आजादी के पचास वर्षों में ग्रामीण अंचल की प्रगति की दिशा में भारत ने काफी लम्बा सफर तय कर लिया है परन्तु इस लम्बे सफर में जो सफलताएँ उसे मिली हैं उन पर सन्तोष ही किया जा सकता है, गर्व नहीं। लेखक का मानना है कि ग्रामीण विकास की गति तीव्र करने क लिये यह आवश्यक है कि विकास प्रयास गाँवों पर केन्द्रित हों और गाँववासियों की क्षमताओं को जाग्रत कर उनका भरपूर सहयोग भी इस कार्य में लिया जाए।
आजादी के बाद के पचास वर्षों में देश के ग्रामीण अंचल में हुई प्रगति का जब हम लेखा-जोखा करते हैं तो यह तथ्य बहुत स्पष्ट हो जाता है कि इस अवधि में भारत ने काफी लम्बा सफर तय किया है। एक स्वतन्त्र और लोकतन्त्र देश ने अर्द्धशताब्दी के इस काल में अपनी काया पलट ली है। 1947 और 1997 के भारतीय गाँवों की कहीं तुलना नहीं की जा सकती। ग्रामीण विकास के प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने इस दौरान जो उपलब्धियाँ अर्जित की हैं, वे किसी भी नागरिक के लिये गौरव की बात है। इन पचास वर्षों में हमने दासता, शोषण उत्पीड़न और अत्याचार के उस पूरे माहौल को ही बदल डाला है जिसके कारण हमारे गाँव और गाँववासी पिछड़े, दुखी, गरीब और उपेक्षित बने हुये थे। यद्यपि आज भी जो हालात हैं उनमें सन्तुष्ट होकर बैठा नहीं जा सकता; आज भी ग्रामीण विकास के मार्ग में अनेक बाधाएँ हैं, किन्तु आज हर ग्रामवासी के दिल में उमंग है, उसके सामने भविष्य है और मन में एक संकल्प है जिसे पूरा करने का लक्ष्य उसे सदा आगे बढ़ने को प्रेरित करता है। उसकी यही प्रेरणा सम्पूर्ण भारत को बल प्रदान करती है।आजादी के समय भारत की छवी एक ऐसे देश की थी जो धूल भरे, अलसाए, अधनंगे, बीमार और बेरोजगार लोगों के गाँवों का देश था। भारत की कल्पना करते समय ऐसे गरीब, पिछड़े और दबे हुये लोगों की छवि उभरती थी जो शताब्दियों पुरानी परम्पराओं और तरीकों से जीते थे, जिनके मन में अपना जीवन स्तर सुधारने की न उमंग थी, न पर्याप्त साधन। उजड़े खेत, सूखी नदियाँ, वर्षा के लिये आकाश की ओर निहारती आँखें, अधनंगे बच्चे और भूखी औरतें ही उस युग के भारतीय गाँवों की पहचान बन गये थे लेकिन अब गाँवों का रंग-रूप बदला है, उनका स्वरूप बदला है और उसकी पहचान भी बदल गई है। भारत के किसान अब देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और देश का औद्योगिक विकास सीधे तौर पर ग्रामीण विकास के साथ जुड़ा हुआ है। भारत का किसान अब देश की दरिद्रता और दीनता का परिचायक नहीं, देश की खुशहाली और समृद्धि का वाहक है। किसी भी अन्य देश के ग्रामीण परिवेश में इतना अन्तर नहीं आया है कि जितना भारत ने कर दिखाया है। फिर भी अभी हमें बहुत लम्बा रास्ता तय करना है।
भारत में ग्रामीण विकास का सबसे ज्वलंत उदाहरण अनाज के मामले में देश की आत्मनिर्भरता है। आजादी के समय देश की जनसंख्या लगभग 36 करोड़ थी लेकिन अनाज का कुल उत्पादन केवल पाँच करोड़ टन था। देशवासियों का पेट भरने के लिये हमें विदेशों से अनाज का आयात ही नहीं करना पड़ता था, उसके लिये दानी देशों के सामने हाथ भी फैलाने पड़ते थे। विदेशी अपना बचा-खुचा और सड़ा-गला अनाज हमें एहसान करके दे देते थे। भारत में खेती की पैदावार बढ़ाने, सिंचाई के साधन जुटाने, किसानों को उन्नत किस्म के बीज और उर्वरक उपलब्ध कराने की तरफ तब ध्यान ही नहीं जाता था। कृषि अनुसंधान तो बस नाम मात्र का ही था। लेकिन इतने बड़े देश, उसकी इतनी विशाल आबादी, उर्वरा भूमि, और वंश परम्परा से प्राप्त किसानों के अनुभव को गहरी ठेस तब लगी जब विदेशों ने हमें अनाज देना बंद कर दिया या वे उसके लिये तरह-तरह की शर्तें लगाने लगे। साठ के दशक के मध्य में पड़े भयंकर अकाल और पाकिस्तान की घुसपैठ तथा हमले ने भारत को इस बात के लिये प्रेरित किया कि वह अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बने।
किसानों ने चुनौती स्वीकारी
अनाज के मामले में आत्मनिर्भरता भारत के किसानों के लिये एक चुनौती थी, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। कृषि वैज्ञानिकों और कृषि संस्थाओं के सहयेाग से हमारे किसानों ने ‘हरित क्रान्ति’ और ‘श्वेत क्रान्ति’ जैसी उपलब्धियाँ अर्जित की। आजादी के समय हम 36 करोड़ जनता को भरपेट भोजन नहीं दे सकते थे। आज 96 करोड़ भारतीय जनता अपने देश के खेतों में उत्पन्न अनाज से भरपेट भोजन ही नहीं करती बल्कि हम अनाज का निर्यात करने में भी सक्षम हैं। भारत में अब 19 करोड़ टन अनाज का उत्पाद किया जाता है। इन पचास वर्षों में गेहूँ का उत्पादन दस गुना, चावल का चार गुना और तिलहन का साढ़े चार गुना बढ़ा है।
इन उपलब्धियों में देश में सिंचाई क्षमता के विस्तार, उन्नत बीजों के विकास और उर्वरकों की आपूर्ति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पहली पंचवर्षीय योजना के आरम्भ में देश में कुल बुवाई क्षेत्र 11 करोड़ 87 लाख हेक्टेयर था जिसमें से केवल दो करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र के लिये ही सिंचाई के पानी की सुविधा उपलब्ध थी। आज 14 करोड़ 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई होती है और उसमें से लगभग पाँच करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा दी जा रही है।
इसी प्रकार उर्वरकों की आपूर्ति में वृद्धि ने भी कृषि उत्पादन में भारी योगदान दिया है। 1950-51 में उर्वरक की खपत लगभग नगण्य थी। अगले दशक में भी यह केवल दो लाख टन थी। 1970-71 में यह 22 लाख टन, 1980-81 में 55 लाख टन और सातवीं योजना के अन्त में 125 लाख टन तक पहुँच गई। 1996-97 में 164 लाख टन उर्वरक की खपत हुई। इसका एक परिणाम यह हुआ कि आजादी के समय देश में दूध का उत्पादन जहाँ केवल एक करोड़ 70 लाख टन था, वहाँ 1995-96 में यह छह गुना बढ़ गया।
कृषि उत्पादन बढ़ाने में कृषि ऋण के बढ़ते प्रवाह और फसल बीमा योजना ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। आजादी के बाद अनेक वर्षों तक गाँव का किसान केवल इन्द्रदेव की कृपा और गाँव के साहूकार के एहसानों पर जिन्दा रहता था। अब उसे खेत में फसल उगाने का प्रबंध करने के लिये सरकारी बैंकों सहित विभिन्न संस्थाओं से ऋण मिल जाता है। उसकी फसल की सुरक्षा के लिये अब फसल बीमा भी किया जाता है। 1992-93 में कृषि ऋण के रूप में 15,169 करोड़ रुपये दिये गये थे और 1994-95 में यह मात्रा 24,849 करोड़ रुपये हो गई। प्रयास यह किया जा रहा है कि कृषि ऋण में प्रतिवर्ष 25 प्रतिशत की वृद्धि की जाए।
कृषि क्षेत्र की उत्पादकता में भी निरन्तर वृद्धि हो रही है। 1950-51 में प्रति हेक्टेयर अनाज का उत्पादन 552 किलोग्राम था। 1995-96 में यह बढ़कर 1499 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया। निम्नांकित तालिका से प्रमुख फसलों की उत्पादकता में हुई वृद्धि की स्पष्ट झाँकी मिलती हैः-
प्रमुख फसलों की प्रति हेक्टेयर उपज (किलोग्राम/हेक्टेयर) | ||||||
फसल | 1950-51 | 1960-61 | 1970-71 | 1980-81 | 1990-91 | 1995-96 |
अनाज | 552 | 710 | 872 | 1023 | 1380 | 1499 |
खाद्यान्न | - | 753 | 949 | 1142 | 1571 | 1727 |
चावल | 668 | 1013 | 1123 | 1336 | 1740 | 1855 |
गेहूँ | 655 | 851 | 1307 | 1630 | 2281 | 2493 |
ज्वार | 353 | 533 | 466 | 660 | 841 | 834 |
बाजरा | 288 | 286 | 622 | 458 | 658 | 575 |
दालें | - | 539 | 524 | 473 | 578 | 552 |
तिलहन | 481 | 507 | 579 | 532 | 771 | 851 |
गन्ना (टन/हेक्टेयर) | - | 46 | 48 | 58 | 65 | 68 |
कपास | 88 | 125 | 106 | 152 | 225 | 246 |
पटसन | 1044 | 1183 | 1186 | 1245 | 1833 | 1889 |
शहरों में लगे उद्योगों की तुलना में गाँवों में कृषि या उससे सम्बन्धित धन्धों पर पूँजी लगाना पहले घाटे का सौदा माना जाता था। कृषि क्षेत्र में आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराना केवल सरकार की जिममेदारी बन गई थी लेकिन जैसे-जैसे कृषि क्षेत्र अपनी क्षमता में वृद्धि करता गया और उद्योगों को उसकी उपयोगिता दिखाई देने लगी, कृषि में भी निजी पूँजी निवेश बढ़ता गया। सत्तर के दशक में कृषि में 28.6 प्रतिशत सार्वजनिक पूँजी और 71.4 प्रतिशत निजी पूँजी लगी थी। 1990-91 में निजी पूँजी की मात्रा बढ़कर 74.9 प्रतिशत और 1995-96 में 79.2 प्रतिशत हो गई।
गाँवों में पीने के पानी की समस्या आजादी के समय अत्यन्त विकराल रूप लिये हुये थी। तब कुछ ही गाँव थे जहाँ पीने का साफ पानी गाँव में ही या सुविधाजनक दूरी पर उपलब्ध था। हजारों गाँव ऐसे थे जहाँ कभी-कभी हुई वर्षा का एकत्र पानी महीनों तक काम में आता था। ग्रामीण विकास के लिये इस समस्या को अब काफी सीमा तक हल कर लिया गया है। गाँवों में पेयजल आपूर्ति के लिये एक अलग मिशन बनाया गया। इस समस्या को पहले जवाहर रोजगार योजना के अंग के रूप में हल किया गया और अब उसे बुनियादी न्यूनतम सुविधा मान कर इस शताब्दी के अन्त तक सभी गाँवों में पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये कदम उठाये जा रहे हैं। 1988-89 से 1996-97 तक की अवधि में इसके लिये चार हजार करोड़ रुपये के व्यय से 11 लाख दस हजार कुएँ खोदे जा चुके हैं।
गाँवों में पेयजल की समस्या का अध्ययन करने के लिये 1972, 1980 और 1985 तथा 1993 में कई सर्वे किये गये। उनके नवीनतम परिणाम के अनुसार अब भी 15 लाख से अधिक आवासों में पीने योग्य पानी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है। आजादी के समय से इस समस्या को काफी हद तक सुलझा लिया गया है।
आवास की समस्या
रोटी और कपड़े के बाद मकान की समस्या सबसे बड़ी समस्या है। आजादी के बाद के 25 वर्षों में इस समस्या को हल करने पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। विभाजन के समय भारत आये विस्थापितों को बसाने के लिये आवास बनाये गये लेकिन ये मुख्यतः शहरों में ही थे। 1957 में सामुदायिक विकास अभियान के दौरान ग्रामीण आवास योजना शुरू तो की गई लेकिन उसमें पाँचवीं योजना की समाप्ति यानी कि 1980 तक केवल 67 हजार मकान ही बनाये जा सके। भारत की कुल आबादी का 83 प्रतिशत गाँवों में रहता था और उसमें भी 70 प्रतिशत कच्ची झोपड़ियों में रहता था लेकिन उनकी दशा सुधारने को प्राथमिकता नहीं मिल पाई। अस्सी के दशक में ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लिये आवास निर्माण को एक साधन बनाया गया लेकिन उसके लिए कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया। बाद में अनुसूचित जाति के व्यक्तियों और श्रम की दासता से मुक्त हुये लोगों के लिये 1985 में इन्दिरा आवास योजना शुरू की गई। 1992-93 में इसे ग्रामीण आवास समस्या को हल करने वाली योजना के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इन्दिरा आवास योजना के अन्तर्गत 1985-86 से लेकर 1996-97 तक के ग्यारह वर्षों में पाँच हजार करोड़ रुपये की लागत से 37 लाख 15 हजार 725 मकानों का निर्माण किया गया। इस योजना की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें मकान बनाने के लिये स्थानीय रूप से उपलब्ध भवन निर्माण सामग्री और स्थानीय श्रमिकों या लाभभोगी व्यक्ति के परिवारजनों के श्रम के उपयोग पर बल दिया जाता है। इस योजना से ग्रामीण विकास कार्यक्रमों को नया बल मिला है।
पंचायती राज की स्थापना
ग्रामीण विकास को नई दिशा और नया नेतृत्व देने में पंचायती राज की स्थापना सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। पंचायत प्रणाली भारत की न्याय और शासन व्यवस्था की समयसिद्ध प्रणाली है लेकिन अनेक भागों में निहित स्वार्थों ने इसका स्वरूप विकृत कर दिया था। आजादी के बाद से ही देश में पंचायती राज की पुनर्स्थापना के लिये विभिन्न विकल्पों पर विचार किया जाता रहा लेकिन 1992 में संविधान के 73वें संशोधन ने देश में पंचायतीराज संस्थाओं के विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस संशोधन के बाद लगभग सभी राज्यों और केन्द्रशासित क्षेत्रों में पंचायतों के चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं और ग्रामीणों को अपने क्षेत्र की समस्याओं को हल करने के लिये कदम उठाने के अधिकार मिल गये हैं। ग्राम स्वराज की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है। संविधान संशोधन के बाद 2,26,108 पंचायतों का गाँव स्तर पर, 5736 पंचायतों का ब्लॉक स्तर पर और 457 पंचायतों का जिला स्तर पर गठन हो चुका है। इनमें कुल मिलाकर 34 लाख जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि अपने ग्रामीण क्षेत्र के विकास में योगदान दे रहे हैं। इनमें से गाँव पंचायतों में 31,98,554 प्रतिनिधि, ब्लॉक पंचायतों में 1,51,412 और जिला पंचायतों में 15,935 प्रतिनिधि चुने गये हैं। विश्व के अन्य किसी भी देश में इतनी बड़ी संख्या में जनता के सीधे चुने हुये प्रतिनिधि नहीं हैं।
पंचायतीराज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि अब इनके चुनाव नियमित रूप से होंगे। इन पंचायतों को स्थानीय स्वशासन के लिये आवश्यक वित्तीय अधिकार भी दिये गये हैं। इस प्रणाली की एक और विशेषता यह है कि इन पंचायतों में अनुसूचित जातियों-जनजातियों, आदिवासियों और महिलाओं के लिये आरक्षण की व्यवस्था भी कर दी गई है और इस प्रकार समाज के सभी वर्गों को अपने-अपने क्षेत्र के विकास में भागीदारी का पूर्ण अवसर प्रदान किया गया है।
समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम
ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिये उन क्षेत्रों में रोजगार के साधन उपलब्ध कराना और गरीबों के उत्थान के लिये ऐसी योजनाएँ चलाना जरूरी है जिनसे वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें। इसी उद्देश्य से 1980-81 से एक समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम आरम्भ किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत विविध प्रकार की परियोजनाएँ शुरू की जाती हैं जिनमें ग्राम सभाओं और पंचायतों की पूरी भागीदारी रहती है।
1980-81 से 1996-97 के दौरान पाँच करोड़ परिवारों को ग्रामीण विकास कार्यक्रम का लाभ मिल चुका है। योजना के आरम्भ से 9670 करोड़ रुपये ग्रामीणों को सब्सिडी के रूप में वितरित किये गये और सरकारी बैंकों से 18,378 करोड़ रुपये का ऋण दिया गया। जिन परिवारों ने इस योजना का लाभ उठाया है उनमें से 45 प्रतिशत अनुसूचित जाति/जनजाति के परिवार हैं। इस कार्यक्रम का लाभ उठाने वालों में 33 प्रतिशत से अधिक महिलाएँ हैं। इस कार्यक्रम के आरम्भ में 1980-81 में प्रति परिवार 1642 रुपये की सहायता दी गई थी। 1992-93 में यह सहायता राशि 7890 रुपये थी लेकिन 1996-97 में इसे बढ़ाकर 15 हजार रुपये कर दिया गया।
इस कार्यक्रम की सफलता का एक प्रमाण यह है कि 1992-93 में किये गये एक सर्वे के अनुसार जिन परिवारों को इस कार्यक्रम में सहायता दी गई उनमें से 54 प्रतिशत से अधिक ने उस समय की गरीबी-रेखा को, जो परिवार की वार्षिक आय 6400 रुपये पर निर्धारित थी, पार कर लिया था। बाद में गरीबी-रेखा 11,000 रुपये तय की गई और उसे केवल 16 प्रतिशत परिवार ही पार कर सके।
इस योजना के अन्तर्गत गाँव सभा ही उन लाभभोगी परिवारों का चयन करती है जिन्हें सहायता दी जानी है। इसमें किसी परियोजना की लागत के 50 प्रतिशत के बराबर या अधिकतम सवा लाख रुपये तक की सब्सिडी दी जाती है। यह मदद उन पाँच या अधिक व्यक्तियों के समूह को दी जाती है जिनके परिवार गरीबी-रेखा से नीचे रहते हैं।
इनके अतिरिक्त जवाहर रोजगार योजना, ट्राईसेम, रोजगार गारन्टी योजना, महिला एवं बाल विकास योजना, करीगरों के लिये औजार देने का कार्यक्रम, दुर्भिक्ष सम्भावित क्षेत्रों के विकास का कार्यक्रम, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता योजना, ग्रामीण स्वच्छता अभियान, परती भूमि के विकास का कार्यक्रम और भूमि सुधार जैसे अनेक कार्यक्रम और परियोजनाएँ ग्रामीण विकास के लिये चलाई जा रही है।
इन सब कार्यक्रमों का उद्देश्य भारत की ग्रामीण जनता के जीवन-स्तर में सुधार लाना, उनकी गरीबी मिटाना, उन्हें रोजगार और काम-धंधे का अवसर प्रदान करना और उनके जीवन में आने वाली कठिनाइयों का निवारण करना है। इस दृष्टि से ये कार्यक्रम और योजनाएँ प्रशंसनीय हैं। इन पर प्रतिवर्ष अरबों रुपया खर्च किया जा रहा है और इनका ग्रामीण जीवन पर असर भी दिखाई दे रहा है। लेकिन इस सबके बावजूद गम्भीर चिन्ता की बात यह है कि पिछले पचास वर्षों में इतने प्रयास करने और इतना धन खर्च करने के बाद भी ग्रामीण विकास को वह गति और दिशा नहीं मिल पाई है जिसकी अपेक्षा की गई थी।
सफर लम्बा है
देश की आजादी के समय हम जहाँ से चले थे, वहाँ से काफी आगे बढ़ आये हैं लेकिन अभी भी मंजिल बहुत दूर है और वहाँ तक पहुँचने के लिये हमें लम्बा सफर तय करना है। इस सफर में हमें जो सफलताएँ मिली हैं, उन पर हम सन्तोष तो कर सकते हैं परन्तु गर्व नहीं। इन सफलताओं और उपलब्धियों के साथ हमारे पैरों में कई काँटे भी चुभे हैं, बिवाइयाँ भी फटी हैं। आगे बढ़ने के साथ-साथ हमें उन काँटों को भी दूर करना होगा जो हमारे प्रगति पथ की बाधाएँ बनने लगे हैं।
ग्रामीण विकास की सबसे बड़ी बाधा अभी भी गरीबी-रेखा से नीचे रहने वाली आबादी है। यह आबादी कितनी है, इसके आँकड़ों के अनुमान से ही विकास की सारी योजनाएँ तैयार की जाती हैं और उन योजनाओं के लिये प्राथमिकता के क्रम से धन की व्यवस्था होती है। गरीबी का आधार किसी व्यक्ति की उस आय को बनाया गया है जिससे ग्रामीण इलाके में वह 2400 किलो कैलरी और शहरी इलाकों में 2100 किलो कैलरी अपने भोजन में ले सके। इस आधार पर 1973-74 के मूल्यों के अनुसार देश की 53 प्रतिशत जनता गरीबी की इस निर्धारित रेखा से नीचे रहती थी। 1987-88 में यह 29 प्रतिशत और 1993 में 17-18 प्रतिशत के बीच माना गया था। लेकिन गरीबी के निर्धारण के मानदण्ड में पाई गई विसंगतियों को दूर करने के बाद पाया गया कि अभी भी देश की 35 करोड़ से अधिक आबादी कंगाली की दशा में रह रही है। इनमें से 70 प्रतिशत लोग ग्रामीण इलाकों और छोटे कस्बों में रहते हैं। यह एक विडम्बना है कि आजादी के बाद पचास वर्षों के प्रयास, असंख्य योजनाओं और अरबों रुपयों के निवेश के बाद भी हम अपनी एक-तिहाई से अधिक आबादी को गरीबी के चंगुल से मुक्त नहीं कर पाये हैं।
ग्रामीण विकास की दूसरी बड़ी बाधा यह है कि जैसे-जैसे देश का औद्योगिक विकास हो रहा है वैसे-वैसे कृषि और सम्बद्ध कामों पर निर्भर रहने वालों की आबादी भी बढ़ती जा रही है। उद्योगों के विकास से यह उम्मीद की जाती थी कि उनमें इन अधिकांश लोगों को काम मिल जायेगा और खेती एवं उससे जुड़े कामों पर आश्रित लोगों की संख्या घट जायेगी। किन्तु आँकड़े इससे बिल्कुल विपरीत चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। उद्योगों में उत्पादन तो बढ़ रहा है लेकिन रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे। इसलिये बढ़ती आबादी का एक बड़ा भाग खेती पर ही निर्भर रहने को बाध्य है। आँकड़े बताते हैं कि 1971 और 1981 के बीच खेती से जुड़े लोगों की संख्या में सवा दो करोड़ की वृद्धि हुई थी लेकिन 1981 और 1991 के बीच यह वृद्धि 3.7 करोड़ की हो गई।
गाँवों पर आश्रित लोगों की संख्या बढ़ते जाने का एक और दुष्परिणाम खेतों की उत्पादकता पर दिखाई देने लगा है। आबादी की इस वृद्धि के कारण प्रतिव्यक्ति उपलब्ध कृषि योग्य भूमि कम हो रही है और औसत जोत का आकार छोटा होता जा रहा है। इससे प्रतिव्यक्ति जोते गये क्षेत्र में भी निरन्तर गिरावट आई है। लगभग 20 प्रतिशत जोतों का आकार 1.4 हेक्टेयर के लगभग है जबकि 60 प्रतिशत से अधिक जोत 0.4 हेक्टेयर से भी कम हैं। स्वाभाविक है कि जब जोत का आकार इतना छोटा होगा तो उसकी उत्पादकता भी प्रभावित होगी और कुल उत्पादन भी कम होगा। यह दुष्परिणाम फिलहाल कृषि की विकास दर में लगभग ठहराव के रूप में सामने आया है लेकिन इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता कि आने वाले वर्षों में उसमें गिरावट आ सकती है।
ग्रामीण जीवन की एक बड़ी विषमता आवासों की भारी कमी के रूप में दिखाई देती है। 1991 की जनगणना के अनुसार देहाती क्षेत्रों में दो करोड़ से अधिक मकानों की कमी थी। बेघरों की संख्या बढ़ कर अब लगभग तीन करोड़ हो गई। इन्दिरा आवास योजना के नाम पर मकान बनाने के लिये जो ऋण दिया जाता है वह इतना कम है कि उससे कच्चे मकान तक नहीं बन सकते और वे भी तेज वर्षा में ढह जाते हैं। इस प्रकार एक तरफ हजारों-करोड़ों रुपये खर्च होते हैं और दूसरी ओर वही समस्या पहले से भी अधिक विकराल रूप धारण करती जाती है।
मूल समस्या यह है कि आजादी के तत्काल बाद हमने तीव्र विकास की अपनी लालसा में भारी उद्योगों और शहरी सुविधाओं के विकास पर सारा ध्यान केन्द्रित किया और गाँवों की पूरी तरह उपेक्षा कर दी। औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने के उपाय तो किये गये लेकिन इस बात को भुला दिया गया कि अगर गाँव सम्पन्न नहीं होंगे तो उद्योगों के लिये कच्चा माल कहाँ से मिलेगा और तैयार माल को खरीदेगा कौन? इसी भूल का नतीजा है कि कुछ-कुछ समय बाद उद्योगों में मन्दी का दौर आता रहा है लेकिन मूल कारण पर जाने के बजाए हम ऊपरी और तात्कालिक उपायों से समस्या को सुलझाते रहे हैं।
ग्रामीण विकास भारत जैसे विशाल देश की पहली आवश्यकता है। शहरों और उद्योगों के हित में भी यही है कि गाँवों में समृद्धि आये तथा वहाँ के लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, परिवहन और व्यापार आदि की सभी सुविधाएँ मिलें। शहरों की समृद्धि गाँवों की खुशहाली से जुड़ी है लेकिन यह समृद्धि वास्तविक हो, कागजी नहीं। दावा तो यह किया जाता है कि 87 प्रतिशत गाँवों में विद्युतीकरण कर दिया गया है लेकिन वास्तविकता यह है कि अगर गाँव में बिजली के खम्भे और तार लग भी गए हैं तो बिजली उत्पादन में कमी के कारण उन खम्भों पर लगे बल्ब नहीं जलते।
ऐसा लगता है कि अपनी गलत प्राथमिकताओं के कारण हम विकास की विपरीत दिशा में चल पड़े हैं। इसलिये ग्रामीण विकास के नाम पर बहुत कुछ होते हुये भी कुछ होता दिखाई नहीं देता। अब भी समय है कि हम अपनी मूल आवश्यकता को पहचानें और गाँवों से विकास का आरम्भ करें। गाँवों की जनता निरक्षर हो सकती है परन्तु वह नासमझ नहीं है। वह सारे देश में उत्साह की नई लहर पैदा करने में सक्षम है। हम उसकी क्षमता को जगाएँ, सच्चा ग्रामीण विकास वही होगा।
(लेखक: ‘हिन्दुस्तान’ समाचार-पत्र में विशेष संवाददाता हैं।)