गंगा रिपोर्ट - सहमति के बिंदु: असहमति का आधार

Submitted by Hindi on Mon, 04/22/2013 - 12:04

सहमति के बिंदु


यह चुनौती है, गंगा की अक्षुण्णता को बचाने की। गंगाजल की अक्षुण्णता का मतलब है यानी बरसों रखने के बाद भी खराब न होने का गुण। यह अक्षुण्णता ही गंगाजल की पहचान है। यह अक्षुण्णता ही गंगाजल का अमृत बनाती है। यह अक्षुण्णता ही वह गुण है, जो गंगा को दुनिया की और नदियों से अलग करता है। यह अक्षुण्णता ही है, जिसकी वजह से मृत्यु पूर्व दो बूंद गंगाजल की कामना आज भी हर हिंदू को होती है। आखिरकार कुंभ में जुटने वाले हर कुंभार्थी के लिए यह अक्षुण्णता ही तो महत्वपूर्ण है; वरना नदियां तो देश में और भी बहुत हैं। अंतरमंत्रालयी समूह की गंगा रिपोर्ट में कई बिंदु ऐसे हैं, जिनसे असहमत होना शायद ही किसी के लिए संभव हो। रिपोर्ट ने जरूरी जानकारी समय से उपलब्ध कराने के लिए केन्द्रीय स्तर पर गंगा मिशन के निदेशक और आई आई टी संकाय तथा पर्यावरण मंत्रालय के अवर सचिव स्तर पर के बीच तालमेल और पाक्षिक समीक्षा की व्यवस्था सुझाई है। राज्यों के संबंधित कैबिनेट सचिवों को इसकी व्यवस्था बनाने को कहा है। रिपोर्ट कहती है कि प्रदूषण नियंत्रण हेतु जहां एक ओर उद्योगों को बाध्य किया जाए, वहीं संबंधित तकनीकी नवाचारों को अपनाने के लिए उन्हें आर्थिक मदद दी जाए। पर्यावरणीय मंत्रालयी कार्यालयी ज्ञापन के अनुसार नदियों मे अपना अवजल डालने वाली सभी इकाईयां अपने मुनाफ़े का एक हिस्सा पर्यावरणीय दायित्व पूर्ति पर खर्च करें। प्रदूषण नियंत्रण के विविध जैविक नवाचारों/प्रणालियों की निगरानी, प्रभावों की जांच तथा उन्हें प्रोत्साहन के लिए गंगा मिशन विशेष कार्यक्रम शुरू करे।

खासकर शहरी क्षेत्रों द्वारा कचरे को साफ करने के बाद जितना पानी जो राज्य गंगा में छोड़ता है, वह पक्का करें कि उस बिंदु पर उसका दस गुना ताज़ा पानी गंगा में हर वक्त रहे। मिशन राज्यों को दी जा रही राशि इस शर्त से साथ ही जारी करे कि राज्य ताजे पानी का उक्त मात्रा गंगा को मुहैया कराएंगे। नदी के पर्यावरण प्रवाह के बाद किस नदी से पास देने के लिए कितना पानी अतिरिक्त रहता है? इसका निर्धारण करके ही सरकारें खेती, उद्योग, पेयजल आदि के लिए आपूर्ति मात्रा तय करें। तय पर्यावरणीय प्रवाह की मात्रा और निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए खासकर गंगा के उत्तराखंड वाले हिस्से में कार्यरत और निर्माणाधीन जलविद्युत परियोजनाएं अपने में संशोधन करें। प्रस्तावित परियोजनाएं अपने डिज़ाइन आदि में बदलाव करें। सभी उपभोक्ताओं को बाध्य किया जाए कि वे उतना ही पानी लें, जितना नदी दे सकती है। उतना नहीं, जितना कि वे खींच सकते हैं।

असहमति का आधार


“गं अव्ययं गमयति इति गंगा” अर्थात जो स्वर्ग ले जाये, वह गंगा है। स्वर्ग जैसे अमरलोक में ले जाने वाली इस अ-मृत धारा के खुद के जीवन के समक्ष आज चुनौतियाँ कई हैं: गंगा का ‘राष्ट्रीय नदी’ का दर्जा बचाने की चुनौती, ज़मीन बचाने की चुनौती, प्रवाह की मात्रा व गुणवत्ता बचाने की चुनौती, इसके भीतर और किनारे रहने वाले जीव व वनस्पतियों का अस्तित्व बचाने की चुनौती तथा 45 प्रतिशत भारत की खेती-सेहत-आर्थिकी व रोज़गार को बचाने की चुनौती। सच कहूं तो इन सब चुनौतियों से बड़ी है उस पहचान को बचाने की चुनौती, जिसके लिए गंगा जानी जाती है; जिसकी वजह से कृष्ण ने कहा - “नदियों में मैं गंगा हूं’’; जिसकी वजह से अकबर, तुगलक से लेकर औरंगज़ेब तक ने गंगाजल को बेहद खास माना; ख्यातिनाम शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने कहा - “गंगा और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं।” यह चुनौती है, गंगा की अक्षुण्णता को बचाने की। गंगाजल की अक्षुण्णता का मतलब है यानी बरसों रखने के बाद भी खराब न होने का गुण। यह अक्षुण्णता ही गंगाजल की पहचान है। यह अक्षुण्णता ही गंगाजल का अमृत बनाती है। यह अक्षुण्णता ही वह गुण है, जो गंगा को दुनिया की और नदियों से अलग करता है। यह अक्षुण्णता ही है, जिसकी वजह से मृत्यु पूर्व दो बूंद गंगाजल की कामना आज भी हर हिंदू को होती है। आखिरकार कुंभ में जुटने वाले हर कुंभार्थी के लिए यह अक्षुण्णता ही तो महत्वपूर्ण है; वरना नदियां तो देश में और भी बहुत हैं। क्या गंगा को लेकर बने अंतरमंत्रालयी समूह की रिपोर्ट इस अक्षुण्णता को बचा पायेगी? यह एक ऐसा बुनियादी सवाल है, जिसके आधार पर रिपोर्ट को आप पास या फेल करार दे सकते हैं।