लेखक
मां गंगा देख रही है हर बरस कभी कुंभ, कभी माघ मेला, कभी कार्तिक पूर्णिमा, कभी छठ पूजा और कभी गंगा दशहरा.. गंगा किनारे दुनिया के सबसे बड़े पानी का मेले लगते हैं; करोड़ों दीपदान होते हैं; कोटि-कोटि हाथ... एक नहीं, कई-कई बार गंगा के सामने जुड़ जाते हैं; हर हर गंगे ! जय जय मैया !! गाते हैं; लेकिन यही कोटि-कोटि हाथ गंगा के पुनरोद्धार के लिए एक साथ कभी नहीं जुटते। गरीब से गरीब परिवार भी अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करके गंगा दर्शन के लिए आता है, लेकिन वह गंगा रक्षा के सिद्धांत को कभी याद नहीं करता। गंगा दर्शन को समझने और समझाने एक साथ कभी नहीं बैठता। कहने को गंगा दशहरा धरती पर मां गंगा के अवतरण की तिथि है; लेकिन मां गंगा की जो हालत हमने कर दी है, उससे हमने गंगोत्सव मनाने का हर हक खो दिया है। मां के कष्ट बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में मां का इच्छा मृत्यु माँगना आज हमारी असल जिंदगी में ही जब कोई अपवाद नहीं रहा, तो गंगा जैसी मां भी यदि अपने अवतरण दिवस पर मृत्यु की मांग कर बैठे, तो किसी को कोई ताज्जुब क्यों हो? रही बात इस पर दुख प्रकट करने की,यदि हमने जीते-जी ही मां की चिंता नहीं की, तो मृत्यु पश्चात शोक मनाने का क्या मतलब? यह न कोरी कल्पना है, नहीं न कोरी भावना; यह मां और संतानों के बीच बदलते संबंधों का यथार्थ भी है और गंगा का वर्तमान भी। तुम्हें गंगा की कसम! सीने पर हाथ रखकर कहो, क्या यह झूठ है?
गंगा पर राजनीति क्षुद्रता की जिस हद तक गिर गई है; पैसे का खेल जिस कदर बढ़ गया है; गंगा रक्षा में हम सभी जिस तरह नकारा सिद्ध हुए है; मां गंगा आर्तनाद कर रही है - “तुमने मुझे मां से महरी तो बना ही दिया है। कोमा में भी पहुंचा ही दिया है। अब वापस मुझे मेरे लोक भी पहुंचा दो। मुझे स्वर्गवासी बना दो। गंगा के साथ पापकर्म तो तुम रोज ही करते हो; एक पुण्य काम यही कर डालो। रोज-रोज की किचकिच से मुझे भी फुर्सत दे दो और खुद भी फुर्सत ले लो। सरकारें भी परेशान रहती है और मेरे लिए प्राण देने को आतुर मेरी कुछ बेसमझ संतानें भी।.... हां! मैं हत्भागिनी तो दूसरों को जीवन देने आई थी। मैं दूसरों के प्राण लेने वाली बन गई। यह पापकर्म मैं अब और नहीं करना चाहती। बस! एक बार प्राण ले लो। एक बार मुक्ति दे दो। फिर मैं पीछे मुड़कर भी नहीं देखुंगी। गंगा मर गई, तो कम से कम गंगा की बीमारी से बीमार होकर तुम तो नहीं मरोगे। इसलिए भी मैं मरना चाहती हूं। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। तिल-तिल कर मरने-मारने से तो अच्छा ही है कि आज किस्सा ही खत्म कर डालो। बोलो! करोगे इस गंगा दशहरा पर यह पुण्य कर्म??’’
इसे चाहे गंगा की अनुनय-विनय समझें या चीत्कार; आखिर गंगा के पास और चारा ही क्या बचा है सिवाय मर जाने के? आपको याद ही होगा कि पिछले बरस 17 जून को देशभर के धर्मगुरू व गंगा आंदोलनकारी दिल्ली के जंतर-मंतर पर आर-पार की हुंकार भरते दिखे थे। एक उम्मीद जगी थी कि शायद मां की सेहत के लिए सचमुच महासंग्राम हो; शायद सोई संवेदनाएं सचमुच जाग जाएं; शायद सरकारों को सत्ता के दंभ व दाम के दबाव से उबरने को विवश किया जा सके; शायद गंगा के नाम पर पैसा बनाने व बहाने वाले इंजीनियरों, कंपनियों व पर्यावरण के ठेकेदारों को शर्म आए। लेकिन कुछ नहीं हुआ। महासंग्राम ने चौमासे के नाम पर ऐसी चुप्पी साधी कि गंगा को जिलाने की बजाय वह खुद ही मृत हो गया। उसमें शामिल धर्मगुरु और संगठनों का कहीं अता-पता नहीं चला। कुंभ आया और चला गया। मां गंगा का कोई इलाज नहीं हुआ। पढ़े-लिखे अंतरमंत्रालयी समूह की रिपोर्ट भी ऐसी झोलाछाप सिद्ध हुई, जो इलाज से ज्यादा मरीज़ से कमाने में रूचि रखता है। इस नीयत के खिलाफ कुछ आवाजें उठीं ज़रूर, लेकिन वे भी नक्कारखाने की तूती ज्यादा कुछ साबित नहीं हुई। अब बताइए! ऐसे में मां क्या करे?
मां गंगा देख रही है हर बरस कभी कुंभ, कभी माघ मेला, कभी कार्तिक पूर्णिमा, कभी छठ पूजा और कभी गंगा दशहरा.. गंगा किनारे दुनिया के सबसे बड़े पानी का मेले लगते हैं; करोड़ों दीपदान होते हैं; कोटि-कोटि हाथ... एक नहीं, कई-कई बार गंगा के सामने जुड़ जाते हैं; हर हर गंगे ! जय जय मैया !! गाते हैं; लेकिन यही कोटि-कोटि हाथ गंगा के पुनरोद्धार के लिए एक साथ कभी नहीं जुटते। गरीब से गरीब परिवार भी अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करके गंगा दर्शन के लिए आता है, लेकिन वह गंगा रक्षा के सिद्धांत को कभी याद नहीं करता। गंगा दर्शन को समझने और समझाने एक साथ कभी नहीं बैठता। अजीब बात है कि गंगा को लेकर किसी धर्म, जाति, संप्रदाय या वर्ग में कोई भेद नहीं। कहने को गंगा को सभी मां कहते हैं। नेता, अफ़सर, भ्रष्ट और सज्जन.... सभी इसके आगे एक साथ मत्था टेकते हैं। बावजूद इसके,सभी के मन में गंगा रक्षा का संकल्प एक साथ कभी नहीं जगता;.... यह प्रश्न कभी नहीं उठता कि मल बन चुका गंगाजल, शिव को अब स्वीकार्य नहीं है। एक दिन जब गंगा ही शव हो जाएगी, तो कहां से लाओगे शिव कांवर? गंगा जानती है कि हम कभी सोचते ही नहीं कि तब कहां लगेगा माघ मेला? हम कहां मनाएंगे गंगा दशहरा ... कहां टेकेंगे माथा? मृत्यु पूर्व दो बूंद गंगाजल की अभिलाषा की पूर्ति करने तब हम कहां जायेंगे? बनाना तब बिजली, कहां बनाओगे? लाना फिर गंगाजल, कहां से लाओगे? करना अस्थियां प्रवाहित किसी नाले में जाकर! तुम्हीं इसी योग्य हो।
गंगा देख रही है कि जो समाज कभी दूसरों को पानी पिलाकर.... बैसाख-जेठ में प्याऊ लगाकर, नवसम्वत्, गंगा दशहरा, बसंतपंचमी और गुरुपर्व पर शरबत बांटकर स्वयं को धन्य मानता था; वही समाज अब पानी व नदी खरीद-बेचकर धन्य हो रहा है जो समाज कभी गंगा किनारे कुंभ लगाकर गंगा के साथ संस्कार और व्यवहार की मर्यादा तय करता था, वही समाज आज गंगा को अंतिम संस्कार के लिए तैयार कर रहा है। गंगा के किनारे 36 करोड़ तीर्थों की परिकल्पना है। गंगा देख रही है कि जिन साधू और संतों को इन तीर्थों में बैठाकर गंगा चौकीदारी का दायित्व सौंपा था, वे ही गंगा से संस्कार की आचार संहिता भूल गए हैं। उनके आश्रमों का कचरा व मल ही गंगा को मलीन करने से नहीं चूक रहा। जब गुरू ही गोरू हो जाए, तो फिर उम्मीद ही कहां बचती है ! गंगा देख रही है कि जो समाज भगीरथ और भीष्म को याद रखता है, राम और कृष्ण को पूजता है, वही कृष्ण के कहे को भूल गया है - “स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी....यानी नदियों मे मैं गंगा हूं।’’ वह इस दुर्योग को भी देख रही है कि समाज ने स्वामी दयानंद, कबिरा, रैदास, वाल्मीकि, तुलसी, चाणक्य, आदिगुरु शंकराचार्य, अकबर, बुद्ध, नानक और महावीर को तो याद रखा, लेकिन उनके कहे गंगा वाक्यों को तो वह याद भी नहीं रखना चाहता। उसे न गंगाष्टक याद है, न जगन्नाथ की अमृतलहरी और न यह कि गो, गीता और गायत्री के बाद मुक्ति का यदि कोई चौथा द्वार बचता है, तो वह है - गंगा !इसीलिए आज गंगा की पुकार है। मां की चीत्कार है। मां मरना चाहती है।
गंगा, सचमुच अब बहुत बेबस है; बीमार है....लाचार है। उत्तराखण्ड मां के मायके में ही उसका गला घोंट रहा है। गंगा के वेग को थामने वाले वनरूपी शिव केशों को काट रहा है। “कंकर कंकर में शंकर’’ रूपी पत्थरों के चुगान और सांस देने वाली रेत के खदान में ही सारा मुनाफा देख रहा है। उत्तर प्रदेश, गंगा के अमृत में विष घोल रहा है; कमेलों का खूनी कचरा बहाकर उसके फेफड़े सड़ा रहा है। उत्तर प्रदेश, गंगा के करोड़ों जीव और बहमूल्य वनस्पतियों का घोषित हत्यारा है। उत्तर प्रदेश गंगा के सीने पर बस्तियां बसाने की योजना-परियोजना निर्माण के व्याभिचार का भी दोषी है। बिहार,प्रदूषण के अलावा गंगा को किनारों को कटान से क्षत-विक्षत कर रहा है। झारखंड, धरती का अतिशोषण कर आर्सेनिक उपजा रहा है। प. बंगाल ने तो इसका नाम ही मिटा दिया है। इसे गंगा से हुगली बना दिया है। ससुराल सागर में पिया मिलन से पहले ही बैराज लगा दिया है। अब बताओ कि गंगा मरे न तो क्या करे?
तो आओ! एक बार तो सुन लें गंगा की पुकार। या तो एकजुट होकर मां को दोबारा निर्मल, अविरल, सजल बना दें; ताकि मां भी रहे जीवित और हम भी; वरना रोज-रोज मारने से तो अच्छा है कि आओ! आज सब मिलकर मार ही डालें गंगा को एक बार! इसने असंख्य का उद्धार किया है। आइए! खोल दें मां की मुक्ति के भी द्वार! फिर ठाठ से मनाएं मां गंगा की बरसी हर बरस;...तब सरकार भी नवाज ही देगी मां गंगा को किसी ‘भारतरत्न’ से। हो जायेगी उसके कर्तव्यों की भी इतिश्री,मिट जायेगा झंझट,हो जायेगा काम तमाम; तब खूब गाना-जय श्री गंगानाम !!
गंगा का आर्तनाद सुनो
गंगा पर राजनीति क्षुद्रता की जिस हद तक गिर गई है; पैसे का खेल जिस कदर बढ़ गया है; गंगा रक्षा में हम सभी जिस तरह नकारा सिद्ध हुए है; मां गंगा आर्तनाद कर रही है - “तुमने मुझे मां से महरी तो बना ही दिया है। कोमा में भी पहुंचा ही दिया है। अब वापस मुझे मेरे लोक भी पहुंचा दो। मुझे स्वर्गवासी बना दो। गंगा के साथ पापकर्म तो तुम रोज ही करते हो; एक पुण्य काम यही कर डालो। रोज-रोज की किचकिच से मुझे भी फुर्सत दे दो और खुद भी फुर्सत ले लो। सरकारें भी परेशान रहती है और मेरे लिए प्राण देने को आतुर मेरी कुछ बेसमझ संतानें भी।.... हां! मैं हत्भागिनी तो दूसरों को जीवन देने आई थी। मैं दूसरों के प्राण लेने वाली बन गई। यह पापकर्म मैं अब और नहीं करना चाहती। बस! एक बार प्राण ले लो। एक बार मुक्ति दे दो। फिर मैं पीछे मुड़कर भी नहीं देखुंगी। गंगा मर गई, तो कम से कम गंगा की बीमारी से बीमार होकर तुम तो नहीं मरोगे। इसलिए भी मैं मरना चाहती हूं। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। तिल-तिल कर मरने-मारने से तो अच्छा ही है कि आज किस्सा ही खत्म कर डालो। बोलो! करोगे इस गंगा दशहरा पर यह पुण्य कर्म??’’
हवा-हवाई हुई हुंकार
इसे चाहे गंगा की अनुनय-विनय समझें या चीत्कार; आखिर गंगा के पास और चारा ही क्या बचा है सिवाय मर जाने के? आपको याद ही होगा कि पिछले बरस 17 जून को देशभर के धर्मगुरू व गंगा आंदोलनकारी दिल्ली के जंतर-मंतर पर आर-पार की हुंकार भरते दिखे थे। एक उम्मीद जगी थी कि शायद मां की सेहत के लिए सचमुच महासंग्राम हो; शायद सोई संवेदनाएं सचमुच जाग जाएं; शायद सरकारों को सत्ता के दंभ व दाम के दबाव से उबरने को विवश किया जा सके; शायद गंगा के नाम पर पैसा बनाने व बहाने वाले इंजीनियरों, कंपनियों व पर्यावरण के ठेकेदारों को शर्म आए। लेकिन कुछ नहीं हुआ। महासंग्राम ने चौमासे के नाम पर ऐसी चुप्पी साधी कि गंगा को जिलाने की बजाय वह खुद ही मृत हो गया। उसमें शामिल धर्मगुरु और संगठनों का कहीं अता-पता नहीं चला। कुंभ आया और चला गया। मां गंगा का कोई इलाज नहीं हुआ। पढ़े-लिखे अंतरमंत्रालयी समूह की रिपोर्ट भी ऐसी झोलाछाप सिद्ध हुई, जो इलाज से ज्यादा मरीज़ से कमाने में रूचि रखता है। इस नीयत के खिलाफ कुछ आवाजें उठीं ज़रूर, लेकिन वे भी नक्कारखाने की तूती ज्यादा कुछ साबित नहीं हुई। अब बताइए! ऐसे में मां क्या करे?
दिखावटी है हमारा मातृ प्रेम
मां गंगा देख रही है हर बरस कभी कुंभ, कभी माघ मेला, कभी कार्तिक पूर्णिमा, कभी छठ पूजा और कभी गंगा दशहरा.. गंगा किनारे दुनिया के सबसे बड़े पानी का मेले लगते हैं; करोड़ों दीपदान होते हैं; कोटि-कोटि हाथ... एक नहीं, कई-कई बार गंगा के सामने जुड़ जाते हैं; हर हर गंगे ! जय जय मैया !! गाते हैं; लेकिन यही कोटि-कोटि हाथ गंगा के पुनरोद्धार के लिए एक साथ कभी नहीं जुटते। गरीब से गरीब परिवार भी अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करके गंगा दर्शन के लिए आता है, लेकिन वह गंगा रक्षा के सिद्धांत को कभी याद नहीं करता। गंगा दर्शन को समझने और समझाने एक साथ कभी नहीं बैठता। अजीब बात है कि गंगा को लेकर किसी धर्म, जाति, संप्रदाय या वर्ग में कोई भेद नहीं। कहने को गंगा को सभी मां कहते हैं। नेता, अफ़सर, भ्रष्ट और सज्जन.... सभी इसके आगे एक साथ मत्था टेकते हैं। बावजूद इसके,सभी के मन में गंगा रक्षा का संकल्प एक साथ कभी नहीं जगता;.... यह प्रश्न कभी नहीं उठता कि मल बन चुका गंगाजल, शिव को अब स्वीकार्य नहीं है। एक दिन जब गंगा ही शव हो जाएगी, तो कहां से लाओगे शिव कांवर? गंगा जानती है कि हम कभी सोचते ही नहीं कि तब कहां लगेगा माघ मेला? हम कहां मनाएंगे गंगा दशहरा ... कहां टेकेंगे माथा? मृत्यु पूर्व दो बूंद गंगाजल की अभिलाषा की पूर्ति करने तब हम कहां जायेंगे? बनाना तब बिजली, कहां बनाओगे? लाना फिर गंगाजल, कहां से लाओगे? करना अस्थियां प्रवाहित किसी नाले में जाकर! तुम्हीं इसी योग्य हो।
आचार व संस्कार की संहिता भूले हम
गंगा देख रही है कि जो समाज कभी दूसरों को पानी पिलाकर.... बैसाख-जेठ में प्याऊ लगाकर, नवसम्वत्, गंगा दशहरा, बसंतपंचमी और गुरुपर्व पर शरबत बांटकर स्वयं को धन्य मानता था; वही समाज अब पानी व नदी खरीद-बेचकर धन्य हो रहा है जो समाज कभी गंगा किनारे कुंभ लगाकर गंगा के साथ संस्कार और व्यवहार की मर्यादा तय करता था, वही समाज आज गंगा को अंतिम संस्कार के लिए तैयार कर रहा है। गंगा के किनारे 36 करोड़ तीर्थों की परिकल्पना है। गंगा देख रही है कि जिन साधू और संतों को इन तीर्थों में बैठाकर गंगा चौकीदारी का दायित्व सौंपा था, वे ही गंगा से संस्कार की आचार संहिता भूल गए हैं। उनके आश्रमों का कचरा व मल ही गंगा को मलीन करने से नहीं चूक रहा। जब गुरू ही गोरू हो जाए, तो फिर उम्मीद ही कहां बचती है ! गंगा देख रही है कि जो समाज भगीरथ और भीष्म को याद रखता है, राम और कृष्ण को पूजता है, वही कृष्ण के कहे को भूल गया है - “स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी....यानी नदियों मे मैं गंगा हूं।’’ वह इस दुर्योग को भी देख रही है कि समाज ने स्वामी दयानंद, कबिरा, रैदास, वाल्मीकि, तुलसी, चाणक्य, आदिगुरु शंकराचार्य, अकबर, बुद्ध, नानक और महावीर को तो याद रखा, लेकिन उनके कहे गंगा वाक्यों को तो वह याद भी नहीं रखना चाहता। उसे न गंगाष्टक याद है, न जगन्नाथ की अमृतलहरी और न यह कि गो, गीता और गायत्री के बाद मुक्ति का यदि कोई चौथा द्वार बचता है, तो वह है - गंगा !इसीलिए आज गंगा की पुकार है। मां की चीत्कार है। मां मरना चाहती है।
इच्छा मृत्यु को विवश करते हम
गंगा, सचमुच अब बहुत बेबस है; बीमार है....लाचार है। उत्तराखण्ड मां के मायके में ही उसका गला घोंट रहा है। गंगा के वेग को थामने वाले वनरूपी शिव केशों को काट रहा है। “कंकर कंकर में शंकर’’ रूपी पत्थरों के चुगान और सांस देने वाली रेत के खदान में ही सारा मुनाफा देख रहा है। उत्तर प्रदेश, गंगा के अमृत में विष घोल रहा है; कमेलों का खूनी कचरा बहाकर उसके फेफड़े सड़ा रहा है। उत्तर प्रदेश, गंगा के करोड़ों जीव और बहमूल्य वनस्पतियों का घोषित हत्यारा है। उत्तर प्रदेश गंगा के सीने पर बस्तियां बसाने की योजना-परियोजना निर्माण के व्याभिचार का भी दोषी है। बिहार,प्रदूषण के अलावा गंगा को किनारों को कटान से क्षत-विक्षत कर रहा है। झारखंड, धरती का अतिशोषण कर आर्सेनिक उपजा रहा है। प. बंगाल ने तो इसका नाम ही मिटा दिया है। इसे गंगा से हुगली बना दिया है। ससुराल सागर में पिया मिलन से पहले ही बैराज लगा दिया है। अब बताओ कि गंगा मरे न तो क्या करे?
गंगा इच्छा: जिलाओ या मार दो !
तो आओ! एक बार तो सुन लें गंगा की पुकार। या तो एकजुट होकर मां को दोबारा निर्मल, अविरल, सजल बना दें; ताकि मां भी रहे जीवित और हम भी; वरना रोज-रोज मारने से तो अच्छा है कि आओ! आज सब मिलकर मार ही डालें गंगा को एक बार! इसने असंख्य का उद्धार किया है। आइए! खोल दें मां की मुक्ति के भी द्वार! फिर ठाठ से मनाएं मां गंगा की बरसी हर बरस;...तब सरकार भी नवाज ही देगी मां गंगा को किसी ‘भारतरत्न’ से। हो जायेगी उसके कर्तव्यों की भी इतिश्री,मिट जायेगा झंझट,हो जायेगा काम तमाम; तब खूब गाना-जय श्री गंगानाम !!