हरा समाधान खरा समाधान

Submitted by RuralWater on Wed, 04/25/2018 - 17:17


ग्रीन बसग्रीन बसप्रकृति से हरीतिमा का गायब होते जाना और नीले आकाश का कालिमा से ढँकते जाना, वर्तमान शताब्दी की सबसे बड़ी मानवजनित प्राकृतिक चुनौती है। निःसन्देह जब दशकों पहले दुनिया को इस प्राकृतिक असहजता की सुगबुगाहटों का अनुभव होने लगा था, तभी से धीरे-धीरे राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर जागरूक कदम उठाए जाने लगे थे, नीतियाँ बनने सँवरने लगीं थीं।

समय-समय पर इनमें संशोधनों की विभिन्न प्रक्रियाओं का दौर आज भी जारी है। पर समस्या वही ढाक के तीन पात की तरह सुलझने का नाम नहीं लेती या कि सुलझ तो सकती है, पर उलझाए रखने वालों की संख्या ज्यादा है और आनुपातिक तौर पर जन-जागरुकता का दृष्टिकोण रखने वाले भी बहुत कम है।

किसी भी विषय के प्रति जागरुकता की सफलता व्यक्ति से लेकर विश्व तक उसकी सही पैरवी पर निर्भर करती है। ग्लोबल वार्मिंग और वायु प्रदूषण को रोकने के लिये जब 2017 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण परिवर्तन सम्मेलन में भारत सहित विश्व के 19 देशों अर्जेंटीना, ब्राजील, कनाडा, चीन, डेनमार्क, मिस्र, फिनलैंड, फ्रांस, इंडोनेशिया, इटली, मोरक्को, मोजांबिक, नीदरलैंड्स, पराग्वे, फिलीपींस, स्वीडन, ब्रिटेन और उरुग्वे ने जैविक ईंधन के उपयोग को लेकर एकजुटता का परिचय दिया, तब लगा कि घोषणापत्र में 2050 तक विश्व को कोयले के इस्तेमाल से मुक्त करने की प्रतिज्ञा सचमुच रंग लाएगी। लेकिन सच तो यह है कि अक्सर ऐसे सम्मेलनों और घोषणापत्रों की सच्चाई कागजों की खूबसूरती बनकर रह जाती है और विफलताएँ लोगों को एक कोने में लाकर बैठा देती हैं।

ऐसी ही कुछ कागजी सच्चाइयाँ हमारे देश में भी नजर आती हैं। हमारे यहाँ सम्बन्धित विषयों के समय और दिवस आने पर लोगों के साथ सरकारें भी ऐसे मुद्दों के प्रति काफी सचेत दिखने लगती हैं और बैनरों, रैलियों, भाषणों, गोष्ठियों के साथ ही सम्मेलनों के दौर शुरू हो जाते हैं। उनका यह तथाकथित जोश हमें दिग्भ्रमित करने में ऐसे कामयाब हो जाता है, मानो कल तक ही सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन हकीकत कभी बदलती नहीं हैं, कुछ समय के लिये मनोरंजित अवश्य हो लिया जाता है। ऐसे कार्यक्रमों के दौरान हुई हलचलें सिर्फ वैचारिक एवं पर्यावरणीय सड़ांध छोड़ जाती हैं और सभी तरह के प्रदूषणों का स्तर बढ़ जाता है।

ऐसा नहीं है कि भारत में प्रदूषण को रोकने के लिये उपाय, कार्ययोजनाएँ और नीतियाँ न बनाई गई हों। सब कुछ मानदण्डों के तहत निर्धारित किया गया है। 1976 में बनी पर्यावरण नीति के तहत भी वाहनों से होने वाले प्रदूषण को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करने के लिये भारत सरकार द्वारा समय-समय पर अनेक कानून बनाए गए हैं।

वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986, राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004 में विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में वायु की गुणवत्ता और वायु प्रदूषण का नियंत्रण के तथ्यों को सम्मिलित किया गया है। इन अधिनियमों के अनुसार केन्द्र व राज्य सरकार दोनों को वायु प्रदूषण से होने वाले प्रभावों का सामना करने के लिये कुछ विशिष्ट शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

इन कानूनों के आलोक में विभिन्न स्तरों पर प्रदूषण नियंत्रण हेतु प्रयास व प्रयोग किये जाते रहते हैं, परन्तु सफलता का प्रतिशत आशानुरूप नहीं होता। इस असफलता की जड़ में जाने पर प्रत्येक स्तर पर कार्यान्वयन की परिशुद्धता में कमी और जन-उदासीनता इसके मूल कारण नजर आते हैं।

ऐसे अनेक प्रयोगों की बानगियाँ समय-समय पर भारत में दिखती रहती हैं, जिनमें प्रदूषण से मुक्ति के लिये कुछ हरे समाधान सुझाए जाते हैं। जैसे महाराष्ट्र के नागपुर शहर में फैलते वायु प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से 2016 से ग्रीन बसें संचालित की गईं जो एक हरा और खरा समाधान साबित हो सकता था। लेकिन प्रयास सही मायनों में सफल नहीं हो पाया क्योंकि इसे लोगों का पर्याप्त सहयोग नहीं मिल सका। ये ग्रीन बसें अभी भी शहर की सड़कों पर दौड़ रही हैं, परन्तु सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर।

क्लीन एनर्जी इन्वेस्टमेंट्स के लिये विश्व में अपनी पहचान बना चुकी स्वीडन की स्कानिया कम्पनी द्वारा निर्मित इन उच्चतम वातानुकूलित ग्रीन बसों में ईंधन के रूप में एथेनॉल का प्रयोग किया जाता है। इस बस सर्विस के एक कर्मचारी के अनुसार बसों में लगभग समस्त आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, जैसे ऑटोमेटिक ट्रांसमिशन (जिसमें क्लच और गियर नहीं होता है) जीपीएस प्रणाली, सीसीटीवी कैमरा, स्टाप आने से पहले ध्वनि के माध्यम से पूर्वसूचना, चालक सीट पर माइक्रोप्रोसेसर मॉनीटर। इसके अलावा बसों में चालक वीडियो कॉल सुविधा द्वारा सीधे नियंत्रण कक्ष से जुड़ सकते हैं। इनकी सीटें बेहद आरामदायक हैं और दिव्यांगों के लिये इनमें विशेष सीटों का प्रबन्ध है। स्टाप पर रुकने के बाद बुजुर्गों के चढ़ने व उतरने के लिये लो फ्लोर की सुविधा भी है।

आमतौर पर देखा गया है कि अधिकांश लोगों में नए प्रयोगों या बदलाव को स्वीकार करने के प्रति अरुचि होती है। जैसे नागपुर में पर्यावरण अनुकूल बसों को बारे में लोग मानते हैं कि ये किसी खिलौने की तरह हैं, जो सिर्फ प्रयोगशालाओं तक ठीक हैं व्यावहारिक स्तर पर उतनी खरी नहीं हैं। भले ही इन बसों ने नागपुर को जैवईंधन आधारित पब्लिक ट्रांसपोर्ट वाला पहला भारतीय शहर बना दिया, परन्तु शहर के लोगों की उदासीनता के कारण यह प्रयोग परवान नहीं चढ़ सका।

इसी तरह जुलाई 2017 में भारत की जानी मानी ऑटो कम्पनी, टाटा मोटर्स ने देश की पहली बायो-मीथेन इंजन (5.7 एसजीआई और 3.8 एसजीआई) से लैस बसें बनाईं और दावा किया गया कि ये देश के शहरों को साफ रखने में सकारात्मक योगदान दे पाएँगी। इनके चुनिन्दा मॉडलों का प्रदर्शन एक ऊर्जा उत्सव के दौरान हुआ पर उसके समाप्त होते ही सब कुछ किसी सपने की तरह विलुप्त हो गया। इस प्रयास से एक सकारात्मक सोच की जीत हुई, परन्तु व्यावहारिकता तब आस लगाए खड़ी है।

इन्हीं प्रयासों की शृंखला में भारत की वैज्ञानिक बिरादरी जैव ईंधन का विकल्प ढूढ़ने में व्यस्त हैं। ऑटोमोबाइल उद्योग, इलेक्ट्रिक और जैवईंधन से चलने वाले वाहनों की प्रौद्योगिकी विकसित करने में लगी हुई है। सरकार देश की सार्वजनिक यातायात प्रणाली में नीतिगत स्तरों पर इन शोधों और प्रौद्योगिकियों को लागू करने के लिये प्रतिबद्ध हैं। यह अलग बात है कि सामान्य लोग इन तीनों के मध्य घूम रहे विकल्पों और नीतियों को स्वीकार कर पाने के प्रति सशंकित हैं।

प्रचलित ईंधन के विकल्पों के तौर पर सीएनजी, बायोडीजल और एथेनॉल के प्रयोग में इजाफा हो रहा है लेकिन वैश्विक स्तर पर इनकी भागीदारी मात्र 8.5 प्रतिशत है। इसी तरह भारत में जैव ईंधन की मौजूदा उत्पादन क्षमता सिर्फ 12 लाख टन आँकी गई है पर यह इसकी माँग के अनुसार नाकाफी है।

देश में जीवाश्म ईंधनों की मौजूदा जरूरत का मात्र 20% भाग ही यहाँ उत्पन्न किया जाता है शेष भाग की आपूर्ति के लिये हमें आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। इस आयात पर भारत को प्रति वर्ष छह लाख करोड़ रुपए से अधिक मूल्य की विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है। देश में निरन्तर बढ़ रही पेट्रोलियम पदार्थों की खपत से अन्दाजा लगाया गया है कि तेल का भण्डार अगले 40 से 50 सालों में समाप्त हो सकता है। इस दृष्टिकोण से अब जैवईंधन के उत्पादन पर जोर दिया जाने लगा है।

भारत में जैवईंधन के रूप में बायो डीजल और एथेनॉल के नाम सामने आते हैं। दो दशकों पहले वैज्ञानिकों ने रतनजोत (जट्रोफा), सोयाबीन अथवा कनोला आदि से प्राप्त किये गए वनस्पति तेलों एवं जन्तुवसाओं द्वारा बायोडीजल के उत्पादन की प्रक्रिया विकसित की है। इससे प्राप्त बायोडीजल का उपयोग आधुनिक डीजल वाहनों में या तो सीधे तौर पर अथवा जीवाश्म डीजल के साथ किसी सुनिश्चित अनुपात में मिलाकर किया जा रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसके लिये वाहन में किसी भी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती है।

जैवईंधन का दूसरा प्रचलित होता जा रहा विकल्प एथेनॉल है। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका उत्पादन किसी भी पौधे में पाये जाने वाले स्टार्च से किण्वन द्वारा सरलता से किया जा सकता है। अभी तक इसके लिये गन्ना को सर्वाधिक उपयुक्त एवं सस्ती फसल के रूप में उपयोगी समझा गया है।

प्रारम्भ में जिन हरी बसों का जिक्र किया गया है, उनमें प्रयुक्त एथेनॉल को विशेष रूप से गन्ने से ही तैयार किया जाता है। गन्ने के अलावा भी दूसरे विकल्पों की खोज में वैज्ञानिक निरन्तर लगे हैं। तकनीशियनों का कहना है कि एथेनॉल को उसके विशुद्ध रूप में वाहनों में प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है, बल्कि इसके लिये वाहनों के इंजन में परिवर्तन करने पड़ते हैं, क्योंकि यह वाहन में लगे रबर और प्लास्टिक के कलपुर्जों को नुकसान पहुँचता है।

इस तरह एथेनॉल और बायोडीजल, उद्योग जगत, सरकार और लोगों के बीच चर्चा का विषय है। इनके प्रयोग के प्रति लोगों में जागरुकता बढ़ी है। यह जरूर है कि किसी भी परिवर्तन को अपनाने के लिये लोगों को समय की आवश्यकता होती है। अतः इनको पेट्रोल और डीजल के स्थान पर उपयोग में लाने में लोगों को परेशानी हो रही है। गाँवों में इनको अपनाने में अधिक मुश्किल है क्योंकि वहाँ लोगों में जागरुकता की कमी है। फिर भी मेट्रो शहरों और कुछ बड़े शहरों में वाहनों में जैवईंधन के इस्तेमाल को लेकर हिचक मिटती सी दिखने लगी है। लोग इनका उपयोग कर पाने के लिये स्वयं को अभ्यस्त करने लगे हैं।

यही कारण है कि अब जैवईंधन के उत्पादन की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कदम उठने लगे हैं। वैश्विक स्तर पर बायो डीजल के उत्पादन, बाजार में खपत और उपयोग के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2021 तक विश्व में जैवईंधन का उत्पादन 65.7 बिलियन गैलन प्रति वर्ष के स्तर पर पहुँच जाएगा। यह बात सामने आ रही है कि बायो डीजल अपनी कार्बन तटस्थता के गुण के कारण काफी लोकप्रिय हो रहा है।

10-12 अप्रैल, 2018 के बीच नई दिल्ली में आयोजित हुई अन्तरराष्ट्रीय ऊर्जा फोरम की 16वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में वैश्‍विक ऊर्जा की आपूर्ति और खपत में हो रहे बड़े बदलाव पर गहन विचार-विमर्श किया गया। भारत सहित 72 सदस्य देशों को मिलाकर वर्ष 1991 में गठित इस फोरम में बायोडीजल और एथेनॉल के उपयोग को वायु प्रदूषण से निपटने के हरे समाधान के तौर पर विश्लेषित किया गया।

कुछ समय से देश में एक और मुद्दा बार-बार सामने आ रहा है कि शीघ्र ही सरकारी स्तर पर नई जैवईंधन नीति तैयार की जाएगी। देश के उन क्षेत्रों में जहाँ बंजर जमीन पर पारम्परिक फसलों की खेती सम्भव नहीं है, वहाँ बायो डीजल देने वाली फसलें उगाने की भी तैयारी है। सरकार की 2022 तक जीवाश्म ईंधन के आयात पर निर्भरता को 10 प्रतिशत कम करने के लक्ष्य में जैवईंधन की भूमिका अहम हो सकती है। इसके साथ ही पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय वर्ष 2022 तक 5 प्रतिशत बायोडीजल मिश्रण की योजना बना रहा है। इससे उद्योग जगत को लगभग 27,000 करोड़ रुपए के व्यवसाय के साथ ही 6.75 अरब लीटर जैवईंधन की माँग पैदा होने की आशा है।

हालांकि सदियों से चले आ रहे जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करना अपने आप में बड़ी चुनौती है, क्योंकि तकनीकी स्तर पर देश की परिवहन व्यवस्था में बड़े बदलाव की जरूरत होगी जो किसी भी तरह से आसान काम नहीं है। इसके अलावा सरकार और तमाम ऑटोमोबाइल कम्पनियों पर पड़ने वाला आर्थिक दबाव भी एक बड़ा अवरोध है। निश्चित रूप से एथेनॉल और बायोडीजल एक हरा और खरा समाधान बन सकते हैं, बस उसे सरकारी औद्योगिक और व्यक्तिगत स्तर पर जागरुकता और एक दृढ़ संकल्प के साथ अपनाने की जरुरत है।

 

 

 

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