के विकास में लगा है लेकिन स्वयं माहिको में 26 प्रतिशत हिस्सेदारी मॉन्सेंटो की है। यह भी सच है कि दो सरकारी कृषि विश्वविद्यालयों- तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (टीएनएयू) कोयम्बटूर और यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज, धारवाड़ ने बीटी-बैंगन किस्में विकसित की हैं।5 लेकिन, यह रहस्य है कि इन दोनों संस्थानों में बीटी सम्बन्धी शोध के लिये कोष कहाँ से उपलब्ध हुआ? इसके अलावा टीएनएयू और मॉन्सेंटो के बीच मार्च 2005 में हुआ ‘सामग्री हस्तान्तरण अनुबन्ध’(मटेरियल ट्रांसफर एग्रीमेंट, एमटीए) से स्वामित्व (उत्पादन और जर्मप्लाज्म दोनों) का चिन्ताजनक प्रश्न उठा है। इस अनुबन्ध के अन्तर्गत टीएनएयू क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता है? यह प्रश्न है।
विश्व का सबसे बड़ा बैंगन उत्पादक होने के अलावा भारत निसन्देह बैगन की उत्पत्ति का मूल देश है जिसे वाविलोव ने 1928 में सिद्ध किया था। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (इण्डियन कौंसिल फॉर एग्रीकल्चर रिसर्च, आईसीएआर) के नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज द्वारा मुझे उपलब्ध कराए गए आँकड़े बताते हैं कि ब्यूरो में 3,951 नमूने संकलित हैं। और विविधता-सम्पन्न जिलों की संख्या 134 है। ब्यूरो ने यह भी इंगित किया है कि विविधता सम्पन्न क्षेत्रों पर बीटी-बैंगन की प्रस्तुति से जीन प्रवाह के कारण प्रभाव पड़ना सम्भावित है। विविधता में क्षति की दलीलों को खारिज नहीं किया जा सकता। खासकर जब हमने कपास के मामले में अनुभव किया है कि बीटी-कॉटन ने गैर बीटी किस्मों पर कब्जा जमा लिया।
बीटी-कॉटन की तुलना बीटी-बैंगन से नहीं की जा सकती, फिर भी इसके साथ अपने अनुभवों को याद रखने की जरूरत है। निसन्देह, बीटी-कॅाटन ने भारत को कपास उत्पादन के मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर पहुँचा दिया है। नई तकनीक की जड़ें जमने के बाद वह तीसरे स्थान से ऊपर खिसका है। भारत के 90 प्रतिशत कपास उत्पादक किसान बीटी-कॉटन उपजाते हैं। यह भी सही है कि सार्वजनिक परामर्शों में अनेक किसानों ने आर्थिक आधार पर बीटी-कॉटन के पक्ष में जोरदार आवाज उठाई पर कइयों ने सन्देह भी जाहिर किया। इससे आगे बढ़कर केन्द्रीय कपास शोध संस्थान (सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ कॉटन रिसर्च, सीआईसीआर), नागपुर ने भारत में बीटी-कॅाटन के बारे में एक समेकित अध्ययन किया है जिसने कई प्रश्न उठाए हैं।6 इस संस्थान ने बीटी-कॅाटन की एक किस्म ‘बिकानेरी नरमा’ का उत्पादन किया है (जिसके बीज किसान अगली फसल के लिये रख सकते हैं, जबकि अन्य उन्नत किस्मों के बीज किसानों को हर साल खरीदना होता है।) संस्थान के निदेशक ने बीटी-बैंगन तकनीक का स्पष्ट समर्थन करते हुए बीटी-कॅाटन के अनुभव के आधार पर निम्नलिखित तर्क रखे:-
1. मोनोफागस कीड़ों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाना बेहद गम्भीर चिन्ता का कारण है। सभी बैंगन उपजाने वाले राज्यों में प्रतिरोधक प्रबन्धन के लिये परिचित प्रयोगशाला सरकारी संस्थानों में तना-छेदकों की आबादी और फलों पर क्राई विषैले तत्वों की अति संवेदनशीलता के आकड़ों की बेसलाइन विकसित करने की जरूरत है। इसतरह के आँकड़े अभी केवल ‘महिको’ के पास उपलब्ध हैं। वहाँ भी मुख्य प्रतिरोधक निगरानी प्रयोगशाला स्थापित करने की जरूरत है जिससे इस तकनीक की प्रस्तुति के बाद बेसलाइन की अति संवेदनशील फलछेदक के क्राई प्रोटीन में परिवर्तन की निगरानी की जा सके।
2.प्रतिरोधक प्रबन्धन रणनीतियों का विकास वास्तव में अनेक सम्भावनाओं के बीच से चुने गए नमूने के आउटपुट प्रोफाइल पर आधारित होता है जो विषैले तत्वों, पारिस्थितिकीय, अनुवांशिक और जीवविज्ञानी मानदंडों के साथ एकीकृत होते हैं। प्रतिरोध की सम्भावनाओं वाले नमूनों को प्रतिरोध की जोखिम की गणना और पूर्व-सक्रिय कीटाणु प्रतिरोधक प्रबन्धन( इन्सेक्ट रेजिस्टेंस मैनेजमेंट,आईआरएम) रणनीतियों के आधार पर विकसित किया जाना चाहिए। महिको द्वारा बीटी-बैंगन के इकोसिस्टम में परम्परागत बैंगन में 5 प्रतिशत संरचनाकृत आश्रय रणनीति प्रस्तावित किया गया है। यह बुनियादी सरलतम अनुमानों पर आधारित है, पारिभाषित अल्गोरिदम्स और नमूनों के आधार पर नहीं।
3. बैंगन के हानिकारक कीटाणुओं की पारिस्थितिकी, जीवविज्ञानी, अनुवांशिक और आबादी की गतिशीलता के बारे में समेकित रिपोर्ट की आवश्यकता है जो अब तक उपलब्ध है। पारिस्थितिकी, जीवविज्ञानी और आबादी की गतिशीलता के आधार पर बनावटी नमूने विकसित किए जाने चाहिए ताकि नए कीटाणुओं की उत्पत्ति को रोकने के साथ प्रमुख कीटाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से रोकने के लिये उपयुक्त रणनीति तैयार की जा सके।
यह विवरण इंगित करता है कि अधिक परीक्षण की जरूरत है जो सुचिन्तित, व्यापक रूप से स्वीकृत और स्वतंत्र रूप से संचालित हो। ‘बीकानेरी नरमा’ भी सार्वजनिक तौर पर अच्छे शोध को मजबूत बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
जीईएसी की प्रक्रिया में शुद्धता पर ही अनेक सन्देह व्यक्त किए गए हैं। भारत के एक प्रमुख जैव-तकनीकविद डॉ पीएम भार्गव ने भी सवाल खड़े किये। ये देश में ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ शब्द का प्रयोग करने वाले पहले लोगों में है और जो जीईएसी में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित हैं। उन्होंने ईसी-2 रिपोर्ट की बिन्दुवार विस्तृत समीक्षा की है जिसके आधार पर बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण के बारे में जीईएसी की सिफारिशें आई। डॉ. भार्गव ने दावा किया है कि ईसी-2 के अध्यक्ष उनके आँकलन से सहमत हुए कि महिको द्वारा आठ आवश्यक जाँच नहीं किए गए हैं। दूसरा तथ्य मेरे ध्यान में लाया गया कि जीईएसी द्वारा 2006 में गठित एक विशेषज्ञ समिति (ईसी-1) ने अनेक जाँच संचालित करने के लिये कहा था, पर ईसी-2 के एक तिहाई सदस्य (जो ईसी-1 के सदस्य भी थे) ने बीटी-बैंगन का मूल्यांकन करते हुए उन अध्ययनों की आवश्यकता को नकार दिया। मैं, जीईएसी ने जिस तरह से कार्य किया, उसकी अन्त्यपरीक्षण करने का प्रस्ताव नहीं करता।7 कई लोगों ने एक स्वतंत्र अनुवांशिक अभियंत्रण नियामक की माँग की है। एक ‘राष्ट्रीय जैव-तकनीक नियामक प्राधिकरण’ (नेशनल बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी ) करीब छह वर्षों से चर्चा में है लेकिन उसे अभी जमीन पर आना है। ऐसे किसी प्राधिकरण को पेशेवर, विज्ञान आधारित और सरकार से स्वतंत्र होना होगा। उसके पास सभी आवश्यक जाँच शुद्धता और निष्पक्षता से संचालित करने की सुविधाएँ होनी चाहिए। ऐसी किसी संस्था के अभाव में जीईएसी की सीमाओं के बारे में तर्कों की अनदेखी नहीं की जा सकती।
यहाँ पर्यावरण और विकास के बारे में ‘रियो घोषणापत्र’ की धारा-15 को याद करना भी प्रासंगिक होगा जो एहतियाती सिद्धान्त की चर्चा करता है। इसके अनुसार ‘‘जब अपूरणीय क्षति का खतरा हो, तो पूर्ण वैज्ञानिक सुनिश्चितता नहीं होने को, पर्यावरणीय क्षति रोकने के किफायती उपाय नहीं अपनाने का कारण नहीं बताया जा सकता।
कई देशों ने खासकर यूरोप में जीएम खाद्य पदार्थों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। मैंने चीन में अपने समकक्ष से बात की और उन्होंने मुझे बताया कि चीन की नीति जीएम तकनीक पर शोध को प्रोत्साहन देने के साथ ही खाद्य फसलों में इसकी प्रस्तुति के मामले में अत्यधिक सतर्कता बरतने की है। वैसे चीन का बीटी-कॉटन सम्पूर्णतः घरेलू स्तर पर विकसित है। भारत का मामला एकदम उल्टा है। चीन में जीएम तकनीक कार्यक्रम बहुत ही जोरदार तरीके से सार्वजनिक कोष से सम्पोषित है, जैसा भारत में नहीं है। यह सही है कि बीटी-कॉर्न और बीटी-सोया अमेरिका में व्यापक पैमाने पर उपलब्ध है, पर इसका अनुकरण करने की मजबूरी हमारे लिये नहीं है।
कुछ वैज्ञानिको और नागरिक संगठनों ने संकेत दिया है कि जीईएसी प्रक्रिया ने जैव-सुरक्षा के बारे में कार्टागेना समझौता का उल्लंघन किया है जिसका भारत हिस्सेदार है। खासकर जीएम खाद्य पदार्थों को प्रस्तुत करने के पहले सार्वजनिक परामर्श करने के प्रावधान और जोखिम आकलन के व्यापक सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ है। यहाँ पर्यावरण और विकास के बारे में ‘रियो घोषणापत्र’ की धारा-15 को याद करना भी प्रासंगिक होगा जो एहतियाती सिद्धान्त की चर्चा करता है। इसके अनुसार ‘‘जब अपूरणीय क्षति का खतरा हो, तो पूर्ण वैज्ञानिक सुनिश्चितता नहीं होने को, पर्यावरणीय क्षति रोकने के किफायती उपाय नहीं अपनाने का कारण नहीं बताया जा सकता। इसके अलावा रिकोम्बिनैट-डीएनए पौधों से निकले खाद्य पदार्थों के खाद्य-सुरक्षा आकलन को संचालित करने के लिये ‘कोडेक्स एलिमेंटारियस मार्गदर्शिका’ की धारा-45 कहती है कि परीक्षण स्थल ऐसा होना चाहिए जो उन पर्यावरणीय परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व कर सके जिनके अन्तर्गत पौधे की किस्मों को उपजाया जाना है। परीक्षण स्थलों की संख्या यथेष्ट होनी चाहिए जिससे उस पर्यावरणीय संयोजनात्मक लक्षणों का सटीक आकलन हो सके। इसी प्रकार, परीक्षण यथेष्ट संख्या में सन्तति के साथ संचालित होना चाहिए ताकि प्रकृति में विभिन्न किस्म की परिस्थितियों के बीच सम्मिलित होने का पर्याप्त अवसर मिल सके। पर्यावरण के प्रभावों को न्यूनतम करने के लिये और पौधे के किस्म के भीतर प्राकृतिक रूप से होने वाले जेनोटाइपिक विचलन के प्रभाव को कम करने के लिये प्रत्येक परीक्षण स्थल को दोहराया जाना चाहिए। पौधों को यथेष्ट संख्या में नमूना चुनना चाहिए और विश्लेषण की पद्धति पर्याप्त संवेदनशील और विशिष्ट होनी चाहिए ताकि प्रमुख अवयवों में विचलन का पता चल सके। ऐसा लगता है कि वर्तमान मानदण्ड जिसके द्वारा जीईएसी ने बीटी-बैंगन को अनुमोदन देने का फैसला किया, इन वैश्विक नियामक मानदण्डों जिसका भारत हिस्सेदार है, के अनुरूप नहीं है। मेरे पास बीटी-बैंगन के बारे में गम्भीर सन्देह व्यक्त करते हुए अमेरिका, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों के ईमेल आये जिनमें भारत में किये गए परीक्षण के तरीकों पर चिन्ता जताई गई थी। उनमें से निम्नलिखित का उल्लेख मुझे करना चाहिए:-
(1) प्रोफेसर जीई सेरालिनी, फ्रांस। जिन्होंने एक विस्तृत रिपोर्ट में ईसी-2 रिपोर्ट की अनेक गड़बड़यों की ओर संकेत किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि ‘मनुष्यों और मवेशियों के स्वास्थ्य पर जोखिम बहुत अधिक है जिसे जीएम बैंगन के व्यावसायीकरण का फैसला करने वाले अधिकारियों को देखना चाहिए।
(2) डॉ डोउग गुरैन-शेरमन, यूनियन ऑफ कनसर्न्ड साइंटिस्ट, वाशिंग्टन डीसी। जो कहते हैं कि ‘‘तेरह वर्षों के दौरान संकलित रिकार्ड दिखाता है कि कॉर्न की कुल उपज में 14 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई जिसमें बीटी-कॉर्न किस्मों द्वारा उपज की बढ़ोतरी में केवल 4 प्रतिशत का योगदान रहा”। डॉ गुरैन-शेरमन ने ईसी-2 में बीटी-बैगन के जीन प्रवाह का मूल्यांकन करने में गम्भीर गड़बड़ी को रेखांकित किया है।
(3) प्रोफेसर एलिसन स्नो और प्रोफेसर नॉर्मन इल्स्ट्रैंड, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी। जिन्होंने बीटी- बैंगन से जंगली और खरपतवार की ओर जीन-प्रवाह को लेकर ईसी-2 में अनेक कमियों को रेखांकित किया है।
(4) डॉ निकोलस स्टोरर, डो एग्रो साइंसेज ( एक निजी अमरीकी कम्पनी, बहुत हद तक मोनसैंटो जैसी)। जिन्होंने कहा कि बीटी-बैंगन से पर्यावरण या मनुष्य और मवेशी के स्वास्थ्य पर अतार्किक ढंग से विपरीत प्रभाव पड़ने का जोखिम नहीं है, लेकिन प्रतिरोधक प्रबन्धन रणनीतियों का सतर्क कार्यान्वयन जरूरी होगा। संकेत करते हैं कि बीटी-तकनीक को बैंगन पर हमला करने वाले लेपिडोप्टेरॉन कीड़ों का अचूक निदान नहीं माना जा सकता।
(5) डॉ जैक हीनेमैन, यूनिवर्सिटी ऑफ कैंटरबरी, न्यूजीलैंड। जो बीटी-कॉटन की उपज में लगातार बढ़ोतरी के दावों पर सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि बीटी-बैंगन पर भारत में हुए परीक्षण सतर्क अन्तर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप नहीं हैं।
(6) डॉ डेविड एन्डोव, यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा, यूएस। जो कहते हैं कि ईसी-2 रिपोर्ट को उन्होंने जितना पढ़ा है उससे पर्यावरण जोखिम आँकलन के पर्याप्त होने पर प्रश्न उठते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे पर्यावरण जोखिम आँकलन के गलत होने का निष्कर्ष निकालें।
(7) डॉ डेविड स्चुबर्ट, साल्क इंस्टिट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल स्टडीज, यूूएस। जो कहते हैं कि बीटी-बैंगन को भारत में निश्चित तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे गम्भीर पर्यावरणीय और स्वास्थ्यगत जोखिम उत्पन्न होंगे। निजी कम्पनियों पर सामाजिक और राजनीतिक निर्भरता बढ़ेगी और खाद्य शृंखला के हर स्तर पर अधिक कीमत चुकानी होगी।
(8) डॉ जूडी कार्मन, इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड एनवायरनमेंटल रिसर्च, साउथ ऑस्ट्रेलिया। जिन्होंने महिको के जैव-सुरक्षा दस्तावेज-2008 का पूरे विस्तार से विश्लेषण किया है और कहते हैं कि उनके सन्देहों एवं प्रश्नों का जवाब ईसी-2 रिपोर्ट में नहीं दिये गए हैं।
कुछ सुझाव आये हैं कि हम बीटी-बैंगन हाईब्रिड को सीमित इलाके में सीमित ढंग से प्रस्तुत करने पर विचार करें और यह सुनिश्चित हो कि इसकी बिक्री पर अनिवार्य लेबलिंग द्वारा निगरानी रखी जाएगी। यह सुझाव भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष डॉ एम विजयन जो भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलोर में माइक्रोबायोलॉजिस्ट हैं ने दिया है। मेरा विचार है कि यह समझौता का एक रास्ता हो सकता है, पर ऐसा ‘पृथकीकरण’ सुनिश्चित करना अत्यधिक कठिन होगा। अनिवार्य लेबलिंग अमेरिका जैसे देशों में आवश्यक होता है, पर यहाँ यह एक तरह से अव्यावहारिक है क्योंकि हमारा खुदरा बाजार बुनियादी तौर से अमेरिका से एकदम अलग किस्म का है। व्यवहार में सीमित उपयोग की निगरानी करना भी अत्यधिक कठिन होगा। दूसरे वैज्ञानिक डॉ. एनएस तालेकर जिन्होंने बीटी-बैंगन के मौजूदा रूप में उपयोग के खिलाफ कड़ी चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि समर्थक जिस तरह से इसके उपयोग की पैरवी कर रहें है वह गलत और अवैज्ञानिक है। इसका उपयोग विनाशकारी साबित हो सकता है। उन्होंने वर्ल्ड वेजिटेबल सेंटर, ताइवान में बैंगन के तना और फल छेदक कीटों पर काम किया है और अभी महात्मा फूले कृषि विद्यापीठ में पोस्टेड हैं।
कुछ प्रमुख भारतीय वैज्ञानिकों ने बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण का समर्थन करते हुए लिखा है। उनमें प्रमुख भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलोर के डॉ. जी पद्मनाभम हैं, जो बीटी-बैंगन के अनेक घरेलू और विदेशी आलोचनाओं को उजागर करते हुए व्यवसायीकरण के पक्ष में मजबूत तर्क उपस्थित करते हैं। वे नियामक अधिकारों और शोध एवं विकास सक्षमताओं से लैस एक वैधानिक संगठन की जरूरत की पैरवी करते हैं, जो देश में जीएम फसलों का व्यवसायिक उत्पादन आरम्भ हो जाने पर उसके सभी पहलुओं की देख-रेख कर सके। विशेषतौर पर डॉ. पदमनाभन कहते हैं कि ऐसे स्वायत्त संस्थान को निम्न मसलों का निपटारा करना होगा:-
(1) देश में व्यवसायीकरण के लिये प्रासंगिक जीएम फसलों और उनके लक्षणों का चयन।
(2) जीएम फसल का निश्चित अवधि के लिये पंजीकरण और उसके प्रदर्शन एवं जमीनी वास्तविकताओं का फिर से आँकलन। और इस आधार पर पंजीकरण को अगली निश्चित अवधि के लिये विस्तार।
(3) किसानों से बेचे गए जीएम बीजों की कीमत निर्धारित करने के लिये इनपुट्स।
(4) किसानों को निरन्तर तकनीकी सहायता और परामर्श।
(5) बीटी फसलों को एकीकृत कीट प्रबन्धन( इंटीग्रेटेड इन्सेक्ट मैनेजमेंट,आईपीएम) रणनीतियों के साथ जोड़ना और द्वितीयक संक्रमण का भी निपटारा करना।
(6) कृषि में जीएम तकनीकों के इस्तेमाल के लाभ और हानि के बारे में लोगों को शिक्षित करना।
डॉ. पदमनाभन द्वारा निर्धारित एजेंडा महत्त्वाकांक्षी और आवश्यक दोनों हैं लेकिन इसके कारगर ढंग से कार्यान्वयन में समय लगेगा। एक अन्य प्रमुख वैज्ञानिक जिन्होंने बीटी-बैंगन को सामान्य खेती के लिये प्रस्तुत करने के जीईएसी के फैसले का समर्थन किया, वे दिल्ली विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. दीपक पेंटल हैं। लेकिन, उन्होंने भी कहा है कि दो वास्तविकताओं को निश्चित तौर पर समझा जाना चाहिए। पहली- भारत बैंगन उपजाने का मूल उत्पत्ति स्थान है, यहाँ ट्रांस्जीन्स जंगली जर्मोप्लाज्म में बदल सकता है, पर इससे हमें अधिक चिन्तित नहीं होना चाहिए । दूसरी- हम बीटी-बैंगन और गैर बीटी-बैंगन में आसानी से फर्क नहीं कर सकेंगे जिससे लेबलिंग असम्भव हो जाएगा। इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एँड बायोटेक्नोलॉजी के डॉ. राज भटनागर ने एक अतिशय तकनीकी पत्र भेजा है जिसका सरल भाषा में मतलब है कि बीटी-बैंगन खाने से स्वास्थ्य पर कोई जोखिम नहीं है।
मैंने भारतीय आयुर्विज्ञान शोध परिषद( इण्डियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च,आईसीएमआर) के महानिदेशक और भारत सरकार के औषधि-नियंत्रक (ड्रग कंट्रोलर) दोनों से विचार विमर्श किया। दोनों ने सिफारिश किया कि जटिल विषैले तत्वों और दूसरे सम्बन्धित परीक्षण स्वतंत्र रूप से कराये जाने चाहिए। विकासकर्ता कम्पनियों द्वारा एकत्र आँकडों पर पूरा भरोसा करने की बजाय मनुष्यों पर भी स्वतंत्र परीक्षण किया जाना चाहिए। आईसीएमआर के महानिदेशक ने मुझसे कहा कि वे स्वास्थ्यगत प्रभावों के बारे में परस्पर उलटे साक्ष्यों को देखते हुए अधिक सावधान रहने और अधिक जाँच करने की वकालत करेंगे। देश के करीब एक सौ चिकित्सकों का नेटवर्क ‘डॉक्टर्स फॅार फूड एंड सेफ्टी’ ने उन स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में ज्ञापन भेजा है जो साधारण तौर पर जीएम खाद्य पदार्थों और विशेष तौर पर बीटी-बैंगन से सम्बन्धित हैं। उन्होंने ‘अमेरिकन एकेडमी ऑफ इंवायरमेंटल मेडिसिन’ की सिफारिशों की ओर ध्यान दिलाया है। जिसमें कहा गया है कि जीएम खाद्य पदार्थों का मानवीय उपभोग के बारे में समुचित परीक्षण नहीं किया गया है और यह यथेष्ट जोखिम जुड़ा हुआ है। मुझे यह भी बताया गया है कि भारतीय चिकित्सा पद्धतियों जिसमें आयुर्वेद, सिद्ध, होमियोपैथी और यूनानी शामिल हैं।इनमें बैंगन का औषधि के तौर पर इस्तेमाल होता है। सांस की बीमारियों में बैंगन का कच्चा और पकाया हुआ दोनों रूपों में इस्तेमाल होता है और इसके समूचे पौधे से औषधियाँ तैयार की जाती हैं। डर है कि बीटी-बैंगन इन औषधीय गुणों को तालमेल में कमी, अल्कालोयड में फर्क और दूसरे सक्रिय अवयवों में परिवर्तन की वजह से नष्ट कर देगा। चिकित्सकों के इस नेटवर्क की राय में इन मसलों पर ईसी-2 रिपोर्ट में विचार नहीं किया गया है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और जैव-तकनीक विभाग ने भी बीटी-बैंगन को बिना शर्त समर्थन दिया है। कुछ किसान संगठन जैसे- भारत कृषक समाज और शेतकारी संगठनो और किसानों के प्रवक्ता जैसे-भूपिंदर सिंह मान और शरद जोशी, बीटी तकनीक के साधारण तौर पर और बीटी-बैंगन के खासतौर पर पूर्ण समर्थन में सामने आए हैं। उनके समर्थन का आधार है कि किसानों को आधुनिक तकनीक के लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता और इन तकनीकों से किसानों की आमदनी बढ़ेगी। जैसाकि मैंने पहले उल्लेख किया है कि सार्वजनिक परामर्शों के दौरान अनेक किसानों ने तर्क दिया था कि बीटी-कॉटन उनके लिये बहुत ही मुनाफादेह रहा।
वर्ष 2007 और 2009 के बीच जीईएसी ने जमीनी परीक्षण के लिये जिन जीएम फसलों का अनुमोदन किया उनमें कीट-प्रतिरोधी कपास और मेटाहेलिक्स लाइफ साइंसेज, बंगलोर द्वारा विकसित चावल, और अवेस्थागेन, पूणे द्वारा विकसित उन्नत नस्ल के चावल शामिल हैं। उपरोक्त दोनों कम्पनियाँ नई पीढ़ी के भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा संचालित हैं।
मैंने कृषि के लिये जैव-तकनीक में सार्वजनिक निवेश के महत्त्व पर जोर दिया है लेकिन, इस क्षेत्र में भारतीय निजी निवेश पहले से एक वास्तविकता बन गई है। महिको एक उदाहरण है। वर्ष 2007 और 2009 के बीच जीईएसी ने जमीनी परीक्षण के लिये जिन जीएम फसलों का अनुमोदन किया उनमें कीट-प्रतिरोधी कपास और मेटाहेलिक्स लाइफ साइंसेज, बंगलोर द्वारा विकसित चावल, और अवेस्थागेन, पूणे द्वारा विकसित उन्नत नस्ल के चावल शामिल हैं। उपरोक्त दोनों कम्पनियाँ नई पीढ़ी के भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा संचालित हैं। स्पष्ट रूप से भारतीय उद्यमियों द्वारा स्थापित ऐसी विज्ञान आधारित कम्पनियों को प्रोत्साहन देने की जरूरत है और नियामक प्रक्रिया को गतिरोध उत्पन्न नहीं करना चाहिए।9 इसके अलावा सार्वजनिक कोष से चलने वाले संस्थानों को भी जैसे भारतीय बागवानी शोध संस्थान, बंगलोर को भी प्रोत्साहन की जरूरत है क्योंकि मुझे बताया गया है कि वहाँ बीटी-बैंगन किस्म का क्राई2ए बीटी जीन के साथ परीक्षण आखिरी दौर में है। सार्वजनिक कोष से संचालित एक अन्य संस्थान, ‘भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान’ वाराणसी के वैज्ञानिकों ने क्राई1एएए3 जीन का उपयोग करके बीटी-बैंगन का विकास अपने आईवीबीएल-9 कल्टीवेटर में किया है। अगर हमें बीटी-कॉटन के अनुभवों के अनुसार चलना है तो इन सार्वजनिक क्षेत्र के उत्पादनों को पहले प्रस्तुत करने की जरूरत है।
मुझे डॉ. एमएस स्वामीनाथन (सांसद) के साथ विस्तृत विचार विमर्श करने का लाभ मिला है जो निसन्देह भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और वरिष्ठतम कृषि वैज्ञानिक के साथ हरित क्रांति के वैज्ञानिक रचनाकार रहे हैं। डॉ. स्वामीनाथन, जिनका शोध-संस्थान जीएम तकनीक पर काम कर रहा है, ने कहा कि हमें तीन चीजों के लिये चिन्ता करने की जरूरत है:-
(1)दीर्घकालीक विषाक्तता, क्योंकि बैंगन भारत में अक्सर उपयोग में आने वाली वस्तु है।
(2) स्वतंत्र परीक्षण, जिसकी विश्वसनीयता हो और केवल विकासकर्ता द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकडों पर निर्भरता नहीं हो।
(3) एक स्वतंत्र नियामक प्रणाली, जो कृषि में जीएम तकनीकी के सभी पहलुओं का अध्ययन करने की स्थिति में हो और नपा-तुला निष्कर्ष निकाल सके।
डॉ. स्वामीनाथन इस विचार से भी सहमत हुए कि बैंगन में स्वयं प्राकृतिक विषैले तत्व होते हैं, इसलिये बीटी-तकनीक को लेकर हमें अधिक सतर्क रहना होगा। उनकी भारत और भारत के बाहर प्रतिष्ठा को देखते हुए उनके ताजा सन्देश को मैं यहाँ अविकल प्रस्तुत करना चाहता हूँ:-
प्रिय जयराम, मुझे प्रसन्नता है कि आपने व्यापक स्तर पर सार्वजनिक परामर्श आयोजित किया। बुद्धि एवं अनुभव के उन अभूतपूर्व मंथनों से निश्चित ही कुछ उपयोगी निकलना चाहिए। अब लाभ और खतरा दोनों सर्वविदित हैं। थोड़े समय के लिये ऐसे लाभ दिख रहे हैं जिन पर प्रश्न नहीं किया जा सकता, लेकिन लम्बे समय में मनुष्य के स्वास्थ्य और बैंगन की किस्मों की हमारी विरासत पर खतरा सम्भावित है। आगे का रास्ता क्या है?
1. बैंगन के भारतीय अनुवांशिक विरासत का संरक्षण:- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान( इण्डियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टिट्यूट,आईएआरआई) में 1949 का मेरा स्नातकोत्तर प्रबन्ध बैंगन और कन्दहीन सोलानम प्रजातियों के बारे में था। मैंने इस अदभुत फसल की समृद्ध अनुवांशिक सम्पदा का अध्ययन किया है। अनेक स्थानीय प्रजातियों को मोनसैंटो के क्राई एलएसी जीन वाले एक या दो किस्मों से बदल दिए जाने का दीर्घकालीन प्रभाव क्या होगा? मेरी सलाह 2010 के दौरान थी कि आईसीएआर और नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज के साथ भारतीय प्रबन्धन संस्थान, अहमदाबाद के डॉ. अनिल गुप्ता (वे परम्परागत ज्ञान और किसानों के नवोन्मेष के बारे में राष्ट्रीय आँकड़ा भंडार दुरुस्त रखते हैं) मिलकर बैंगन के वर्तमान अनुवांशिक परवर्तनशीलता का संकलन, सूचीबद्ध और संरक्षित करें। ऐसे संग्रह का सर्तकतापूर्वक संरक्षण हजारों वर्षों के प्राकृतिक विकास और मानवीय चयन को विलुप्त होने के पहले निश्चित तौर पर कर लिया जाए।
2. बीटी-बैंगन के उपभोग के दीर्घकालीन प्रभाव का आकलन:- दूसरा कदम जिसे उठाने की जंरूरत है, वह राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद और केन्द्रीय खाद्य तकनीक शोध संस्थान, मैसूर को बीटी-बैंगन का मानव स्वास्थ्य पर दीर्घकालीन प्रभाव का सतर्कतापूर्वक अध्ययन करने के लिये कहना। यह मनुष्यों में फेंफडा कैंसर की घटनाओं में तंबाकू, धूम्रपान के प्रभाव के अध्ययन की तर्ज पर होगा।
यह राष्ट्रीय हित में होगा कि इन दो कदमों को बीटी-बैंगन की व्यवसायिक खेती और मानवीय उपभोग के लिये जारी करने का फैसला करने के पहले पूरा कर लिया जाये।
यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि सुप्रीम कोर्ट में 2005 के आरम्भ में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर हुई जिसमें ‘जेनिटिकली मोडिफायड ऑर्गेनिज्म’ (जीएमओ) को पर्यावरण में प्रस्तुत करने के पहले, प्रत्येक के लिये समेकित, कठोर, वैज्ञानिक रूप से सख्त और पारदर्शी जैव-सुरक्षा परीक्षण व्यवस्था को सार्वजनिक पहुँच के भीतर उपलब्ध कराने का अनुरोध किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने जीईएसी के कार्यकलाप में पारदर्शिता और जबाबदेही सुनिश्चित करने के लिये इस मामले में अब तक छह आदेश दिए हैं। पीआईएल का अन्तिम निपटारा होना अभी बाकी है और सबसे ताजा आदेश 19 जनवरी 2010 का है जिसमें केन्द्र सरकार से चार सप्ताह के अन्दर यह बताने के लिये कहा गया है कि परम्परागत फसलों की सुरक्षा के लिये उसने क्या कार्रवाई की है। स्पष्ट रूप से बीटी-बैंगन के बारे में फैसला करने में इस पीआईएल का ध्यान रखना होगा जो पहले से अदालत में है। इसके अतिरिक्त, सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरणीय फैसला (आन्ध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाम एमवी नायडु 1999(2)एससीसी 718) में निम्नलिखित पर निर्भर रहकर ऐहतियाती सिद्धांत को मार्गदर्शक उपाय के तौर पर लागू किया है :-
नीति-निर्माताओं को दस्तावेजों का आकलन करने और यह निष्कर्ष निकालने से कोई रोक नहीं सकता कि उपलब्ध सूचनाएँ अपर्याप्त हैं। उनपर निर्भर करके निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकता। यदि ‘कुछ’ भरोसे के साथ निर्णय करना सम्भव नहीं हो, तब सावधानी का पक्ष लेना और उन गतिविधियों को बन्द कर देना बेहतर होता है जिनसे गम्भीर या अपूरणीय क्षति हो सकती है। बाद में पूरी जानकारी के साथ निर्णय किया जा सकता है जब अतिरिक्त सूचनाएँ उपलब्ध हो जाएँ और ये संसाधन आगामी शोध की अनुमति दें।
मुझे यह भी समझाया गया है कि बीटी-बैंगन को प्रस्तुत करने के पहले, अध्ययन करने की नागरिक संगठनों की माँग को सार्वजनिक समझदारी के प्रति हमारी संवेदनशीलता का पैमाना मानना चाहिए। कुछ वैज्ञानिकों और नागरिक समूहों ने यह चिन्हित करना चाहा है कि (1) चीजें जो पहले संचालित अध्ययनों के प्रोटोकाल्स के लिये समस्यात्मक रही। (2) चीजें जो समर्पित आँकडों के विश्लेषण में समस्यात्मक हैं। (3) चीजें जो निष्कर्षों की व्याख्या में समस्यात्मक हैं। (4) चीजें जो महिको द्वारा रिपोर्टिंग में समस्यात्मक हैं। और (5) चीजें जो अपनाई गई प्रक्रिया के साथ समस्यात्मक हैं।
एक जवाबदेह और पारदर्शी प्रशासन के रूप में हमारा कर्तव्य है कि इन सरोकारों पर गम्भीरतापूर्वक कार्रवाई करें। पिछले पैराग्राफों में प्रस्तुत सभी सूचनाओं के आधार पर और यह देखते हुए कि वैज्ञानिक समुदाय के बीच कोई स्पष्ट सहमति नहीं है, राज्य सरकारों व जिम्मेवार नागरिक संगठनों की ओर से इतना विरोध है साधारण समझदारी नकारात्मक है। खासकर इसलिये कि बीटी-बैंगन अनुवांशिक रूप से उन्नत (जेनेटिकली मोडिफायड) पहला खाद्यपदार्थ होगा जिसे दुनिया में कहीं भी आम उपभोग के लिये प्रस्तुत किया जाएगा। यहाँ इसे प्रस्तुत करने में हड़बड़ी का कोई कारण नजर नहीं आता। ऐसे में मेरा कर्तव्य है कि सतर्क, एहतियाती, सिद्धांतनिष्ट ढंग अपनाउं और बीटी-बैंगन के जारी होने पर तब तक के लिये प्रतिबन्ध लागू कर दूँ, जब तक स्वतंत्र वैज्ञानिक अध्ययन आमलोगों और पेशेवर लोगों के लिये सन्तोषप्रद ढंग से मानव-स्वास्थ्य और पर्यावरण पर इसके दीर्घकालीन प्रभाव के साथ ही देश में बैंगन की समृद्ध नस्लीय विविधता के लिहाज से सुरक्षित न ठहरा दे। इस प्रतिबन्ध का मतलब प्रस्तुति के इस खास मामले को तत्काल निरस्त करना है। इसे स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए।
इस निर्णय का अर्थ आधुनिक जैव-तकनीकी का उपयोग करके फसलों के उन्नयन के लिये चल रहे शोध एवं विकास कार्यों (आर एँड डी) और राष्ट्रीय खाद्य एवं पोषण सुरक्षा को मजबूत करने के प्रयासों को हतोत्साहित करना नहीं लगाया जाना चाहिए। चूँकि, इसतरह के मामलों का परीक्षण और निर्णय मामला-दर-मामला के आधार पर करना होता है, इसलिये मैं उम्मीद करता हूँ कि प्रतिबन्ध की अवधि का उपयोग व्यापक सहमति बनाने में किया जाएगा। जिससे एक देश के रूप में हम कृषि में जीएम तकनीक की पूरी क्षमता के साथ सुरक्षित और टिकाउ ढंग से उपयोग कर सकें। प्रतिबन्ध की अवधि का उपयोग स्वतंत्र नियामक संगठन को सम्पूर्णता में सक्रिय करने में भी किया जा सकता है जैसाकि अनेक वैज्ञानिकों के साथ-साथ नागरिक संगठनों ने सिफारिश की है। मैं यह उम्मीद भी करता हूँ कि प्रतिबन्ध की अवधि में हम अत्यंत महत्त्वपूर्ण बीज-उद्योग के बारे में गम्भीरता से विचार करेंगे और कृषि में जैव-तकनीक के उपयोग में निजी निवेश को प्रोत्साहन देने के बावजूद इसपर जनता और किसानों का नियंत्रण कैसे कायम रखा जा सकता है? इसपर सोचेंगें। मैं इसकी सिफारिश भी करता हूँ कि प्रतिबन्ध काल का उपयोग इस विषय पर संसद में और राष्ट्रीय विकास परिषद (नेशनल डेवलपमेंट कौंसिल,एनडीसी) में विस्तृत विचार-विमर्श में किया जाए।
मैं विश्वास करता हूँ कि उपर वर्णित तौर-तरीके विज्ञान के प्रति जिम्मेवार और समाज के प्रति जबाबदेह दोनों हैं। इस निर्णय पर पहुँचने में मैंने इस विषय पर तिरुवनंतपुरम में 3 जनवरी 2010 को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अपने भाषण में जो कहा था, उसका ध्यान भी रखा है:-
जैव-तकनीक का विकास हानिकारक कीटों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी करने के साथ ही नमी को लेकर तनाव को कम करके, हमें अपने प्रमुख फसलों की उपज में उल्लेखनीय बढ़ोतरी करने का अवसर देते हैं। बीटी-कॉटन देश में भली-भांति स्वीकृत हो गया है और कपास की उपज में बडे़ पैमाने पर फर्क आया है। अनुवांशिक उन्नयन की तकनीक खाद्य पदार्थों में भी विस्तार पा रहा है, हालांकि इससे सुरक्षा के वाजिब प्रश्न उठे हैं। इसे निश्चित तौर पर कठोर वैज्ञानिक मानदंडों पर आधारित उपयुक्त नियामक नियंत्रण के माध्यम से पूरा महत्त्व दिया जाना चाहिए। इन चेतावनियों के साथ हमें जैव-तकनीक द्वारा उपलब्ध कराए गए सभी सम्भावित उपायों को अपनाना चाहिए जो हमारी खाद्य सुरक्षा को बढ़ा सकती है क्योंकि हम जलवायु-परिवर्तन के दौर में हैं।
मैं अपेक्षा करता हूँ कि जीईएसी इस मामले में समुचित प्रोटोकॉल के साथ और समुचित प्रयोगशाला में आगे के अध्ययन और परीक्षण में लगेगा। मैं यह अपेक्षा भी करता हूँ कि जीईएसी उन सभी सामग्रियों का सतर्कतापूर्वक अध्ययन करेगा जो मुझे मिल रही हैं और मैं उसके पास भेज देता हूँ। मैं चाहता हूँ कि जीईएसी उन सभी वैज्ञानिकों, संस्थानों और नागरिक समूहों के साथ सम्पर्क और संवाद करेगा जिन्होंने मुझे लिखित ज्ञापन दिया है। जीईएसी को डॉ. एमएस स्वामीनाथन, डॉ. पीएम भार्गव, डॉ. जी पदमनाभन, डॉ. एम विजयन, डॉ. केशव क्रांति, डॉ. माधव गाडगिल और अन्य के साथ सलाह करनी चाहिए ताकि परीक्षणों के लिये ताजा प्रोटोकॉल बनाया जा सके जिसे आमलोगों में विश्वास जगाने के लिये संचालित किया जाएगा। किसी भी हालात में कोई जल्दीबाजी या हड़बड़ी नहीं होनी चाहिए। प्रतिबन्ध आमलोगों का विश्वास और भरोसा कायम करने के लिये जब तक आवश्यक होगा, जारी रहेगा। इस बीच, मैं जीईएसी का नाम ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमिटी’ से बदलकर ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमिटी’करना भी चाहता हूँ।
मुझे निश्चित ही आपको बताना चाहिए कि सभी छह अकादमियों ने बीटी-बैंगन के बारे में जिस ढंग से निर्णय पर पहुँचा, मैंने उसकी सराहना की। उनमें से कुछ निर्णय से सहमत नहीं थे, जबकि कुछ ने महसूस किया कि इन परिस्थितियों में सही निर्णय यही हो सकता था। मुझे यह निश्चित ही बताना चाहिए कि इन सभी ने बीटी-बैंगन के निर्णय को लेकर मुझ पर विज्ञान विरोधी, जनविरोधी होने का आरोप लगाया जो हास्यास्पद था।
पूर्ण पारदर्शिता और सार्वजनिक जबाबदेही सुनिश्चित करने के लिये मैं बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण के बारे में जीईएसी की सिफारिशों पर अपना निर्णय अभी सार्वजनिक कर रहा हूँ।
खाद्य फसलों में जैव-तकनीकों के उपयोग के बारे में वैज्ञानिकों के साथ मेरी बैठक के बारे में प्रधानमंत्री को पत्र
>29 मार्च 2010 मैं और डॉ. कस्तुरीरंगन ने 19 मार्च को करीब ढ़ाई घंटे देश के छह प्रमुख वैज्ञानिक अकादमियों के अध्यक्षों के साथ गुजारे, उनमें इण्डियन नेशनल साइंस एकेडमी (आईएनएसए), नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस, इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंस, नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस, नेशनल एकेडमी ऑफ मेडिकल साइंस और इण्डियन नेशनल एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग शामिल थे। डॉ. कस्तुरीरंगन ने यह संवाद आईएनएसए, नई दिल्ली में आयोजित किया था और डॉ. एम विजयन, आईएनएसए के अध्यक्ष ने इसे संचालित किया।
इस संवाद का उद्देश्य खाद्य-फसलों में जैव-तकनीक के उपयोग पर विचार विमर्श करना था। मुझे निश्चित ही आपको बताना चाहिए कि सभी छह अकादमियों ने बीटी-बैंगन के बारे में जिस ढंग से निर्णय पर पहुँचा, मैंने उसकी सराहना की। उनमें से कुछ निर्णय से सहमत नहीं थे, जबकि कुछ ने महसूस किया कि इन परिस्थितियों में सही निर्णय यही हो सकता था। मुझे यह निश्चित ही बताना चाहिए कि इन सभी ने बीटी-बैंगन के निर्णय को लेकर मुझ पर विज्ञान विरोधी, जनविरोधी होने का आरोप लगाया जो हास्यास्पद था।
डॉ. कस्तुरीरंगन और मेरे द्वारा सुझाव देने पर छह अकादमियाँ खाद्य फसलों में जैव तकनीक के उपयोग के सभी पहलुओं को समेटते हुए संयुक्त रूप से एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने पर सहमत हुईं। यह रिपोर्ट छह महीने के भीतर डॉ. कस्तुरीरंगन को सौंपी जाएगी। अकादमियाँ जैव-तकनीक नियामक प्राधिकरण विधेयक (बायो-टेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी बिल) के मसौदा की समीक्षा करने पर भी सहमत हुई और उनका सामूहिक विचार लगभग तीन महीने के भीतर डॉ. कस्तुरीरंगन को सौंपा जाएगा। आईएनएसए इन दो रिपोर्टों को तैयार करने के काम का संयोजन करेगी।
भारत का जैव तकनीक नियामक प्राधिकरण (बायो टेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इण्डिया, बीआरएआई) विधेयक-2010 के बारे में अधिकारियों के साथ हुए विचार विमर्श के नतीजों के बारे में राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) विज्ञान एवं तकनीक और पृथ्वी विज्ञान, पृथ्वीराज चौहान को पत्र। 15 अगस्त 2010 मैंने बीआरएआई विधेयक के सम्बन्ध में अभी-अभी जैव-तकनीक विभाग के सचिव डॉ. एमके भान से यह सुनिश्चित करने के लिहाज से विचार विमर्श किया है कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के उद्देश्यों और पर्यावरण संरक्षण और प्रबन्धन, के साथ समझौता नहीं हो। हमारे बीच उपरोक्त विचार विमर्श के दौरान निम्नलिखित सहमति बनी:-
1. बीआरएआई विधेयक की धारा 26(1) का संशोधन करके इसे कैबिनेट नोट की पैराग्राफ 3.11 के अनुरूप किया जाएगा। साथ ही कैबिनेट नोट के साथ दूसरे समायोजन किए जायेंगे जिससे सुनिश्चित हो कि ‘एनवायरनमेंट अप्रेजल पैनल’(ईएपी) के अध्यक्ष और सदस्य सचिव वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से नामित होंगे।
2. बीआरएआई विधेयक की धारा 25(2)(सी) और कैबिनेट नोट के पैराग्राफ 3.10 का संशोधन किया जाए ताकि ‘प्रोडक्ट रूलिंग कमिटी’ में पर्यावरण से सम्बन्धित विशेषज्ञ सदस्य की नियुक्ति बीआरएआई और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा संयुक्त रूप से तैयार विशेषज्ञों के रोस्टर में से किया जाए।
3. पर्यावरण के संरक्षण और प्रबन्धन के प्रावधानों को लागू करने में ईएपी का नियंत्रण ‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम’ द्वारा होगा। कैबिनेट नोट को इस पहलू पर स्पष्ट होना चाहिए।
4. विधेयक की धारा 27(5) के अन्तर्गत सार्वजनिक सुनवाई को अनिवार्य किया जाए और इस लिहाज से धारा में प्रयुक्त शब्द ‘सकता है’ को बदलकर ‘होगा’ किया जाए।
5. विधेयक की धारा 3.21 का संशोधन कर इस तथ्य को स्पष्ट रूप से सामने लाया जाए कि बीआरएआई विधेयक केवल सुरक्षा और प्रभावोत्पादकता के पहलुओं को लेकर है। व्यवसायीकरण के बारे में कोई भी निर्णय सम्बन्धित कानूनों के अन्तर्गत सक्षम प्राधिकारियों द्वारा लिया जाएगा।
6. ईएपी अपने निष्कर्षों को सीधे बीआरआई को बताएगा, अगर दोनों के विचारों में अन्तर होगा तो बीआरएआई ‘मुखर आदेश’ जारी करेगा। उसी प्रकार से कैबिनेट नोट और विधेयक की धारा 27(4) में इसे व्यक्त किया जाएगा।
जीएम रबड़ के जमीनी परीक्षण का अनुमोदन करने का कारण स्पष्ट करते हुए केरल के कृषि मंत्री मुल्लाक्कारा रेत्नाकरण को पत्र
4 जनवरी 2011
...अनुवांशिक अभियंत्रण मूल्यांकन समिति (जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमिटी,जीईएसी) ने हाल में अखाद्य फसल जीएम-रबड़ के जमीनी परीक्षण का अनुमोदन किया है। जीएम पौधे को भारतीय रबर शोध संस्थान (रबर रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ़ इण्डिया,आरआरआईआई) कोट्टायम ने विकसित किया है। जो वाणिज्य मंत्रालय के अन्तर्गत रबर बोर्ड का शोध-संगठन है। इसने लक्षित जीन (टारगेट जीन) (एमएनएसओडी) को स्वयं रबड़ से समाविष्ट किया है, किसी दूसरी प्रजाति से नहीं। ठीक-ठीक कहें तो यह जीएम पौधा सामान्य अर्थ में ट्रांसजेनिक पौधा नहीं है। नए जीन से अपेक्षा है कि यह सूखा के प्रति अधिक सहनशीलता प्रदान करेगा, साथ ही साथ शारीरिक विकृति के प्रति भी सहनशील होगा जिसकी वजह से रबर की उत्पादनशीलता काफी घट जाती है ज।मीनी परीक्षण केरल और महाराष्ट्र में आरआरआईआई के शोध फार्म के भीतर निर्दिष्ट प्रयोग स्थलों पर किया जाएगा। जमीनी परीक्षण व्यावसायिक खेती वाली जमीन पर नहीं किया जाएगा। इन पौधों के विकास की निगरानी विविध विषयों के ज्ञाता वैज्ञानिकों के समूह द्वारा किया जाएगा। बिना जमीनी परीक्षण किए, सौ प्रतिशत गारंटी के साथ यह कहना सम्भव नहीं होगा कि जीएम रबर का इकोसिस्टम पर कोई हानिकर प्रभाव होगा। लेकिन प्रयोगशाला के अध्ययन से यह संकेत मिल सकेगा कि जीएम रबर के पौधे से सकारात्मक परिणामों की अपेक्षा की जा सकती है।
आरआरआईआई कोई निजी शोध संस्थान नहीं है जो जीएम रबर बनाने और इसे बेचकर धन कमाने की लालसा रखती हो। उत्पादित सभी पौधे/क्लोन रबर उपजाने वाले किसानों को मुफ्त दिए जाएगे। आरआरआईआई के पास रबर क्लोन के लिये कोई पेटेन्ट नहीं है। भारतीय किसानों के लिये कोई बौद्धिक सम्पदा अधिकार (इंटेलेक्टुअल प्रॉपर्टी राइट्स,आईपीआर) सुरक्षा की व्यवस्था लागू नहीं है। पिछले दिनों में आरआरआईआई ने दुनिया में सर्वाधिक पैदावार देने वाले क्लोन का उत्पादन किया है और भारतीय रबर उत्पादकों को प्रदान किया है जिससे भारत प्राकृतिक रबर की उत्पादनशीलता के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर है। हालांकि, प्राकृतिक रबर के कुल उत्पादन के मामले में उसका स्थान चौथा है।
प्राकृतिक रबर की खेती को गैर परम्परागत इलाकों जैसे-त्रिपुरा, आसाम, मेघालय, मिजोरम और उत्तर कोंकण में विस्तार के लिये रबर की नई किस्मों की जरूरत होगी जिसके लिये जीएम एक विकल्प है। जलवायु परिवर्तन की वजह से रबर की खेती के लिये सूखे का लम्बा दौर आया है, इसका मुकाबला करने के लिये भी जीएम तकनीक अपनाने की आवश्यकता है।
जीएम रबर की व्यावसायिक खेती के बारे में प्रस्तावित जमीनी परीक्षण के परिणाम आने के बाद ही सोचा जा सकता है। जमीनी परीक्षण में कुल लगभग चौदह वर्ष का समय लगेगा। व्यावसायिक खेती के बारे में निर्णय जमीनी परीक्षण के सम्पूर्ण रूप से पूरा होने के बाद ही लिया जा सकेगा। उस समय सम्बन्धित राज्य सरकार के विचारों को उचित महत्त्व दिया जाएगा।
अन्त में, मैं यह उल्लेख करना चाहता हूँ कि अनुमोदन जैव-सुरक्षा शोध के स्तर-1 (बीआरएल-1) के पहले चरण के लिये दिया गया है ताकि नए जीएम रबर पौधे की प्रभावोत्पादकता, सुरक्षा और स्थिरता का आँकलन किया जा सके। इसकी तुलना बीटी-बैंगन के मामले से कतई नहीं किया जा सकता जो खाद्य-फसल के व्यावसायीकरण के लिये था।
तटीय क्षेत्र प्रबन्धन और नियमन के बारे में स्वामीनाथन रिपोर्ट पर मंतव्य माँगते हुए तटीय राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और प्रशासकों को पत्र
8 अगस्त 2009
जैसाकि आप जानते होंगे कि तटीय पर्यावरण के प्रतिरक्षण के उद्देश्य से वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अन्तर्गत सीआरजेड अधिसूचना 1991 जारी किया है। इस अधिसूचना में पिछले सत्रह वर्षों में अनेक संशोधन हुए हैं।
तटीय क्षेत्र प्रबन्धन से सम्बन्धित मसलों को समग्रता में जाँचने के लिहाज से मंत्रालय ने जून 2004 में प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था। विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट 2005 में सौंप दी और मंत्रालय ने समिति की सिफारिशों का कार्यान्वयन करने के लिये कार्रवाई आरम्भ किया। उनमें एक कार्रवाई में तटीय प्रबन्धन क्षेत्र (कोस्टल मैनेजमेंट जोन, सीएमजेड) अधिसूचना का प्रारूप दिनांक 1 मई 2008 को जारी करना शामिल था और इसे 9 मई 2008 को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अन्तर्गत आमलोगों का सुझाव और आपत्ति माँगते हुए फिर से जारी किया गया जिसे अधिसूचना जारी होने की तारीख से 60 दिनों के भीतर देना था।
मंत्रालय को उपरोक्त अधिसूचना पर बड़ी संख्या में सुझाव और आपत्तियाँ प्राप्त हुईं । फिर हमने स्थानीय समुदायों की राय को पर्यावरण शिक्षा केन्द्र के माध्यम से प्राप्त किया। उनमें से अधिकांश को (मुख्यतः स्थानीय समुदाय को) सीएमजेड अधिसूचना 2008 के कार्यान्वयन को लेकर गम्भीर आपत्ति है। उपरोक्त टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय ने 15 जून 2009 को प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया। समिति ने 16 जुलाई 2009 को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। मंत्रालय ने समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया।
तटीय क्षेत्र प्रबन्धन से जुडे मसलों का समग्रता में परीक्षण करने के लिहाज से इस मंत्रालय ने जून 2004 में प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 2005 में सौंप दी और मंत्रालय ने समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन की कार्रवाई आरम्भ की।
रिपोर्ट की एक मुख्य सिफारिश थी कि तटीय प्रबन्धन क्षेत्र अधिसूचना 2008, को समयानुसार समाप्त हो जाने दें और तटीय क्षेत्र नियामक अधिसूचना 1991 को मजबूत करने की कार्रवाई आरम्भ करें, जिसमें कार्यान्वयन और इसे प्रचलित करना शामिल है। मेरे मंत्रालय ने उपरोक्त रिपोर्ट की सिफारिशों के कार्यान्वयन के लिये कदम उठाना आरम्भ कर दिया है।
इस सन्दर्भ में, मैं आपसे अनुरोध करना चाहता हूँ कि रिपोर्ट की जाँच कर लें और अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणी और सुझाव भेजें ताकि सीआरजेड अधिसूचना 1991 के संशोधन के दौरान उन्हें सम्मिलित करने पर विचार किया जा सके।
प्रस्तावित तटीय क्षेत्र नियमावली पर मछुआरों के साथ अनेक केन्द्रीय परामर्श आयोजित करने के बारे में एमएस स्वामीनाथन को पत्र
2 जुलाई 2009
आज ‘नेशनल फिशवर्कर फोरम’ के अनेक राज्यों के प्रतिनिधिमंडल से मेरी मुलाकात हुई। इसमें दस से अधिक लोग थे जो मूलतः यह चाहते थे कि उनकी बातें भी सुनी जायें। वे महसूस कर रहे थे कि एक परामर्श की प्रक्रिया अपनायी जाये जहाँ विभिन्न विचारों को सुना जाए। लोगों को सीएमजेड 2008 के बारे में
शिकायतें दर्ज कराने का अवसर मिलेे।
मैंने उन लोगों को बताया कि ‘सीएमजेड 2008’, 23 जुलाई 2009 को समाप्त हो जाने वाले हैं। यदि कोई सुधार किया जाना है तो सीआरजेड 1991 को बुनियादी संरचना के तौर पर इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।
मैंने यह भी जोर देकर कहा कि मछुआरों और उनके परिवारों के हितों की पूरी सुरक्षा की जाएगी और ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जाएगा जिससे उनकी आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव पड़े।
मैंने समिति की पाँच बैठकें कराने के लिये सहमति प्रदान कर दी। बैठकें मुंबई, गोवा, कोच्ची, चेन्नई और भुवनेश्वर में 31 अगस्त के पहले होगी। पहला परामर्श कोच्ची में आयोजित होगा और उसमें मैं निश्चित ही भाग लूंगा। मैं दूसरी बैठकों में भी शामिल होने की कोशिश करूंगा।
‘मत्स्यजीवी आजीविका विधेयक’ का प्रारूप तैयार करने के बारे में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को पत्र। मंत्री महोदय को स्वामीनाथन रिपोर्ट के एक प्रति भी अवलोकन के लिये भेजी गई।
22 अगस्त 2009
जैसाकि आप जानते होंगे कि तटीय पर्यावरण के प्रतिरक्षण के लिये वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने ‘पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986’ के अन्तर्गत सीआरजेड अधिसूचना 1991 जारी किया था। इस अधिसूचना में पिछले सत्रह वर्षों के दौरान अनेक संशोधन हुए।
तटीय क्षेत्र प्रबन्धन से जुडे मसलों का समग्रता में परीक्षण करने के लिहाज से इस मंत्रालय ने जून 2004 में प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 2005 में सौंप दी और मंत्रालय ने समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन की कार्रवाई आरम्भ की। उन कार्रवाइयों में सीएमजेड अधिसूचना का प्रारूप दिनांक 1 मई 2008 को जारी करना शामिल था जिसे ‘पर्यावरण(संरक्षण) अधिनियम 1986’ के अन्तर्गत आमलोगों से सुझाव और आपत्ति माँगते हुए 9 मई 2008 को दोबारा जारी किया गया। लोगों द्वारा आपत्तियों को अधिसूचना जारी होने की तारीख से साठ दिनों के भीतर दिया जाना तय किया गया था। मंत्रालय को उपरोक्त प्रारूप अधिसूचना पर बड़ी संख्या में सुझाव और आपत्तियाँ प्राप्त हुई। फिर मंत्रालय ने स्थानीय समुदायों की राय ‘पर्यावरण शिक्षा केन्द्र, अहमदाबाद’ के माध्यम से प्राप्त किया जिसे सार्वजनिक परामर्श आयोजित करने का जिम्मा सौंपा गया था। उनमें अधिकांश को मुख्यतः स्थानीय समुदाय को, प्रारूप सीएमजेड 2008 के कार्यान्वयन को लेकर गम्भीर आपत्ति थी।
उपरोक्त टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय ने 15 जून 2009 को प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 16 जुलाई 2009 को सौंप दी। मैं उसकी एक प्रति आपके अवलोकनार्थ संलग्न कर रहा हूँ। रिपोर्ट की मुख्य सिफारिश ‘सीएमजेड अधिसूचना 2008’ को समयानुसार समाप्त हो जाने देना और वर्तमान ‘तटीय क्षेत्र नियामक अधिसूचना 1991’ को मजबूत करने के लिये कदम उठाना थी जिसमें इसका कार्यान्वयन और प्रचलन भी शामिल था। मेरे मंत्रालय ने रिपोर्ट की सिफारिशों के कार्यान्वयन के लिये कदम उठाना आरम्भ कर दिया है।
रिपोर्ट की पैरा 7.2.3 में समिति ने सम्बन्धित मंत्रालय द्वारा एक अलग कानून बनाने की सिफारिश की है जो परम्परागत ‘वन निवासी अधिनियम 2006’ की तर्ज पर परम्परागत मछुआरों के अधिकारों को सुनिश्चित करे। चूंकी, ‘मत्स्य क्षेत्र कार्य-आवंटन नियमावली’ के अनुसार यह कार्य कृषि मंत्रालय के अन्तर्गत सूचीबद्ध है, इसलिये मैं आपके विचार जानना चाहता हूँ कि कौन-सा मंत्रालय उपरोक्त कानून का मसौदा तैयार करेगा, जिससे देश के मछुआरा समुदाय के हितों और आजीविका की सुरक्षा की जा सकेगी। मुझे आपके विचारार्थ पहला मसौदा तैयार करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। ‘मत्स्यजीवी आजीविका प्रतिरक्षण विधेयक’ के बारे में प्रधानमंत्री को पत्र, प्रस्तावित कानून का मसौदा अवलोकन के लिये प्रेषित है।
17 सितंबर 2009
मैंने जैसे ही कार्यभार सम्भाला, तटीय क्षेत्र नियमावलियों के समूचे मामले का परीक्षण करने के लिये डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।. स्वामीनाथन समिति की एक सिफारिश है (जैसाकि संसद द्वारा वन एवं पर्यावरण से सम्बन्धित मामलों पर गठित पूर्ववर्ती स्थाई समिति की भी सिफारिश है) कि मत्स्यजीवियों की आजीविका की सुरक्षा के सम्बन्ध में एक कानून बनाया जाए। इस मामले के महत्त्व को देखते हुए मैंने कानून का मसौदा तैयार कराया है जिसकी एक प्रति संलग्न कर रहा हूँ। सरकार को यह फैसला करना है कि इस मसले को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय आगे बढ़ाए या यह काम कृषि मंत्रालय को करना चाहिए? फिर भी मैंने इस प्रारूप को तैयार करा लिया है ताकि इस महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार विमर्श जारी रह सके।
‘मत्स्यजीवी आजीविका विधेयक’ की आवश्यकता के सन्दर्भ में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार द्वारा उठाए गए मुद्दों का उत्तर। श्री पवार को प्रस्तावित विधेयक का मसौदा भेजा गया था।
8 अक्टूबर 2009
मैं परम्परागत वन निवासी अधिनियम 2006 की तर्ज पर परम्परागत मत्स्यजीवियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिये पृथक कानून बनाने के प्रस्ताव पर आपके पत्र के सन्दर्भ में लिख रहा हूँ। आपने जो फर्क किया है, वह सचमुच वाजिब है। हालांकि, मेरा सुझाव प्रस्तावित कानून को इसतरह तैयार करने के बारे में नहीं है कि मत्स्यजीवियों को किसी खास मत्स्यक्षेत्र में कतिपय अधिकार प्रदान किए जाएँ। इसके बजाए मत्स्यआखेट की उनकी गतिविधियों को कतिपय बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने के बारे में है जिससे मत्स्यजीवी, षोषण की आशंका के बगैर अपनी आजीविका की सुरक्षा कर सकें।
जैसाकि आप जानते होंगे कि विशेषकर परम्परागत मत्स्यजीवी समुदाय जो तटीय क्षेत्र में बसे सबसे निम्न तबके में से एक हैं, अनेक मानव निर्मित और प्राकृतिक परिघटनाओं से प्रभावित होते हैं। मानव निर्मित प्रभावों में निर्माण जैसे-बन्दरगाह, हार्बर, पर्यटन स्थल इत्यादि जिसके लिये भूमि अधिग्रहण होना आदि शामिल है। अधिकतर मामलों में इन समुदायों को निर्दयतापूर्वक विस्थापित (ऐसी कार्रवाई जो उनकी आजीविका को गम्भीर और हानिकारक ढंग से प्रभावित करता है।) कर दिया जाता है। ऐसे मामलों में इन मत्स्यजीवियों को प्रत्यक्ष रूप से सुरक्षा करने और क्षतिपूर्ति देने का कोई वैधानिक उपाय नहीं है। अन्य विकासात्मक गतिविधियों का भी परम्परागत मत्स्यजीवी समुदायों की आजीविका पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इनमें तटीय जलक्षेत्र में बडे़ जहाजों/याँत्रिक ट्रॉलरों द्वारा मत्स्यआखेट शामिल है। यह तरीका अगर अनियंत्रित (जैसा अभी है) रहा तो घोर गैर-टिकाउ है। अत्यधिक मत्स्यआखेट से खास इलाके की मछलियों को पूरी तरह समाप्त कर देता है। इसके अतिरिक्त कचरा और मैले जल का प्रवाह है जो मछलियों के वासस्थल को नष्ट कर देते हैं, साथ ही निर्माण आदि गतिविधियों से तटों की रूपरेखा बदल जाती है। इन गतिविधियों को नियंत्रित करने वाला कोई कानून नहीं होने के कारण परम्परागत मछुआरों के लिये अवसर घटते जाते हैं। इन समस्याओं के साथ नाव लगाने और मछलियों को संरक्षित करने की बुनियादी सुविधाओं की कमी से संकट और भी बढ़ जाता है।
प्रस्तावित कानून मत्स्यजीवियों को ऐसे प्रभावों से सुरक्षा प्रदान करने के अलावा परम्परागत मछुआरों की आर्थिक हैसियत बढ़ाने का प्रयास भी करेगा। इसके अलावा विभिन्न राज्य एवं केन्द्रीय एजेंसियों की सहायता से उन्हें तकनीकी और वित्तीय तौर पर समर्थ बनाकर उनकी आर्थिक आकांक्षाओं को पूरा करने का अवसर प्रदान किया जाएगा। इसमें प्रशिक्षण की सुविधाएँ, विस्तार की गतिविधियाँ और मत्स्यआखेट के बाद की तकनीकी सुविधाएँ जैसे शीतभंडारण, परिवहन सुविधा के साथ विपणन के दौरान उचित मूल्य दिलाना भी शामिल होगा।
इसके अलावा तटों पर प्राकृतिक आपदा जैसे-तूफान, सुनामी,अन्धड़ आदि की स्थिति के प्रमुख शिकार परम्परागत मछुआरा परिवार होते हैं क्योंकि उनके पास पक्का मकान नहीं होता और वे पानी वाले इलाके में निवास करते हैं। इसलिये इन समुदायों को आपदाओं से सुरक्षा प्रदान करने की अनिवार्य आवश्यकता है। प्रस्तावित कानून ऐसे आपदाओं के प्रभाव को न्यूनतम करने में संस्थागत सहायता को प्रेरित करेगा।
मैं आपसे सहमत हूँ कि वन निवासी और मत्स्यजीवी समुदायों से जुडे़ मसलों में फर्क है, लेकिन यहाँ हमारी मंशा मछुआरों की बेहद मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करनी है और उन्हें आर्थिक एवं सामाजिक लिहाज से उपर उठाने की व्यवस्था प्रदान करनी है। साथ ही साथ प्राकृतिक आपदाओं के दौरान जीवन और सम्पत्ति के नुकसान को न्यूनतम करने की व्यवस्था करनी है।
देश के तटवर्ती क्षेत्रों के प्रबन्धन के तौर-तरीकों के बारे में आमलोगों के विचार जानने के लिहाज से मैं व्यक्तिगत रूप से मछुआरा समुदाय के लोगों से बातचीत कर रहा हूँ। मेरे मंत्रालय ने इन समुदाय के लोगों के साथ परामर्श बैठकें आयोजित की हैं, जो मुंबई (12 अगस्त2009), चेन्नई(19 अगस्त2009), और पंजिम (30 अगस्त2009) में हुई। इन बैठकों में लगभग 800 से 2000 लोगों ने हिस्सा लिया। मैं ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल के मछुआरों के साथ भी इस महीने के आखिर में मिलने वाला हूँ।
परामर्शों दौरान इन समुदायों की ओर से परम्परागत मछुआरा समुदायों के अधिकारों और आजीविका की सुरक्षा के लिये कानून बनाने की जोरदार माँग उठी।
मैं भी गम्भीरता से महसूस करता हूँ कि इन समुदायों के अधिकारों और आजीविका की सुरक्षा करने की निहायत जरूरत है जो वर्तमान में अत्यधिक जोखिमग्रस्त हैं। इस लिहाज से मैंने प्रस्तावित विधेयक का एक मसौदा संलग्न करने की छूट ली है जिसका शीर्षक ‘‘परम्परागत तटीय और समुद्री मत्स्यजीवी (अधिकारों की सुरक्षा) अधिनियम 2009’’ है। मैं बेहद उपकृत महसूस करूंगा यदि आप इसकी समीक्षा करें और इसमें सम्मिलित मसलों पर अपने विचारों से हमें अवगत कराएँ।
‘प्रारूप तटीय क्षेत्र नियामक अधिसूचना 2010’ की विशेषताओं के बारे में बताते हुए प्रधानमंत्री को पत्र।
17 सितंबर 2010
आपको सूचित करते हुए मुझे बेहद प्रसन्नता है कि हमने ‘प्रारूप सीआरजेड अधिसूचना 2010’ को अपने वेबसाइट पर डाल दिया है। यह साठ दिनों के लिये सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध रहेगा और उसके बाद सीआरजेड अधिसूचना 2010 जारी कर दी जाएगी।
सीआरजेड अधिसूचना 2010 में अनेक नई और नवाचारी विशेषताएँ हैं।
पिछले अठारह महीनों में मैंने नई सीआरजेड अधिसूचना के बारे में गोवा, मुंबई, कोच्ची, चेन्नई और पुरी में सार्वजनिक परामर्श किए हैं। इसके अतिरिक्त मैंने देशभर के मछुआरा संगठनों के साथ पाँच दौर में बैठकें की हैं। डॉ. एमएस स्वामीनाथन, सुनीता नारायण, डॉ. शैलेश नायक और श्री जेएम मौस्कर की एक विशेषज्ञ समिति की सिफारिशें जुलाई 2010 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी गई थी, उसका भी समावेश किया गया है।
1. हम बृहत्तर मुंबई के लिये विशेष व्यवस्था कर रहे हैं। इसमें मलिन बस्तियों के पुनर्वास( जिससे दस लाख से अधिक लोगों को फायदा होगा।),जीर्ण-शीर्ण, कमजोर और असुरक्षित भवनों का जीर्णोद्धार (पाँच लाख लोगों को फायदा होगा), खुले स्थान का संरक्षण इत्यादि शामिल है।
2. हम केरल के लिये विशेष व्यवस्था कर रहे हैं जो सर्वाधिक अनोखा तटीय पर्यावरण है जहाँ अप्रवाही जल के बीच 300 से अधिक द्वीप स्थित हैं। उन द्वीपों पर सघन आबादी बसी है और वर्तमान सीआरजेड अधिसूचना 1991 ने इन स्थानीय समुदायों के रिहायशी जगहों के विकास पर सख्त पाबन्दी लगा रखी है।
3. हम गोवा के पारिस्थितिकीय रूप से प्रोत्साहन की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए अलग से प्रावधान कर रहे हैं और परम्परागत मत्स्यजीवी समुदायों की आजीविका के लिये जरूरी अधिसंरचना भी प्रदान करने जा रहे हैं।
4. हमने अत्यधिक जोखिमग्रस्त तटीय क्षेत्रों जैसे पश्चिम बंगाल में सुंदरवन, गुजरात में खम्भात की खाड़ी और कच्छ की खाड़ी, ओडिशा में भीतरकणिका, मालवन, महाराष्ट्र में रत्नागिरि और आँघ्रप्रदेश में पूर्वी गोदावरी एवं कृष्णा इत्यादि के लिये विशेष प्रावधानों को शामिल किया है।
5. लक्ष्यद्वीप, अंडमान एवं निकोबार के लिये पृथक ‘‘द्वीप प्रतिरक्षण क्षेत्र अधिसूचना’’ जारी की जा रही है।
सीआरजेड अधिसूचना 2011 और द्वीप प्रतिरक्षण क्षेत्र अधिसूचना 2011 की विशेषताओं के बारे में प्रधानमंत्री को पत्र
7 जनवरी 2011
अट्ठारह महीने की लम्बी प्रक्रिया के बाद सीआरजेड अधिसूचना 2011 आज औपचारिक रूप से जारी और प्रकाशित की जा रही है। यह सीआरजेड अधिसूचना 1991 की जगह लेगी। इसके अतिरिक्त, पहली बार एक ‘द्वीप प्रतिरक्षण क्षेत्र अधिसूचना 2011’ जारी और प्रकाशित की जा रही है जो अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह और लक्ष्यद्वीप पर लागू होगी। इसे द्वीप विकास प्राधिकरण की बैठक में आपके निर्देश को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है।
दोनों नई अधिसूचनाएँ तीन उद्देश्यों साथ सामंजस्य स्थापित करेंगीः- (1) परम्परागत मछुआरा समुदायों की आजीविका का प्रतिरक्षण (2) तटीय पारिस्थितिकी का संरक्षण और (3) तटीय क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन।
सीआरजेड अधिसूचना 2011 में, सीआरजेड अधिसूचना 1991 में, 1991 से 2009 के बीच हुए 25 संशोधनों को संहिताबद्व करने के अलावा भी अनेक नई विशेषताएँ हैं। इसमें गोवा, केरल, बृहत्तर मुंबई और अत्यधिक जोखिमग्रस्त तटीय क्षेत्रों (सीवीसीए) जैसे-सुंदरबन के मैंग्रोव क्षेत्र, चिलका और भीतरकणिका (ओडिशा), खम्भात और कच्छ की खाड़ी (गुजरात), मालवान (महाराष्ट्र), करवार और कुन्दपुर(कर्नाटक), वेम्बानद (केरल), कोरिन्गा, पूर्वी गोदावरी, और कृष्णा मुहाना (आन्ध्र प्रदेश) और मन्नार की खाड़ी (तमिलनाडु) इत्यादि के लिये विशेष प्रावधान किए गए हैं।
सीआरजेड का अनुमोदन समयबद्ध ढंग से प्राप्त करने के लिये स्पष्ट प्रक्रिया निर्धारित करने के साथ ही अनुमोदन के बाद निगरानी और कार्यान्वयन व्यवस्था की गई है।
समुद्र में 12 न्यूटिकल माइल्स तक और ज्वार प्रभावित समूचे जलक्षेत्र जैसे संकरी खाड़ी, नदी, मुहाना इत्यादि अब सीआरजेड क्षेत्र में शामिल होंगे जिनमें मत्स्यआखेट की गतिविधियों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा।
स्थानीय समुदाय की सम्पूर्ण जुड़ाव और हिस्सेदारी में योजना तैयार करने की अवधारणा तटीय क्षेत्र प्रबन्धन योजना (सीजेडएमपी) के जरिये प्रस्तुत की गई है।
तटीय क्षेत्र में स्थानीय समुदायों और अधिसंरचनाओं की सुरक्षा के लिये खतरे के निशान की अवधारणा प्रस्तुत की गई है जिसका सीमाँकन आगामी पाँच वर्षों में कर लिया जाएगा।
तटीय क्षेत्र/तटीय जल के प्रदूषण का निरोध करने के लिये उपाय किए गए हैं। तटीय रेखा का मानचित्र, टाइम सीरीज की उपग्रह तस्वीरों के माध्यम से तैयार की जाएगी, साथ ही तटीय रेखा पर अधिक कटाव वाले क्षेत्रों में किसी तरह के विकास कार्य की अनुमति नहीं होगी। ‘विकास-प्रतिबन्धित क्षेत्र’ का दायरा ज्वार के उच्चतम स्तर से 200 मीटर की दूरी को घटाकर 100 मीटर किया जा रहा है, ऐसा केवल मत्स्यआखेट और अन्य परम्परागत तटवासी समुदायों की बसाव से सम्बन्धित माँगों को पूरा करने के लिये किया जा रहा है।
पिछले अठारह महीनों में मैंने नई सीआरजेड अधिसूचना के बारे में गोवा, मुंबई, कोच्ची, चेन्नई और पुरी में सार्वजनिक परामर्श किए हैं। इसके अतिरिक्त मैंने देशभर के मछुआरा संगठनों के साथ पाँच दौर में बैठकें की हैं। डॉ. एमएस स्वामीनाथन, सुनीता नारायण, डॉ. शैलेश नायक और श्री जेएम मौस्कर की एक विशेषज्ञ समिति की सिफारिशें जुलाई 2010 में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी गई थी, उसका भी समावेश किया गया है। यह नई सीआरजेड अधिसूचना 2010 मसौदे के रूप में सितंबर 2010 से सार्वजनिक पहुँच में है और मुझे बड़ी संख्या में सुझाव मिले है जिन्हें उचित महत्त्व दिया गया है।
मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि मछुआरा परिवारों के मामलों को छोड़कर सीआरजेड 1991 के उल्लंघन के किसी मामले को सीआरजेड 2011 के प्रभावी होने के बाद माफ या नियमित नहीं किया जाएगा। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय अगले सप्ताह के आरम्भ में सभी राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों के तटीय क्षेत्र प्रबन्धन प्राधिकरण को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अन्तर्गत निर्देश जारी करने जा रहा है कि
(1) ऐसे सभी उल्लंघनों को उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों और सूचना तकनीक का इस्तेमाल करके आज से चार महीने के भीतर चिन्हित करें।
(2) उसके बाद चार महीने के भीतर पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अन्तर्गत आवश्यक कार्रवाई आरम्भ करें। ऐसे सभी उल्लंघनों और उनपर हुई कार्रवाई की विस्तृत सूचना एनसीजेडएमए (राष्ट्रीय तटीय क्षेत्र प्रबन्धन प्राधिकरण) की वेबसाइट पर डालने के साथ ही वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को भेजें। उल्लंघन के मामले साबित होने पर आरम्भ कार्रवाई जारी रहेगी।
डॉ. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ समिति की एक महत्त्वपूर्ण सिफारिश थी कि सरकार को मछुआरों और दूसरे तटवासी समुदायों के हितों और परम्परागत अधिकारों की सुरक्षा के लिये कानून बनाना चाहिए। यह कानून कुछ हद तक वनाधिकार कानून 2006 की तर्ज पर होगा। मछुआरा संगठनों ने इस सिफारिश का समर्थन किया। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इसतरह के एक कानून का मसौदा तैयार कराया है और उसे मंतव्यों और सुझावों के लिये सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध रखा है। इस मामले में मार्गदर्शन पाने के लिये मैंने आपको भी लिखा है कि इसे आगे बढ़ाने का काम कृषि मंत्रालय को या वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को करना चाहिए?
सीआरजेड अधिसूचना 2011 दिखाता है कि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय कानूनों और नियमावलियों में ऐसे संशोधन करने के लिये हमेशा सचेत है जिससे समान रूप से महत्त्वपूर्ण तेज आर्थिक विकास और गहन पर्यावरण संरक्षण के बीच बेहतर सन्तुलन कायम किया जा सके।
सीआरजेड अधिसूचना 2011 पर नेशनल फिशवर्कर्स फोरम के सभापति मतान्ही सालदान्हा द्वारा उठाए गए मुद्दों का जवाब
11 जनवरी 2011
यह पत्र कतिपय बिन्दुओं के बारे में आपके पत्र के सन्दर्भ में है जिन पर जीआरजेड अधिसूचना 2011 तैयार करते समय सहमति नहीं होने का दावा आपने किया है, अधिसूचना 6 जनवरी 2011 को जारी हुई थी।
मैंने परमाणु उर्जा विभाग (डीएई) और एनपीसीआईएल को गम्भीर किस्म के गैर-सरकारी संगठनों से बातचीत करने में कम विरोधात्मक और कम तिरस्कारपूर्ण होने के लिये कहा है। वैचारिक मतभेदों को दूर नहीं किया जा सकता, लेकिन पर्यावरणीय प्रभाव आकलन से सम्बन्धित तकनीकी प्रश्नो को निश्चित ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में सुलझाया जा सकता है।
आपके पहले के ईमेल पर मेरी प्रतिक्रिया में आपने देखा होगा कि मैंने आपके द्वारा उठाए गए प्रत्येक मुद्दे पर स्पष्टीकरण दिया है और उन्हें अधिसूचना में सम्मिलित करने या सम्मिलित नहीं करने का औचित्य भी स्पष्ट कर दिया है।
मछुआरा समुदाय की बसाव से सम्बन्धित सभी मामलों को सीआरजेड अधिसूचना 2011 और द्वीप प्रतिरक्षण क्षेत्र अधिसूचना 2011 में समन्वित ढंग से निपटाया गया है। इनमें निम्नलिखित शामिल हैंः-
1. पैरा 8(111) सीआरजेड 111(2) पुरानी नियमावली में जहाँ 33 प्रतिशत फर्श क्षेत्र अनुपात (एफएआर) का प्रतिबन्ध लागू था, उसके साथ दोगुना करने की शर्त भी थी, उन्हें हटा दिया गया है जिससे मछुआरा गाँव के अन्तर्गत घर बनाने के लिये अधिक बसाव की जगह उपलब्ध हो सकेगी।
2. पैरा 8(111) सीआरजेड 111(2) 100 मीटर की रियायत। पहले 200 मीटर के दायरे में कोई विकास नहीं क्षेत्र का दायरा घटा कर 100 मीटर कर दिया गया है, अब इस इलाके में मछुआरे और परम्परागत तटवर्ती निवासियों के रिहायशी मकान बन सकेंगे।
3. पैरा 5 (जी), कोलिवाडा और मछुआरा बस्तियों को जिन्हें 1981 की विकास योजना में चिन्हित किया गया हो या महाराष्ट्र सरकार के किसी अन्य रिकार्ड में उल्लेख हो उन्हें सीआरजेड 111 घोषित किया जाएगा भले वे सीआरजेड 11 में अवस्थित हों। ऐसे कोलिवाडो का विकास स्थानीय नगर और क्षेत्र विकास योजना नियामावलियों के अनुसार किया जाएगा।
4. मछुआरा समुदाय पुनर्निमाण और मरम्मत के कार्य ‘स्थानीय नगर और क्षेत्र विकास’ योजना नियमावलियों के अनुसार कर सकता है।
5. पैरा 6 (डी) के अनुसार परम्परागत मछुआरा समुदाय के रिहायशी घर अगर सीआरजेड 1991 का उल्लंघन करके बने हुए हों, फिर भी नियमित कर दिए जाएगे।
6. उन मछुआरा घरों के मामले में जो खतरनाक क्षेत्र में बने हों, उन्हें प्राकृतिक आपदाओं से आवश्यक सुरक्षा प्रदान की जाएगी और जब तक परिस्थिति मजबूर न करें, उन्हें नई जगह पर नहीं भेजा जाएगा।
मैंने मछुआरा समुदाय की ओर से उठाए गए सभी मसलों को ध्यान में रखने की कोशिश की है। अधिसूचना का मसौदा इसके अनुसार तैयार किया गया है। जहाँ कहीं मछुआरा संगठनों की ओर से दिए गए सुझावों से अलग हटने की जरूरत आई है, मैंने स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की है। पहले 10 जनवरी 2011 को ईमेल से और फिर बाद में अधिसूचना से संलग्न तालिका में।
मैं सोचता हूँ कि अब हमें सीआरजेड अधिसूचना 2011 की सफलता सुनश्चित करने के लिये सहकारी ढंग से काम करना चाहिए। बीच में किसी सुधार की आवश्यकता होगी, तो मैं ख़ुशी से उनपर विचार करूंगा।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह को जाँगीरचंपा जिले में एक बिजली परियोजना के लिये सार्वजनिक सुनवाई के दौरान हुई अनियमितता की सूचना देते हुए पत्र
3 जुलाई 2009
मैं आपको एक ईमेल की प्रति भेज रहा हूँ जिसे किसी व्यक्ति ने यह बताते हुए भेजा है कि जाँगीरचंपा जिले में डीबी पावर लिमिटेड नामक कम्पनी द्वारा लगाई जा रही 1200 मेगावाट की ताप विद्युत परियोजना के लिये सार्वजनिक सुनवाई की प्रक्रिया में भद्दा प्रहसन हो रहा है। मैंने इस ईमेल को गम्भीरता से लिया है और मुझे विश्वास है कि इसे पढ़ने के बाद आप भी ऐसा ही करेंगे। मैं इस मामले में आपके हस्तक्षेप का अनुरोध कर रहा हूँ ताकि यह सन्देश जाए कि जन-सुनवाई को हल्के से नहीं लिया जाए और उसे पूरी गम्भीरता एवं पारदर्शिता के साथ संचालित किया जाए।
जैतापुर परमाणु विद्युत पार्क के बारे में नागरिक संगठनों द्वारा उठाए गए मसलों पर हुए विचार विमर्श से प्रधानमंत्री को अवगत कराने हेतु पत्र
(एनपीसीआईएल और कोंकण बचाओ समिति के बीच हुई दो बैठकों में दूसरी बैठक 13 जुलाई 2010 को हुई। इसमें जिस ढंग से एनपीसीआईएल ने जानकारियाँ दी, उसपर असन्तोष व्यक्त करते हुए समिति ने 16 अक्टूबर 2010 को पत्र लिखा। उसने परियोजना को अनुमति नहीं देने का अनुरोध किया है।)
16 जुलाई 2010
जैतापुर परमाणु बिजली परियोजना को लेकर कोंकण बचाओ समिति और एनपीसीआईएल के बीच मैंने व्यक्तिगत रूप से दो दौर में विचार विमर्श की व्यवस्था की। उनमें से एक बैठक में मैं स्वयं उपस्थित था। गैर सरकारी संगठनों द्वारा अनेक गम्भीर प्रश्न उठाए गए जिनका एनपीसीआईएल द्वारा स्पष्टीकरण और उत्तर दिया गया। परस्पर संवाद जारी रहने वाला है।
वास्तव में, इसतरह से संलग्न होना मेरा काम नहीं है, लेकिन जैतापुर के अत्यधिक महत्त्व को देखते हुए मैंने हस्तक्षेप करने का फैसला किया और दोनों पक्षों को एक़ साथ लाने की कोशिश की। मैं कोंकण बचाओ समिति के सुझावों की अनदेखी नहीं कर सकता, साथ ही मैं जैतापुर की स्थापना के साथ व्यापक राष्ट्रीय आवश्यकता को भी भूल नहीं सकता।
मैंने परमाणु उर्जा विभाग (डीएई) और एनपीसीआईएल को गम्भीर किस्म के गैर-सरकारी संगठनों से बातचीत करने में कम विरोधात्मक और कम तिरस्कारपूर्ण होने के लिये कहा है। वैचारिक मतभेदों को दूर नहीं किया जा सकता, लेकिन पर्यावरणीय प्रभाव आकलन से सम्बन्धित तकनीकी प्रश्नो को निश्चित ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में सुलझाया जा सकता है। यही सन्देश मैंने एनजीओ समूहों को भी दिया है कि उन्हें विकास की मजबूरियों को निश्चित तौर पर समझना होगा जिससे जैतापुर जैसी परियोजनाएँ आवश्यक हो जाती हैं और उन्हें डीएई एवं एनपीसीआईएल की नीयत और योग्यता पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए।
पूर्वोत्तर की पनबिजली परियोजनाओं के बारे में गुवाहाटी में आयोजित परामर्श में आसाम के नागरिक समूहों द्वारा व्यक्त आशंकाओं को लेकर प्रधानमंत्री को पत्र
16 सितंबर 2010
मैं आसाम के बहुत सारे नागरिक संगठनों के अनुरोध पर पिछले सप्ताह गुवाहाटी में था। पूर्वोत्तर में बड़े बाँधों के मसले पर 10 सितंबर को सार्वजनिक परामर्श आयोजित किया गया था। इस परामर्श में एक हजार से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया जो छह घंटे से अधिक समय तक चला। इसके अन्त में मैंने श्रोताओं को आश्वासन दिया कि उनकी भावनाओं से मैं प्रधानमंत्री और उर्जा मंत्री दोनों को अवगत कराउंगा। परामर्श में व्यक्त विचार निम्नलिखित थे:-
1. अरूणाचल प्रदेश में एनएचपीसी द्वारा बनाई जा रही 2000 मेगावाट की सुबनसिरी पनबिजली परियोजना का आसाम मेें विरोध हो रहा है। आसाम में इस विचार का प्रभुत्व दिखता है कि परियोजना का निचले प्रवाह क्षेत्र में लखिमपुर, धेमाजी, शोणितपुर, शिवसागर, जोरहाट जिलों के साथ-साथ नदी द्वीप माजूली पर गम्भीर प्रभाव पड़ेगा। एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर परियोजना को तत्काल रद्द करने की माँग की जा रही है। रिपोर्ट भारतीय प्रोद्यौगिकी संस्थान गुवाहाटी, गुवाहाटी विश्वविद्यालय और डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई है।
2. उत्तर-पूर्व विद्युत उर्जा निगम लिमिटेड (एनईईपीसीओ) की वर्तमान पनबिजली परियोजनाओं जैसे रंगानदी और कोपिली का प्रभाव निम्न प्रवाह क्षेत्र में आसाम के लखिमपुर, धेमाजी, मोरीगाँव और नगाँव जिलों में पहले से महसूस किया जा रहा है, इसपर गम्भीर चिन्ता व्यक्त की गई। भारत द्वारा भूटान में बनवाई जा रही कुरीचु पनबिजली परियोजना और उसके निम्न प्रवाह क्षेत्र में बरपेटा, बास्का, नलबारी और कामरूप आदि जिलों में प्रभाव पड़ने को लेकर भी चिन्ता जताई गई।
3. अरुणाचल प्रदेश में विभिन्न क्षमता के 135 से अधिक बाँधों की योजना बनी है जिनके लिये सहमति-पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए जा चुके हैं। इन परियोजनाओं को संचित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अध्ययन, समन्वित जैव-विविधता प्रभाव अध्ययन और निम्नप्रवाह प्रभावों का खासकर आसाम में समन्वित विश्लेषण कराए बिना हरी झंडी दिखायी जा रही है।
4. लोहित नदी पर 1750 मेगावाट की डेमावे पनबिजली परियोजना का गम्भीर निम्नप्रवाह प्रभाव आसाम के डिब्रूगढ़ तक होगा। उसे वन विभाग की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, भले पर्यावरणीय अनुमति पहले ही दी जा चुकी है। इसी तरह, मणिपुर में 1500 मेगावाट की तिपाईमुख पनबिजली परियोजना को समन्वित निम्नप्रवाह प्रभाव आकलन अध्ययन पूरा हुए बगैर आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।
5. अरुणाचल प्रदेश में एक ही नदी घाटी में विभिन्न कम्पनियों को परियोजना लगाने की अनुमति दे दी गई है। इससे पर्यावरणीय प्रभाव आकलन का अध्ययन बहुत कठिन हो गया है। उदाहरण के लिये, तीन अलग अलग कम्पनियाँ सुबनसिरी पर तीन अलग अलग परियोजनाएँ लगा रही हैं और सियाँग नदी पर तीन विभिन्न कम्पनियाँ तीन भिन्न परियोजनाएँ लगा रही हैं।
6. अरुणाचल प्रदेश में सहमति-पत्रों पर हस्ताक्षर (जो केन्द्र सरकार की जानकारी में हुआ) करते समय आसाम के लोगों की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा गया। इन सहमति-पत्रों में आसाम सरकार को एक पक्ष होना चाहिए था। खासकर जहाँ निम्नप्रवाह में प्रभाव उल्लेखनीय रूप से अधिक है। अरुणाचल प्रदेश में जिन 103 परियोजनाओं के लिये सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर हुए हैं, उनमें केवल एक बहुद्देश्यीय परियोजना है जिसमें बाढ़ नियंत्रण का अवयव भी शामिल है।
7. अरुणाचल प्रदेश में आगे से किसी पनबिजली परियोजना को अनुमति देने पर तब तक प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए जब तक निम्नप्रवाह प्रभाव आकलन अध्ययन, संचित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अध्ययन और जैव-विविधता प्रभाव अध्ययन पूरा नहीं हो जाता।
8. पूर्वोत्तर, अति भूकम्प-प्रवण और समृद्ध जैव-विविधता का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाएँ लगाने की अनुमति देने में केन्द्र सरकार द्वारा इन दोनों कारकों पर पूरा विचार नहीं किया गया है। पूर्वोत्तर में बड़ा बाँध बनाने की पूरी अवधारणा पर फिर से विचार करने की जरूरत है। भूटान में बृहद पनबिजली परियोजना लगाने के पर्यावरणीय प्रभाव का बेहतर ढंग से अध्ययन करने की जरूरत है। 720 मेगावाट की माँगदेछू पनबिजली परियोजना का आसाम के मानस नदी की तटीय पारिस्थितिकी पर प्रभाव पड़ेगा।
मैंने उपस्थित जनसमुदाय से अरुणाचल प्रदेश की इन परियोजनाओं में कुछ के रणनीतिक महत्त्व को भी स्पष्ट किया, खासकर सियांग नदी पर स्थित परियोजनाओं का। दिलचस्प है कि वहाँ अरुणाचल प्रदेश के कुछ गैर सरकारी संगठनों के लोग भी थे जिन्होंने मेरी इन बातों का विरोध किया और कहा कि अरुणाचल प्रदेश को भारत और चीन के बीच प्रतिद्वन्द्विता में बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए।
मैंने उपस्थित लोगों के सामने एकदम स्पष्ट कर दिया कि वर्तमान सुबनसिरी परियोजना के बारे में कोई आश्वासन देने की स्थिति में मैं नहीं हूँ क्योंकि वह कार्यान्वयन के आखिरी दौर में है। इस परियोजना के दिसम्बर 2012 में पूरा हो जाने की अपेक्षा है। मैं केवल यह आश्वासन देने की स्थिति में हूँ कि मैं लोगों की भावनाओं और सरोकारों से प्रधानमंत्री और उर्जा मंत्री को अवगत करा दूँगा। मैंने यह विचार भी व्यक्त किया कि एनएचपीसी निसन्देह आसाम के लोगों के चिन्ताओं को दूर करने के लिये विश्वसनीय ढंग से प्रयास करेगा।
मैं उपस्थित लोगों को यह आश्वासन जरूर दे सकता था कि जो परियोजनाएँ अभी आरम्भ नहीं हुई हैं। उनका संचित पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अध्ययन के साथ ही समन्वित जैवविविधता अध्ययन कराया जाएगा। मैंने उपस्थित जनसमुदाय को यह आश्वासन भी दिया कि ऊर्जा मंत्रालय और जल संसाधन मंत्रालय से परामर्श करके हम वर्तमान परियोजनाओं के निम्नप्रवाह प्रभावों का विश्लेषण करने के लिये अध्ययन आरम्भ करेंगे और उन प्रभावों को न्यूनतम करने के उपायों को चिन्हित करेंगे।
मैंने उपस्थित जनसमुदाय से अरुणाचल प्रदेश की इन परियोजनाओं में कुछ के रणनीतिक महत्त्व को भी स्पष्ट किया, खासकर सियांग नदी पर स्थित परियोजनाओं का। दिलचस्प है कि वहाँ अरुणाचल प्रदेश के कुछ गैर सरकारी संगठनों के लोग भी थे जिन्होंने मेरी इन बातों का विरोध किया और कहा कि अरुणाचल प्रदेश को भारत और चीन के बीच प्रतिद्वन्द्विता में बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। इस एनजीओ जिसका नाम ‘आदि स्टूडेंट यूनियन’ है, ने मुझे एक ज्ञापन भी दिया जिसमें अरुणाचल प्रदेश में सोची गई अनेक परियोजनाओं के बारे में बहुत ही आलोचनात्मक बातें की गई हैं।
मैं प्रधानमंत्री से अनुरोध करुँगा कि इस पत्र में उल्लेखित मसलों पर विचार-विमर्श करने के लिये मेरे साथ केन्द्रीय उर्जा मंत्री एवं केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री की बैठक बुलाएँ। इन मसलों को लेकर आन्दोलन होना तय है क्योंकि आसाम में लगभग छह महीने के भीतर चुनाव होने वाले हैं। चुनावों की चिन्ता छोड़ दें तब भी ये मसले अपने आप में काफी महत्त्वपूर्ण हैं और गम्भीरता से विचार करने के योग्य हैं। व्यक्तिगत रूप से मैं विश्वास करता हूँ कि जिन सरोकारों की चर्चा की गई, उनमें से कुछ को हल्के से नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। उनपर व्यापक रूप से चर्चा की जानी चाहिए। आसाम एवं पूर्वाेत्तर क्षेत्र के दूसरे प्रदेशों के विभिन्न तबकों के लोगों के साथ विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। अभी असम के मुखर तबके में यह बात बैठी है कि ‘भारतीय मुख्यभूमि’ पूर्वोत्तर की पनबिजली संसाधनों का अपने फायदे के लिये दोहन कर रहा है जबकि इस शोषण की कीमत पूर्वोत्तर के लोगों को चुकानी होगी।
वनाधिकार कानून 2006 और टाइगर रिजर्व एवं संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थालों के आन्तरिक क्षेत्र को चिन्हित करने पर उत्पन्न विवाद पर नोट
(मंत्रालय के दिशा-निर्देशों का वनाधिकार कानून 2006 जैसे कानूनों के खिलाफ होने की रिपोर्टें आने के बाद गलतफहमी को दूर करने के लिहाज से यह नोट तैयार किया गया।)
14 फरवरी 2011
हाल में कुछ अखबारों में रिपोर्टें आई है कि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, टाइगर रिजर्व और संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (अधिकारों को मान्यता) अधिनियम 2006 की अवहेलना कर रहा है। ऐसी रिपोर्टें झूठी और गलतफहमी फैलाने वाली हैं। मैंने इस कानून के समुचित और सम्पूर्ण कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने में पहल की हैं और गलतफहमी को दूर करना चाहता हूँ ।
टाइगर रिजर्व
1. वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 (2006 में संशोधित) की धारा 32 वी टाइगर रिजर्वों के आँतरिक या कोर वासस्थल के साथ ही बहिवर्ती या बफर क्षेत्र की व्याख्या करती है।
2. टाइगर रिजर्व के दो हिस्से होते हैं:-
ए. आन्तरिक या कोर क्षेत्र (राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य का दर्जा)
बी. बहिर्वर्ती या बफर क्षेत्र
3. कोर या आँतरिक ब्याघ्र वासस्थल का उल्लेख केवल वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 में 2006 के संशोधन के बाद हुआ है। इसे अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (अधिकारों को मान्यता) अधिनियम 2006 में पारिभाषित नहीं किया गया है।
4. संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल (क्रिटिकल वाइल्डलाइफ हैबिटेट) की परिभाषा केवल अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 में किया गया है और वन्यजीव(संरक्षण)अधिनियम 1972 में नहीं किया गया है।
5. आन्तरिक ब्याघ्र वासस्थल (कोर या क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट) संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल से अलग है। बाघ प्रादेशिक बड़ी बिल्लियाँ (टेरिटोरियल बिग कैट्स) हैं, इसलिये उनकी ‘सामाजिक भूमि प्रक्षेत्र गतिशीलता’ पर विचार करते हुए ‘आन्तरिक ब्याघ्र वासस्थल’ को ‘संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल’ से अलग माना जाता है जो अन्य वन्य प्रजातियों पर लागू होता है।
6. विशेषज्ञों के साथ विचार विमर्श और वैज्ञानिक आँकड़ों की अनुकृति के आधार पर यह पाया गया है कि बाघों की जीवनक्षम आबादी (20 प्रजननशील मादा) को पालने के लिये कम से कम 800 से 1200 वर्ग किलोमीटर की ‘अक्षत’(इनवायोलेट) इलाके की आवश्यकता होती है।
7. कोर/क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट को ‘अक्षत’ इलाके के रूप में स्थापित करने के लिये वन्यजीव(संरक्षण)अधिनियम 1972 के अन्तर्गत दो चरण होते हैं:-
(ए) कोर/क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट को चिन्हित करने में वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ट आँकड़ों के आधार पर यह सुनिश्चित करें कि वह इलाका बाघ-संरक्षण के लिहाज से ‘अक्षत’ रखना आवश्यक है, ऐसा करने में अनुसूचित जनजातियों और दूसरे वन निवासियों के अधिकार प्रभावित नहीं होते और तब इस मकसद से गठित विशेषज्ञ समिति की सलाह के अनुसार राज्य सरकार द्वारा इसकी अधिसूचना जारी की जाए। बाघ की आबादी वाले सत्रह राज्यों में से सोलह राज्यों ने इस प्रक्रिया का पालन करते हुए कोर/क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट को अधिसूचित कर दिया और केवल बिहार में कार्रवाई लम्बित है।
(बी) चिन्हित कोर/क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट को परस्पर सहमति की शर्तों पर स्वेच्छा से पुनर्वास के माध्यम से ‘अक्षत’ के रूप में स्थापित करना, बशर्ते कि वैसी शर्तें वन्यजीव(संरक्षण)अधिनियम 1972 के अन्तर्गत निर्धारित आवश्यकताओं को पूरा करती हों। बाघों के लिये अक्षत इलाका बनाने में किसी अनुसूचित जनजाति या अन्य परम्परगत वन निवासी को विस्थापित नहीं किया जाएगा या उनके अधिकारों पर हानिकर प्रभाव नहीं डाला जाएगा, जब तक कि:-
क. अनुसूचित जनजातियों और दूसरे वनवासी व्यक्तियों के अधिकारों या वनाधिकारों का निर्धारण या अनुमोदन और जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती।
ख. राज्य सरकार की सम्बन्धित एजेंसी को अनुसूचित जनजाति और दूसरे वनवासी समुदायों की सहमति के साथ ही इलाके के जानकार दो विशेषज्ञों-पारिस्थितिकी और सामाजिक विज्ञानी, के परामर्श से यह स्थापित करना आवश्यक होगा कि अनुसूचित जनजाति व दूसरे परम्परागत वनवासियों की गतिविधियों या उनकी उपस्थिति से वन्यजीवों की अपूरणीय क्षति होगी और यह बाघ एवं दूसरे जीवों के अस्तित्व के लिये हानिकारक होगा।
ग. राज्य सरकार को अनुसूचित जनजाति और अन्य वनवासी समुदायों की सहमति लेनी होगी और इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा (साथ ही स्वतंत्र पारिस्थितिकी/सामाजविज्ञानी से सलाह लेनी होगी) कि सह-अस्तित्व का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है।
घ. पुनर्वास योजना तैयार करना जरूरी होगा जिसमें प्रभावित व्यक्तियों की आजीविका के लिये प्रावधान होंगे, इसके साथ ही राष्ट्रीय पुनर्वास और पुनर्स्थापन नीति की शर्तों को पूरा करना होगा।
च. पुनर्वास के लिये ग्रामसभा और प्रभावित व्यक्तियों की सूचित सहमति प्राप्त करना होगा।
छ. पुनर्वास क्षेत्र में सुविधाएँ और जमीन उपलब्ध करानी होगी अन्यथा लोगों के मौजूदा अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।
8. उपरोक्त प्रावधान वन्यजीव(संरक्षण)अधिनियम 1972 (धारा 38वी) में 2006 के संशोधन में बाघ संरक्षण के लिये खासतौर से किए गए हैं और वे अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी (अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 से न केवल संगत है बल्कि अधिक शख्त हैं।
9. केन्द्र प्रायोजित प्रोजेक्ट टाइगर (2008) योजना के अन्तर्गत लोगों को दो विकल्प दिए गए हैं:-
विकल्प 1-वन विभाग द्वारा किसी पुनर्वास या पुनर्स्थापन प्रक्रिया को अपनाए बगैर प्रति परिवार 10 लाख रूपए का भुगतान यदि परिवार इसे पसन्द करता है।
विकल्प 2-वन विभाग द्वारा प्रति परिवार 10 लाख रूपए में निम्नलिखित मानदंडों को अपनाते हुए पुनर्स्थापन/पुनर्वास
तालिका 1.1 मुआवजा पैकेज की संरचना
ए. |
कृषि भूमि की खरीद दो हेक्टेयर और विकसित करना |
कुल पैकेज का 35 प्रतिशत |
बी. |
अधिकारों का निपटारा |
कुल पैकेज का 30 प्रतिशत |
सी. |
आवासीय भूमि और मकान निर्माण कुल पैकेज का 20 प्रतिशत डी. प्रोत्साहन |
कुल पैकेज का 5 प्रतिशत |
ई. |
सामुदायिक सुविधाएँ |
कुल पैकेज का 10 प्रतिशत |
(पहुँच पथ, सिंचाई, पेयजल, गन्दे नाले, बिजली, दूरसंचार, सामुदायिक केन्द्र, पूजास्थल और श्मशान) |
10. नगद का विकल्प उन लोगों के लिये रखा गया है जो पुनर्वास नहीं चाहते और परस्पर सहमति की शर्तों और स्थितियों के अन्तर्गत कहीं दूसरी जगह स्वयं स्थापित होना चाहते हैं जैसाकि वन्यजीव(संरक्षण)अधिनियम 1972 में संकेत दिया गया है। नियंत्रण और सन्तुलन रखने के लिये नगद रकम का भुगतान जिला समाहर्ता के माध्यम से ग्रामीण द्वारा जमीन खरीदने इत्यादि का प्रमाण प्रस्तुत करने पर किया जाएगा।
11. पुनर्वास स्वेच्छा है और केवल तभी किया जाएगा जब लोग दूसरी जगह जाने के लिये तैयार हों।
12. पुनर्वास के बाद लोगों के टिकने के लिये विस्तृत दिशानिर्देशों को जारी करने और जिला स्तर के साथ ही राज्य स्तर पर निगरानी समितियों के गठन की आवश्यकता होगी, इसके अलावा स्वतंत्र एजेंसियों को इस काम में लगाने पर पंचायती राज संस्थानों की केन्द्रीय भूमिका सुनिश्चित करनी होगी।
13. राज्यों को वन्यजीव(संरक्षण)अधिनियम 1972 और अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वन निवासी समुदाय(अधिकारों को मान्यता)अधिनियम 2006 का अनुपालन करने के लिये परामर्श जारी किए गए हैं।
संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल (क्रिटिकल वाइल्डलाइफ हैबिटाट)
1. वनाधिकार कानून जनवरी 2007 में प्रभावी हुआ और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने ‘संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल’(सीडब्लूएलएच) की अधिसूचना के लिये राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों को दिशानिर्देश अक्टूबर 2007 में जारी किया। पिछले तीन वर्षों के दौरान संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल की अधिसूचना के मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई। राज्य/केन्द्रशासित प्रदेशों ने 2007 के दिशानिर्देशों के आधार पर अधिसूचना जारी करने में कठिनाई होने का जिक्र किया। इसके मद्देनजर वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने मुख्य वन्यजीव संरक्षकों और भारतीय वन्यजीव संस्थान के अधिकारियों की बैठक बुलायी। बैठक में दिशानिर्देशों पर विचार विमर्श करने के बाद उसे संशोधन के साथ जारी किया किया है जो वनाधिकार कानून के साथ सामंजस्यपूर्ण हैं।
2. संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के ऐसे इलाके हैं जिन्हें वन्यजीवों के संरक्षण के उद्देश्य से ‘अक्षत’ रखना आवश्यक है उसका निर्धारण और अधिसूचना एक विशेषज्ञ समिति के साथ खुले परामर्श की प्रक्रिया के बाद वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा किया जाता है। ऐसे इलाकों को वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ मानदंडों के आधार पर मामला-दर-मामला, स्पष्ट रूप से चिन्हित किया जाना चाहिए और केवल आदिवासियों एवं अन्य परम्परागत वन निवासियों के अधिकारों का निपटारा करने के बाद किया जाना चाहिए।
3. संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल को चिन्हित करना और घोषणा करना दो अलग प्रक्रियाएँ हैं। वन्यजीवों के संरक्षण में बेहतरी के लिये किसी इलाके को संकटपूर्ण वासस्थल चिन्हित करना पूरीतरह एक वैज्ञानिक कार्य है जिसे वनविभाग द्वारा वैज्ञानिक संस्थानों की सलाह से मामला-दर-मामला आधार पर (संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल चिन्हित करने का मानदंड ‘स्थल विशेष’ पर आधारित होता है।) किया जाता है, और इसकी अधिसूचना केवल ग्रामसभा और प्रभावित लोगों/हितधारकों से विस्तृत विमर्श (अर्थात सहमति) के बाद ही जारी की जानी चाहिए।
4. दिशानिर्देश सुनिश्चित करते हैं कि संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल की घोषणा, केवल प्रभावित लोगों की स्वैच्छिक सहमति के बाद हो। यह राज्य/केन्द्रशासित प्रदेशों की सरकारों को ‘सह-अस्तित्व’ की सम्भावना खोजने की पर्याप्त गुंजाइश भी प्रदान करते हैं। अगर इसकी कोई सम्भावना व्यावहारिक नहीं हो तो विशेषज्ञ समिति जिसमें जिला जनजाति कल्याण पदाधिकारी और आदिवासियों के कल्याण के लिये कार्यरत कोई एनजीओ जरूर शामिल होना चाहिए, ग्राम सभा/प्रभावित व्यक्तियों से उनके पुनर्स्थापन के बारे में परामर्श करेगा जिस दौरान उपलब्ध विकल्पों (विकल्प-1, प्रति परिवार दस लाख रूपए का भुगतान और विकल्प-2 वन विभाग द्वारा जमीन, सुविधाओं के साथ घर और सामुदायिक अधिकारों के साथ समन्वित पुनर्वास) के साथ स्वैच्छिक पुनर्स्थापन के बारे में भी बताया जाएगा। पुनर्स्थापन में सम्बन्धित व्यक्तियों की आजीविका प्रदान करना भी शामिल होगा। वास्तव में वे अपने लिये सर्वाधिक उपयुक्त विकल्प का चयन कर सकते हैं।
5. संकटपूर्ण वन्यजीव वासस्थल की अधिसूचना केवल राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्यों पर लागू होंगे, अन्य वनक्षेत्रों पर नहीं।
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय इसे सुनिश्चित करने के लिये हर कदम उठाएगा कि वन्यजीव संरक्षण कार्याक्रमों के दौरान वनाधिकार कानून 2006 की भावनाओं का सम्मान हो और उसका अक्षरशः पालन किया जाए। अगर कहीं किसी तरह की अवहेलना होती है और उस अवहेलना की रिपोर्ट पूरे दस्तावेजों और साक्ष्यों के साथ तैयार की जाएगी, जिसका उपयोग परिस्थिति को सुधारने में किया जाएगा।
केन्द्रीय विद्यालय, हेब्बल,बंगलोर के छात्रों के पत्र के जबाब में सन्देश।
25 जनवरी 2010
जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के व्यावहारिक समाधानों के बारे में केन्द्रीय विद्यालय, हेब्बल, बंगलोर के छात्रों का पत्र मेरे पास भेजने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं स्कूली बच्चों के लिये एक सन्देश संलग्न कर रहा हूँ, यह उन तक पहुँच जाए तो अच्छा लगेगा।
प्रिय छात्रगण,
तुम्हारे पत्र को पढ़ना सचमुच आनंददायक है और मैं जैव-विविधता एवं बाघ को बचाने के साथ ही जलवायु परिवर्तन के संकट का मुकाबला करने की तुम्हारी चिन्ताओं की सराहना करता हूँ। हम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के लोग इन चुनौतियों का साझा तौर पर मुकाबला करने के साथ ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को न्यूनतम करने के लिये कदम उठाने में राज्यों और नागरिक संगठनों के साथ सहयोग कर रहे हैं। मुझे पूरा विश्वाश है कि तुम्हारी तरह भविष्य के नागरिकों के सक्रिय सहयोग से हम अपने प्रयासों में सफल होंगे, हालांकि यह काम इतना आसान नहीं है। मैं तुम सभी के लिये अच्छे जीवन की कामना करता हूँ। मुंबई की एक महिला समूह द्वारा वनस्पति उद्यान को लेकर उठाई गई चिन्ताओं के बारे में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चौहान को पत्र
30 मार्च 2010
मुझे मुंबई के एक महिला समूह का पत्र मिला है जिसका जैव-विविधता और पर्यावरण के संरक्षण में बेहद दिलचस्पी है। उन्होंने वीजेबी उद्यान के पुनर्विकास की योजना के पर्यावरण पर प्रभाव की ओर मेरा ध्यान दिलाया है। उनकी मुख्य चिन्ता है कि चिडि़याघर में पुनर्विकास की प्रक्रिया में वनस्पति उद्यान बर्बाद हो जाएगा। उनका सुझाव है कि विस्तृत चिडि़याघर को नगर की सीमाओं के बाहर स्थित होना चाहिए। वीजेबी उद्यान में नहीं होना चाहिए। वीजेबी उद्यान को लम्बे समय से जानने की वजह से मुझे रानी बाग वनस्पति उद्यान बचाओ कार्रवाई समिति द्वारा दी गई दलीलों में काफी दम नजर आता है। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि व्यक्त चिन्ताओं के मद्देनजर इस मामले को फिर से देखें जिसे मुबंई के विभिन्न तबकों की इतनी बड़ी आबादी उठा रही है। अगले वर्ष वनस्पति उद्यान की 150 वीं वर्षगाँठ है और यह दुखद होगा कि चिडि़याघर के विस्तार के नाम पर इसकी विविधता नष्ट हो जाए।
राजस्थान के चुरू के मौलिसर में गुरू जाम्बेश्वर धाम में विश्नोई समाज के सम्मेलन में दिए गए भाषण के प्रमुख अंश
12 अप्रैल 2011
मैं यहाँ एक मंत्री के रूप में नहीं बल्कि एक श्रद्धालु और भारत की अदभूत सांस्कृतिक एवं पारिस्थितिकीय इतिहास के छात्र के रूप में आया हूँ। पन्द्रहवी शताब्दी का आखिरी हिस्सा भारतीय इतिहास का एक असामान्य काल था। इस दौरान अनेक समाजसुधारकों का जन्म हुआ जो आज भी हमें प्रेरित करते हैं। दक्षिण में पुरंदरदास, पूर्व में शंकरदेव और चैतन्य महाप्रभु, मध्यभारत में वल्लभाचार्य, पश्चिम में नरसिंह मेहता, उत्तर-पश्चिम में गुरू नानक, मीराबाई और गुरू जाम्बेश्वर, उत्तर में रविदास और कबीर। गुरू जाम्बेश्वर,जिन्होंने विश्नोई सम्प्रदाय की स्थापना की। उन्होंने सरल जीवन और उच्च विचार के लिये 29 नियमों की रचना की जिसमें से आठ पर्यावरण के संरक्षण और जैव-विविधता के प्रतिरक्षण से सम्बन्धित हैं। उनके कोई 363 अनुयायियों ने अमृता देवी की अगुवाई में लगभग 280 वर्ष पहले जोधपुर के महाराजा की लालच से खेजरी वृक्षों की सुरक्षा करते हुए जोधपुर के निकट खेजरली गाँव में अपना बलिदान दे दिया था। अमृता देवी के बलिदान से ही प्रेरित होकर गौरा देवी ने वृक्षों की सुरक्षा के लिये 1974 में उत्तराखंड के चमोली जिले के रेनी गाँव से महिलाओं के एक समूह के साथ ‘चिपको आन्दोलन’ की शुरुआत की। इस प्रकार दो महिलाएँ अमृता देवी और गौरा देवी हमारे देश में पर्यावरण-संरक्षण आन्दोलनों की प्रमुख हस्तियाँ हैं। उन्हें याद करना हम सभी का कर्तव्य है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय उनके नाम पर राष्ट्रीय पुरस्कार की स्थापना करेगा ताकि वन संरक्षण और पुर्नसृजन के उद्देश्य में समुदायों और खासकर महिलाओं के योगदान को याद रखा जाए।
विश्नोई समुदाय ने पारिस्थितिकीय चेतना को बढ़ावा देने में प्रमुख भूमिका निभाई है और इस उदाहरण को समाज के दूसरे लोगों को भी अपनाना चाहिए। मैं विश्नोई समाज के लोगों को सलमान खान और उसके दोस्तों को पकड़वाने में उनकी भूमिका के लिये बधाई देना चाहता हूँ। वन्यजीव (संरक्षण)अधिनियम 1972 का अब संशोधन किया जा रहा है ताकि उल्लंघन करने वालों को अधिक कठोर सजा दी जा सके और भविष्य में किसी संसारचंद और सलमान खान का आसानी से छूट जाना सम्भव नहीं हो। संशोधनों को संसद के मानसून सत्र में प्रस्तुत किया जाएगा। तालचापर कृष्णमृग अभयारण्य एक असामान्य अभयारण्य है जो रेगिस्तानी पारिस्थितिकी में अवस्थित है। यह करीब 700 हेक्टेयर इलाके में है और इसे अतिरिक्त 1000 हेक्टेयर में विस्तार दिया जा रहा है। कृष्णमृग यहाँ का मुख्य निवासी है, पर मध्य एशिया के सारस लम्बी दूरी तय करके हर साल जाड़े के मौसम में यहाँ आते हैं जिससे यह अभयारण्य, पक्षीप्रेमियों के आकर्षण का केन्द्र भी है। तालचापर को पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी के माध्यम से पर्यटन सर्किट में जरूर शामिल करना चाहिए और भरतपुर पक्षीविहार के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए। पर्यटन से स्थानीय समुदायों की आमदनी में बढ़ोतरी होगी और वे अभयारण्य और संरक्षित इलाके की सुरक्षा करने में आर्थिक लाभ देखेंगे।
नोट:-
1. जिन लोगों ने हिस्सेदारी की, वे किसान और किसान संगठन, वैज्ञानिक, राज्य कृषि विभाग के अधिकारी, एनजीओ, उपभोक्ता समूह, एलोपैथिक और आयुर्वेदिक चिकित्सक, छात्र और घरेलु महिलाएँ थी। इन सात बैठकों के आधार पर सीईई द्वारा तैयार एक संक्षिप्त रिपोर्ट इस नोट के इलेक्ट्रोनिक संस्करण की अनुसूची-1 में संलग्न है जोे मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है।
2. मुख्यमंत्रियों को लिखे इन पत्रों और उनके उत्तर की प्रतियाँ, इलेक्ट्रोनिक संस्करण में ‘मुखर आदेश’ के साथ अनुसूची-2 में संलग्न है जो मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है। केरल, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के राज्य सरकारों के पत्र। लोकसभा की कृषि समिति के अध्यक्ष के पत्र और दूसरे राजनेताओं के पत्र जिनमें एक पूर्व प्रधानमंत्री का पत्र भी है, को सार्वजनिक किया जा रहा है। भारत और विदेश के वैज्ञानिकों की राय भी माँगी गई। इसके अतिरिक्त, शोध संस्थानों, एनजीओ, और जागरूक व्यक्तियों के ईमेल बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुए। वैज्ञानिकों की राय मुखर आदेशों के इलेक्ट्रॉनिक संस्करण की अनुसूची-3 में संलग्न है। एनजीओ और शोध संस्थानों से आये ईमेलों का एक नमूना आदेश के साथ अनुसूची-4 में संलग्न किया गया है जो मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है।
3. मैंने ‘बीटी-बैंगन क्यों’ के बुनियादी प्रश्न को पहले ही अलग रख दिया क्योंकि इससे खाद्य सुरक्षा, उत्पादन में कमी या किसानों के संकट का कोई मामला जुड़ा नहीं है बल्कि इसे निजी कम्पनियों द्वारा अत्यधिक महत्त्व दिया जा रहा है।
4. 6 फरवरी को बंगलोर में सार्वजनिक परामर्श के दौरान मोनसैंटों के एक पूर्व प्रबन्ध निदेशक (भारत) इस आधार पर बीटी-बैंगन के जबरदस्त विरोध में सामने आए और इस आधार पर कि बीज की आपूर्ति को मुनाफे के लिहाज से संचालित नहीं होना चाहिए।
5. बंगलोर परामर्श के दौरान डॉ जी.के.वीरेश, पूर्व उपकुलपति, यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस,बंगलोर जो यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस, धारवाड की सहयोगी संस्था है, ने बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण का जोरदार विरोध किया।
6. यह समीक्षा बाद में ‘करंट साइंस’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। परामर्श के समय मुझे एक अग्रिम प्रति उपलब्ध कराई गई थी, इसे मुखर आदेशों के इलेक्ट्रोनिक संस्करण की अनुसूची-3 में संलग्न किया गया है।
7. डॉ. एस परशुरामन, टाटा समाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई के निदेशक ने यह बताते हुए लिखा कि ईसी-1 के सदस्य के रूप में उन्होंने जो सवाल उठाए, उसका कभी जबाब नहीं दिया गया।
8. हालांकि कई किसान संगठन जैसे भारतीय कृषक समाज और कर्नाटक राज्य रैयत संघ और तमिलनाडु के कुछ संगठनों ने बीटी-बैंगन के व्यावसायीकरण का विरोध किया।
9. मुझे बंगलोर मुख्यालय वाले एसोसिएशन ऑफ बायोटेक्नोलॉजी-लेड इंटरप्राइजेज(एबीएलई) का ज्ञापन मिला जिसमें विभिन्न आधार पर बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण का समर्थन किया गया है।
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